15 जुलाई 2012

शान्ति की खोज

हम क्यों लिखते है?

- ताकि पाठक हमें ज्यादा से ज्यादा पढ़ें।

 

पाठक हमें क्यों पढ़े? 

- ताकि पाठको को नवतर चिंतन दृष्टि मिले।

 

पाठको को नई चिंतन दृष्टि का क्या फायदा?

- एक निष्कर्ष युक्त सफलतापेक्षी दृष्टिकोण से अपना मार्ग चयन कर सके।

 

सही मार्ग का चयन क्यों करे?

- यदि अनुभव और मंथन युक्त दिशा निर्देश उपलब्ध हो जाय तो शान्तिमय संतोषप्रद जीवन लक्ष्य को सिद्ध कर सके।

 

कोई भी जो दार्शनिक, लेखक, वक्ता हो उनके लेख, कथा, कविता, सूचना, जानकारी या मनोरंजन सभी का एक ही चरम लक्ष्य है। अपना अनुभवजन्य ज्ञान बांटकर लोगों को खुशी, संतोष, सुख-शान्ति के प्रयास की सहज दृष्टि देना। बेशक सभी अपने अपने स्तर पर बुद्धिमान ही होते है। तब भी कोई कितना भी विद्वान हो, किन्तु सर्वाधिक सहज सफल मार्ग के दिशानिर्देश की सभी को आकांक्षा होती है।

 

यह लेखन की अघोषित जिम्मेदारी होती है। ब्लॉगिंग में लेखन खुशी हर्ष व आनन्द फैलाने के उद्देश्य से होता है और होना भी चाहिए। अधिकांश पाठक अपने रोजमर्रा के तनावों से मुक्त होने और प्रसन्नता के उपाय करने आते है। लेकिन हो क्या रहा हैं? जिनके पास दिशानिर्देश की जिम्मेदारी है वे ही दिशाहीन दृष्टिकोण रखते है। शान्ति और संतुष्टि की चाह लेकर आए लेखक-पाठक, उलट हताशा में डूब जाते है। घुटन से मुक्ति के आकांक्षी, विवादों में घिर कर विषादग्रस्त हो जाते है। अभी पिछले दिनों एक शोध से जानकारी हुई कि ब्लॉग सोशल साईट आदि लोगो में अधैर्य और हताशा को जन्म दे रहे है।

 

यह सही है कि जगत में अत्याचार, अनाचार, अन्याय का बोलबाला है किन्तु विरोध स्वरूप भी लोगों में द्वेष आक्रोश और प्रतिशोध के भाव भरना उस अन्याय का निराकरण नहीं है। आक्रोश सदाचारियों में तो दुष्कृत्यों के प्रति अरूचि घृणा आदि  पैदा कर सकते है पर अनाचारियों में किंचित भी आतंक उत्पन्न नहीं कर पाते। द्वेष, हिंसा, आक्रोश और बदला समस्या का समाधान नहीं देते, उलट हमारे मन मस्तिष्क में इन बुरे भावों के अवशेष अंकित कर ढ़ेर सारा विषाद छोड जाते है।

 

 

मैं समझता हूँ मशीनी जीवन यात्रा और प्रतिस्पर्द्धात्मक जीवन के तमाम तनाव झेलते पाठकों के मन में द्वेष, धृणा, विवाद, हिंसा, आक्रोश, प्रतिशोध, और अन्ततः विषाद पैदा करे ऐसी सामग्री से भरपूर बचा जाना चाहिए।

12 जुलाई 2012

सद्बुद्धि

पुराने समय की बात है एक सेठ नें न्याति-भोज का आयोजन किया। सभी गणमान्य और आमन्त्रित अतिथि आ चुके थे, रसोई तैयार हो रही थी इतने में सेठ नें देखा कि भोजन पंडाल में एक तरफ एक बिल्ली मरी पडी थी। सेठ नें सोचा यह बात सभी को पता चली तो कोई भोजन ही ग्रहण नहीं कर पाएगा। अब इस समय उसे बाहर फिकवाने की व्यवस्था करना भी सम्भव न था। अतः सेठ नें पास पडी कड़ाई उठा कर उस बिल्ली को ढ़क दिया। सेठ की इस प्रक्रिया को निकट खडे उनके पुत्र के अलावा किसी ने नहीं देखा। समारम्भ सफल रहा।
 
कालान्तर में सेठ स्वर्ग सिधारे, उन्ही के पुण्यार्थ उनके पुत्र ने मृत्यु भोज का आयोजन किया। जब सब तैयारियों के साथ भोजन तैयार हो गया तो वह युवक इधर उधर कुछ खोजने लगा। लोगों ने पूछा कि क्या खोज रहे हो? तो उस युवक नें कहा – बाकी सभी नेग तो पूरे हो गए है बस एक मरी हुई बिल्ली मिल जाय तो कड़ाई से ढक दूँ। लोगों ने कहा - यहाँ मरी बिल्ली का क्या काम? युवक नें कहा – मेरे पिताजी नें अमुक जीमनवार में मरी बिल्ली को कड़ाई से ढ़क रखा था। वह व्यवस्था हो जाय तो भोज समस्त रीति-नीति से सम्पन्न हो। 
 
लोगों को बात समझ आ गई, उन्होंने कहा – 'तुम्हारे पिता तो समझदार थे उन्होने अवसर के अनुकूल जो उचित था किया पर तुम तो निरे बेवकूफ हो जो बिना सोचे समझे उसे दोहराना चाहते हो।' 
 
कईं रूढियों और परम्पराओं का कुछ ऐसा ही है। बडों द्वारा परिस्थिति विशेष में समझदारी पूर्वक किए गए कार्यों को अगली पीढ़ी मूढ़ता से परम्परा के नाम निर्वाह करने लगती है और बिना सोचे समझे अविवेक पूर्वक प्रतीको का अंधानुकरण करने लग जाती है। मात्र इसलिए - “क्योंकि मेरे बाप-दादा ने ऐसा किया था” कुरितियाँ इसी प्रकार जन्म लेती है। कालन्तर से अंधानुकरण की मूर्खता ढ़कने के उद्देश्य से कारण और वैज्ञानिकता के कुतर्क गढ़े जाते है। फटे पर पैबंद की तरह, अन्ततः पैबंद स्वयं अपनी विचित्रता की कहानी कहते है।

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