3 मई 2013

क्रोध, मान, माया, लोभ.......

पिछली पोस्ट “चार शत्रुओं की पहचान !!” पर आप सभी के शानदार अभिमत मिले. सभी विद्वान मित्रों ने हमारे व्यक्तित्व के शत्रुओं की लगभग यथार्थ पहचान की.

व्यक्तित्व के वह चार शत्रु, मन के चार कषाय भाव है. यथा- क्रोध, मान (मद, अहंकार), माया (छद्म व्यवहार कपट), लोभ (लालच तृष्णा)

काम वस्तुत: उसके विकृत स्वरूप में ही दूषण है. यह अपने सामान्य स्वरूप में विकार नहीं है. एक ब्रह्मचारी के लिए तो काम हर दशा में अनादेय है वहीं, जो एक साथी से वचन बद्ध है या व्रतधारी है, उनके लिए मर्यादित स्वरूप में स्वीकार्य है. वैसे भी काम के प्रति जनसामान्य में सहानुभूति है :) मात्र विकृत स्वरूप से ही वितृष्णा है. अतः इसे सर्वसामान्य कथन के रूप में, व्यक्तित्व का शत्रु नहीं माना जा सकता. तथापि कामविकार को तृष्णा अर्थात लोभ में परिगणित तो माना जाता ही है.

प्रत्येक आत्म के साथ मोह का प्रगाढ बंधन होता है. और ये चार कषाय, मोह से ही सक्रीय होते है. मोह के दो स्वरूप है राग और द्वेष. मोह से ही मन के अनुकूल स्थिति 'राग' है और मोह से ही मन के प्रतिकूल स्थिति 'द्वेष' है. इन चार कषायों में दो 'राग' प्रेरित है और दो 'द्वेष' प्रेरित. माया और लोभ राग प्रेरित है तो क्रोध व मान द्वेष प्रेरित. ‘मोह’ से इतना स्रोत सम्बंध होने के उपरांत भी 'मोह' इन शत्रुओं का पोषक तो है किंतु सीधा दूषण नहीं है. इसलिए व्यक्तित्व के शत्रुओं के रूप में क्रोध, अहंकार, कपट और लोभ को चिन्हित किया जा सकता है.

निसंदेह अहंकार इन चारों में अधिक प्रभावशाली और दुर्जेय है. किंतु यदि मात्र अहंकार को लक्ष कर, उसे ही साधा जाय और शेष तीनो को खुला छोड दिया जाय तो वे अहंकार को सधने नहीं देते. वस्तुतः यह चारों कषाय एक दूसरे पर निर्भर और एक दूसरे के सहयोगी होने के बाद भी अपने आप में स्वतंत्र दूषण है. इसलिए चारों पर समरूप नियंत्रण आवश्यक है. एक को प्रधानता और दूसरे के प्रति जरा सी लापरवाही, उस एक को साधने के लक्ष्य को सिद्ध होने नहीं देती. कह सकते है यह शत्रुओं का घेरा है, जिस शत्रु को कमजोर समझा जाएगा वह निश्चित ही पिछे से वार करेगा. :) चारों के साथ, समरूप संघर्ष आवश्यक है.

अब बात ईर्ष्या और आलस की तो ईर्ष्या ‘अहंकार’ का ही प्यादा है और आलस ‘लोभ’ का प्यादा. यह दोनो भी, उन चार प्रमुख शत्रुओं के अधीनस्त ही है.

यदि हम गौर से देखेंगे तो स्पष्ट हो जाएगा कि क्रोध, घमण्ड, अविश्वसनीयता, और प्रलोभन हमारे व्यक्तित्व को असरदार बनने नहीं देते. और इन चारों के अधीस्त जो भी दूषण आते है वे भी सभी मिलकर हमें नैतिकता के प्रति टिकने नहीं देते.

ये सभी दूषण, कम या ज्यादा सभी में होते है किंतु इनकी बहुत ही मामूली सी उपस्थिति भी विकारों को प्रोत्साहित करने में समर्थ होती है. इसलिए इनको एक्ट में न आने देना, इन्हे निरंतर निस्क्रीय करते रहना या नियंत्रण स्थापित करना ही व्यक्तित्व के लिए लाभदायक है. यदि हमें अपनी नैतिक प्रतिबद्धता का विकास करना है तो हमें इन कषायों पर विजय हासिल करनी ही पडेगी. इन शत्रुओं से शांति समझौता करना (थोडा बहुत चलाना) निदान नहीं है. इन्हें बलहीन करना ही उपाय है. इनका दमन करना ही एकमात्र समाधान है.

अब आप इन चारों के अधीनस्त दुर्गुणों को उजागर करेंगे तो पोस्ट समृद्ध हो जाएगी....

आप ऐसा कोई संस्कार, सदाचार या नैतिक आचरण बताईए जो इन चारों कषायों को शिथिल किए बिना प्राप्त किया जा सकता है?

इस श्रेणी में अगली पोस्ट ‘क्रोध’ ‘मान’ ‘माया’ ‘लोभ’ प्रत्येक पर स्वतंत्र पोस्ट प्रस्तुत करने का प्रयास होगा.

इस शृंखला मे देखें क्रमशः
1-‘क्रोध’
2-‘मान’
3-‘माया’
4-‘लोभ’

76 टिप्‍पणियां:

  1. काम को लेकर आप ने तर्क से उसे विकार से स्वीकार बना दिया ' कल मैंने भी यही बात कही थी अति वाली

    क्रोध को लेकर भी मेरा यही मानना है इसे विकार के रूप में क्यों लिया जा रहा है यदि ये विकार है तो शिव से लेकर शक्ति तक सभी के अन्दर ये व्याप्त था, पुरुषोतम राम ने क्रोध में समुन्द्र तक को सुखाने की बात की और कृष्ण ने हथियार न उठाने का प्रण त्याग दिया क्रोध में , देवी के ९ शक्ति रूप क्रोध का ही रूप है तो क्या वो भी विकार ग्रस्त थे, यदि हा तो जिस विकार से भगवान भी ग्रस्त हो उसे विकार ही क्यों माना जाये उसे थोड़ी मात्र में होने पर स्वीकार क्यों न माना जाये जैसे की आप काम को मान रहे है । मेरा मानना है की यदि मनुष्य पञ्च तत्वों से बना है तो उसमे एक अग्नि भी है जो क्रोध का ही प्रतिनिधित्व करती है , अग्नि का होना संसार चलाने के लिए जरुरी था तभी उसका निर्माण हुआ नहीं तो मनुष्य उसके बिना भी रह सकता था , केवल ही शीतलता ( खाना पकाने का काम बर्फ ही कर देता , अग्नि की आवश्यकता है क्या थी हर काम बर्फ की शीतलता से ही होता ) क्रोध यदि सभी रूपों में विकार है तो एक सैनिक के लिए ये उसके काम में जोश पैदा करने के लिए जरुरी है बिना क्रोध वो दुश्मन से लड़ ही न पायेगा , तो क्या वो सभी विकार ग्रस्त है , क्रोध भी उतना ही प्राकृतिक है , ये भी मनुष्य की आवश्यता है उसकी अन्य प्रकृतियो में से एक , वैसे ही जैसे वो दुखी होता है खुश होता है वैसे ही गलत होने पर क्रोधित भी होता है , हा उसकी अति बुरी है बिलकुल वैसे ही जैसे आप ने कहा है की काम की अति बुरी ही काम अपने आप में बुरा नहीं है ।

    अनुरोध है की जवाब आम बोलचाल की भाषा में दीजियेगा जिससे हम जैसे आम लोग बात को ज्यादा अच्छे से समझ सके :)

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    1. कल आपने जो अति वाली बात कही थी उसमें 'ही' लगा हुआ था. यदि वहाँ 'भी' लगा होता तो ठीक होता. अर्थात क्रोध आदि में अति को भी बुरा स्वीकार करता हूँ. पर अति ही बुरी है पर विवाद है. क्रोध में अति का कोई पैमाना नहीं है. मात्र परिहास की तरह क्रोध दर्शाना भी कभी कभी बहुत ही बुरे परिणाम दे जाता है. जैसे हम ब्लॉगर मामूली चर्चा के दरमियान सहमति असहमति दर्शाते रहते है,असहमति में जरा सा अप्रत्यक्ष क्रोध आया कि मित्र प्रिय से अप्रिय बन जाता है. ऐसा मामूली सा क्रोध भी हमारी उदारता को खा जाने में समर्थ है तो थोडा भी अधिक क्रोध बुरे परिणाम न्यौत सकता है.

      जारी......

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    2. जैसे जरा सी कठिन भाषा भी हम आम लोगों के समझ के लिए मुश्किल हो जाती है वैसे ही महापुरूषॉ के 'क्रोध?'को समझ पाना कठिन है. फिर उनके क्रोध और हम आम लोगों के क्रोध की क्या तुलना? महापुरूष स्वयं ज्ञानी होते है वे उसकी आवश्यकता,संभावना,परिणामों को जानने वाले होते है अतः हम उसकी तुलना नहीं कर सकते. दूसरे उनका क्रोध क्रोध नहीं मन्यु होता है,विकार नहीं.

