29 अगस्त 2011

पर्यावरण का अहिंसा से सीधा सम्बंध




पर्यावरण आज विश्व की गम्भीर समस्या हो गई है। प्रकृति को बचाना अब हमारी ज्वलंत प्राथमिकता है। लेकिन प्राकृतिक सन्तुलन को विकृत करने में स्वयं मानव का ही हाथ है। पर्यावरण और प्रदूषण मानव की पैदा की हुई समस्या है। प्रारम्भ में पृथ्वी घने वनों से भरी थी। लेकिन जनसंख्या वृद्धि और मनुष्य के सुविधाभोगी मानस ने, बसाहट,खेती-बाडी आदि के लिए वनों की कटाई शुरू की। औद्योगिकीकरण के दौर में मानव नें पर्यावरण को पूरी तरह अनदेखा कर दिया। जीवों के आश्रय स्थल उजाड़ दिए गये। न केवल वन सम्पदा और जैव सम्पदा का विनाश किया, बल्कि मानव नें जल और वायु को भी प्रदूषित कर दिया। कभी ईंधन के नाम पर तो कभी इमारतों के नाम पर। कभी खेती के नाम पर तो कभी जनसुविधा के नाम पर, मानव प्राकृतिक संसाधनो का विनाशक दोहन करता रहा।

वन सम्पदा में पशु-पक्षी आदि, प्राकृतिक सन्तुलन के अभिन्न अंग होते है। प्रकृति की एक समग्र जैव व्यवस्था होती है। उसमें मानव का स्वार्थपूर्ण दखल पूरी व्यवस्था को विचलित कर देता है। मनुष्य को कोई अधिकार नहीं प्रकृति की उस व्यवस्था को अपने स्वाद, सुविधा और सुन्दरता के लिए खण्डित कर दे। अप्राकृतिक रूप से जब इस कड़ी को खण्डित करने का दुष्कर्म होता है, प्रकृति में विनाशक विकृति उत्पन्न होती है जो अन्ततः स्वयं मानव अस्तित्व के लिए ही चुनौति बन खड़ी हो जाती है। जीव-जन्तु हमारी ही भांति इस प्रकृति के आयोजन-नियोजन का अटूट हिस्सा होते है। वे पूरे सिस्टम को आधार प्रदान करते है। प्रकृति पर केवल मानव का मालिकाना हक़ नहीं है। मानव को समस्त प्रकृति के संरक्षण की शर्तों के साथ ही अतिरिक्त उपयोग बुद्धि मिली है। मानव पर, प्रकृति के नियंत्रित उपयोगार्थ विधानों का आरोपण किया गया है, जिसे हम धर्मोपदेश के नाम से जानते है। वे शर्तें और विधान, यह सुनिश्चित करते है कि सुख सभी को समान रूप से उपलब्ध रहे।

इसीलिए विश्व के सभी धर्मों के प्रणेता व महापुरूष, हिंसा, क्रूरता, जीवों को अकारण कष्ट व पीड़ा देने को गुनाह कहते है। वे प्रकृति के संसाधनों के मर्यादित उपभोग की सलाह देते है। अपरिग्रह का उपदेश देते है। मन वचन काया से संयमित,अनुशासित रहने की प्रेरणा देते है। इसी भावना से वे प्राणी मात्र में अपनी आत्मा सम झलक देखते/दिखलाते है। जब वे कण कण में भगवान होने की बात करते है,तो अहिंसा का ही आशय होता है । सभी को सुख प्रदान करने के उद्देश्य से ही वे यह सूत्र देते है कि ‘आत्मा सो परमात्मा’ या हर जीव में परमात्मा का अंश होता है। यह भी कहा जाता है कि सभी को ईश्वर नें पैदा किया अतः सभी जीव ईश्वर की सन्तान है। इसीलिए जीव-जन्तु, पशु-पक्षियों के साथ दया, करूणा का व्यवहार करनें की शिक्षा दी जाती है। सारी बुराईयां किसी न किसी के लिए पीड़ादायक हिंसा बनती है। अतः सभी सद्गुणों को अहिंसा में समाहित किया जा सकता है। यही धर्म है। यही प्रकृति का धर्म है। यही सुनियोजित जीवन का विधान है। अर्थात्, अहिंसा पर्यावरण का संरक्षण विधान है।

