31 दिसंबर 2010
27 दिसंबर 2010
ब्लॉगजगत में स्थान
एक ब्लॉगर कपडे सिलवाने के उद्देश्य से दर्जी के पास गया। दर्जी अपने काम में व्यस्त था। उसे व्यस्त देखकर वह उसका निरिक्षण करने लगा, उसने देखा वह सुई जैसी छोटी चीज को सम्हाल कर अपने कॉलर में लगा देता और कैंची को वह अपनें पांव तले दबाकर रखता था।
दर्जी दार्शनिक था, उसनें कहा- वैसे तो उद्देश्य यह है कि आवश्यकता होने पर सहज उपल्ब्ध रहे, किन्तु यह वस्तुएँ अपने गुण-स्वभाव के कारण ही उपयुक्त स्थान पाती है। सुई जोडने का कार्य करती है अतः वह कॉलर में स्थान पाती है और कैची काटने का, जुदा करने का कार्य करती है अतः वह पैरो तले स्थान पाती है।
ब्लॉगर सोचने लगा कितना गूढ रहस्य है, सही तो है ब्लॉगर भी अपने इन्ही गुणो के कारण उचित महत्व प्राप्त करते है। जो लोग जोडने का कार्य करते है, ब्लॉगजगत में सम्मान पाते है। और जो तोडने का कार्य करते है, उन्हें कोई सभ्य ब्लॉगर महत्व नहीं देता।
दर्जी दार्शनिक था, उसनें कहा- वैसे तो उद्देश्य यह है कि आवश्यकता होने पर सहज उपल्ब्ध रहे, किन्तु यह वस्तुएँ अपने गुण-स्वभाव के कारण ही उपयुक्त स्थान पाती है। सुई जोडने का कार्य करती है अतः वह कॉलर में स्थान पाती है और कैची काटने का, जुदा करने का कार्य करती है अतः वह पैरो तले स्थान पाती है।
ब्लॉगर सोचने लगा कितना गूढ रहस्य है, सही तो है ब्लॉगर भी अपने इन्ही गुणो के कारण उचित महत्व प्राप्त करते है। जो लोग जोडने का कार्य करते है, ब्लॉगजगत में सम्मान पाते है। और जो तोडने का कार्य करते है, उन्हें कोई सभ्य ब्लॉगर महत्व नहीं देता।
जैसे गुण वैसा स्थान, अनावश्यक हाय-तौबा मचाने का क्या फायदा?
कैंची, आरा, दुष्टजन जुरे देत विलगाय !
सुई,सुहागा,संतजन बिछुरे देत मिलाय !!
सुई,सुहागा,संतजन बिछुरे देत मिलाय !!
प्रस्तुतकर्ता:
सुज्ञ
25 दिसंबर 2010
ब्लॉगजगत, संतब्लॉगर और आशिर्वाद
ब्लॉगजगत में एक संत ब्लॉगर, ब्लॉग दर ब्लॉग घूम रहे थे। साथ एक शिष्यब्लॉगर भी था। संतब्लॉगर छांट-छांट कर ब्लॉग्स पर आशिर्वाद - टिप्पणियाँ कर रहे थे। अच्छे विचारों वाले ब्लॉग्स पर आशिर्वाद देते “आपका ब्लॉग न जमें” और दुर्विचारों वाले ब्लॉग्स पर आशिर्वाद देते “आपका ब्लॉग, पोस्ट-दर-पोस्ट से हरा भरा रहे”
शिष्यब्लॉगर को बडा आश्चर्य हो रहा था, उसने पूछा महात्मन् यह क्या? आप बुरे विचार फ़ैलाने वालों को तो पोस्टों से भरने-फूलने का आशिर्वाद दे रहे है, और अच्छे ब्लॉग्स को उजडने का?
संतब्लॉगर ने शिष्य को समझाते हुए कहा- अच्छे विचारवान ब्लॉगर कहीं भी जाय, हमेशा अच्छे विचारों का प्रसार ही करेंगे, जब उनके ब्लॉग नहीं जमेंगे तो वे निश्चित ही दूसरे ब्लॉग पर अच्छे विचारों की टिप्पणियाँ करेंगे, जिससे अच्छे विचारों का प्रसार होगा।
शिष्यब्लॉगर- तो फ़िर दुर्विचारों वाले ब्लॉग्स को अधिक पोस्ट का आशिर्वाद क्यों?
संतब्लॉगर- वे दुर्विचार वाले ब्लॉगर, मात्र अपने ब्लॉग पर लिखने में ही व्यस्त रहेंगे। इसतरह उन्हें दूसरे ब्लॉग्स पर कुविचार टिप्पणियाँ करने का समय ही नहीं मिलेगा। जिससे दुर्विचार का फैलाव न होगा, और दुर्विचार उनके अपने ब्लॉग तक सीमित हो जाएँगे। जिन पाठको का सद्विचार से दूर दूर तक कोई नाता न होगा, वे पाठक ही उन ब्लॉग्स पर जाएगें। और इस तरह दुर्विचारों का प्रसार व प्रचार न हो पाएगा।
शिष्यब्लॉगर, संतब्लॉगगुरू की औजस्वी निर्मलवाणी में छिपी दूरदृष्टि देख नतमस्तक हो गया।
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15 दिसंबर 2010
गंतव्य की दुविधा
यात्री पैदल रवाना हुआ, अंधेरी रात का समय, हाथ में एक छोटी सी टॉर्च। मन में विकल्प उठा, मुझे पांच मील जाना है,और इस टॉर्च की रोशनी तो मात्र पांच छः फ़ुट ही पडती है। दूरी पांच मील लम्बी और प्रकाश की दूरी-सीमा अतिन्यून। कैसे जा पाऊंगा? न तो पूरा मार्ग ही प्रकाशमान हो रहा है न गंतव्य ही नजर आ रहा है। वह तर्क से विचलित हुआ, और पुनः घर में लौट आया। पिता ने पुछा क्यों लौट आये? उसने अपने तर्क दिए - "मैं मार्ग ही पूरा नहीं देख पा रहा, मात्र छः फ़ुट प्रकाश के साधन से पांच मील यात्रा कैसे सम्भव है। बिना स्थल को देखे कैसे निर्धारित करूँ गंतव्य का अस्तित्व है या नहीं।" पिता ने सर पीट लिया……
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प्रस्तुतकर्ता:
सुज्ञ
13 दिसंबर 2010
ब्लॉग मैं लिखता हूँ बस सुमार्ग के लिए
निरीह जीवहिंसा में जिनको शर्म नहीं है।
बदनीयत के बहाने, सच्चा कर्म नहीं है।
भूख स्वाद की कुतर्की में मर्म नहीं है।
‘जो मिले वह खाओ’ सच्चा धर्म नहीं है।
मनों से अनुकम्पा कहीं नष्ट हो न जाए।
सभ्यता विकास आदिम भ्रष्ट हो न जाए।
इसलिये मैं लिखता दुर्भाव त्याग के लिए।
ब्लॉग मैं लिखता हूँ बस सुमार्ग के लिए।
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11 दिसंबर 2010
ब्लॉग मैं लिखता हूँ इस यकीन के लिए
मानव है तो मानवता की कद्र कुछ कीजिए।
अभावग्रस्त बंधुओ पर थोडा ध्यान दीजिए।
जो सुबह खाते और शाम भूखे सोते है
पानी की जगह अक्सर आंसू पीते है।
आंसू उनके उमडता सैलाब हो न जाए।
और देश के बेटे कहीं यूं तेज़ाब हो न जाए।
इसलिए मैं लिखता अन्तिम दीन के लिए।
ब्लॉग मैं लिखता हूँ इस यकीन के लिए॥
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10 दिसंबर 2010
ब्लॉग मैं लिखता हूँ इस अभिलाषा के लिए