      दुनिया में अग्नि ने क्रोध को नहीं लाया, वस्तुतः क्रोध के ताप और स्व-पर को जलाने के लक्षण के कारण क्रोध को अग्नि से उपमित किया जाता है. इस दुनिया में अच्छी-बुरी चीजें, अच्छी-बुरी बातें विद्यमान है. किसी वस्तु का होना ही उसकी उत्तमता या उपादेयता सिद्ध नहीं करता. अपेक्षा बोध से ही उचित अनुचित में भेद किया जाता है.

      सैनिक क्रोध से नहीं लडता, वह समर्पण भाव से लडता है. उनमें जोश, समर्पण की प्रेरणा से पैदा किया जाता है. उलट प्रशिक्षक उन्हें धैर्य और सहनशीलता की शिक्षा देते है और क्रोध के आवेग से दूर रहने की सलाह देते है. ताकि वे मुश्किल घडी में भी धैर्य से सही निर्णय लेने में सक्षम रहे.

      जितने भी प्राकृतिक भाव आवेग आदि है उनमें भी अच्छे बुरे सभी है. उनमें उचित अनुचित का भेद करना ही पडता है और उसके बाद ही ग्रहणीय और त्याज्य का निर्णय लेना होता है.

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    3. ये बात कुछ ठीक नहीं लगी की महान या भगवान लोगो के सात खून माफ़ और हमारा खासना भी गुनाह , आप के अनुसार तो महान लोगो को तो और भी क्रोध नहीं करना चाहिए यदि वो क्रोध करे तो महान कैसे हुए , और ईश्वर का अर्थ होता है सभी विकारो से मुक्त , यदि क्रोध एक विकार है तो सभी के लिए है , फिर या तो क्रोध विकार नहीं है या क्रोध करने वाला ईश्वर के श्रेणी में नहीं आता है , क्या सैनिक बिना दुश्मन पर क्रोध के ही युद्ध लड़ लेता है उसे क्रोध खुद पर हावी न होने की सिख दी जाती है न की क्रोध न करने की , क्या अभी भारतीयों के मन में पकिस्तान और चीन के प्रति क्रोध नहीं आ रहा है क्या ये विकार है , क्या ऐसे में हम शीतलता की बात कर सकते है , हा हम ये कहेंगे की क्रोध में गलत कदम न उठाये किन्तु क्रोध ही न करे ये सम्भव नहीं है । जिस तरह क्रोध में असंतुलन की बात कर रहे है वही बात काम पर भी लागू होती है , एक पुरुष के लिए जो काम सामान्य है वही किसी स्त्री के लिए अति या ज्यादा हो सकती है उसका पैमाना कौन तय करेगा , फिर उसके लिए ये विकार न होने की छुट क्यों दी गई है ,

      @ वैसे भी काम के प्रति जनसामान्य में सहानुभूति है :) मात्र विकृत स्वरूप से ही वितृष्णा है. अतः इसे सर्वसामान्य कथन के रूप में, व्यक्तित्व का शत्रु नहीं माना जा सकता.

      मै कहना तो नहीं चाहती किन्तु ये पुरुषो की आवश्यकता को देखते हुए कहा गया लगता है , क्या किसी स्त्री की नजर से भी ये सही है , क्या इसे पुरुषवादी दीमाग न माना जाये ।

      नहीं मै यहाँ किसी वाद की बात नहीं कर रही हूँ मै बस ये कहना चाहती हूँ की जिस काम को आप स्वीकार्य बना रहे है उसके अति का पैमाना कौन तय करेगा , और वो कोई विकार नहीं है ये भी कौन तय करेगा ।

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    4. महापुरूषॉं का जो प्रथम दृष्टि क्रोध समझा जाता है वह "मन्यु" होता है, ऐसा मैंने पूर्व में ही स्पष्ट किया है.मन्यु को जानने केलिए श्री अनुराग शर्मा जी की यह बहुचर्चित पोस्ट देखिए * An Indian in Pittsburgh -क्रोध कमज़ोरी है, मन्यु शक्ति है - सारांश

      @ उसे क्रोध खुद पर हावी न होने की सिख दी जाती है न की क्रोध न करने की....
      -क्रोध का तो यह लक्षण ही है कि वह करते ही/आते ही हावी हो जाता है.

      क्रोध और काम की एक समान तुलना पूरी तरह से असंगत है. क्रोध हर दशा में बुरा परिणाम देने वाला है जबकि काम का परिणाम सभी दशा से बुरा नहीं है. स्वस्थ काम का पैमाना है, दो पक्षों में परस्पर अनुमति और आगे सहमति. यदि एक पुरुष के लिए वह सामान्य है वहीँ स्त्री के लिए अति तो वह स्वस्थ काम नहीं है, वह सहमति भी नहीं है अर्थात वह सामान्य है ही नहीं. इसके विकार होने से सहमत हूँ. स्वस्थ और सामान्य को ही विकार नहीं माना जाता. दोनो पक्ष की अनुमति ही पैमाना है. किंतु क्रोध में क्रोध करने वाले या क्रोध से प्रभावित होने वाले दोनो पक्षों की अनुमति या सहमति से क्रोध होता भी नहीँ.

      "काम के प्रति जनसामान्य में सहानुभूति" वाला वाक्य किसी भी दृष्टि से एक तरफा नहीं है. भले हमारे पास फिजिकल स्त्री नजर नहीं है सभी दृष्टि से देखा परखा तो जा ही सकता है.यदि आपको लगता है कि यह कथन पुरुषवादी दीमाग है तो क्या स्त्री नजर में विपरित सोच होगी? क्या इस वाक्यांश को उलट कर देखा जाय? क्या यह कहूँ कि पुरूष की नजर में सामान्य काम के प्रति सहानूभूति और विकृत स्वरूप के काम से वितृष्णा है. जबकि स्त्री की नजर में विकृत स्वरूप से सहानुभूति और सामन्य काम से वितृष्णा है? नहीं!! यह तो सरासर गलत होगा.

      परिणाम और दोनो प्रभावित पक्षों की स्वीकार्यता ही अति के साथ साथ उचित अनुचित का पैमाना है.

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    5. सुज्ञजी ..अंशुमाला जी ....वस्तुतः तथ्य वही है...परोपकार के हित ये सभी (तथाकथित शत्रु..), सभी के लिए,चाहे भगवान हों,देव हो या सामान्य मानव, शत्रु नहीं हैं वहीं स्वार्थ हेतु शत्रु हैं ....कहा जाता है .."आपत्तिकाले मर्यादा नास्ति"....
      ---वही परमार्थ हेतु मन्यु है स्वार्थ हेतु क्रोध है ....यह जीव मात्र के लिए सत्य है ..चाहे वह स्त्री हो या पुरुष ..
      ---- निश्चय ही काम क्रोध लोभ मद-मोह ...सभी के अन्दर व्याप्त रहता है, ये मानव-मात्र की वृत्तियाँ हैं ... बस इन्हें कंट्रोल में रखना होता है....निस्वार्थ..निष्काम दृष्टि से...

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    6. भगवान को छोड़ देती हूँ हमारे विचार उस विषय में बिलकुल भी मेल नहीं खाते है , कही मेरी बातो से किसी की भावनाए आहत न हो जाये :)

      @ क्रोध हर दशा में बुरा परिणाम देने वाला है

      बिलकुल भी नहीं क्रोध की भी अपनी समझ होती है , माँ बच्चो की बदमाशियों पर भी क्रोध करती है , और उन्हें उसके लिए दंड भी देती है , इसमे क्या गलत है , क्या इसका परिणाम गलत होता है , वहा अति बुरी है सामन्य दंड और क्रोध बच्चे के हित में है , जबकी अपराधियों और दुश्मनों के लिए अलग तरह का क्रोध होता है , जिसे आप विकार कह सकते है ,
      @ स्वस्थ काम का पैमाना है, दो पक्षों में परस्पर अनुमति और आगे सहमति.
      विवाह को काम की सहमती माना जाता है , समाज के अनुसार विवाह कैसा भी हो उसे सहमती माना जाता है , जबकि कानून के अनुसार १५ साल से कम आयु की पत्नी के सहमती का अर्थ नहीं है , अब विवाह में भी बलात्कार की बात कही जा रही है , कुछ तो बात है जो ये मांग उठ रही है कुछ तो बात है जो सहमती के अन्दर भी ठीक नहीं है , क्या स्त्री के जबरजस्ती किये गए विवाह को भी सहमती माना जाये , स्त्री की नजर में ना पुरुष की नजर में हां , पत्रकार असान्ज का किस्सा तो सूना होगा ही , सहमती माना किसे जाये इस का भी कोई पैमाना नहीं है ,
      @ क्रोध से प्रभावित होने वाले दोनो पक्षों की अनुमति या सहमति से क्रोध होता भी नहीँ.
      नहीं जब हमें पता होता है की गलती हमारी है और हमारी गलती पर ही सामने वाला क्रोध कर रहा है तो हम सभी उसकी सहमती देते है और कई बार सामने वाले की खरी खोटी भी चुप चाप सुनते है |
      @ क्या स्त्री नजर में विपरित सोच होगी?
      विपरीत सोच का कुछ विपरीत सा ही अर्थ लगा लिया आप ने इसका क्या जवाब दू |

