25 दिसंबर 2012

दर्पोदय

English: Portrait of Akbar the Great: This por...
हिन्दी: मुग़ल चित्रकार मनोहर द्वारा बनाया गया मुग़ल बादशाह अकबर का चित्र (Photo credit: Wikipedia)
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दंभ का तीव्र उदय!!

एक बादशाह इत्र का बहुत शौकीन था। एक दिन वह दरबार में अपनी दाढ़ी में इत्र लगा रहा था। अचानक इत्र की एक बूंद नीचे गिर गई। बादशाह ने सबकी नजरें बचाकर उसे उठा लिया। लेकिन पैनी नजर वाले वजीर ने यह देख लिया। बादशाह ने भांप लिया कि वजीर ने उसे देख लिया है।

दूसरे दिन जब दरबार लगा, तो बादशाह एक मटका इत्र लेकर बैठ गया। वजीर सहित सभी दरबारियों की नजरें बादशाह पर गड़ी थीं। थोड़ी देर बाद जब बादशाह को लगा कि दरबारी चर्चा में व्यस्त हैं, तो उसने इत्र से भरे मटके को ऐसे ढुलका दिया, मानो वह अपने आप गिर गया हो। इत्र बहने लगा। बादशाह ने ऐसी मुद्रा बनाई, जैसे उसे इत्र के बह जाने की कोई परवाह न हो। इत्र बह रहा था। बादशाह उसकी अनदेखी किए जा रहा था।

वजीर ने यह देखकर कहा- जहांपनाह, गुस्ताखी माफ हो। यह आप ठीक नहीं कर रहे हैं। जब किसी इंसान के मन में चोर होता है तो वह ऐसे ही करता है। कल आपने जमीन से इत्र उठा ली तो आपको लगा कि आपसे कोई गलती हो गई है। आपने सोचा कि आप तो शहंशाह हैं, आप जमीन से भला क्यों इत्र उठाएंगे। लेकिन वह कोई गलती थी ही नहीं। एक इंसान होने के नाते आपका ऐसा करना स्वाभाविक था। लेकिन आपके भीतर शहंशाह होने का जो घमंड है, उस कारण आप बेचैन हो गए। और कल की बात की भरपाई के लिए बेवजह इत्र बर्बाद किए जा रहे हैं। सोचिए आपका घमंड आपसे क्या करवा रहा है। बादशाह लज्जित हो गया।

हमारे  निराधार और काल्पनिक अपमान के भयवश, हमारा दंभ उत्प्रेरित होता है। दर्प का उदय हमारे विवेक को हर लेता है। दंभ से मोहांध बनकर हम उससे भी बडी मूर्खता कर जाते है, जिस मूर्खता के कारण वह काल्पनिक अपमान भय हमें सताता है।

16 दिसंबर 2012

सहन-शक्ति

बात महात्मा बुद्ध के पूर्व भव की है जब वे जंगली भैंसे की योनि भोग रहे थे। तब भी वे एकदम शान्त प्रकृति के थे। जंगल में एक नटखट बन्दर उनका हमजोली था। उसे महात्मा बुद्ध को तंग करने में बड़ा आनन्द आता। वह कभी उनकी पीठ पर सवार हो जाता तो कभी पूंछ से लटक कर झूलता,  कभी कान में ऊंगली डाल देता तो कभी नथुने में। कई बार गर्दन पर बैठकर दोनों हाथों से सींग पकड़ कर झकझोरता। महात्मा बुद्ध उससे कुछ न कहते।

उनकी सहनशक्ति और वानर की धृष्टता देखकर देवताओं ने उनसे निवेदन किया, "शान्ति के अग्रदूत, इस नटखट बंदर को दंड दीजिये। यह आपको बहुत सताता है और आप चुपचाप सह लेते हैं!"

वह बोले, "मैं इसे सींग से चीर सकता हूं, माथे की टक्कर से पीस सकता हूं, परन्तु में ऐसा नहीं करता, न करुंगा। अपने से बलशाली के अत्याचार को सहने की शक्ति तो सभी जुटा लेते हैं, परन्तु सच्ची सहनशक्ति तो अपने से बलहीन की प्रताड़ना सहन करने में है।"

10 दिसंबर 2012

अहिंसा का आलोक

वे सभी व्यक्ति अहिंसा की शीतल छाया में विश्राम पाने के लिए उत्सुक रहते हैं, जो सत्य का साक्षात्कार करना चाहते हैं. अहिंसा का क्षेत्र व्यापक है. यह सूर्य के प्रकाश की भांति मानव मात्र और उससे भी आगे प्राणी मात्र के लिए अपेक्षित है. इसके बिना शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की बात केवल कल्पना बनकर रह जाती है. अहिंसा का आलोक जीवन की अक्षय संपदा है. यह संपदा जिन्हें उपलब्ध हो जाती है, वे नए इतिहास का सृजन करते हैं. वे उन बंधी-बंधाई परंपराओं से दूर हट जाते हैं, जिनकी सीमाएं हिंसा से स्पृष्ट होती हैं. परिस्थितिवाद का बहाना बनाकर वे हिंसा को प्रश्रय नहीं दे सकते.

अहिंसा की चेतना विकसित होने के अनंतर ही व्यक्ति की मनोभूमिका विशद बन जाती है. वह किसी को कष्ट नहीं पहुंचा सकता. इसके विपरीत हिंसक व्यक्ति अपने हितों को विश्व-हित से अधिक मूल्य देता है. किंतु ऐसा व्यक्ति भी किसी को सताते समय स्वयं संतप्त हो जाता है. किसी को स्वायत्त बनाते समय उसकी अपनी स्वतंत्रता अपहृत हो जाती है.

किसी पर अनुशासन थोपते समय वह स्वयं अपनी स्वाधीनता खो देता है. इसीलिए हिंसक व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में संतुष्ट और समाहित नहीं रह सकता. उसकी हर प्रवृत्ति मं एक खिंचाव-सा रहता है. वह जिन क्षणों में हिंसा से गुजरता है, एक प्रकार के आवेश से बेभान हो जाता है. आवेश का उपशम होते ही वह पछताता है, रोता है और संताप से भर जाता है.

हिंसक व्यक्ति जिस क्षण अहिंसा के अनुभाव से परिचित होता है, वह उसकी ठंडी छांह पाने के लिए मचल उठता है. उसका मन बेचैन हो जाता है. फिर भी पूर्वोपात्त संस्कारों का अस्तित्व उसे बार-बार हिंसा की ओर धकेलता है. ये संस्कार जब सर्वथा क्षीण हो जाते हैं तब ही व्यक्ति अहिंसा के अनुत्तर पथ में पदन्यास करता है और स्वयं उससे संरक्षित होता हुआ अहिंसा का संरक्षक बन जाता है.

अहिंसा के संरक्षक इस संसार के पथ-दर्शक बनते हैं और हिंसा, भय, संत्रास, अनिश्चय, संदेह तथा असंतोष की अरण्यानी में भटके हुए प्राणियों का उद्धार करते हैं.

-आचार्य तुलसी (राजपथ की खोज)

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