16 अगस्त 2011

निष्प्रयोजन परम्परा : रूढ़ि



पिछले लेख में हमने सप्रयोजन परम्परा के औचित्य को स्थापित करने का प्रयास किया। जीवन मूल्यों में विकास के सार्थक उद्देश्य से किसी योग्य कार्य-विधि का निर्वहन ‘सप्रयोजन परम्परा’ कहलाता है। जैसे- 'एकाग्रचित' चिन्तन के प्रयोजन से, 'ध्यान' परम्परा का पालन किया जाता है, इसे हम ‘सप्रयोजन परम्परा' कहेंगे। आज तो जीवन शैली के लिए, मेडिटेशन की उपयोगिता प्रमाणित हो गई है। इसी कारण इसका उदाहरण देना सरल सहज-बोध हो गया है्। अतः परम्परा का औचित्य सिद्ध करना आसान हो गया है। अन्यथा कईं उपयोगी परम्पराएं असिद्ध होने से अनुपयोगी प्रतीत होती है। कई मान्यताओं में प्रतिदिन एक मुहर्त पर्यन्त ध्यान करने की परम्परा है, एकाग्रचित्त अन्तर्मन्थन के लिए इससे अधिक उपयोगी कौनसी विधि हो सकती है। 

पहले कभी, प्रतिदिन प्रातः काल योग – आसन करनें की परम्परा थी। जिसे दुर्बोध तर्कवादियों नें सांसो की उठा-पटक और अंगो की तोड़-मरोड़ कहकर दुत्कार दिया था। वे सतही सोच बुद्धि से उसे रूढ़ि कहते थे। आज अच्छे स्वास्थ्य के लिए योगासनो को स्वीकार कर लिया गया है। मन को सकारात्मक संदेश प्रदान करने के लिए भजनों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। दया की भावना का विकास करने के लिए दान के उपक्रम का महत्व है। श्रद्धा और विश्वास को सफलता का मुख्य कारण माना जाने लगा है। कई लोगों को स्वीकार करते पाया है कि उन्हें धर्म-स्थलों में अपार शान्ति का अनुभव होता है। कई लोग भक्ति-भाव के अभ्यास से, अहंकार भाव में क्षरण अनुभव करते है। हम आस-पास के वातावरण के अनुसार ही व्यक्ति्त्व ढलता देखते है। इन सभी लक्षणों पर दृष्टि करें तो, परम्परा और संस्कार का  सीधा सम्बंध देखा जा सकता है। प्रभावशाली व्यक्तित्व बनाने के लिए, संस्कार युक्त परम्पराओं के योगदान को  भला कैसे नकारा जाएगा?

लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि सभी परम्पराएं आंख मूंद कर अपनाने योग्य ही होती है। कई परम्पराएं निष्प्रयोजन होती है। अकारण होती है। वस्तुतः सुविधाभोगी लोगों नें कुछ कठिन परम्पराओं को पहले प्रतीकात्मक और फिर विकृत बना दिया होता है। ये सुविधाभोगी भी और कोई नहीं, प्रारम्भ में तर्कशील होते है। रेश्नलिस्ट बनकर शुरू में, कष्टदायक कठिन परम्पराओं को लोगों के लिए दुखद बताते है। पुरूषार्थ से कन्नी काटते हुए, प्रतीकात्मक रूप देकर, कठिनता से बचने के मार्ग सुझाते है। और अन्ततः पुनः उसे प्रतीक कहकर और उसके तर्कसंगत न होने का प्रमाण देकर परम्परा का समूल उत्थापन कर देते है।

भले आज हम सुविधाभोगियों को दोष दे लें, पर समय के साथ साथ ऐसी निष्प्रयोजन परम्पराओं का अस्तित्व में आ जाना एक सच्चाई है। परम्पराएँ पहले प्रतीकात्मक बनती है, और अंत में मात्र 'प्रतीक' ही बचता है। 'प्रयोजन' सर्वांग काल के गर्त में खो जाता है। ऐसी निष्प्रयोजन परम्पराएँ ही रूढ़ि बन जाती है। हालांकि रूढ़िवादी प्रायः इन प्रतीको के पिछे छुपे 'असल विस्मृत प्रयोजन' से उसे सार्थक सिद्ध करने का असफल प्रयास करते है, पर प्रतीकात्मक रूढ़ि आखिर प्रतीक ही होती है। उसके औचित्य को प्रमाणित करना निर्थक प्रयास सिद्ध होता है। अन्ततः ऐसी रूढ़ि को ‘आस्था का प्रश्न’ कहकर तर्कशीलता से पिंड़ छुड़ाया जाता है। जब उसमें प्रयोजन रूपी जान ही नहीं रहती, तो तर्क से सिद्ध भी कैसे होगी। अन्ततः ‘आस्था’ के इस प्रकार दुरपयोग से, मूल्यवान आस्था स्वयं भी ‘निष्प्रयोजन आस्था’ सिद्ध हो जाती है।

ऐसी रूढ़ियों के लिए दो मार्ग ही बचते है। पहला तो इन रूढ़ियों को पुर्णतः समाप्त कर दिया जाय अथवा फिर उनके असली प्रयोजन सहित विस्मृत हो चुकी, कठिन कार्य-विधी का पुनर्स्थापन किया जाय।

आपका  इस प्रकार की रूढ़ियों के प्रति क्या मानना है?