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    7. आप जिस संतुलन असंतुलन की बात कर रहे है वो बात सिर्फ काम तक सिमित नहीं है गर्व और अहंकार को लेकर भी यही बात है , इस बात का पैमाना भी कौन तय करेगा की , क्या गर्व है और क्या अहंकार , जो बात मेरी नजर में मेरे लिए गर्व की हो सकती है वही किसी की नजर में मेरा अहंकार हो सकता है ,
      @ भले शोषण के बहाने हिंसा करे, अन्याय के बहाने हिंसा करे, किसी भी तरह शिकार करे या चाहे धर्म के बहाने हिंसा करे, हिंसको को मैँ हिंदु नहीं मानता. यह मेरा व्यक्तिगत अभिप्राय है और मेरा बस चले तो हिंसाचारियों को मैं भारतीय तक न मानूँ.क्योँकि अहिंसा भारतीय संस्कृति की महान परम्परा है.
      इसे गर्व करना कहूँ या अहंकार कहु आप बताइए , लोगो की अलग अलग राय हो सकती है , पैमाना कौन तय करेगा |

      जो बात मेरे जीवन का लक्ष्य हो सकता है जीने का कारण हो सकता है वही बात किसी को मेरा लालच दिख सकता है , मेरा विकास मेरी उन्नति मेरी मेहनत किसी को मेरा ज्यादा पाने का लालच दिख सकता है , मै किसी की उपलब्धि से प्रेरणा ले कर उससे आगे और बेहतर करने की सोच सकती हूँ वो किसी की लिए मेरी इर्ष्या जलन हो सकती है , इसका पैमाना कौन तय करेगा की क्या इर्ष्या , जलन है , और क्या बेहतर करने की इच्छा , क्या विकाश है आगे बढ़ने की सोच है और क्या लालच , किस बिंदु पर वह संतुलन है और किस बिंदु पर वह विकार बना जाता है | सब इंसानी स्वभाव है पूरी तरह से प्राकृतिक वो विकार नहीं है उनकी अति विकार है , और इस अति का भी कोई पैमाना नहीं है , सभी की अपनी परिभाषा है |

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    8. @ भगवान को छोड़ देती हूँ
      :) आभार आपका, मैं जानता हूँ 'विचार' क्यों मेल नहीं खाते :) मैंने भी जानबूझ कर 'भगवान' शब्द का प्रयोग नहीं किया :)

      जहाँ पैमाने की सम्भावना थी, काम के विषय में मैंने उल्लेख किया. मैंने जैन्युन अनुमति-सहमति की बात की थी. आप कहां विवाह व कानून की आंटी-घुटी वाली सहमति में ले गई, क्या आप यह मानती है कि जैन्युन सहमति का कोई अस्तित्व होता ही नहीं? अगर किसी भी सामान्य स्थिति को सहमति नहीं मानना है तो पैमाना होगा भी कैसे?

      जहां दूर दूर तक पैमाने की सम्भावना नहीं थी मैंने उन्ही विकारों को समग्र दशा से लिया है. मैंने सम्पूर्णता से लिया ही इसीलिए है कि सहज और अति में भेद कौन करेगा? और कैसे करेगा? क्योंकि यहाँ सामान्य और अति को निर्धारित करने का मानक ही नहीं है. अनुमान बुद्धि से किया भी जाय तो सबके अपने अपने तर्क अपने अपने स्वार्थी मानदंड होंगे. कोई क्रोध को जीवन लीलने तक या मनमर्जी हिंसा करने तक को अति नहीं कहेगा. और कोई सुधारने उद्देश से की गई मामूली सी क्रोधमय अवहेलना को तिरस्कार समझ जान दे बैठेगा तो उस मामूली क्रोध को भी अति कह दिया जाएगा.इसलिए जहां पैमाने है ही नहीं वहाँ छूट-छाट दुरपयोग का ही कारण बनेगी. इस पोस्ट का लक्ष्य है नैतिक जीवन-मूल्यों के प्रति निष्ठा स्थापित करना. अगर संकल्पों के स्तर पर ही छूटछाट हो तो कुछ भी सुधरने वाला नहीँ, क्योंकि छूटछाट ने ही आदर्शों का अवमूल्यन कर यह स्थिति निर्माण की है.

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    9. @महान
      या भगवान लोगो के सात खून माफ़ और
      हमारा खासना भी गुनाह अंशुमाला जी जब शुरू में आपने इस पर बात छेड़ी थी तभी मैं समझ गया था कि आपने पहले ही इसका गलत अर्थ लगा लिया है।और सुज्ञ जी भी जवाब में बिल्कुल विपरीत बात कह रहे थे।अतः वहाँ आप दोनों से मैंने असहमति में कमेंट किया।कौन कहता है कि ऐसे विचार मन में आ जाने भर से कोई गुनहगार हो जाता है?ये स्वाभाविक हो सकते हैं लेकिन विकार इसलिए कहा गया कि ये आप पर बहुत जल्दी हावी हो जाते है और तमाम अपराध इनके वशीभूत होकर ही होते हैं।भगवान में भी ऐसे विकार आ सकते हैं लेकिन वो इनके बुरे परिणामों को रोक सकते होंगे हम नहीं।बाकी भगवान पर मैं भी बात नहीं करना चाहता।आप आगे कुछ उदाहरण भी देती हैं कि कैसे तय किया जाए सहमति क्या है असहमति क्या है आदि।तो फिर ये कोई कैसे तय करेगा अति क्या है और क्या नहीं? इन विकारों से व्यक्ति को सावधान करने की बात कही गई है न कि ऐसे विचार मन में आने भर से किसको अपराधी मान लिया गया है।जो स्वाभाविक है वो होगा ही उसके लिए किसीको सिखाने की जरूरत नही कि क्रोध करना या कामवेग मे बहना जरूरी है जैसे बच्चा मिठाई खाएगा ही लेकिन उसे इसके नुकसान बताना जरूरी है ।

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    10. मुझे पहली बार ऐसा लग रहा है कि आपने सुज्ञ जी के जवाब में जितने भी उदाहरण दिए उनका यहाँ कोई संदर्भ ही नहीं था।पता नहीं आपने क्या सोचकर इनका उल्लेख किया बल्कि ये बातें तो आपके जवाब में खुद सुज्ञ जी को कहनी चाहिए थी।हाँ आपकी अपनी उन्नति की इच्छा और दूसरे की नजर में लालच वाला उदाहरण अच्छा लगा।बाकी से असहमति ।उन पर कहे बिना रहा नहीं जा पर यह काम सुज्ञ जी ही करें तो अच्छा रहेगा।

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    11. माफ कीजिएगा सुज्ञ जी,आपके और अंशुमाला जी के कमेंट्स् के बीच मेरी टिप्पणी ऐसे लग रही है जैसे मलमल की चादर पर टाट का पैबंद :)
      दरअसल जब मैं टिप्पणी टाईप कर रहा था उसी दौरान आपकी टिप्पणी प्रकाशित हो चुकी थी।क्या करें चर्चा इतनी रोचक हो उठी कि मैं भी अधीर हो उठा।
      हे भगवन क्या यह भी किसी विकार का लक्षण तो नहीं
      हा हा ...

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    12. @ भले शोषण के बहाने........महान परम्परा है.यह न गर्व है न अहंकार.... हां इसी विचारधारा के कईं लोगों को इस में अतिश्योक्ति दिखाई देती है और इसमें आए "हिंदु" शब्द पर लाल घेरा करने का मानस बनाए हुए है. लेकिन यह मेरा सटीक और सही अभिप्राय है. यह अविवादित है कि अहिंसा भारत की ही परम्परा है. और हिंसा के प्रति यहां किसी तरह का आदर नहीं है. अच्छाई बुराई के अस्तित्व की तरह, यहाँ हिंसा विद्यमान हो सकती है लेकिन उसे न पहले कभी सम्मान मिला था न अब मिल सकता है. इसी परिपेक्ष्य में मेरा यह कथन था.

      लगे हाथ स्पष्ट कर दूँ कि हिंदुत्व या धर्म का पुनरोत्थान या पुनःस्थापना मेरा उद्देश्य नहीं है. मेरा उद्देश्य है सदाचरण, अहिंसा, नैतिक-मूल्यों की पुनःस्थापना. इस कार्य में कोई भी धर्म किसी भी तरह का प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष सहयोग करता है तो उसके प्रति भरपूर आदर है.मैं तो मानता हूँ धर्म से सदाचारों की सीख लीजिए, लाभ उठाईए और यकिन मानिए धर्म उसी क्षण आपको अपने बंधनो से मुक्त कर देगा.

      "इस अति का भी कोई पैमाना नहीं है , सभी की अपनी परिभाषा है |" से पूर्णतया सहमत!!!!