आभिव्यक्ति का अक्षत अनुशासन है हिन्दी।
सहज सरल बोध सा संभाषण है हिन्दी।
समभाषायी छत्र में सबको एक करती है।
कई लोगों का भारती अब भी पेट भरती है।
प्रलोभन में हिन्दी का कहीं हास हो न जाए।
मेरी मातृ वाणी का उपहास हो न जाय।
मेरी मातृ वाणी का उपहास हो न जाय।
इसलिए मैं लिखता मेरी भाषा के लिए।
ब्लॉग मैं लिखता हूँ इस अभिलाषा के लिए॥
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9 दिसंबर 2010
ब्लॉग मैं लिखता हूँ अभिव्यक्ति के लिए
सभ्यता की मांग है शिक्षा संस्कार की।
विवेक से पाई यह विद्या पुरस्कार सी।
किन्तु अश्लील दृश्य देखे मेरे देश की पीढी।
गर्त भी इनको लगती विकास की सीढी।
कपडों से कहीं यह पीढी कंगली ना हो जाय।
नाच इनका भी कहीं जंगली ना हो जाय।
इसलिये मैं लिखता नूतनशक्ति के लिए।
ब्लॉग मैं लिखता हूँ अभिव्यक्ति के लिए॥
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4 दिसंबर 2010
जीवन के 50 वर्ष मैने बालक अवस्था में ही खो दिए
आज मेरा चिंतन दिवस है। निश्चित ही बहुमूल्य मनुष्य जीवन पाना अतिदुर्लभ है। पता नहीं कितने ही शुभकर्मों के पश्चात यह मनुष्यायु प्राप्त होती है। कठिन शुभकर्मों से उपार्जित इस प्रतिफल को मुझे वेस्ट करना है या पुनः उत्थान विकास के लिये इनवेस्ट करना है।
क्या मेरा उद्देश्य निरंतर विकास नहीं होना चाहिए? यदि साधना विकास है तो साध्य क्या है? चरम परिणिति क्या है। क्या है जो मुझे पाना चाहिए? यदि लक्ष्य निर्धारित हो जाय तो मै उस और सामर्थ्यानुसार गति कर पाऊँ।
वस्तुतः मै परम् सुख चाहता हूँ, ऐसा सुख जो स्थाई रहे, जिसके बाद पुनः दुख न आए। अनंत सुख जहाँ सुख-दुख का भेद ही समाप्त हो जाए। क्षणिक सुखों की तरह नहीं कि आए और जाए। वो सुख भी नहीं, जिसे इन सांसारिक सुखों से तुलना कर परिभाषित किया जाय। इन भौतिक सुखो के समान प्रलोभन दिया जाय अथवा लॉलीपॉप की तरह दूर से दर्शाया जाय।
क्या मैं किसी ‘जजमेंट डे’ के भरोसे जिऊँ, जहाँ अच्छे या बुरे कर्म में भेद तय करने का अवसर ही नहीं मिलेगा? सीधी ही सजा मुक्कर्र हो जायेगी।और मेरे पास अपने कर्म में सुधार, परिमार्जन का समय ही नहीं होगा? नहीं अब तो मेरा हर पल आखरत होना चाहिए। मुझे हर क्षण शुभ कर्म और सार्थक गुण अपनाने चाहिए बिना किसी भय या संशय के। मेरा विवेक हर पल जाग्रत रहना चाहिए। चिंतन मनन मेरे गवाह रहने चाहिए। मेरे विचारों का क्षण क्षण, प्रतिलेखन, समीक्षा और शुद्धिकरण अनवरत जारी रहना चाहिए। क्षण मात्र का प्रमाद किए बिना।
जीवन के 50 वर्ष मैने बालक अवस्था में ही खो दिए। कब आयेगी मुझ में पुख्तता? पुरूषार्थ की इच्छाएँ तो बहुत है पर इस मार्ग पर इतनी बाधाएँ क्यों? मनोरथ तो मात्र तीन है…… निस्पृह, संयम और समाधी!!
आज मेरा जन्मदिन है। यही चिंतन चल रहा है। मुझे मनुष्य जन्म क्यों मिला? क्या है मेरा प्रयोजन?
मेरे आत्मोत्थान में मददगार उदगार देकर, मेरे प्रेरकबल बनें। मुझे प्रेरणा व प्रोत्साहन दें……।
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28 नवंबर 2010
आजीविका मुक्तक
- आजीविका कर्म भी धर्म-प्रेरित चरित्र युक्त करना चाहिए।
- जीवन निर्वाह के साथ साथ जीवन निर्माण भी करना चाहिए।
- परिवार का निर्वाह गृहस्वामी बनकर नहीं बल्कि गृहन्यासी (ट्रस्टी) बनकर निस्पृह भाव से करना चाहिए।
- सत्कर्म से प्रतिष्ठा अर्जित करें व सद्चरित्र से विश्वस्त बनें।
- कथनी व करनी में समन्वय करें।
- कदैया (परदोषदर्शी) नहिं, सदैया (परगुणदर्शी) बने।
- सद्गुण अपनानें में स्वार्थी बनें, आपका चरित्र स्वतः परोपकारी बन जायेगा।
- इन्द्रिय विषयों व भावनात्मक आवेगों में संयम बरतें।
- उपकारी के प्रति कृतज्ञ भाव और अपकारी के प्रति समता भाव रखें।
- भोग-उपभोग को मर्यादित करके, संतोष चिंतन में उतरोत्तर वृद्धि करनी चाहिए।
- आय से अधिक खर्च करने वाला अन्ततः पछताता है।
- कर्ज़ लेकर दिखावा करना, शान्ती बेच कर संताप खरीदना है।
- प्रत्येक कार्य में लाभ हानि का विचार अवश्य करना चाहिए, फिर चाहे कार्य ‘वचन व्यवहार’ मात्र ही क्यों न हो।
- आजीविका-कार्य में जो साधारण सा झूठ व साधारण सा रोष विवशता से प्रयोग करना पडे, पश्चाताप चिंतन कर लेना चाहिए।
- राज्य विधान विरुद्ध कार्य (करचोरी, भ्रष्टाचार आदि) नहीं करना चाहिए। त्रृटिवश हो जाय तब भी ग्लानी भाव महसुस करना चाहिए।
27 नवंबर 2010
ऐसा न करो, मित्र………न करो!!
- कलह बढे ऐसे वचन न कहो
- सिरदर्द करे ऐसा पठन न करो
- क्रूरता बढे ऐसा चिंतन न करो
- अपकीर्ती हो ऐसा वर्तन न करो
- वासना बढे ऐसा मनन न करो
- पेटदर्द हो ऐसा भोजन न करो
25 नवंबर 2010
आहार स्रोत के विचारों का मनोवृति पर प्रभाव
स्वादेन्द्रीय के रास्ते आचार और विचारों में विकार
क्या इसतरह होना चाहिए…?
घर में हमेशा हमें बच्चों के सामने गालियों का प्रयोग करना चाहिये, ऐसे थोडा ही है कि बच्चे गालियां ही सीखेंगे? न भी सीखे और अच्छे शब्द ही अपनाए। या फ़िर उन्ही का अधिकार होना चाहिए वे क्या सीखें क्या बोलें।
बच्चों के समक्ष ही टीवी पर थोडे बहुत अश्लील हिंसक फ़िल्म-कार्यक्रम देखने चाहिए, कोई देखने सुनने मात्र से थोडे ही ऐसी हरकते करने लगेंगे? और उन्हे क्या देखना क्या सुनना उनका अधिकार है जब बडे होंगे तो स्वतः ही निर्णय कर लेंगे क्या करना है और क्या नहीं, यह उनका अधिकार होना चाहिए।
नहीं ना?