अगले लेख में हम कुप्रथा या कुरीति पर विचार करेंगे………

15 अगस्त 2011

परम्परा


श्रुत के आधार पर किसी क्रिया-प्रणाली का यथारूप अनुगमन करना परम्परा कहलाता है। परम्परा के भी दो भेद है। पूर्व प्रचलित क्रिया-विधि के तर्क व्याख्या में न जाते हुए, उसके अभिप्रायः को समझ लेना। और उसके सप्रयोजन ज्ञात होने पर उसका अनुसरण करना, ‘सप्रयोजन परम्परा' कहलाती है। दूसरी, निष्प्रयोजन ही किसी विधि का, गतानुगति से अन्धानुकरण करना 'रूढ़ि' कहलाता है। आज हम ‘सप्रयोजन परम्परा’ के औचित्य पर विचार करेंगे।

मानव नें अपने सभ्यता विकास के अनवरत सफर में कईं सिद्धांतो का अन्वेषण-अनुसंधान किया और वस्तुस्थिति का निष्कर्ष स्थापित किया। उन्ही निष्कर्षों के आधार पर किसी न किसी सैद्धांतिक कार्य-विधि का प्रचलन अस्तित्व में आया। जिसे हम संस्कृति भी कहते है। ऐसी क्रिया-प्रणाली, प्रयोजन सिद्ध होने के कारण, हम इसे ‘सप्रयोजन परम्परा’ कह सकते है।

आज के आधुनिकवादी इसे भी रूढ़ि में खपाते है। यह पीढ़ी प्रत्येक सिद्धांत को तर्क के बाद ही स्वीकार करना चाहती है। हर निष्कर्ष को पुनः पुनः विश्लेषित करना चाहती है। यदि विश्लेषण सम्भव न हो तो, उसे अंधविश्वास में खपा देने में देर नहीं करती। परम्परा के औचित्य पर विचार करना इनका मक़सद ही नहीं होता।

ऐसे पारम्परिक सिद्धांत, वस्तुतः बारम्बार के अनुसंधान और हर बार की विस्तृत व्याख्या से बचने के लिए ही व्यवहार में आते है। समय और श्रम के अपव्यय को बचाने के उद्देश्य से ही स्थापित किए जाते है। जैसे- जगत में कुछ द्रव्य विषयुक्त है। विष मानव के प्राण हरने या रुग्ण करने में समर्थ है। यह तथ्य हमने, हमारे युगों युगों के अनुसंधान और असंख्य जानहानि के बाद स्थापित किया। आज हमारे लिए बेतर्क यह मानना  पर्याप्त है कि ‘विष मारक होता है’। यह अनुभवों का निचोड़ है। विषपान से बचने का 'उपक्रम' ही सप्रयोजन परम्परा है। ‘विष मारक होता है’ इस तथ्य को हम स्व-अनुभव की कसौटी पर नहीं चढ़ा सकते। और न ही  समाधान के लिए,प्रत्येक बार पुनः अनुसंधान किया जाना उचित होगा।

परम्परा का निर्वाह पूर्ण रूप से वैज्ञानिक अभिगम है। विज्ञ वैज्ञानिक भी सिद्धान्त इसलिए ही प्रतिपादित करते है कि एक ही सिद्धांत पर पुनः पुनः अनुसंधान की आवश्यकता न रहे।  उन निष्कर्षों को सिद्धांत रूप स्वीकार कर, आवश्यकता होने पर उन्ही सिद्धांतो के आधार पर उससे आगे के अनुसंधान सम्पन्न किए जा सके। जैसे- वैज्ञानिकों नें बरसों अनुसंधान के बाद यह प्रमाणित किया कि आणविक क्रिया से विकिरण होता है। और यह विकिरण जीवन पर बुरा प्रभाव करता है। जहां आणविक सक्रियता हो मानव को असुरक्षित उसके संसर्ग में नहीं जाना चाहिए। उन्होंने सुरक्षा की एक क्रिया-प्रणाली विकसित करके प्रस्तुत की। परमाणविक विकिरण, उसका दुष्प्रभाव, उससे सुरक्षा के उपाय सब वैज्ञानिक प्रतिस्थापना होती है। किंतु प्रत्येक व्यक्ति बिना उस वैज्ञानिक से मिले, बिना स्वयं प्रयोग किए। मात्र पढ़े-सुने आधार पर सुरक्षा-उपाय अपना लेता है। यह सुरक्षा-उपाय का अनुसरण, परम्परा का पालन ही है। ऐसी अवस्था में मुझे नहीं लगता कोई भी समझदार, सुरक्षा उपाय पालने के पूर्व आणविक उत्सर्जन के दुष्प्रभाव को जाँचने का दुस्साहस करेगा।

बस इसीतरह प्राचीन ज्ञानियों नें मानव सभ्यता और आत्मिक विकास के उद्देश्य से सिद्धांत प्रतिपादित किए। और क्रिया-प्रणाली स्वरूप में वे निष्कर्ष हम तक पहुँचाए। हमारी अनुकूलता के लिए, बारम्बार के तर्क व अनुशीलन से मुक्त रखा।हमारे लिए उन सिद्धांतों से प्राप्य प्रतिलाभ का उपयोग कर लेना, सप्रयोजन परम्परा का निर्वाह है।

परम्पराओं पर आपकी प्रतिक्रिया क्या है?