      हटाएं
    13. राजन जी,

      आपका कमेंट कोई टाट का पैबंद नहीं, यह तो चादर अधिक न फट पडे, सावधानी वाला एम्ब्रायडरी वाला पैबंद है.:)

      @ बल्कि ये बातें तो आपके जवाब में खुद सुज्ञ जी को कहनी चाहिए थी।

      क्या फर्क पडता है, अच्छी बात आनी चाहिए, जहां कहीं से आए.
      इसी बहाने हमारी विचारधाराओं की गम्भीरता की परीक्षा भी तो हो जाती है.

      हटाएं


    14. @ मैंने जैन्युन अनुमति-सहमति की बात की थी.
      मैंने विवाह और कानून के साथ आसंज का उदहारण भी दिया था , आप किस जैन्युन की बात कर रहे है , बहला फुसला , डरा कर ली गई सहमती ,
      @ अगर किसी भी सामान्य स्थिति को सहमति नहीं मानना है तो पैमाना होगा भी कैसे?
      यही बात तो मै क्रोध के लिए भी कह रही हूँ , बहुत कुछ है आप ने कैसे कह दिया कि काम के विषय में संभावना है और बाकि के नहीं , आप ने मेरे उदहारण नहीं देखे , या शायद आप देखना नहीं चाहते है , आप ने भगवान को अलग कर दिया , फिर मेरे उदहारण पर भी कुछ नहीं कहा , आप के दिए उदहारण को आप ने अहंकार मानने से इनकार कर दिया क्योकि वो आप कि नजर में अहंकार नहीं था किन्तु दूसरो कि नजर में तो था ,
      @ मैंने सम्पूर्णता से लिया ही इसीलिए है कि सहज और अति में भेद कौन करेगा? और कैसे करेगा?
      वही करेगा जो काम को लेकर तो पैमाना बना रहा है एक सीमा रेखा खीच कर कहा रहा है कि यहाँ के बाद अति है उसके पहले काम विकार नहीं है , जिसे सारी दुनिया विकार कहती रही और आज उसे विकारो कि लिस्ट से बाहर निकाल दिया गया बड़ी सहजता से आपनी सहूलियत से किन्तु लोभ- विकास , क्रोध- नाराजगी , गर्व - अहंकार को लेकर वो कोई सीमा रेखा नहीं खीच रहा है उसके लिए सब के सब विकारो कि लिस्ट में आ गए है | काम के लिए भी आप के नजरिये से जो सही लगा वहा पैमाना बना दिया जहा नहीं लगा वह पैमाना बनाने से इंकार कर रहे है | इस तरह तो आप के विचारो को संतुलित कैसे माना जाये , क्यों न माना जाये कि ये सुज्ञ जी कि निजी राय है , निजी सोचना है , इसे ही नैतिक और सही क्यों माने और क्यों सभी को इसे ही नैतिक सिद्धांत मान कर इस पर चलने कि बात सोची जाये , क्यों माने कि यदि नैतिकता है तो यही है और इसके इतर कुछ भी नहीं |

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    15. मेरी टिपण्णी को व्यक्तिगत नहीं लीजियेगा अक्सर कहा जाता है कि ऐसी बहसों का अंत व्यक्तिगत आरोपों प्रत्यारोपो पर ख़त्म होता है चुकी बात आप से हो रही है इसलिए संबोधन मात्र आप के लिए है , सवाल या आरोप ( जो आप माने) उन सभी के लिए है जो नैतिकता के इतने ऊँचे मानदंड रखते है की आम आदमी न चाहते हुए भी नैतिकता जैसी बातो से दूर हो जाता है , नैतिकता की ऐसी बाते करने वाली नैतिकता को इतना दुरूह बना देते है की व्यक्ति उनके पास भी आने से डरता है ये सभी बाते अत्यंत ही अव्यवहारिक होते है , बिलकुल ऐसे ही जैसे साधू संत बैठ कर सांसारिक गृहस्थ लोगो को नैतिकता के पाठ पढ़ाते है , जो उनके नजरिये से होता है व्यवहारिक बिलकुल भी नहीं , नतीजा सांसारिक आदमी सोच बैठता है की भाई ये बाते तो साधू संतो के लिए ही ठीक है वो ही कर सकते है हम जैसे के लिए है ही नहीं , और बड़ा निश्चिन्त हो कर कहता है की हम तो सांसारिक लोग है |
      बिटिया तैरना सिख रही है , जब उनका कोच पुल के दुसरे किनारे पर खड़ा हो कर कहता रहा की कूदो और तैर कर आ जाओ, वो इनकार करती रही क्योकि लक्ष्य इतना कठिन था की उसके लिए सम्भव नहीं था , वो देख कर ही डर गई तैरना तो दूर रहा वो कूदने को भी तैयार नहीं हुई फिर मैंने कहा की कोच आप उसके नजदीक जा कर कहे की बस इतने पास आओ और फिर उससे दूर होते जाये तब तो उसकी हिम्मत बनेगी क्योकि लक्ष्य छोटा होगा | आम इंसान के लिए भी यही बात है , आज दुनिया इतना आगे निकल चुकी है की आप एक बार में उसे पलटने की बात नहीं कर सकते है , ये बिलकू वैसा ही है की जैसे अमावस्या के दुसरे दिन आप कहे की बहुत अँधेरा हो चूका अब तो सीधे पूर्णिमा आ जानी चाहिए , जो सम्भव नहीं है जिस तरह चंद धीरे धीरे आधा हुआ है वैसे ही धीरे धीरे पूरा भी होगा , आम लोगो का नैतिक पतन बहुत ज्यादा हो चुका है रहन सहन, सोच खाना पान बहुत ज्यादा बदल चूका है , ये स्थिति बदल नहीं सकती है आप इसमे थोडा सुधार कर सकते है जहा जहा खराबी ज्यादा है , आप कलयुग को द्वापर त्रेता बनाने का प्रयास कर रहे है | नतीजा कोई परिवर्तन नहीं होगा कोई बदलाव नहीं होगा जो जैसा है वैसा ही रहेगा | नैतिकता, ईमानदारी , अच्छी सोच आदि आदि आदि की परिभाषा समय युग के साथ बदलती है उसे स्वीकार करना चाहिए ये गलत बात है की सम्पूर्णता ही सब कुछ है अधूरापन कुछ भी नहीं , जब हम छोटी छोटी नैतिक बातो की बात करेंगे बदलाव तभी संभव है वरना आधी छोड़ पूरी को धावे आदि मिले न पूरी पावे , अंत में हम खाली हाथ होंगे , ये सब बाते केवल ब्लॉग पर और प्रवचनों में मात्र सुनाने के लिए होंगे और सिर्फ ये कहने के लिए की "आप बहुत सही कह रहे है " " आप बड़ी अच्छी बाते कहते है " " हा हा समाज का बड़ा नैतिक पतन हो गया है " आदि आदि , टिप्पणिया मिलेगी कोई बदलाव संभव नहीं है |
      ज्यादा तो हमेसा मै कहती हूँ ,लेकिन कुछ व्यक्तिगत कह दिया हो तो क्षमा कीजिएगा , मेरा नजरिया या सोच ऐसी नहीं थी | समाप्त

