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7 जून 2013

नम्रशीलता

जीवन के आखिरी क्षणों में एक साधु ने अपने शिष्यों को पास बुलाया। जब सब उनके पास आ गए, तब उन्होंने अपना पोपला मुंह पूरा खोल दिया और बोले-"देखो, मेरे मुंह में कितने दांत बच गए हैं?" शिष्य एक स्वर में बोल उठे -"महाराज आपका तो एक भी दांत शेष नहीं बचा।" साधु बोले-"देखो, मेरी जीभ तो बची हुई है।" सबने उत्तर दिया-"हां, आपकी जीभ अवश्य बची हुई है।" इस पर सबने कहा-"पर यह हुआ कैसे?" मेरे जन्म के समय जीभ थी और आज मैं यह चोला छोड़ रहा हूं तो भी यह जीभ बची हुई है। ये दांत पीछे पैदा हुए, ये जीभ से पहले कैसे विदा हो गए? इसका क्या कारण है, कभी सोचा?"

शिष्यों ने उत्तर दिया-"हमें मालूम नहीं। महाराज, आप ही बतलाइए।" उस समय मृदु आवाज में संत ने समझाया- "यही रहस्य बताने के लिए मैंने तुम सबको इस बेला में बुलाया है। इस जीभ में माधुर्य था, मृदुता थी और खुद भी कोमल थी, इसलिए वह आज भी मेरे पास है, परंतु मेरे दांतों में शुरू से ही कठोरता थी, इसलिए वे पीछे आकर भी पहले खत्म हो गए। इसलिए दीर्घजीवी होना चाहते हो, तो कठोरता छोड़ो और विनम्रता सीखो।" एक शिष्य ने गुरू से इसका कोई दूसरा उदाहरण बताने को कहा। संत ने कहा-"क्या तुमने बेंत या बांस नहीं देखा है। आंधी भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती, जबकि तनकर खड़े रहने वाले पेड़ धराशायी हो जाते हैं।" उनकी बात सुनकर शिष्यों को समझ में आ गया कि विनम्रता से काम बन जाता है।

नमे सो आम्बा-आमली, नमे से दाड़म दाख।

एरण्ड बेचारा क्या नमे, जिसकी ओछी शाख॥

26 सितंबर 2011

सही निशाना


पुराने समय की बात है, चित्रकला सीखने के उद्देश्य से एक युवक, कलाचार्य गुरू के पास पहुँचा। गुरू उस समय कला- विद्या में पारंगत और सुप्रसिद्ध थे। युवक की कला सीखने की तीव्र इच्छा देखकर, गुरू नें उसे शिष्य रूप में अपना लिया। अपनें अविरत श्रम से देखते ही देखते यह शिष्य चित्रकला में पारंगत हो गया।  अब वह शिष्य सोचने लगा, मैं कला में पारंगत हो गया हूँ, गुरू को अब मुझे दिक्षान्त आज्ञा दे देनी चाहिए। पर गुरू उसे जाने की आज्ञा नहीं दे रहे थे। हर बार गुरू कहते अभी भी तुम्हारी शिक्षा शेष है। शिष्य तनाव में रहने लगा। वह सोचता अब यहां मेरा जीवन व्यर्थ ही व्यतीत हो रहा है।  मैं कब अपनी कला का उपयोग कर, कुछ बन दिखाउंगा? इस तरह तो मेरे जीवन के स्वर्णिम दिन यूंही बीत जाएंगे।

विचार करते हुए, एक दिन बिना गुरू को बताए, बिना आज्ञा ही उसने गुरूकुल छोड दिया और निकट ही एक नगर में जाकर रहने लगा। वहाँ लोगों के चित्र बनाकर आजिविका का निर्वाह करने लगा। वह जो भी चित्र बनाता लोग देखकर मंत्रमुग्ध हो जाते। हर चित्र हूबहू प्रतिकृति। उसकी ख्याति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ने लगी। उसे अच्छा पारिश्रमिक मिलता। देखते देखते वह समृद्ध हो गया। उसकी कला के चर्चे नगर में फैल गए। उसकी कीर्ती राजा तक पहुँची।