'निष्प्रयोजन परम्परा' अर्थात् 'रूढ़ि' का विवेचन हम अगले लेख में करेंगे………

10 अगस्त 2011

अभिप्रायः बोध : नयज्ञान -अनेकान्तवाद


नेकांतवाद शृंखला के इस लेख से जुड़ने के लिए, जिन बंधुओ ने पिछ्ले लेख न देखे हो, कृपया एक बार दृष्टि अवश्य डालें। ताकि आप विषय से जुड़ सकें।

सत्य की आवश्यकता पर देखे : सत्य की गवेषणा
अनेकांत विषय में प्रवेश के लिए पढें दृष्टांत : छः अंधे और हाथी - अनेकांतवाद
दृष्टिकोण में सत्यांश के महत्व पर  : सत्यखोजी उपकरण - अनेकांतवाद
अनेकांत के बारे में भ्रांतियाँ और ‘नय’ की भूमिका : सत्यान्वेषण लैब अनेकांतवाद
‘अपेक्षा’ का स्पष्टिकरण  और अनेकांत की परिभाषा : तथ्य की परीक्षण-विधि -अनेकांतवाद
नय ज्ञान पर सप्तनय की व्याख्या : अपेक्षा-बोध : नयज्ञान - अनेकान्तवाद

जिस में हमने सात में से मात्र दो नय नैगमनयऔर संग्रहनयके बारे में उदाहरण सहित जाना, अब……

3-व्यवहारनय संग्रहनय से ग्रहण हुए पदार्थों अथवा तथ्यों का योग्य रिति से पृथकत्व करने वाला अभिप्रायः व्यवहार नय है। संग्रह नय के अर्थ का विशेष रूप से बोध करने के लिए उसका पृथक् करण आवश्यक हो जाता है। हर वस्तु के भेद-प्रभेद करना इस नय का कार्य है यह नय सामान्य की उपेक्षा करके विशेष को ग्रहण करता है।जैसे-ज्वर एक सामान्य रोग है किन्तु मस्तिष्क ज्वर से किसी ज्वर विशेष का बोध होता है।सामान्य एक समूह है जबकि विशेष उसका एक विशिष्ट भाग. सामान्य से विशिष्ट की खोज में निरंतर सूक्ष्मता की आवश्यकता होती है।

4-ॠजुनय मात्र वर्तमान कालवर्ती प्रयाय को मान्य करने वाले अभिप्रायः को ॠजुनय कहते है। क्योंकि भूतकाल विनिष्ट और भविष्यकाल अनुत्पन्न होने के कारण, केवल वर्तमान कालवर्ती पर्याय को ही ग्रहण करता है। जैसे- वर्तमान में यदि आत्मा सुख अनुभव कर रही हो तो ही यह नय उस आत्मा को सुखी कहेगा। यानि यहाँ क्षण स्थायी पर्याय से सुखी दुखी मान लिया जाता है।

5-शब्दनय – यह नय शब्दप्रधान नय है। पर्यायवाची शब्दों में भी काल,कारक, लिंग, संख्या और उपसर्ग भेद से अर्थ भेद मानना शब्दनय है। जैसे- काल भेद से ‘गंगा थी,गंगा है,गंगा होगी’ इन शब्दों को तीन अर्थ-भेद से स्वीकार करेगा। यदि काल, लिंग, और वचनादि भेद नहीं हो तो यह नय भिन्न अर्थ होने पर भी शब्द के भेद नहीं करता। अर्थात् पर्यायवाची शब्दों का एक ही अर्थ मानता है।

6-समभिरूढनय – यह शब्दनय से भी सूक्ष्म है। शब्दनय जहाँ अनेक पर्यायवाची शब्द का एक ही अर्थ मानता है, उसमें भेद नहीं करता, वहाँ समभिरूढनय पर्यायवाची शब्द के भेद से अर्थ-भेद मानता है। इसके अभिप्रायः से कोई भी दो शब्द, एक अर्थ के वाचक नहीं हो सकते। जैसे- इन्द्र और पुरन्दर पर्यायवाची है फिर भी इनके अर्थ में अन्तर है। ‘इन्द्र’ शब्द से ऐश्वर्यशाली का बोध होता है और ‘पुरन्दर’ शब्द से ‘पुरों अर्थात् नगरों का नाश करने वाला’ ग्रहण होता है। यह नय शब्दों के मूल अर्थ को ग्रहण करता है, प्रचलित अर्थ को नहीं। इस प्रकार अर्थ भिन्नता को मुख्यता देकर समभिरूढनय अपना अभिप्रायः प्रकट करता है।