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    16. मेरी टिपण्णी को व्यक्तिगत नहीं लीजियेगा अक्सर कहा जाता है कि ऐसी बहसों का अंत व्यक्तिगत आरोपों प्रत्यारोपो पर ख़त्म होता है चुकी बात आप से हो रही है इसलिए संबोधन मात्र आप के लिए है , सवाल या आरोप ( जो आप माने) उन सभी के लिए है जो नैतिकता के इतने ऊँचे मानदंड रखते है की आम आदमी न चाहते हुए भी नैतिकता जैसी बातो से दूर हो जाता है , नैतिकता की ऐसी बाते करने वाली नैतिकता को इतना दुरूह बना देते है की व्यक्ति उनके पास भी आने से डरता है ये सभी बाते अत्यंत ही अव्यवहारिक होते है , बिलकुल ऐसे ही जैसे साधू संत बैठ कर सांसारिक गृहस्थ लोगो को नैतिकता के पाठ पढ़ाते है , जो उनके नजरिये से होता है व्यवहारिक बिलकुल भी नहीं , नतीजा सांसारिक आदमी सोच बैठता है की भाई ये बाते तो साधू संतो के लिए ही ठीक है वो ही कर सकते है हम जैसे के लिए है ही नहीं , और बड़ा निश्चिन्त हो कर कहता है की हम तो सांसारिक लोग है |
      बिटिया तैरना सिख रही है , जब उनका कोच पुल के दुसरे किनारे पर खड़ा हो कर कहता रहा की कूदो और तैर कर आ जाओ, वो इनकार करती रही क्योकि लक्ष्य इतना कठिन था की उसके लिए सम्भव नहीं था , वो देख कर ही डर गई तैरना तो दूर रहा वो कूदने को भी तैयार नहीं हुई फिर मैंने कहा की कोच आप उसके नजदीक जा कर कहे की बस इतने पास आओ और फिर उससे दूर होते जाये तब तो उसकी हिम्मत बनेगी क्योकि लक्ष्य छोटा होगा | आम इंसान के लिए भी यही बात है , आज दुनिया इतना आगे निकल चुकी है की आप एक बार में उसे पलटने की बात नहीं कर सकते है , ये बिलकू वैसा ही है की जैसे अमावस्या के दुसरे दिन आप कहे की बहुत अँधेरा हो चूका अब तो सीधे पूर्णिमा आ जानी चाहिए , जो सम्भव नहीं है जिस तरह चंद धीरे धीरे आधा हुआ है वैसे ही धीरे धीरे पूरा भी होगा , आम लोगो का नैतिक पतन बहुत ज्यादा हो चुका है रहन सहन, सोच खाना पान बहुत ज्यादा बदल चूका है , ये स्थिति बदल नहीं सकती है आप इसमे थोडा सुधार कर सकते है जहा जहा खराबी ज्यादा है , आप कलयुग को द्वापर त्रेता बनाने का प्रयास कर रहे है | नतीजा कोई परिवर्तन नहीं होगा कोई बदलाव नहीं होगा जो जैसा है वैसा ही रहेगा | नैतिकता, ईमानदारी , अच्छी सोच आदि आदि आदि की परिभाषा समय युग के साथ बदलती है उसे स्वीकार करना चाहिए ये गलत बात है की सम्पूर्णता ही सब कुछ है अधूरापन कुछ भी नहीं , जब हम छोटी छोटी नैतिक बातो की बात करेंगे बदलाव तभी संभव है वरना आधी छोड़ पूरी को धावे आदि मिले न पूरी पावे , अंत में हम खाली हाथ होंगे , ये सब बाते केवल ब्लॉग पर और प्रवचनों में मात्र सुनाने के लिए होंगे और सिर्फ ये कहने के लिए की "आप बहुत सही कह रहे है " " आप बड़ी अच्छी बाते कहते है " " हा हा समाज का बड़ा नैतिक पतन हो गया है " आदि आदि , टिप्पणिया मिलेगी कोई बदलाव संभव नहीं है |
      ज्यादा तो हमेसा मै कहती हूँ ,लेकिन कुछ व्यक्तिगत कह दिया हो तो क्षमा कीजिएगा , मेरा नजरिया या सोच ऐसी नहीं थी | समाप्त :)

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    17. राजन जी
      कुछ भी समझ नहीं पाएंगे यदि सोच ये होगी की दो विद्वान जन शास्त्रार्थ कर रहे है , एक आम आदमी सवाल कर रहा है और उसका जवाब दिया जा रहा है सोच ये होगी तो न कोई सवाल बचकाने लगेंगे और न उदहारण हलके :)

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    18. अंशुमाला जी,फिर आपने विरोधाभासी उदाहरण दिया ।स्विमिंग पूल और बच्ची।यही तो कहा जा रहा है कि शुरुआत छोटी छोटी चीजों से ही की जाए ताकि किसी समस्या के गंभीर परिणामों को रोका जा सके और यह काम समय रहते किया जाए नहीं तो बहुत देर हो जाएगी।उदाहरण के लिए क्रोध पर हम प्रारंभ में ही लगाम लगाने की कोशिश करें तो यह बडी समस्या नहीं खड़ी करेगा।महिलाओं पर अत्याचार के बारे में केवल बलात्कार हत्या मारपीट आदि को रोकने की बात नहीं होती ये भी तो बताया जाता है कि ये सब हो क्यों रहा है ।महिलाओं के बारे में पुरष की सोच या कई छोटी छोटी गलत सोचों का समुच्चय ।उन पर ही बात नहीं करेंगें तो फायदा नहीं ।हाँ इस बात से सहमत हूँ कि ये बातें प्रवचन जैसी लगती हैं लेकिन क्या करें जो सच है वह तो रहेगा ही।अब ये मापदण्ड कठिन है या नहीं पता नहीं लेकिन शुरुआती तो यही है।

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    19. अंशुमाला जी,मैंने अपनी तुलना आप दोनों से इसलिए की क्योंकि इस तरह बातों को सलीके से रखना मुझे नहीं आता कई बार टिप्पणी टाईप करते हुए ये ही भूल जाता हूँ कि क्या कहना था।बात तो आम आदमी की ही हो रही है इसीलिए बीच में बोल भी रहा हूँ।आपके उदाहरण तथ्य के रूप में सही है लेकिन वो आपकी दलीलों को कमजोर कर रहे हैं ऐसा मुझे लगा।

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    20. अंशुमाला जी,

      @ आप किस जैन्युन की बात कर रहे है , बहला फुसला , डरा कर ली गई सहमती

      अर्थात आप किसी भी तरह की जैन्युन सहमति के होने या अस्तित्व में ही होने से साफ साफ इनकार कर रही है. इसका साफ अर्थ यह है कि सहजीवन में सहमति जैसा कुछ भी नहीं होता. उसका भावार्थ यह है कि संसार में जो भी सहमति वाला काम है वह सब विवाह अनुबंध से थोपा हुआ, कानून से एक तरफा अनुमति पाया हुआ, और शेष बहला फुसला , डरा कर ली गई सहमती वाला ही काम है. यानि समाज में जो भी काम व्याप्त है वह सभी तो बलात्कार है या यौनशोषण. आपकी नजर में काम हर दशा में विकार ही है. उसमें स्वीकार्य या अवीकार्य के पैमाने का कोई पडाव नहीं है.(यह आपका मानना है.)
      ठीक है इसे आपके एक दृष्टिकोण की तरह स्वीकार करता हूँ. आपकी निजी विचारधारा.जिससे सभी का सहमत होना अनिवार्य नहीं है.
      कोई विचारक जब विचार प्रस्तुत करता है,प्राप्त जानकारियों संदर्भों से विकसित हुआ उसका अपना निजी दृष्टिकोण ही होता है.बेशक शास्त्रीय ज्ञान का आधार भी लिया जाता है किंतु प्रस्तुति की अपेक्षा से यह प्रस्थापना मेरी निजी राय ही है. इसलिए बिलकुल यह माना जाये कि ये सुज्ञ जी कि निजी राय है , निजी सोचना है , कोई जरूरी नहीं इसे ही नैतिक सिद्धांत मान कर इस पर चलने कि बात सोची जाये.
      मैं स्पष्ट्ता से कहता हूँ यह मेरी धारणा है,कुछ विचार आपके समक्ष रखे है,इतना ही.

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    21. अंशुमाला जी,

      अव्वल तो इस तरह की मंथन चर्चाओं में व्यक्तिगत जैसा कुछ नहीं होता.किसी संदर्भ से व्यक्तिगत विचार या वाक्य को कोट करना भी पडे तो मैं उसमें कुछ भी बुरा नहीं मानता. विरोधाभासी व्यक्तित्व को उजागर करना भी आवश्यक सा है. इसलिए इस सामान्य सी बात पर क्षमा की कोई बात नहीं है.

      आपकी धीरे धीरे वाली थ्योरी को तो मान सकते है पर थोडा थोडा या टुकडे टुकडे वाली थ्योरी से सहमत नहीं. आपके निजी विचार की तरह इसे स्वीकार करने में हर्ज नहीं है. इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि सभी को अपनी क्षमता और शक्ति अनुसार नैतिक मूल्यों की ओर गति करनी चाहिए, बस गति न केवल उत्कृष्ट्ता की ओर बल्कि अनिवार्यता से होनी चाहिए. चिंतक कहते है कि लक्ष्य बडा रखो. माननीय कलाम साहब कहा करते थे कि सपने देखो तो बडे देखो. लाखों खण्डित टुकडे मिलकर भी कभी एक अखण्ड हीरा नहीं बन सकते. बहुमूल्य अखण्ड मोती होता है, खण्डित मोती किस काम का? कानून नियम परफेक्ट ही निर्धारित किए जाते है उसमें छिद्र रखना कानून को ही न रखने के समान है. अतः नैतिकता के मानक तो अखण्ड और परफेक्ट होने चाहिए,हां पालन कर्ता अपने सामर्थ्य और शक्ति अनुसार प्रगति कर सकते है.शरूआतें छोटी छोटी हो सकती है, उन्नति मार्ग के पडाव असंख्य हो सकते है. लेकिन लक्ष्य तो सर्वोत्तम और सर्वश्रेष्ठ होना चाहिए.

      कोच का लक्ष्य तो उसे आत्मविश्वास से पूरा पुल एक से दुसरे किनारे तैरना सिखाना है, वह दूरी फिक्स है और अंततः वहाँ जाना ही है. अब वह थोडी थोडी दूरी के टार्गेट बनाता भी है तो वे पडाव मात्र है उस परफेक्ट लक्ष्य के मध्यांतर.