राजा नें उसे दरबार में आमंत्रित किया और उसकी कलाकीर्ती की भूरि भूरि प्रसंसा की। साथ ही अपना चित्र बनाने का निवेदन किया।  श्रेष्ठ चित्र बनाने पर पुरस्कार देने का आश्वासन भी दिया। राजा का आदेश शिरोधार्य करते हुए 15 दिन का समय लेकर, वह युवा कलाकार घर लौटा। घर आते ही वह राजा के अनुपम चित्र रचना के लिए रेखाचित्र बनानें में मशगूल हो गया। पर सहसा एक विचार आया और अनायास ही वह संताप से घिर गया।

वस्तुतः राजा एक आँख से अंधा अर्थात् काना था। उसने सोचा, यदि मैं राजा का हूबहू चित्र बनाता हूँ, और उसे काना दर्शाता हूँ तो निश्चित ही राजा को यह अपना अपमान लगेगा और वह तो राजा है, पारितोषिक की जगह वह मुझे मृत्युदंड़ ही दे देगा। और यदि दोनो आँखे दर्शाता हूँ तब भी गलत चित्र बनाने के दंड़स्वरूप वह मुझे मौत की सजा ही दे देगा। यदि वह चित्र न बनाए तब तो राजा अपनी अवज्ञा से कुपित होकर सर कलम ही कर देगा।किसी भी स्थिति में मौत निश्चित थी।  वह सोच सोच कर तनावग्रस्त हो गया, बचने का कोई मार्ग नजर नहीं आ रहा था। इसी चिंता में न तो वह सो पा रहा था न चैन पा रहा था।

अन्ततः उसे गुरू की याद आई। उसने सोचा अब तो गुरू ही कोई मार्ग सुझा सकते है। मेरा उनके पास जाना ही अब अन्तिम उपाय है। वह शीघ्रता से आश्रम पहुंचा और गुरू चरणों में वंदन किया, अपने चले जाने के लिए क्षमा मांगते हुए अपनी दुष्कर समस्या बताई। गुरू ने स्नेहपूर्ण आश्वासन दिया। और चित्त को शान्त करने का उपदेश दिया।  गुरू नें उसे मार्ग सुझाया कि वत्स तुम राजा का घुड़सवार योद्धा के रूप में चित्रण करो, उन्हें धनुर्धर दर्शाओ। राजा को धनुष पर तीर चढ़ाकर निशाना साधते हुए दिखाओं, एक आँख से निशाना साधते हुए। ध्यान रहे राजा की जो आँख नहीं है उसी आंख को बंद दिखाना है। कलाकार संतुष्ट हुआ।

शिष्य, गुरू के कथनानुसार ही चित्र बना कर राजा के सम्मुख पहुँचा। राजा अपना वीर धनुर्धर स्वरूप का अद्भुत चित्र देखकर बहुत ही प्रसन्न और तुष्ट हुआ। राजा ने कलाकार को 1 लाख स्वर्ण मुद्राएं ईनाम दी। कलाकार नें ततक्षण प्राण बचाने के कृतज्ञ भाव से वे स्वर्ण मुद्राएं गुरू चरणों में रख दी। गुरू नें यह कहते हुए कि "यह तुम्हारे कौशल का प्रतिफल है, इस पर तुम्हारा ही अधिकार है।" आशिर्वाद देते हुए विदा किया।

कथा का बोध क्या है?

1-यदि गुरू पहले ही उपदेश देते  कि- 'पहले तुम परिपक्व हो जाओ', तो क्या शिष्य गुरू की हितेच्छा समझ पाता?  आज्ञा होने तक विनय भाव से रूक पाता?

2-क्या कौशल के साथ साथ बुद्धि, विवेक और अनुभव की शिक्षा भी जरूरी है?

3-निशाना साधते राजा का चित्र बनाना, राजा के प्रति सकारात्म्क दृष्टि से प्रेरित है, या  समाधान की युक्ति मात्र?

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