फ़िर भला हिंसक कृत्यों व मंतव्यो से ही उत्पन्न, मांसाहार से मन में हिंसक विचारों का प्रस्फुटन क्यों नहीं हो सकता? यह तर्क निर्थक हो जाता है कि 'जरूरी नहीं मांसाहारी क्रूर प्रकृति के ही हों।' न भी हों, किन्तु क्रूर प्रकृति के पनपने की संभावनाएं अधिक ही हो जाती है। विवेकशीलता इसी में है कि हमें परिणामो से पूर्व ही सम्भावनाओं से बचने के उपाय कर लेने चाहिए।
किसी जीव की हिंसा किये बिना मांस प्राप्त करना असंभव है। हिंसा से विरत हुए बिना अहिंसा-भाव को ह्रदय में जगाना असम्भव है, अतः अहिंसा-भाव के अभाव में, दया, करूणा, प्रेम, अनुकम्पा, वात्सल्य दिखावे के शब्द मात्र रह जाते है। जीवों के प्रति करूणा लाए बिना, अहिंसा की मनोवृति प्रबल नहीं हो सकती। यह कुतर्क विषय से भ्रमित करने के लिए है कि 'पहले मानव के प्रति हिंसा समाप्त की जाय उसके बाद ही जानवरों पर दया के बारे में सोचा जाय।' मानव के साथ तो होने वाली हिंसाएं उसी के द्वेष और क्रोध का परिणाम होती है, और मानव के लिये द्वेष और क्रोध पर पूर्ण जीत हासिल करना आज तो सम्भव नहीं है। और निरिह निर्दोष जीव के साथ हमारे सम्बंध इस प्रकार क्रोध - द्वेष के साथ नहीं बिगडते, फ़िर इन निरपराधी ईश्वर की संतानों को क्यों दंड दिया जाय। अतः मै समझता हू मानव के कोमल भावों की अभिवृद्धि के लिये भी अहिंसा, जीवों से ही प्रारंभ की जानी चाहिए। वही विस्तृत होकर, परस्पर मानव सम्बंधो से भी क्रूरता दूर करने की प्रेरक बनती है। वस्तुतः समुचित अहिंसा के विचार ही हमें मानवों के प्रति भी सहिष्णु बनाते है। सर्वभूतों से सम्पूर्ण, सम्यक प्रेम ही, निष्पक्ष अहिंसा की मनोवृति को दृढ़भूत कर सकता है।
दृष्टांत :
जैसा अन्न वैसा मन, जैसा पाणी वैसी वाणी
क्या इसतरह होना चाहिए…?
घर में हमेशा हमें बच्चों के सामने गालियों का प्रयोग करना चाहिये, ऐसे थोडा ही है कि बच्चे गालियां ही सीखेंगे? न भी सीखे और अच्छे शब्द ही अपनाए। या फ़िर उन्ही का अधिकार होना चाहिए वे क्या सीखें क्या बोलें।
बच्चों के समक्ष ही टीवी पर थोडे बहुत अश्लील हिंसक फ़िल्म-कार्यक्रम देखने चाहिए, कोई देखने सुनने मात्र से थोडे ही ऐसी हरकते करने लगेंगे? और उन्हे क्या देखना क्या सुनना उनका अधिकार है जब बडे होंगे तो स्वतः ही निर्णय कर लेंगे क्या करना है और क्या नहीं, यह उनका अधिकार होना चाहिए।
नहीं ना?
फ़िर भला हिंसक कृत्यों व मंतव्यो से ही उत्पन्न, मांसाहार से मन में हिंसक विचारों का प्रस्फुटन क्यों नहीं हो सकता? यह तर्क निर्थक हो जाता है कि 'जरूरी नहीं मांसाहारी क्रूर प्रकृति के ही हों।' न भी हों, किन्तु क्रूर प्रकृति के पनपने की संभावनाएं अधिक ही हो जाती है। विवेकशीलता इसी में है कि हमें परिणामो से पूर्व ही सम्भावनाओं से बचने के उपाय कर लेने चाहिए।
किसी जीव की हिंसा किये बिना मांस प्राप्त करना असंभव है। हिंसा से विरत हुए बिना अहिंसा-भाव को ह्रदय में जगाना असम्भव है, अतः अहिंसा-भाव के अभाव में, दया, करूणा, प्रेम, अनुकम्पा, वात्सल्य दिखावे के शब्द मात्र रह जाते है। जीवों के प्रति करूणा लाए बिना, अहिंसा की मनोवृति प्रबल नहीं हो सकती। यह कुतर्क विषय से भ्रमित करने के लिए है कि 'पहले मानव के प्रति हिंसा समाप्त की जाय उसके बाद ही जानवरों पर दया के बारे में सोचा जाय।' मानव के साथ तो होने वाली हिंसाएं उसी के द्वेष और क्रोध का परिणाम होती है, और मानव के लिये द्वेष और क्रोध पर पूर्ण जीत हासिल करना आज तो सम्भव नहीं है। और निरिह निर्दोष जीव के साथ हमारे सम्बंध इस प्रकार क्रोध - द्वेष के साथ नहीं बिगडते, फ़िर इन निरपराधी ईश्वर की संतानों को क्यों दंड दिया जाय। अतः मै समझता हू मानव के कोमल भावों की अभिवृद्धि के लिये भी अहिंसा, जीवों से ही प्रारंभ की जानी चाहिए। वही विस्तृत होकर, परस्पर मानव सम्बंधो से भी क्रूरता दूर करने की प्रेरक बनती है। वस्तुतः समुचित अहिंसा के विचार ही हमें मानवों के प्रति भी सहिष्णु बनाते है। सर्वभूतों से सम्पूर्ण, सम्यक प्रेम ही, निष्पक्ष अहिंसा की मनोवृति को दृढ़भूत कर सकता है।
दृष्टांत :
जैसा अन्न वैसा मन, जैसा पाणी वैसी वाणी
23 नवंबर 2010
अहसान फ़रामोश ये तूने क्या किया।बहाने तो मत बना कृतघ्न।
तेरे जीवन निर्वाह के लिये, तेरी आवश्यकता से भी अधिक संसाधन तुझे प्रकृति ने दिए। किन्तु तुने उसका अनियंत्रित, अनवरत दोहन व शोषण आरंभ कर दिया। तुझे प्रकृति ने धरा का मुखिया बनाया, तुने अन्य सदस्यों के मुंह का निवाला भी छीन लिया। तेरी सहायता के लिये प्राणी बने, मगर तुने उन्हे पने पेट का खड्डा भरने का साधन बनाया। सवाल मात्र पेट का होता तो जननी धरा इतनी दुखी न होती। पर स्वाद की खातिर, तूँ इतना भ्रष्ट हुआ कि अखिल प्रकृति पाकर भी तूं तुष्ट न हुआ, धृष्टता से भूख और अभाव के बहाने रोता ही रहा। तेरे पेट की तृष्णा तो कदाचित शान्त हो जाय, पर तेरी बेलगाम इच्छाओं की तृष्णा कभी शान्त न हुई, कृतघ्न मानव।