      @ ये सब बाते केवल ब्लॉग पर और प्रवचनों में मात्र सुनाने के लिए होंगे और सिर्फ ये कहने के लिए की "आप बहुत सही कह रहे है " " आप बड़ी अच्छी बाते कहते है " " हा हा समाज का बड़ा नैतिक पतन हो गया है " आदि आदि , टिप्पणिया मिलेगी कोई बदलाव संभव नहीं है |

      बदलाव न आने के लिए आप मेरे प्रयासों को चुनौति दे सकती है, उपदेश,प्रवचन सीख,उत्साह या प्रोत्साहन को चुनौति अवश्य दें लेकिन पाठकों की बुद्धिमत्ता और सकारात्मकता पर प्रश्नचिन्ह लगाना अच्छी बात नहीं है.

      मैं तो बस वही प्रयास कर रहा हूँ जो मुझे मेरी नजर में उपयुक्त लगते है, दुराग्रह नहीं है. जानता हूँ राह कठिन है लेकिन देखा है लेखन व विचारों के प्रसार से मानसिकता में परिवर्तन हुए है तो यह प्रयास करने में हर्ज ही क्या है. वैसे भी ब्लॉगिंग में यह न करते तो मनमौज का लेखन करते, दैनिक कार्यों के संस्मरण लिखते, ऐसे में एक अलग दिशा खोलने में कहाँ बुरा है. बाधाएं तो आती रहती है और निरूत्साह भी मिलता है.पर कुछ ना होने से कुछ का होना बेहतर है.

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    22. सुज्ञ जी
      मैंने तो समाप्त लिख दिया था ताकि आप को अगली कड़ी लिखने में बाधा न हो और बेकार में यहाँ समय व्यर्थ न करनी पड़े किन्तु आप ने ऐसी बात लिख दी की एक और आखरी लाइन लिखने के लिए मजबूर होना पड़ा :)
      @ अर्थात आप किसी भी तरह की जैन्युन सहमति के होने या अस्तित्व में ही होने से साफ साफ इनकार कर रही है. इसका साफ अर्थ यह है कि सहजीवन में सहमति जैसा कुछ भी नहीं होता.
      नहीं मै ऐसा नहीं कह रही हूँ , मै कह रही हूँ की जैसे जैन्युन सहमति होने पर काम विकार नहीं है वैसे ही जैन्युन सहमति और वाजिब कारण होने पर क्रोध को भी विकार न माना जाये , उदाहर मैंने ऊपर दिए है अपनी गलती होने पे सामने वाले की खरी खोटी चुप चाप सुनना जैन्युन सहमति है और ऐसे में काम की तरह क्रोध भी विकार नहीं है , और कृष्ण हो या हमारा बच्चा उनकी शरारतो पर हर यशोदा का क्रोध भी वाजिब है , वो विकार नहीं | जो तर्क आप काम को विकार न होने का दे रहे है वही तर्क मै क्रोध के विकार न होने का दे रही हूँ |

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    23. आपने जो कुछ भी कहना था,कहकर समाप्त लिख दिया था वो वस्तुतः एक तरफा हो गया था. प्रत्युत्तर और स्पष्टता आवश्यक थी. अच्छा हुआ 'सहमति' पर आपकी बात को जो भी समझा जा रहा था, साफ करने का अवसर भी मिल गया. अतः यहां सहमति बनी कि 'काम' विषय पर विकार और निर्विकार दो श्रेणियाँ या प्रकार है. और दोनो के बीच की सीमारेखा सुनिश्चित की जा सकती है. हम एक एक कर विभेद को मिटाते है. पहले काम के मुद्दे पर हमारी एक राय है.

      अब आते है दूसरे मुद्दे पर कि ऐसा ही क्लासीफिकेश्न उन क्रोध,मान,माया,लोभ में क्यों नहीँ.........? इनमें भेद या प्रकार नहीं है. आप भेद के लिए जिन भावों का उल्लेख कर रही है जैसे - (लोभ- विकास , क्रोध- नाराजगी , गर्व - अहंकार) नाराजगी या नापसंद/अरूचि, गर्व/अहोभाव, प्रतिस्पर्धा/विकास, आदि इनसे भिन्न और स्वतंत्र भाव है. यह मूल भावों को विभाजित कर पैमाना निश्चित करने में सहायक नहीं है जैसे कोई माँ बिना क्रोध के किसी कृत्य पर नाराजगी व्यक्त कर सकती है. जन्म लेते ही बच्चा रूदन न करे तो उसे उल्टा कर उसके पीठ पर हल्की धौल दी जाती है. वह मारना व रूलाना, बच्चे के प्रति हिंसा नहीं है, क्योंकि वहां हिंसा का भाव ही नदारद है उलट उसके स्वस्थ जीवन का भाव है.उसी तरह जो पूर्व में क्रोध सरीखे दीखते 'मन्यु'की बात की गई,उस मन्यु में "क्रोध का अभाव" होता है. अतः जिस भाव में क्रोध है ही नहीं उसे ही, क्रोध का हिस्सा बनाकर, फिर आभासी सीमारेखा बनाकर कैसे पैमाना तैयार किया जा सकता है.अर्थात् पैमाना उपजाया नहीं जा सकता.

      आपके सभी उदाहरण मैं गम्भीरता से देख रहा हूं. कुछ तो तर्कसंगत नहीं बैठते तो प्रतिक्रिया टालता हूँ और कुछ जैसा कि राजन जी ने कहा था और जैसा 'स्त्री-नजर' व 'सहमति' पर आपके उदाहरणों के साथ हुआ आपकी ही विचारधारा के विपरित चला जाता था.

      आपका क्रोध पर जैन्युन सहमति के उदाहरण का भी कुछ ऐसा ही है. चुप-चाप सुनना, सहमति से बिलकुल न्यायसंगत नहीं है. पहला व्यक्ति तो क्रोध कर चुका, उसने क्रोध के पूर्व कोई सहमति नहीं ली, दूसरा व्यक्ति भी उसके क्रोध को विवेक से जानेगा समझेगा फिर चुप-चाप रहने का निर्णय लेगा, इस दूसरे में विवेक जागृत है अतः दूसरे में क्रोध है ही नहीं, चुप -चाप रहना, सहमति नहीं है, मात्र पहले के क्रोध के निवारणार्थ उपाय है.

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  2. आपका यह प्रयास ... सफलता की ओर अग्रसर है अगली कड़ी में ‘क्रोध’ ‘मान’ ‘माया’ ‘लोभ’ प्रत्येक पर स्वतंत्र पोस्ट की प्रतीक्षा रहेगी
    सादर

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    1. सीमा जी, आभार!! नैतिक जीवनमूल्यों के प्रति आकर्षण भी व्यक्तित्व में चार चांद लगा देता है. जल्द ही अगली कडी को प्रस्तुत करता हूँ.

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  3. सफल प्रयास,अगली कड़ी का इन्तजार रहेगा ,,,

    RECENT POST: मधुशाला,

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  4. मुझे तो समझ नहीं आया कि ईर्ष्या कैसे अहंकार का प्यादा है।क्या आप ये कहना चाहते हैं कि ईर्ष्या ही अहंकार को उत्पन्न करती है?ये कोई जरूर नहीं है कई बार ईर्ष्या हीनताबोध भर देती है।और दूसरा जो आपने बताया आलस्य लोभ से संबंधित है ये तो बिल्कुल ही समझ से बाहर है।

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    1. मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि ईर्ष्या, अहंकार से उत्पन्न होती है. ईर्ष्या का अर्थ है दूसरों की चढती बढती न देख पाना. यह भाव हमारे अपने अहंकार वश जागृत होता है. इसलिए अहंकार ही ईर्ष्या का स्वामी या सेनापति है और ईर्ष्या अहंकार का प्यादा. असफल अहंकार भी हीनताबोध भर देता है.

      उसी तरह आलस्य क्या है? बिना कुछ किए धरे ही पाने की इच्छा. बिना परिश्रम पुरूषार्थ के ही अपने कार्य सिद्ध होने की अपेक्षा. इसमें भी अन्ततः तो लोभ का ही साम्राज्य है. इसलिए आलस्य भी लोभ का ही अधीनस्त है

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    2. और जो करोडपति लोग ..और अधिक के लोभ में दुष्कर्म करते हैं वहां आलस्य कहाँ है.... बड़े बड़े नेता, धनपति, प्रसिद्द लोग जो दिन रात कठिन परिश्रम से उच्च स्तर पर पहुँचते हैं फिर गिरते हैं लोभ के कारण ..दुष्कर्मों की राह में वहां आलस्य कहाँ से आया..न अहंकार ..वास्तव में यह एषणा है जो दुष्कर्मों की जननी है ...इच्छा ...और इन सभी शत्रुओं की जननी .....

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    3. इच्छा,एषणा,तृष्णा सभी लोभ के ही पर्याय है. धन कीर्ति बल और ऐश्वर्य परिश्रम की देन नहीं है. कहने को तो कह दिया जाता है कि धन मैंने कठिन परिश्रम से पाया, किंतु एक ही तरह का कठिन परिश्रम करने वालों को एक समान धन-लाभ नहीं होता. लेकिन 'आलस्य' कामचोरी के 'लोभ' से ही आया.