7-एवंभूतनय – यह नय समभिरूढनय से भी सूक्ष्म है। जिस समय पदार्थों में जो क्रिया होती है, उस समय क्रिया के अनुकूल शब्दों से अर्थ के प्रतिपादन करने को एवंभूत नय कहते है। यह सक्रियता के आधार पर उसी अनुकूल अर्थ पर बल देता है। जैसे- जब इन्द्र नगरों का नाश कर रहा हो तब उसे इन्द्र कहना व्यर्थ है, तब वह पुरन्दर है। जब वह ऐश्वर्य भोग रहा हो उसी समय उसमें इन्द्रत्व है। यथा खाली दूध की भगोली को दूध की भगोली कहना व्यर्थ है। जिस समय उसमें दूध हो उसे दूध की भगोली कहा जा सकता है। इस नय में उपयोग सहित क्रिया ही प्रधान है। यह वस्तु की पूर्णता को ही ग्रहण करता है। वस्तु में एक अंश कमी हो तो इस नय के विषय से बाहर रहती है।

इस प्रकार हर प्रतिक्रिया किसी न किसी नय से अपेक्षित होती है। नय समझ जाने पर हमें यह समझ आ जाता है कि कथन किस अपेक्षा से किया गया है। और हमें वक्ता के अभिप्राय: का निर्णय हो जाता है।

9 अगस्त 2011

अपेक्षा-बोध : नयज्ञान - अनेकान्तवाद


पिछले लेखों में हमने अनेकांत का भावार्थ समझने का प्रयास किया कि किसी भी कथन के अभिप्रायः को समझना आवश्यक है। अभिप्रायः इस बात पर निर्भर करता है कि कथन किस अपेक्षा से किया गया है। वस्तुतः कथन असंख्य अपेक्षाओं से किया जाता है किन्तु मुख्यतया सात अपेक्षाएँ होती है जिसका विवेचन यहाँ किया जा रहा है। अपेक्षाओं को जानने के सिद्धांत को नय कहते है।

नयसिद्धांत वक्ता के आशय या कथन को तत्कालिक संदर्भ में सम्यक प्रकार से समझने की पद्धति है।

जैसा पहले बताया गया कि प्रत्येक द्रव्य में अनंत गुण-धर्म रहे हुए होते है। उन अनंत गुण-धर्मों में से किसी एक को प्रमुखता देना, दूसरों को गौण रखते हुए और अन्य गुण-धर्मों का निषेध न करते हुए, एक को मुख्यता से व्यक्त करना या जाननानय ज्ञानकहलाता है।

सात नय (सप्तनय) इस प्रकार है:-

1-नैगमनय
2-संग्रहनय
3-व्यवहारनय
4-ॠजुनय
5-शब्दनय
6-समभिरूढनय
7-एवंभूतनय

1-नैगमनयनैगमनय संकल्प मात्र को पूर्ण कार्य अभिव्यक्त कर देता है। उसके सामान्य और प्रयाय दो भेद होते है। काल की अपेक्षा से भी नैगमनय के तीन भेद, भूत नैगमनय, भविष्य नैगमनय और वर्तमान नैगमनय होते है।

विषय के उलझाव से बचने के लिए यहाँ विस्तार में जाना अभी उचित नहीं है। कल उदाहरण दिया ही था कि नैगमनय निगम का अर्थ है संकल्प। नैगम नय संकल्प के आधार पर एक अंश स्वीकार कर अर्थघटन करता है। जैसे एक स्थान पर अनेक व्यक्ति बैठे हुए है। वहां कोई व्यक्ति आकर पुछे कि आप में से कल मुंबई कौन जा रहा है? उन में से एक व्यक्ति बोला – “मैं जा रहा हूँ। वास्तव में वह जा नहीं रहा है, किन्तु जाने के संकल्प मात्र से कहा गया कि जा रहा हूँ। इस प्रकार संकल्प मात्र को घटित कथन कहने पर भी उसमें सत्य का अंश रहा हुआ है। नैगमनय की अपेक्षा से सत्य है।

भूत नैगमनय - भूतकाल का वर्तमान काल में संकल्प करना जैसे दशहरे के दिन कहना आज रावण मारा गया। जबकि रावण को मारे गए बहुत काल बीत गया। यह भूत नैगमनय की अपेक्षा सत्य है।

भविष्य नैगमनय - जैसे डॉक्टरी पढ रहे विद्यार्थी को भविष्य काल की अपेक्षा सेडॉक्टर साहबकह देना भविष्य नैगमनय की अपेक्षा से सत्य है।

वर्तमान नैगमनयजैसे सोने की तैयारी करते हुए कहना किमैं सो रहा हूँवर्तमान नैगमनय की अपेक्षा से सत्य है।

इस प्रकार नैगमनय के परिप्रेक्ष्य में कथन की अपेक्षा को परख कर, सत्यांश लेकर, कथन के अभिप्रायः को निश्चित करना अनेकांत या अपेक्षावाद का नैगमनय है।