जितना लिया इस प्रकृति से, उसका रत्तीभर अंश भी लौटाने की तेरी नीयत न रही। लौटाना तो क्या, संयत उपयोग भी तेरी सद्भावना न हुई। प्रकृति ने तुझे संतति विस्तार का वरदान दिया कि तूं अपनी संतान को माँ प्रकृति के संरक्षण में नियुक्त करता,अपनी संतति को प्रकृति के मितव्ययी उपभोग की शिक्षा देता। इस विध संतति विस्तार के वरदान का ॠण चुकाता। किन्तु निर्लज्ज!! तुने अपनी औलादों से लूटेरो की फ़ौज़ बनाई और छोड दिया कृपालु प्रकृति को रौंदने के लिए। वन लूटे, जीव-प्राण लूटे, पहाड के पहाड लूटे।निर्मल बहती नदियाँ लूटी,उपजाऊ जमीने लूटी। समुद्र का खार लूटा, स्वर्णधूल अंबार लूटा। इससे भी तेरा पेट न भरा तो, खोद तरल तेल रक्त लूटा।
तूने एक एक कर प्रकृति के सारे गहने उतार, उसे विरान बना दिया। अरे! बंजरप्रिय!! कृतघ्न मानव!!! प्रकृति तो तब भी ममतामयी माँ है, उससे तो तुझ कपूत का कोई दुख देखा नहीं जाता, उसे यह चिंता सताती है कि मेरे उजाड पर्यावरण से भी बच्चो को कोई तकलीफ न हो।अभी भी गोद में आश्रय दिए हुए है। थपकी दे दे वह संयम का संदेश देती है, गोद से गिर पड़ता है पर सीखता नहीं। भोगलिप्त अंधा बना भूख भूख चिल्लाता रहता है। पोषक के कर्ज़ से मुक्त होने की तेरी कभी नीयत ही न रही। हे! अहसान फ़रामोश इन्सान!! कृतघ्न मानव!!! ______________________________________________________________________
जितना लिया इस प्रकृति से, उसका रत्तीभर अंश भी लौटाने की तेरी नीयत न रही। लौटाना तो क्या, संयत उपयोग भी तेरी सद्भावना न हुई। प्रकृति ने तुझे संतति विस्तार का वरदान दिया कि तूं अपनी संतान को माँ प्रकृति के संरक्षण में नियुक्त करता,अपनी संतति को प्रकृति के मितव्ययी उपभोग की शिक्षा देता। इस विध संतति विस्तार के वरदान का ॠण चुकाता। किन्तु निर्लज्ज!! तुने अपनी औलादों से लूटेरो की फ़ौज़ बनाई और छोड दिया कृपालु प्रकृति को रौंदने के लिए। वन लूटे, जीव-प्राण लूटे, पहाड के पहाड लूटे।निर्मल बहती नदियाँ लूटी,उपजाऊ जमीने लूटी। समुद्र का खार लूटा, स्वर्णधूल अंबार लूटा। इससे भी तेरा पेट न भरा तो, खोद तरल तेल रक्त लूटा।
तूने एक एक कर प्रकृति के सारे गहने उतार, उसे विरान बना दिया। अरे! बंजरप्रिय!! कृतघ्न मानव!!! प्रकृति तो तब भी ममतामयी माँ है, उससे तो तुझ कपूत का कोई दुख देखा नहीं जाता, उसे यह चिंता सताती है कि मेरे उजाड पर्यावरण से भी बच्चो को कोई तकलीफ न हो।अभी भी गोद में आश्रय दिए हुए है। थपकी दे दे वह संयम का संदेश देती है, गोद से गिर पड़ता है पर सीखता नहीं। भोगलिप्त अंधा बना भूख भूख चिल्लाता रहता है। पोषक के कर्ज़ से मुक्त होने की तेरी कभी नीयत ही न रही। हे! अहसान फ़रामोश इन्सान!! कृतघ्न मानव!!! ______________________________________________________________________
धर्म का असर दिखाई नहीं पडता।
धर्म का असर दिखाई नहीं पडता।
(यहां धर्म से आशय, अच्छे गुणो की शिक्षा देने वाला धर्म, न कि कोई निश्चित रूढ उपासना पद्दति।)
एक व्यक्ति ने साधक से पूछा “ क्या कारण है कि आज धर्म का असर नहीं होता?”
साधक बोले- यहाँ से दिल्ली कितनी दूर है?, उसने कहा- दो सौ माईल।
“तुम जानते हो?” हां मै जानता हूँ।
क्या तुम अभी दिल्ली पहूँच गये?
पहूँचा कैसे?,अभी तो यहाँ चलूंगा तब पहुँचूंगा।
साधक बोले, यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है, दिल्ली तुम जानते हो, पर जब तक तुम उस और प्रस्थान नहीं करोगे तब तक दिल्ली नहीं पहुँच सकोगे। यही बात धर्म के लिये है। लोग धर्म को जानते है, पर जब तक उसके नियमों पर नहीं चलेंगे, उस और गति नहीं करेंगे, धर्म पा नहीं सकेंगे, अंगीकार किये बिना धर्म का असर कैसे होगा?
धर्म का प्रभाव नहीं पडता।
शिष्य गुरु के पास आकर बोला, गुरुजी हमेशा लोग प्रश्न करते है कि धर्म का असर क्यों नहीं होता,मेरे मन में भी यह प्रश्न चक्कर लगा रहा है।
गुरु समयज्ञ थे,बोले- वत्स! जाओ, एक घडा शराब ले आओ।
शिष्य शराब का नाम सुनते ही आवाक् रह गया। गुरू और शराब! वह सोचता ही रह गया। गुरू ने कहा सोचते क्या हो? जाओ एक घडा शराब ले आओ। वह गया और एक छलाछल भरा शराब का घडा ले आया। गुरु के समक्ष रख बोला-“आज्ञा का पालन कर लिया”
गुरु बोले – “यह सारी शराब पी लो” शिष्य अचंभित, गुरु ने कहा शिष्य! एक बात का ध्यान रखना, पीना पर शिघ्र कुल्ला थूक देना, गले के नीचे मत उतारना।
शिष्य ने वही किया, शराब मुंह में भरकर तत्काल थूक देता, देखते देखते घडा खाली हो गया। आकर कहा- “गुरुदेव घडा खाली हो गया”
“तुझे नशा आया या नहिं?” पूछा गुरु ने।
गुरुदेव! नशा तो बिल्कुल नहीं आया।
अरे शराब का पूरा घडा खाली कर गये और नशा नहीं चढा?
“गुरुदेव नशा तो तब आता जब शराब गले से नीचे उतरती, गले के नीचे तो एक बूंद भी नहीं गई फ़िर नशा कैसे चढता”
बस फिर धर्म को भी उपर उपर से जान लेते हो, गले के नीचे तो उतरता ही नहीं, व्यवहार में आता नहिं तो प्रभाव कैसे पडेगा।
पतन सहज ही हो जाता है, उत्थान बडा दुष्कर।, दोषयुक्त कर्म प्रयोग सहजता से हो जाता है,किन्तु सत्कर्म के लिए विशेष प्रयासों की आवश्यकता होती है।पुरुषार्थ की अपेक्षा रहती ही है। जिस प्रकार वस्त्र सहजता से फट तो सकता है पर वह सहजता से सिल नहीं सकता। बस उसी प्रकार हमारे दैनदिनी आवश्यकताओं में दूषित कार्य संयोग स्वतः सम्भव है, व उस कारण अधोपतन सहज ही हो जाता है, लेकिन चरित्र उत्थान व गुण निर्माण के लिये दृढ पुरुषार्थ की आवश्यकता रहती है।
(यहां धर्म से आशय, अच्छे गुणो की शिक्षा देने वाला धर्म, न कि कोई निश्चित रूढ उपासना पद्दति।)
एक व्यक्ति ने साधक से पूछा “ क्या कारण है कि आज धर्म का असर नहीं होता?”