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    4. असत्य कथन है सुज्ञ जी ....एषणा लोभ का पर्याय नहीं.... लोभ की उत्पत्ति एषणा से होती है ...यदि कुछ प्राप्ति की इच्छा ही नहीं तो कोई लोभ, लालच, काम, क्रोध, अहंकार, मद, माया में क्यों लिप्त होगा ?
      ---यह भी पूर्ण असत्य कथन है कि धन, बल, कीर्ति, एश्वर्य परिश्रम की देन नहीं हैं....भला बिना परिश्रम के ये कैसे मिल जायगी...समान लाभ न मिलना व्यक्ति के परिश्रम की मात्रा, गुणवत्ता,दिशा व श्रृद्धा आदि पर आधारित है ..
      ---अन्यथा संसार में परिश्रम का कोई मूल्य ही नहीं ....कोई परिश्रम क्यों करे ?

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    5. सत्य असत्य निश्चय करने की इतनी जल्दबाजी न करिए प्रभु!! लोभ और एषणा दोनो 'प्राप्ति की इच्छा' ही है. लोभ से एषणा की उत्पत्ति हुई है या एषणा से लोभ की, कभी निर्धारित नहीं कर पाएँगे.
      व्यक्तियों के एक समान परिश्रम की मात्रा, गुणवत्ता,दिशा व श्रृद्धा होने के उपरांत एक समान धन-लाभ फिक्स कर पाएँगे? पूर्व कर्म-फल, प्रारब्ध, काल और नियति का क्या करेंगे? एक मात्र परिश्रम फलदाता नहीं है.
      पुरूषार्थ का मूल्य और महत्व दोनो है किंतु एक मात्र पुरूषार्थ ही करण और कारण नहीं है.
      अब फिर से अपनी पहली टिप पर गौर करें, 'आलस्य' कामचोरी (पुरूषार्थ संवरण) का 'लोभ'है या नहीं? (आपको विषय पर संयत रखने का भाव है)

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    6. ----लोभ और एषणा दोनों प्राप्ति की इच्छा ही हैं.... क्या इच्छा व एषणा में अंतर है ? नहीं ,दोनों का अर्थ एक ही है...लोभ ..इच्छा नहीं है वह इच्छा के उपरांत उत्पन्न प्रभावी अनुभाव है .....आपके इस वाक्य से ही सिद्ध होता है कि इच्छा से लोभ उत्पन्न होता है ...जो स्वयं आपके कथ्य-मत के विपरीत है...

      ---इसी प्रकार 'आलस्य' कामचोरी (पुरूषार्थ संवरण) का 'लोभ'है या नहीं? (आपको विषय पर संयत रखने का भाव है)...क्या इस वाक्य का कोई अर्थ निकलता है ??..कुछ नही..
      ...आगे क्या कहा जाय .. काम क्रोध आदि मानव भावों के मूलतत्वों का उचित तथ्यत: व सम्यग् ज्ञान की अपेक्षा सिर्फ ..केवल उपदेशात्मक-ज्ञान पर ही विचार करने से एसा होता है ....

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  5. क्रोध मद माया लोभ ....

    अचानक लगा कि माया लोभी तो बिलकुल नहीं हूँ, तुरंत मन मन ने दूसरी इच्छाएं सामने करदी कि अब बताओ :(

    कुछ नहीं हो सकता सुज्ञ जी :)

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    1. सतीश जी,
      जीवन में होने का अर्थ यह नहीँ कि कुछ नहीं हो सकता :) बडे बडे महान लोग भी इन से सर्वथा निवृत नहीं है.बात इन्हे शिथिल करने की है,इन पर नियंत्रण पाने की है.

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    2. लगा रह दर किनारे से कभी तो लहर आयेगी ...

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    3. सही कहा सक्सेना जी .... राम..कृष्ण, बुद्ध, महावीर , ईशा , गांधी अपनी अपनी कहके करके चले गए ...आदमी आज भी वहीं का वहीं है, वैसा का वैसा ही...नहीं जीत पाया काम क्रोध, लोभ, मोह, माया मत्सर को ....
      ---- कुछ नहीं हो सकता ...
      यदि होजायगा तो मनुष्य खोजायागा,
      या राक्षस या देवता होजायागा ||

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  6. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(4-5-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
    सूचनार्थ!

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  7. विश्लेषण सही दिशा में आगे बढ़ रहा है
    डैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
    अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
    lateast post मैं कौन हूँ ?
    latest post परम्परा

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  8. आपने अपने प्रश्न के उत्तर में अनी बात को अच्छा विस्तार दिया है.. आगामी पोस्ट की प्रतीक्षा रहेगी!!

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    उत्तर
    1. सलिल जी,
      प्रोत्साहन के लिए आभार, मैं तो आस लागए था आप एकदो बोध-कथाएं अवश्य प्रदान करेंगे.....

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  9. सार्थक विवेचन, विश्लेषण ...समझ रहे हैं और समझना चाहते हैं आगे भी

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    उत्तर
    1. प्रेरणा के लिए आभार, जैसे जैसे मुझे भी समझ आ रहा है परोसने का प्रयास....

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  10. सभी दुर्गुण एक दूसरे के पूरक हैं.

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    उत्तर
    1. क्या बात है नागरिक जी ....एक दूसरे के पूरक अर्थात समन्वयक अर्थात ये दुर्गुणों का सद्गुण है ..वाह ..अर्थात ये मनुष्य के चरित्र के आवश्यक तत्व हैं ...

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    2. श्याम जी, ...वाह... क्या निश्चल बह रहे है. पूरक समन्वयक कैसे? पूरक अर्थ है पूरा करना. कोई अवगुण यदि किसी दूसरे अवगुण की अधूरप पूर्ण करता है तो सद्गुण कैसे हो गया? बुराईयाँ अगर एकता स्थापित करले तो 'समन्वय' का लाभ लेकर आवश्यक तत्व बन जाती है?

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  11. और अधिक जानकारी की प्रतीक्षा है।

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  12. पढ़ रहे हैं तल्लीनता से !
    सद्प्रयास जारी रहे !

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    1. प्रबल प्रेरणा के लिए आभार वाणी जी!!

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  13. जीवन के सार को दर्शाती
    चिंतनपूर्ण रचना
    बहुत सुंदर
    बधाई

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  14. इस विषय पर बहुत जगह आपसे भी, अंशुमाला जी से भी और राजन से भी सहमति है। यह बात विरोधाभासी लग सकती है लेकिन ऐसा ही है। निश्चित ही इस श्रृंखला में होनी वाला मनन ज्ञानवर्धक होगा।
    अनुराग जी की मन्यु वाली श्रृंखला और ’ब्राह्मण कौन’ वाली पोस्ट तो मेरी ऑलटाईम फ़ेवरेट हैं ही, फ़िर से लिंक देने के लिये धन्यवाद। अनुरागजी की पोस्ट पर आई ’सृजन शिल्पी’ की टिप्पणी उस पोस्ट की उपयोगिता स्पष्ट करती है।

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    उत्तर
    1. अंशुमाला जी के और राजन के दृष्टिकोण से सहमत तो मैं भी हूँ संजय जी!! अंशुमाला जी का अति वाला दृष्टिकोण भी और राजन जी के दुर्गुणों के संख्या विस्तार वाला दृष्टिकोण. किंतु दूसरे दृष्टिकोणों से निषेध वाला एकांगी पक्षीय चिंतन, तथ्यों पर समग्रता से विचार नहीं करता. सभी दृष्टिकोण का समग्रता से समंवय ही यथार्थ को स्पष्ट कर सकता है. अतः विरोधाभास नहीं यह समंवय दृष्टि है.
      अनुराग जी के ऐसे तो कितनेक आलेखों का मैं भी प्रशंसक रहा हूँ......

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  15. यदि आपके अनुसार विशेष परिस्थितियों में ये चारों उचित हैं तो फिर इन्हें "कषाय" क्यों कहा जाय ... सुगर ..किसी के लिए अच्छी तो किसी के लिए दुश्मन होती है तो उसे कषैला कहाँ कहा जाता है ....|
    ---ये मानव मन की सहज वृत्तियाँ हैं ....

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    1. जो वृत्तियाँ आपके मन आत्म को कषैला करे वह कषाय!!

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    2. यदि वृत्तियाँ सहज हैं ( यदि वे वृत्तियाँ हैं !) तो मन व आत्म को कसैला क्यों करेंगी ....

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    3. वृत्तियाँ भी आप कहें और सहज भी आप कहें, फिर 'तो' लगाकर प्रश्न क्यों?
      मैं तो कषाय को 'मन के भाव'कहता हूँ. दुर्विचार हमेशा सहज ही होते है,कठिन तो सद्विचार होते है अतः सहजता मधुरता का पर्याय नहीं है. दुर्विचारों के मन में स्थान बनाते ही मन कसैला सा हो जाता है.

      हटाएं
  16. इन गहन विषयों पर हम लोग फूल=-पत्तियाँ चुन रहे हैं ..

    सचमुच तार्किकता युक्त वास्तविक दृष्टि के लिए ....वेदान्त दर्शन व ईशोपनिषद का अध्ययन करें ...नान्यथातोपन्था ...और कोई राह नहीं ....