2-संग्रहनयसंग्रहनय एक शब्द मात्र में एक जाति की अनेक वस्तुओं में एकता या संग्रह लाता है।
जैसे कहीं व्यक्ति प्रातः काल अपने सेवक से कहे- ‘ब्रश लाना तोऔर मात्रब्रशकहने से सेवक ब्रश, पेस्ट, जिव्हा साफ करनें की पट्टी, पानी की बोतल, तौलिया आदि वस्तुएं ला हाजिर करे तो वह सभी दातुन सामग्री की वस्तुएँ ब्रश शब्द में संग्रहित होने से ब्रश कहना संग्रहनय की अपेक्षा सत्य है।
इस प्रकार कई शब्द एक वस्तुनाम के भीतर समाहित होने से संग्रहनय की अपेक्षा से सत्य है इस सत्यांश द्वारा अभिप्रायः सुनिश्चित करना अपेक्षावाद या सापेक्षता नियम है।

क्रमशः……………

6 अगस्त 2011

तथ्य की परीक्षण विधि - अनेकान्तवाद


त्य तथ्य पर पहुँचने के लिए हमें वक्ता के कथन का आशय (अभिप्रायः) समझना आवश्यक हो जाता है। आशय समझने के लिए, यह जानना आवश्यक हो जाता है कि वक्ता ने कथन किस 'परिप्रेक्ष्य' में किया है, किस 'अपेक्षा' से किया है। क्योंकि प्रत्येक कथन किसी न किसी अपेक्षा से ही किया जाता है। वाच्य का अभिप्रायः जानने के लिए भी, पठन कुछ इस प्रकार किया जाता है कि यह सुस्पष्ट हो जाय,लेखक नें कथन किस अपेक्षा से किया है। वक्ता या लेखक के अभिप्रायः को ताड़ लेना ही सत्य पर पहुँचने का सीधा मार्ग है। सत्य जानने के लिए, अभिप्रायः ताड़नें की विधि को ही अनेकांतवाद कहते है।


जैसे किसी व्यक्ति विशेष के बारे में सूचनाएं देते हुए कोई वक्ता कहता है कि- ‘यह व्यक्ति अच्छा है’। अब इस सूचना के आधार पर, उसके कथन में अन्तर्निहित अपेक्षा को परख कर, हमें तय करना है कि वक्ता ने किस अभिप्रायः से कहा कि 'वह व्यक्ति अच्छा है'। आईए समझने का प्रयास करते है……

1-उसके ‘सुंदर दिखने’ की ‘अपेक्षा’ से वह अच्छा है?
2-उसकी ‘मधुरवाणी’ की ‘अपेक्षा’ से वह अच्छा है?
3-उसके हर समय ‘मददतत्पर’ रहने की ‘अपेक्षा’ से वह अच्छा है?
4-या मात्र ‘मिलनसार’ होने की ‘अपेक्षा’ से वह अच्छा है?
5-मात्र ‘दिखावे’ (प्रदर्शन) की ‘अपेक्षा’ से वह अच्छा है?
6-अथवा वक्ता के प्रति 'मोह' की 'अपेक्षा' से ही वह अच्छा है?
7-या ‘व्यंग्य शैली’ की ‘अपेक्षा’ से किया गया कथन है कि वह 'अच्छा' है?

इस प्रकार वक्ता के ‘अभिप्रायः’ को पहचान लेना, उस दूसरे व्यक्ति के ‘अच्छे होने’ के सत्य को जानना हुआ।

प्राय: हम देखते है, किसी ठग की धूर्तता से कईं लोग बच जाते है, और कईं लोग फंस भी जाते है। धूर्तता से बचने वाले हमेशा धूर्त की मीठी बातों और तर्कसंगत प्रस्तुति के बाद भी उसमें छुपे धूर्त के अभिप्रायः को पहचान लेते है। और फंसने वाले उसके अभिप्रायः को पहचानने में भूल कर जाते है, या चूक जाते है। कहने का आशय है कि कथन के सत्यांश को गहराई से पकड़ने की विधि ही अनेकांत है।

इस सिद्धान्त की गहराई में जाने के पूर्व, एक बार पुनः दोहराव का जोखिम लेते हुए, अनेकांत की संक्षिप्त परिभाषा प्रस्तुत कर रहा हूँ। क्योंकि एक बार शब्दशः यह परिभाषा आत्मसात होने के बाद अगला गूढ़ वर्गीकरण और विवेचन, सहज बोध हो सकता है।