साधक बोले- यहाँ से दिल्ली कितनी दूर है?, उसने कहा- दो सौ माईल।
“तुम जानते हो?” हां मै जानता हूँ।
क्या तुम अभी दिल्ली पहूँच गये?
पहूँचा कैसे?,अभी तो यहाँ चलूंगा तब पहुँचूंगा।
साधक बोले, यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है, दिल्ली तुम जानते हो, पर जब तक तुम उस और प्रस्थान नहीं करोगे तब तक दिल्ली नहीं पहुँच सकोगे। यही बात धर्म के लिये है। लोग धर्म को जानते है, पर जब तक उसके नियमों पर नहीं चलेंगे, उस और गति नहीं करेंगे, धर्म पा नहीं सकेंगे, अंगीकार किये बिना धर्म का असर कैसे होगा?
धर्म का प्रभाव नहीं पडता।
शिष्य गुरु के पास आकर बोला, गुरुजी हमेशा लोग प्रश्न करते है कि धर्म का असर क्यों नहीं होता,मेरे मन में भी यह प्रश्न चक्कर लगा रहा है।
गुरु समयज्ञ थे,बोले- वत्स! जाओ, एक घडा शराब ले आओ।
शिष्य शराब का नाम सुनते ही आवाक् रह गया। गुरू और शराब! वह सोचता ही रह गया। गुरू ने कहा सोचते क्या हो? जाओ एक घडा शराब ले आओ। वह गया और एक छलाछल भरा शराब का घडा ले आया। गुरु के समक्ष रख बोला-“आज्ञा का पालन कर लिया”
गुरु बोले – “यह सारी शराब पी लो” शिष्य अचंभित, गुरु ने कहा शिष्य! एक बात का ध्यान रखना, पीना पर शिघ्र कुल्ला थूक देना, गले के नीचे मत उतारना।
शिष्य ने वही किया, शराब मुंह में भरकर तत्काल थूक देता, देखते देखते घडा खाली हो गया। आकर कहा- “गुरुदेव घडा खाली हो गया”
“तुझे नशा आया या नहिं?” पूछा गुरु ने।
गुरुदेव! नशा तो बिल्कुल नहीं आया।
अरे शराब का पूरा घडा खाली कर गये और नशा नहीं चढा?
“गुरुदेव नशा तो तब आता जब शराब गले से नीचे उतरती, गले के नीचे तो एक बूंद भी नहीं गई फ़िर नशा कैसे चढता”
बस फिर धर्म को भी उपर उपर से जान लेते हो, गले के नीचे तो उतरता ही नहीं, व्यवहार में आता नहिं तो प्रभाव कैसे पडेगा।
पतन सहज ही हो जाता है, उत्थान बडा दुष्कर।, दोषयुक्त कर्म प्रयोग सहजता से हो जाता है,किन्तु सत्कर्म के लिए विशेष प्रयासों की आवश्यकता होती है।पुरुषार्थ की अपेक्षा रहती ही है। जिस प्रकार वस्त्र सहजता से फट तो सकता है पर वह सहजता से सिल नहीं सकता। बस उसी प्रकार हमारे दैनदिनी आवश्यकताओं में दूषित कार्य संयोग स्वतः सम्भव है, व उस कारण अधोपतन सहज ही हो जाता है, लेकिन चरित्र उत्थान व गुण निर्माण के लिये दृढ पुरुषार्थ की आवश्यकता रहती है।
19 नवंबर 2010
वाह रे ! इन्सान तेरी इन्सानियत…………
इन्सान, जो भी दुनिया में है सभी को खाना अपना अधिकार मानता है।
इन्सान, पूरी प्रकृति को भोगना अपना अधिकार मानता है।
इन्सान, अपने लिये ही मानवाधिकार आयोग बनाता है।
इन्सान, अपने विचार थोपने के लिये अपने बंधु मानव की हत्या करता है।
इन्सान, स्वयं को शोषित और अपने ही बंधु-मानव को शोषक कहता है।
इन्सान, स्वार्थ में अंधा प्रकृति के अन्य जीवों से बेर रखता है।
इन्सान, कृतघ्न जिसका दूध पीता है उसे ही मार डालता है।
इन्सान, कृतघ्न अपना बोझा ढोने वाले सेवक जीव को ही खा जाता है।
ऐसी हो जब नीयत, क्या इसी को कहते है इन्सान की
इन्सानियत?……………
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इन्सानियत?……………
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16 नवंबर 2010
बंधन
एक दार्शनिक जा रहा था। साथ में मित्र था। सामने से एक गाय आ रही थी, रस्सी गाय के बंधी हुई और गाय मालिक रस्सी थामे हुए। दार्शनिक ने देखा, साक्षात्कार किया और मित्र से प्रश्न किया- “बताओ ! गाय आदमी से बंधी है या आदमी गाय से बंधा हुआ है?” मित्र नें तत्काल उत्तर दिया “यह तो सीधी सी बात है, गाय को आदमी पकडे हुए है, अतः गाय ही आदमी से बंधी हुई है।
दार्शनिक बोला- यदि यह गाय रस्सी छुडाकर भाग जाए तो आदमी क्या करेगा? मित्र नें कहा- गाय को पकडने के लिये उसके पीछे दौडेगा। तब दार्शनिक ने पूछा- इस स्थिति में बताओ गाय आदमी से बंधी है या आदमी गाय से बंधा हुआ है? आदमी भाग जाए तो गाय उसके पीछे नहिं दौडेगी। जबकि गाय भागेगी तो आदमी अवश्य उसके पीछे अवश्य दौडेगा। तो बंधा हुआ कौन है? आदमी या गाय। वस्तुतः आदमी ही गाय के मोहपाश में बंधा है।
व्यवहार और चिंतन में यही भेद है।
मानव जब गहराई से चिंतन करता है तो भ्रम व यथार्थ में अन्तर स्पष्ठ होने लगता है।
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प्रस्तुतकर्ता:
सुज्ञ
15 नवंबर 2010
दरिद्र
आस्था दरिद्र : जो सत्य पर भी कभी आस्थावान नहीं होता।
त्याग दरिद्र : समर्थ होते हुए भी, जिससे कुछ नहीं छूटता।
दया दरिद्र : प्राणियों पर लेशमात्र भी अनुकम्पा नहीं करता।
संतोष दरिद्र : आवश्यकता पूर्ण होनें के बाद भी इच्छाएँ तृप्त नहीं होती।
वचन दरिद्र : जिव्हा पर कभी भी मधुर वचन नहीं होते।
मनुज दरिद्र : मानव बनकर भी जो पशुतुल्य तृष्णाओं से मुक्त नहीं हो पाता।
धन दरिद्र : जिसके पास अल्प धन भी नहीं होता।
और भी दरिद्र हो सकते है, आप बताईए………?