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    1. फूल-पत्तियाँ ही चुनने दें, महाराज!!, असमय जडें खोदनें से कोई लाभ नहीं. विषय व्यक्तित्व के शत्रु, चरित्र के शत्रु है. गहन आध्यात्म धर्म-चर्चा नहीं. यह तो मनोविज्ञान,दर्शन,नीतिशास्त्र और धर्म के संदर्भ से एक समान 'अवगुण' माने जाते मन के भावों को ग्रहण किया गया है.

      हटाएं
    2. क्यों क्या वैज्ञानिकयुग, वैज्ञानिकता, ज्ञान, आत्म-ज्ञान .. वस्तुओं की जड़ तक जाकर वास्तविकता प्राप्त करने को नहीं कहते.... जड़ या वास्तविकता जानने के लिए समय -असमय क्या होता है ...वह तो सार्वकालिक सत्य तथ्य है ...
      -----अजीब कथन है ...."गहन आध्यात्म ( सही शब्द अध्यात्म है ) धर्म-चर्चा नहीं. यह तो मनोविज्ञान,दर्शन,नीतिशास्त्र और धर्म के संदर्भ से एक समान 'अवगुण' माने जाते मन के भावों को ग्रहण किया गया है."...
      ----बात मानव मन के भावों, चरित्र-अवगुण की हो जो मनोविज्ञान, दर्शन, नीति, धर्म में एक समान ग्रहण किया गया हो ..परन्तु वह अध्यात्मिक - धर्म चर्चा नहीं है ... ?????...एक दूसरे के विपरीत हैं ..

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    3. प्रत्येक विचार का एक अनुशासन होता है, विचार जब अपने विषय की मर्यादा तोड उछ्रँखल बहने लगते है तो बिखर जाते है, और अपना मनोरथ पूर्ण नहीं कर पाते.

      जैसा कि आपने कहा- "वह तो सार्वकालिक सत्य तथ्य है" (सही शब्द सर्वकालिक)तो महराज जो जो तथ्य है, सत्य है, सर्वकालिक है उसकी जड़, उसकी वास्तविकता आप क्या खोजेंगे? वह तो पहले से ही वास्तविक है. सत्य पर संदेह भरी जिज्ञासा हो तो ही सत्य की जडें खोदी जाती है. जिन्हे सर्वकालिक सत्य तथ्य पर पूर्ण आस्था है उनके लिए जडें खोलकर देखने का उपक्रम, निर्थक मूढता है.

      प्रस्तुत आलेख में व्यक्तित्व के लिए हानिकारक दुर्गुणों को सभी क्षेत्रों में दुर्गुण या विकार ही माना गया है इसी आशय से धर्म क्षेत्र से भी उन्ही विकारों के उल्लेख तक ही सीमा है. समस्त धर्म को चर्चित करना यहाँ निर्थक है. यही चर्चा का अनुशासन भी है.

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  17. वास्तव में ...ये चार कषाय हैं ....यही कहना काफी नहीं है....वस्तुतः ..
    कषाय क्या हैं...क्यों हैं.
    काम क्रोध लोभ मोह माया ...क्या हैं व क्यों रोके जाने चाहिए ... यह ज्ञान होने के पश्चात ही इन पर बंधन लगाया जा सकता है ...अतः ये क्या हैं पहले यह ज्ञात होना चाहिए ..

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    1. श्याम जी,
      इस विषय पर मेरी पहली पोस्ट "चार शत्रुओं की पहचान" देखिए..... वहां पाठकों से 'व्यक्तित्व' के चार शत्रुओं को पहचानने के लिए कहा गया था. मैं विस्तार से कहुँ उससे पहले ही विद्वान पठकों ने सटीक पहचान करते हुए "क्या हैं" का विश्लेषण कर लिया. और "क्यों रोके जाने चाहिए" तो वह भी मैंने अपनी पोस्ट में स्पष्ट कर लिया था कि हमारे व्यक्तित्व को स्मृद्ध करने के लिए,व्यक्तित्व विकास के लिए, चरित्र उत्कृष्ट बनाने के लिए. और बंधन का आग्रह नहीं है, इन्हें निरूत्साहित करने का ही आग्रह है.ताकि सदाचार अपने
      लिए जगह बना सके.

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  18. 'ब्रह्मचारी के लिए तो काम हर दशा में अनादेय है '---- इस कथन अर्थ है कि काम का अर्थ सिर्फ स्त्री-पुरुष के कामांगों के कृतित्व ..कामेक्षा (= सेक्स ) ..को ही काम माना जारहा है ...जबकि एसा नहीं है ....पुरुषार्थ चतुष्टय ( धर्म, अर्थ,काम, मोक्ष )...में काम = सिर्फ सेक्स नहीं है अपितु सांसारिक कर्म है, कर्तव्य है |

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    1. बस अब आप चिंतन करिए कि पुरुषार्थ( धर्म, अर्थ,काम, मोक्ष )में भी 'काम' है और पंच विकार (काम,क्रोध,मद,मोह,लोभ)में भी 'काम'है. अतः आप बेहतर समझ पाएँगे कि मैंने चार कषाय (क्रोध,मान,माया,लोभ)को ही क्यों चुना....

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  19. he bhagwaan - itni badhiya series miss ho gayi mujhse :(

    pahle bhaag se shuru karti hoon.....

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  20. काम क्रोध लोभ मोह अहंकार के नाम तथाकथित धार्मिकजन धर्म की राजनेतिक करके अपनी महात्मागिरी बनाय रखे है !इससे ज्यादा इनके पास काम क्रोध लोभ मोह अहंकार के विषय पर कोई ज्ञान नही है! एक धार्मिक कहेगा क्रोध सब दुखोका कारण दूसरा कहेगा लोभ सब दुखो का कारण है ! लेकिन काम क्रोध लोभ मोह अहंकार की विज्ञानं क्या है? उसके बारे कोई कुछ भी नही बोलगा ! यह काम क्रोध लोभ मोह अहंकार यदि तुम इसमें से एक को दबाते हो तब दूसरा मजबूत बन जाता है लेकिन यह काम क्रोध लोभ मोह अहंकार कभी भी समाप्त नही होते है !
    काम क्रोध लोभ मोह अहंकार उसकी उत्पत्ति हमारे अंदर दबी हुई विकृत उर्जा से उत्पन्न होते है ! विकृत उर्जा अर्थात वह उर्जा जिससे हम गम्भीर सभ्य बने हुए उर्जा को दबाये बेठे है ! यह दूषित उर्जा के रूप काम क्रोध लोभ मोह अहंकार परिणाम है ! उर्जा का सारस्वत नियम है की वह गंगा की तरह सदेव बहती रहे ! बहने वाली उर्जा हमेशा तरोताजी और पवित्र होती है ! जितनी उर्जा तुम अपने अंदर से बहार बहा सको उतने आप तरोताजा हल्के आनन्दयुक्त प्रसन्नपूर्व रह सकते है! जिसकी उर्जानिरतर बह रही है उसमे नई चेतना का उदय होता रहता है जो परमआनन्द की अनुभूति है ! जिसकी उर्जा लगातार प्रेम रूप में बह रही है वह योगी, सन्यासी, बुद्ध है ! जिसने अपनी उर्जा को कुंजुस की तरह दबा रखी है उसमे यह सभाविक है की काम क्रोध लोभ मोह अहंकार बना रहेगा ! कितना भी काम क्रोध लोभ मोह अहंकार को मारने की कोशिश करो लेकिन वह नही मरेगा ! वह रूप बदलकर प्रकट होता रहेगा ! बहती हुई उर्जा काम क्रोध लोभ मोह अहंकार को जीतने का ही उपाय नही यह जीवन कीश्रेष्ट साधनाओ में से उर्जा का बहाव जीवन जीने का श्रेष्ठम साधन है !
    osho की सभी ध्यान विधियों में उर्जा के बहाव पर ही जोर दिया गया है की जो उर्जा आपने अपने अंदर दबाई रखी है उसे बहता करो जब तक तुम्हारी उर्जा बहती नही है उससे पहले कोई योग दर्शन अध्यात्म समाधि परमआनन्द नही है ! और उर्जा बहाव का श्रेष्ट मार्ग है वह है मात्र प्रेम ! प्रेम तुम किसको करते हो वह गोण नही उर्जा निरंतर बहाव ही गोण है !
    काम क्रोध लोभ मोह अहंकार अपने में दबी हुई के लक्ष्ण है गंदगी हमारी उर्जा में है ! काम क्रोध लोभ मोह अहंकार को मारने से कभी कोई योगी या सन्यासी नही बना है क्योकि काम क्रोध लोभ मोह अहंकार तो उस सडी दबी हुई उर्जा के कीड़े है और कीड़े को मारने से कोई समस्या हल नही होती है ! असली कीड़ो के बिज तो उस दबी हुई विकृत मलयुक्त उर्जा में मोजूद है! आप कितने ही योग आसन जप तप ध्यान कर लेना लेकिन जब तक यह दबी हुई बहार नही निकलती है तब तक काम क्रोध लोभ मोह अहंकार बने रहेंगे !

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