“समस्त व्यवहार या ज्ञान के लेन-देन का मुख्य साधन भाषा है। भाषा अनेक शब्दों से बनती है। एक ही शब्द, प्रयोजन एवं प्रसंग के अनुसार, अनेक अर्थों में प्रयुक्त होते है। हर कथन किसी अभिप्रायः से किया जाता है, अभिप्रायः इस बात से स्पष्ट होता है कि कथन किस अपेक्षा से किया गया है। कथ्यार्थ या वाच्यार्थ का निर्धारण अपेक्षा से ही सम्भव है। अतः अनेकांत को अपेक्षावाद भी कहते है। अनेकांत दृष्टि कथन को समझने की एक सटीक पद्धति है”।

3 अगस्त 2011

सत्यान्वेषण लैब – अनेकान्तवाद


नेकांत – स्याद्वाद का सिद्धान्त प्रत्येक व्यवहार में अनुभव किया जा सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि जब तक पदार्थ/दृष्टि के स्वरूप को सम्पूर्ण न समझ लिया जाय, अपने आपको सम्पूर्ण न समझना ही जीवन विकास का प्रतीक बन सकता है।

सम्पूर्ण विश्व में “ही” और “भी” का साम्राज्य व्याप्त है। जहाँ ‘ही’ का बोलबाला है वहाँ कलह, तनाव, विवाद है। और जहाँ इसके विपरित ‘भी’ का व्यवहार होता है, वहाँ सभी का सम्यक समाधान हो जाता है। और यह उत्थान की स्थिति का निर्माण करता है। सापेक्षदृष्टि मण्डनात्मक प्रवृति की द्योतक है जबकि एकांतदृष्टि खण्डनात्मक प्रक्रिया। इसिलिए सापेक्षतावाद अपने आप में सम्पूर्ण माना जाता है।

सापेक्षतावाद के बारे में कुछ भ्रांतियाँ व्याप्त है उन्हें दूर किए बिना इस सिद्धान्त को समझना कठिन है।

1-स्तरीय जानकारी और शब्द साम्यता के आधार पर लोग यह समझते है कि अनेकांतवाद का अभिप्राय अनेकेश्वर या अनेक आत्मा जैसा होगा और एकांतवाद का अभिप्राय एक ईश्वर या अद्वेत जैसा होगा। किन्तु अनेकांतवाद का इस प्रकार की आस्था से कुछ भी लेना देना नहीं है। अनेकांत शुद्ध रूप से ‘ज्ञान के विश्लेषण’ का सिद्धान्त है।

2-लोग प्रायः यह मानते है, कि अनेकांतवाद मतलब ‘यह भी सही, वो भी सही, सभी सही’ या ‘सभी अपनी अपनी जगह सही’ पर यह भी गलत अवधारणा है। वस्तुतः अनेकांत सभी के सत्य का अभिप्राय तय करके, विश्लेषण करने के प्रयोजन से संकलित करता है। और संशोधन के बाद सत्य स्वरूप का प्रतिपादन करता है।

3-स्याद्वाद को लोग अक्सर संशयवाद समझनें की भूल करते है। स्याद् आस्ति, स्याद् नास्ति, स्याद् आस्ति नास्ति रूप सप्तभंगी में कथंचित् को देखकर प्रथम दृष्टि संशयपूर्ण वाक्य से संशयवाद मान बैठते है। पर वास्तव में यह वस्तु की विभिन्न दृष्टियों से अपेक्षा-अभिप्राय समझ कर शुद्ध स्वरूप जानने का साधन है।

सामान्य रूप से कठिन है यह समझना कि जिस कारण से इसे सापेक्षतावाद कहा जाता है, वह ‘दृष्टिकोण की अपेक्षा’ क्या चीज है?

इसे समझने के लिए अनेकांतवाद का पहला रूप है सप्तनय। ‘नय’ वक्ता के अभिप्राय को समझने की ‘प्रमाण’ के बाद दूसरी पद्धति है। जैसे प्रत्येक द्रव्य में अनंत गुण-धर्म रहे हुए है। उन अनंत गुण-धर्मों में से किसी एक गुण-धर्म को मुख्यता देकर, शेष गुण-धर्मों को गौण रखकर, किन्तु निषेध न करते हुए कथन करना, या कथन का अभिप्राय समझना नय-ज्ञान कहलाता है। नय पर हम अगले आलेख में विस्तृत चर्चा करेंगे, सातों नय के आलेखन के साथ। उदाहरण के लिए पहला नय है, ‘नैगमनय’ निगम का अर्थ है संकल्प। नैगम नय संकल्प के आधार पर एक अंश स्वीकार कर अर्थघटन करता है। जैसे एक स्थान पर अनेक व्यक्ति बैठे हुए है। वहां कोई व्यक्ति आकर पुछे कि आप में से कल मुंबई कौन जा रहा है? उन में से एक व्यक्ति बोला – “मैं जा रहा हूँ”। वास्तव में वह जा नहीं रहा है, किन्तु जाने के संकल्प मात्र से कहा गया कि ‘जा रहा हूँ’। यह नैगम नय की अपेक्षा से सत्य है।

अगले लेखों में 7 नय, 4 प्रमाण, 4 निक्षेप और स्याद्वाद की सप्तभंगी का विवेचन किया जाना है।