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सुख दुःख तो मात्र बहाना है, सभी को अपना अहम् ही सहलाना है।
बचपन में एक चुटकला सुना था, लोग रेल यात्रा कर रहे थे। एक व्यक्ति खडा हुआ और खिडकी खोल दी, थोडी ही देर में दूसरा यात्री उठा और उसने खिडकी बंद कर दी। पहले को उसका यह बंद करना नागवार गुजरा और उठ कर खिडकी पुनः खोलदी। एक बंद करता दूसरा खोल देता। नाटक शुरु हो गया। यात्रियों का मनोरंजन हो रहा था, लेकिन अंततः सभी तंग आ गये। टी टी को बुलाया गया, टी टी ने पुछा- "महाशय ! यह क्या कर रहे हो? क्यों बार बार खोल-बंद कर रहे हो?" पहला यात्री बोला- क्यों न खोलूं , "मैं गर्मी से परेशान हूं, खिडकी खुली ही रहनी चाहिए।" टी टी ने दूसरे यात्री को कहा- "भाई आपको क्या आपत्ति है, अगर खिडकी खुली रहे।" इस दूसरे यात्री ने कहा मुझे ठंड लग रही है, मुझे ठंड सहन नहीं होती। टी टी बेचारा परेशान, एक को गर्मी लग रही है तो दूसरे को ठंड। टी टी यह सोचकर खिडकी के पास गया कि कोई बीच का रास्ता निकल आए। उसने देखा और मुस्करा दिया। खिडकी में शीशा था ही नहीं। वहाँ तो मात्र फ़्रेम थी, वह बोला- "कैसी गर्मी या कैसी ठंडी? यहां तो शीशा ही गायब है, आप दोनो तो मात्र फ़्रेम को ही उपर नीचे कर रहे हो।"
वस्तुतः दोनों यात्री न तो गर्मी और न ही ठंडी से परेशान थे। वे परेशान थे तो मात्र अपने अभिमान से। अपने अहं पोषण में लिप्त थे, गर्मी या ठंडी का अस्तित्व ही नहीं था।
अधिकांश कलह मात्र इसलिये होते है कि अहंकार को चोट पहुँचती है।और आदमी को सबसे ज्यादा आनंद दूसरे के अहंकार को चोट पहुँचाने में आता है्। साथ ही सबसे ज्यादा क्रोध अपने अहंकार पर चोट लगने से होता है। जो दूसरो के अहंकार को चोट पहुँचाने में सफ़ल होता है, वह मान लेता है उसने बहुत ही बड़ा गढ़ जीत लिया, वह यह मानकर चलता है कि दूसरों के स्वाभिमान की रेखा को काटपीट कर ही वह सम्मानित बन सकता है। किन्तु परिणाम अज्ञानता भरी शर्म से अधिक कुछ नहीं होता। अधिकांश लडाईयों के पिछे कारण एक छोटा सा अहम् ही होता है।
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प्रस्तुतकर्ता:
सुज्ञ
12 नवंबर 2010
सभ्यता अनुशासन : उपभोग संयम। (आहार संयम)
हमें यह नहीं भुलना चाहिए, कि एक समान दिखने वाले कांच और हीरे के मूल्य में अंतर होता है। और वह अंतर उनकी गुणवत्ता के आधार पर होता है। उसी प्रकार एक बकरे के जीव और एक केले के जीव के जीवन-मूल्य में भी अंतर तो है ही।
आहार का चुनाव करते समय हमें अपने विवेक को वैज्ञानिक अभिगम देना होगा। वैज्ञानिक दृष्टिकोण है कि प्रकृति में जीवन विकास, सुक्षम एकेन्द्रिय जीव से प्रारंभ होकर क्रमशः पंचेंद्रिय तक पहुँचा है। ऐसे में यदि हमारा आहार प्रबंध कम से कम विकसित जीवो (वनस्पति आदि एकेन्द्रिय जीव) की हिंसा से चल सकता है तो हमारा कोई अधिकार नहीं बनता कि हम उससे अधिक विकसित जीवों (पशु आदि) की अनावश्यक हिंसा करें। जैव विकास की दृष्टि से विकसित जीव ( पशु आदि) की हिंसा, प्रकृति के साथ जघन्य अपराध है।
प्रकृति का अघोषित विधान है कि संसाधनो का पूरी दक्षता से और विवेक पूर्वक उपभोग किया जाय। मानव के पास ही वह बुद्धिमत्ता है कि वह उपलब्ध संसाधनो का सर्वोत्तम नियमन प्रबंधन करे। अर्थात् अपरिहार्यता की दशा में भी कम से कम संसाधन खर्च कर सावधानी से अतिआवश्यक जरूरत पूरी कर ले।
जीव की इन्द्रियां उसके सुख दुख महसुस करने के माध्यम भी होती है, जो जीव जितनी भी इन्द्रियों की योगयता वाला है, उसे हिंसा के समय इतनी ही अधिक इन्द्रियों के माध्यम से पीडा पहुँचेगी, अर्थात् पांचो ही इन्द्रिय धारक जीव को अधिक पीडा पहुँचेगी जो मानव मन में क्रूर भावों की उत्पत्ती का कारण बनेगी।
मांस में केवल एक जीव का ही प्रश्न नहीं, जब जीव की मांस के लिये हत्या की जाती है, तो जान निकलते ही मक्खियां करोडों अंडे उस मुर्दे पर दे जाती है, पता नहीं जान निकलनें का एक क्षण में मक्खिओं को कैसे आभास हो जाता है, उसी क्षण से वह मांस मक्खिओं के लार्वा का भोजन बनना शुरू हो जाता है, जिंदा जीव के मुर्दे में परिवर्तित होते ही असंख्य सुक्ष्म जीव उस मुर्दा मांस में पैदा हो जाते है। और जहां यह तैयार होता है, वे बुचड्खाने व बाज़ार रोगाणुओं के घर होते है, स्पष्ठ है कि यह रोगाणु भी जीव ही होते है। यानि ताज़ा मांस के टुकडे पर ही लाखों मक्खी के अंडे, लाखों सुक्ष्म जीव और लाखों रोगाणु होते है। इतना ही नहीं पकने के बाद भी मांस में जीवोत्पती निरंतर जारी रहती है। इसलिये, एक जीव का मांस होने के उपरांत भी, संख्या के आधार पर एक मांस का लोथड़ा, उस पर निर्भर अनंत जीवहिंसा का कारण बनता है।
जीवन जीने की हर प्राणी में अदम्य इच्छा होती है, यहां तक कि कीट व जंतु भी कीटनाशक दवाओं के खिलाफ़ प्रतिकार शक्ति उत्पन्न कर लेते है। सुक्ष्म जीवाणु-रोगाणु भी कुछ समय बाद रोगप्रतिरोधक दवाओं के विरुद्ध जीवन बचाने के तरीके खोज लेते है। यह उनके जीनें की अदम्य जीजिविषा का परिणाम होता है, सभी जीना चाह्ते है मरना कोई नहीं चाहता। फिर प्राण बचाने को संघर्षरत पशुओं को मात्र स्वाद के खातिर मार खाना तो क्रूरता की पराकाष्ठा है।
येन केन पेट भरना ही मानव का लक्षय नहीं है। यह तो पशुओं का लक्षण है। प्रकृति प्रदत्त बुद्धि से ही हमने सभ्यता साधी। यही बुद्धि हमें विवेकशीलता प्रदान करती है, कि हमारे विचार और व्यवहार सौम्य व पवित्र बने रहे। हिंसाजन्य आहार लेने से, हिंसा के प्रति सम्वेदनाएं समाप्तप्राय हो जाती है। किसी दूसरे जीव के प्रति दया करूणा के भाव नष्ट हो जाते है। इस तरह अनावश्यक हिंसा-भाव मन में रूढ हो जाता है, जो अनजाने ही हमारे आचरण में क्रूरता समाहित कर देता है। ऐसी मनोवृति में, जरा सी प्रतिकूलता उपस्थित होनें पर, आवेश आना सामान्य है। ऐसी ही मनोदशा में हिंसक कृत्य होना भी सम्भव है। आहार इसी तरह पहले हमारे विचारों को और फिर हमारे आचरण को प्रभावित करता है।
निष्कर्ष यही है कि हमारी सम्वेदनाओं और अनुकंपा भाव की रक्षा के लिये, हमारे विचार और वर्तन को विशुद्ध रखनें के लिये, शाकाहार ही हमारी पसंद होना चाहिए। और जहां तक और जब तक, हमें सात्विक संतुलित पौष्ठिक शाकाहार, प्रचूरता से उपलब्ध हो, वहां तो हमें जीवों को करूणा दान, अभयदान दे ही देना चाहिए। यही मानवता के लिए श्रेयस्कर है।
अन्य सूत्र : पर्यावरण का अहिंसा से सीधा सम्बंध
11 नवंबर 2010
पंच समवाय - कारणवाद. घटना पांच कारणो का समन्वय!
कारणवाद (पंच समवाय)
किसी भी कार्य के पिछे कारण होता है, कारण के बिना कोई भी कार्य नहीं होता। जगत में हर घटना हर कार्य के निम्न पांच कारण ही आधारभूत होते है।
1-काल (समय)
2-स्वभाव (प्रकृति)
3-नियति (होनहार)
4-कर्म (कर्म सत्ता)
5-पुरुषार्थ (उद्यम)
इन पांच करणो में से किसी एक को ही कारण अथवा किसी एक का भी निषेध करने पर ही भिन्न भिन्न मत-मतांतर प्रकट होते है।
कालवादी: कालवादी का मंतव्य होता है,जगत में जो भी कार्य होता है वह सब काल के कारण ही होता है, काल ही प्रधान है। समय ही बलवान है। सब काल के अधीन है,सभी कार्य समय आने पर ही सम्पन्न होते है।इसलिये काल (समय) ही एक मात्र कारण है।
स्वभाववादी: स्वभाववादी का यह मंतव्य होता है कि सभी कार्य वस्तु के स्वभाव से घटित होते है, प्रत्येक पदार्थ के अपने गुण-धर्म होते है, उनका इसी तरह होना वस्तु का स्वभाव है। अतः स्वभाव ही एक मात्र कारण है।
नियतिवादी: नियतिवादी प्रत्येक कार्य को प्रारब्ध से होना मानता है, उसका मंतव्य होता है कि होनहार ही बलवान है। सारे कार्य भवितव्यता से ही सम्भव होते है।
कर्मवादी: कर्मवादी कर्मसत्ता में ही मानता है। ‘यथा कर्म तथा फलम्’ कर्म ही शक्तिशाली है, समस्त जग कर्म-चक्र के सहारे प्रवर्तमान है। अतः कर्म ही एक मात्र कारण है।
पुरुषार्थवादी : उध्यमवादी का मंतव्य होता है,प्रत्येक कार्य स्वप्रयत्न व श्रम से ही साकार होते है, पुरुषार्थ से कार्य होना स्वयं सिद्ध है, पुरुषार्थ से सभी कार्य सम्भव है अतः पुरुषार्थ ही एक मात्र कारण है।
किसी भी कार्य के कारण रूप में से किसी एक,दो यावत् चार को ग्रहण करने अथवा किसी एक का निषेध पर कथन असत्य ठहरता है।
एक व्यक्ति ने अपने बगीचे में आम का वृक्ष उगाया,जब उस पर आम लग गये तो, अपने पांच मित्रो को मीठे स्वादिष्ट फ़ल खाने के लिये आमंत्रित किया। सभी फलों का रसास्वादन करते हुए चर्चा करने लगे। वे पांचो अलग अलग मतवादी थे।
चर्चा करते हुए प्रथम कालवादी ने कहा, आज जो हम इन मीठे फ़लों का आनंद ले रहे है वह समय के कारण ही सम्भव हुआ। जब समय हुआ पेड बना, काल पर ही आम लगे और पके, समय ही कारण है,हमे परिपक्व आम उपलब्ध हुए।
तभी स्वभाववादी बोला, काल इसका कारण नहीं है, जो भी हुआ स्वभाव से हुआ। गुटली का गुणधर्म था आम का पेड बनना,पेड का स्वभाव था उस पर आम लगना,स्वभाव से ही उसमें मधुर रस उत्पन्न हुआ।स्वभाव ही मात्र कारण है
नियतिवादी दोनों की बात काटते हुए बोला, न तो काल ही इसका कारण है न स्वभाव। कितना भी गुटली के उगने का स्वभाव हो और कितना भी काल व्यतित हो जाय, अगर गुटली के प्रारब्ध में उगना नहीं होता तो वह न उगती, वह सड भी सकती थी, किस्मत न होती तो पेड अकाल खत्म भी हो सकता था। आम पकना नियति थी सो पके। प्रारब्ध ही एक मात्र कारण है।
उसी समय कर्मवादी ने अपना मंतव्य रखते कहा, न काल,न स्वभाव, न नियति ही इसका कारण है, सभी कुछ कर्म-सत्ता के अधिन है। कर्मानुसार ही गुटली का उगना,पेड बनना,व फ़ल में परिवर्तित होना सम्भव हुआ। हमारे कर्म थे जिससे इन फ़लों का आहार हम कर रहे है, गुटली का वृक्ष रूप उत्पन्न होकर फ़ल देना कर्म-प्रबंध के कारण होते चले गये। अतः कर्म ही मात्र कारण है।
अब पुरूषार्थवादी की बारी थी, उध्यमवादी ने कहा, भाईयों हमारे इन बागानस्वामी ने सारी महनत की उसमें ये काल,स्वभाव,नियति और कर्म कहां से आ गये। इन्होनें श्रम से बोया,रखवाली की, खाद व सिंचाई की, सब इनके परिश्रम का ही फ़ल है। बिना श्रम के इन मीठे फ़लो का उत्पन्न होना सम्भव ही नहीं था। जो भी कार्य होता है वह पुरूषार्थ से ही होता है।
पांचो ही अपनी अपनी बात खींच रहे थे, सभी के पास अपने मत को सही सिद्ध करने के लिये पर्याप्त तर्क थे। बहस अनिर्णायक हो रही थी। तभी बागानस्वामी ने कहा मित्रों आप सभी अपनी अपनी बात पकड कर गलत, मिथ्या सिद्ध हो रहे हो, यदपि आप पांचो का अलग स्वतंत्र अभिप्राय मिथ्या है तथापि आप पांचो के मंतव्य सम्मलित रूप से सही है , इन पाँचों कारणो का समन्वय ही सत्य है, कारणभूत है। कोई एक कारण प्रधान हो सकता है और अन्य चार गौण किन्तु पांचों का होना अनिवार्य है।
पांचो कारणों के समन्वय से ही कार्य निष्पन्न होता है, बिना काल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुरूषार्थ के कोई कार्य सम्भव नहीं होता। किसी एक कारण का भी निषेध करने से कथन असत्य हो जाता है। हां यह हो सकता है कि किसी एक कारण की प्रमुखता हो और शेष कारण गौण, लेकिन सभी पांच कारणो का समन्वित अस्तित्व निश्चित ही है।
10 नवंबर 2010
नास्तिकता (धर्म- द्वेष) के कारण
व्यक्तिगत तृष्णाओं में लुब्ध व्यक्ति, समाज से विद्रोह करता है। और तात्कालिक अनुकूलताओं के वशीभूत, स्वेच्छा से स्वछंदता अपनाता है, समूह से स्वतंत्रता पसंद करता है। किन्तु समय के साथ जब समाज में सामुहिक मेल-मिलाप के अवसर आते है, जिसमे धर्मोत्सव मुख्य होते है। तब वही स्वछन्द व्यक्ति उस एकता और समुहिकता से कुढ़कर द्वेषी बन जाता है। उसे लगता है, जिस सामुहिक प्रमोद से वह वंचित है, उसका आधार स्रोत यह धर्म ही है, वह धर्म से वितृष्णा करता है। वह उसमें निराधार अंधविश्वास ढूंढता है, निर्दोष प्रथाओं को भी कुरितियों में खपाता है और मतभेदों व विवादों के लिये धर्म को जिम्मेदार ठहराता है। 'नास्तिकता' के मुख्यतः यही कारण होते है।
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2 नवंबर 2010