पाठक कृपया प्रतिक्रिया दें कि यदि विषय जटिल और गूढ लग रहा हो, ग्रहित करना सहज न हो तो यहां विराम देते है और फिर कभी इस पर बात करेंगे। आपके प्रतिभाव से ही निर्धारित हो सकता है।

2 अगस्त 2011

सत्यखोजी उपकरण - अनेकान्तवाद


प्रायः यह कहा जाता है………

“सबका अपना अपना नज़रिया होता है”
“सबका अपना अपना दृष्टिकोण होता है”
Everybody has their own Point of view

ठीक है……


एकांगी दृष्टि के बंधन से मुक्ति ही उपाय है।
हर नज़रिए में सत्य का अंश होता है।

किन्तु, हर दृष्टिकोण को यथारूप स्वीकार करना मिथ्या हो सकता है।

एक ही दृष्टिकोण को सब-कुछ (पूर्ण-सत्य) मानना एकांगी सोच (एकांतवाद) है। जो अपूर्ण या गलत है।


यथार्थ में, हर दृष्टिकोण किसी न किसी अपेक्षा के आधार से होता है।
अपेक्षा समझ आने पर दृष्टिकोण का तात्पर्य समझ आता है।
दृष्टिकोण का अभिप्राय समझ आने पर सत्य परिशुद्ध बनता है।
परिशुद्ध अभिप्रायों के आधार पर परिपूर्ण सत्य ज्ञात होता है।



सापेक्षतावाद का सिद्धांत हमारे लिए नया नहीं है। हम इस सिद्धान्त को अच्छी तरह से जानते भी है। अनेकांत,वस्तुतः सत्य को जानने समझने का सर्वश्रेष्ठ उपकरण है, इसका  कोई अन्य जोड़ नहीं है। बस सही समय पर इसका उपयोग नहीं हो पाता। “सबका अपना अपना दृष्टिकोण होता है” अनेकांत मार्ग पर बस यहां तक पहुँच कर पुनः लौट जाते है। पर अनेकांत का वास्तविक उपयोग तो इसके बाद शुरू होता है। अलग अलग दृष्टिकोण का अपेक्षा के आधार पर विश्लेषण करते हुए अन्ततः तो पूर्ण सत्य तक पहुँचना ही लक्ष्य होना चाहिए।

हम अक्सर देखते है कोई व्यक्ति किसी की ‘बात सुननें’ में बड़ा धैर्य दिखाते है। दूसरों को ‘समझते’ है। उनका व्यवहार बड़ा ‘परिपक्व’ नज़र आता है। वे अपने कथन को बड़ा ही ‘संतुलित’ प्रस्तुत करते है। हम उसे साधु सज्जन या ज्ञानी की उपमा देते है। लेकिन यथार्थ में, वह जाने अनजाने में अनेकांत, अपेक्षावाद या कहें कि दृष्टिवाद का व्यवहार में प्रयोग कर रहे होते है। अगर अनजानें में ही सापेक्षतावाद रूपी साधन, उत्तम व्यक्तित्व प्रदान करने में समर्थ होता है तो इस सिद्धान्त के गहन विस्तृत अध्यन और फिर उसके अनुपालन के बाद तो ज्ञानी बनाना सम्म्भव ही है।

छ: अंधे और हाथी के दृष्टांत में समरूप सत्यांश थे, अब देखते है परस्पर विपरित सत्यांश का दृष्टांत……

दो मित्र अलग अलग दिशा से आते है और पहली बार एक मूर्ती को अपने बीच देखते है। पहला मित्र कहता है यह पुरूष की प्रतिमा है जबकि दूसरा मित्र कहता है नहीं यह स्त्री का बिंब है। दोनो में तकरार होती है। पहला कहे पुरूष है दूसरा कहे स्त्री है। पास से गुजर रहे राहगीर नें कहा ‘सिक्के का दूसरा पहलू भी देखो’। मित्र समझ गए, उन्होंने स्थान बदल दिए। अब पहले वाला कहता है हां यह स्त्री भी है। और दूसरा कहता है सही बात है यह पुरूष भी है।

वस्तुतः किसी कलाकार नें वह प्रतिमा इस तरह ही बनाई थी कि वह एक दिशा से पुरूष आकृति में तो दूसरी दिशा से स्त्री आकार में थी।

यहां हम यह नहीं कह सकते कि दोनो सत्य थे। बस दोनो की बात में सत्य का अंश था। तो पूर्ण सत्य क्या था? पूर्ण सत्य वही था जो कलाकार ने बनाया। वह प्रतिमा एक तरफ स्त्री और दूसरी तरफ पुरूष था, यही बात पूर्ण सत्य थी।

अब आप बताएँ कि आपके दृष्टिकोण से अनेकांतवाद/ सापेक्षतावाद/दृष्टिवाद क्या है?

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