धर्म, पाखण्ड और व्यक्ति
समता, सज्जनता, सदाचार, सुविज्ञता और सम्पन्नता। निश्चित ही यह उत्तम गुण है, बस इनका प्रदर्शन ही पाखंड है। ऐसे पाखण्ड वस्तुत: व्यक्तिगत दोष है, पर बदनाम धर्म को किया जाता है। मात्र इसलिये कि इन गुणों की शिक्षा धर्म देता है।
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प्रस्तुतकर्ता:
सुज्ञ
1 नवंबर 2010
दीपावली का अवसर: गौरव और कृतज्ञता
क्यों न गर्व करें, इस देवरमणभूमि पर जिस के कण कण में अहिंसा व्याप्त है,जहां आकर हिंसाप्रधान संस्कृतियाँ भी स्वयं में दया,करूणा व शांति खोज कर उद्धत करने लगती है।जिस पर कितने भी कुसास्कृतिक आक्रमण हुए पर वह अपनी अहिंसा रूपी जडों से पुनः पल्लवित होकर, गुणों को पुनः उपार्जित कर समृद्ध बन जाती है।
क्यों न गर्व करें, इस आर्यभूमि में प्रकटे धर्मों पर,जिनका यहाँ प्रवर्तन हुआ और सहज पल्ल्वित हुए। वे कल भी सुमार्ग दर्शक थे और आज भी अपनी दिव्य उर्जा से सुमार्ग प्रकाशित बन,मानव को इस दुनिया का श्रेष्ठ, सभ्य और सत्कर्मी मनुष्य बनाए हुए है।
क्यों न गर्व करें, उन धर्म-शास्त्रों पर, जिनमें आज भी जगत के सर्वश्रेष्ठ सद्गुण निष्पन्न करने की शाक्ति है। वे आज भी मानव को सभ्य सुसंस्कृत बनाने का सामर्थ्य रखते है। जो प्रकृति के सद्भावपूर्ण उपयोग का मार्गदर्शन करते है,जो मात्र मानव हित ही नहिं बल्कि समस्त जगत की जीवसृष्टि के अनुकूल जीवन-दर्शन को प्रकाशित करते है।
क्यों न गर्व करें, उन सुधारक महापुरूषों पर, जिनकी प्रखर विचारधारा व सत्यपरख नें समय समय धर्म, समाज और संस्कृति में घुस आई विकृतियों को दूर करने के प्रयास किये। कुरितियां दर्शा कर उन्हे दूर कर, हमारे ज्ञान, दर्शन व आचरण को शुद्ध करते रहे।
सत्य धर्म सदैव हमें सद्गुण सुसंस्कार और सभ्य-जीवन की प्रेरणा देते रहे हैं। असंयम (बुराईयों) के प्रति हमारे अंतरमन में अरूचि अरति पैदा करते रहे हैं। आज हम जो भी सभ्य होने का श्रेय ले रहे है, इन्ही सद्विचारों की देन है। धर्म के प्रति मै तो सदैव कृतज्ञ रहुंगा।
दीपावली की शुभकामनाओं से पहले, देश, धर्म, समाज और संस्कारों के प्रति आभार प्रेषित करना मेरा कर्तव्य है।
उतरोत्तर, मनुष्य जन्म, आर्यक्षेत्र और धर्मश्रवण दुर्लभ है, मै तो कृतज्ञ हूँ, आप………?
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प्रस्तुतकर्ता:
सुज्ञ
'क्रोध की गठरी' और 'द्वेष की गांठ'
द्वेष रूपी गांठ बांधने वाले, जीवन भर क्रोध की गठरी सिर पर उठाए घुमते है। यदि द्वेष की गांठे न बांधी होती तो क्रोध की गठरी खुलकर बिखर जाती, और सिर भार-मुक्त हो जाता।
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प्रस्तुतकर्ता:
सुज्ञ
30 अक्तूबर 2010
बुद्धु, आलसी, डरपोक, कायर, मूर्ख, कडका, जिद्दी… … …
ऐसा खोजुं मैं मित्र ब्लॉग जगत में………
- बुद्धु :जिसका अपमान हो और उसके मन को पता भी न चले।
- आलसी : किसी को चोट पहूंचाने के लिये हाथ भी न उठा सके।
- डरपोक : गाली खाकर भी मौन रहे।
- कायर : अपने साथ बुरा करने वाले को क्षमा कर दे।
- मूर्ख : कुछ भी करो, या कहो क्रोध ही न करे।
- कडका : जलसेदार गैरजरूरी खर्च न कर सके।
- जिद्दी : अपने गुणों पर सिद्दत से अड़ा रहे।
क्या कहा, आज के सतयुग में ये बदमाशियाँ मिलना दुष्कर है?
चलो शर्तों को कुछ ढीला करते है, जो इन पर चल न पाये, पर बनना तो ऐसा ही चाहते है, अर्थार्त : जिनकी वैचारिक अवधारणा तो यही हो।
मित्रता की अपेक्षा से हाथ बढाया है, कृप्या टिप्पणी से अपना मत अवश्य प्रकाशित करें……
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29 अक्तूबर 2010
कैसे कैसे कसाई है जग में
- बकरकसाई: बकरे आदि जीवहिंसा करने वाला।
- तकरकसाई: खोटा माप-तोल करने वाला।
- लकरकसाई: वृक्ष वन आदि काटने वाला।
- कलमकसाई: लेखन से अन्य को पीडा पहूँचाने वाला।
- क्रोधकसाई: द्वेष, क्रोध से दूसरों को दुखित करने वाला।
- अहंकसाई: अहंकार से दूसरो को हेय,तुच्छ समझने वाला।
- मायाकसाई: ठगी व कपट से अन्याय करने वाला।
- लोभकसाई: स्वार्थवश लालच करने वाला।
28 अक्तूबर 2010
श्रेष्ठ खानदान है हमारा………
निर्मल गंगा बह रही, प्रेम की जहाँ विशेष॥
नहिं व्यसन-वृति कोई, खान-पान विवेक।
सोए-जागे समय पर, करे कमाई नेक॥
दाता जिस घर में सभी, निंदक नहिं नर-नार।
अतिथि का आदर करे, सात्विक सद्व्यवहार॥
नमन गुणीजनों को करे, दुखीजन के दुख दूर।
स्वावलम्बन समृद्धि धरे, हर्षित रहे भरपूर॥
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27 अक्तूबर 2010
सोते सोते ही निकल गई सारी जिन्दगी
हाथोंहाथ तूं दुख खरीद के, सुख सारे ही खोता।
कर्ज़, फ़र्ज और मर्ज़ बहाने, जीवन बोझा ढोता।
ढोते ढोते ही निकल गई सारी जिन्दगी॥
जन्म लेते ही इस धरती पर, तुने रूदन मचाया।
आंख अभी तो खुल ना पाई, भूख भूख चिल्लाया॥
खाते खाते ही निकल गई सारी जिन्दगी॥
बचपन खोया खेल कूद में, योवन पा गुर्राया।
धर्म-कर्म का मर्म न जाने, विषय-भोग मन भाया।
भोगों भोगों में निकल गई सारी जिन्दगी॥
शाम पडे रोज रे बंदे, पाप-पंक नहीँ धोता।
चिंता जब असह्य बने तो, चद्दर तान के सोता।
सोते सोते ही निकल गई सारी जिन्दगी॥
धीरे धीरे आया बुढापा, डगमग डोले काया।
सब के सब रोगों ने देखो, डेरा खूब जमाया।
रोगों रोगों में निकल गई सारी जिन्दगी॥
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