tag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post594980451986051997..comments2023-10-21T14:43:56.493+05:30Comments on सुज्ञ: क्रोध, मान, माया, लोभ.......सुज्ञhttp://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.comBlogger76125tag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-73557727731947935952015-09-07T15:49:10.505+05:302015-09-07T15:49:10.505+05:30काम क्रोध लोभ मोह अहंकार के नाम तथाकथित धार्मिकजन ...काम क्रोध लोभ मोह अहंकार के नाम तथाकथित धार्मिकजन धर्म की राजनेतिक करके अपनी महात्मागिरी बनाय रखे है !इससे ज्यादा इनके पास काम क्रोध लोभ मोह अहंकार के विषय पर कोई ज्ञान नही है! एक धार्मिक कहेगा क्रोध सब दुखोका कारण दूसरा कहेगा लोभ सब दुखो का कारण है ! लेकिन काम क्रोध लोभ मोह अहंकार की विज्ञानं क्या है? उसके बारे कोई कुछ भी नही बोलगा ! यह काम क्रोध लोभ मोह अहंकार यदि तुम इसमें से एक को दबाते हो तब दूसरा मजबूत बन जाता है लेकिन यह काम क्रोध लोभ मोह अहंकार कभी भी समाप्त नही होते है !<br />काम क्रोध लोभ मोह अहंकार उसकी उत्पत्ति हमारे अंदर दबी हुई विकृत उर्जा से उत्पन्न होते है ! विकृत उर्जा अर्थात वह उर्जा जिससे हम गम्भीर सभ्य बने हुए उर्जा को दबाये बेठे है ! यह दूषित उर्जा के रूप काम क्रोध लोभ मोह अहंकार परिणाम है ! उर्जा का सारस्वत नियम है की वह गंगा की तरह सदेव बहती रहे ! बहने वाली उर्जा हमेशा तरोताजी और पवित्र होती है ! जितनी उर्जा तुम अपने अंदर से बहार बहा सको उतने आप तरोताजा हल्के आनन्दयुक्त प्रसन्नपूर्व रह सकते है! जिसकी उर्जानिरतर बह रही है उसमे नई चेतना का उदय होता रहता है जो परमआनन्द की अनुभूति है ! जिसकी उर्जा लगातार प्रेम रूप में बह रही है वह योगी, सन्यासी, बुद्ध है ! जिसने अपनी उर्जा को कुंजुस की तरह दबा रखी है उसमे यह सभाविक है की काम क्रोध लोभ मोह अहंकार बना रहेगा ! कितना भी काम क्रोध लोभ मोह अहंकार को मारने की कोशिश करो लेकिन वह नही मरेगा ! वह रूप बदलकर प्रकट होता रहेगा ! बहती हुई उर्जा काम क्रोध लोभ मोह अहंकार को जीतने का ही उपाय नही यह जीवन कीश्रेष्ट साधनाओ में से उर्जा का बहाव जीवन जीने का श्रेष्ठम साधन है !<br />osho की सभी ध्यान विधियों में उर्जा के बहाव पर ही जोर दिया गया है की जो उर्जा आपने अपने अंदर दबाई रखी है उसे बहता करो जब तक तुम्हारी उर्जा बहती नही है उससे पहले कोई योग दर्शन अध्यात्म समाधि परमआनन्द नही है ! और उर्जा बहाव का श्रेष्ट मार्ग है वह है मात्र प्रेम ! प्रेम तुम किसको करते हो वह गोण नही उर्जा निरंतर बहाव ही गोण है !<br />काम क्रोध लोभ मोह अहंकार अपने में दबी हुई के लक्ष्ण है गंदगी हमारी उर्जा में है ! काम क्रोध लोभ मोह अहंकार को मारने से कभी कोई योगी या सन्यासी नही बना है क्योकि काम क्रोध लोभ मोह अहंकार तो उस सडी दबी हुई उर्जा के कीड़े है और कीड़े को मारने से कोई समस्या हल नही होती है ! असली कीड़ो के बिज तो उस दबी हुई विकृत मलयुक्त उर्जा में मोजूद है! आप कितने ही योग आसन जप तप ध्यान कर लेना लेकिन जब तक यह दबी हुई बहार नही निकलती है तब तक काम क्रोध लोभ मोह अहंकार बने रहेंगे !Gpayrewardshttps://www.blogger.com/profile/07417382618111949036noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-30166528052908727862013-05-30T13:13:58.497+05:302013-05-30T13:13:58.497+05:30:):)सुज्ञhttps://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-53025652800641993462013-05-30T12:33:46.608+05:302013-05-30T12:33:46.608+05:30he bhagwaan - itni badhiya series miss ho gayi muj...he bhagwaan - itni badhiya series miss ho gayi mujhse :(<br /><br />pahle bhaag se shuru karti hoon.....Shilpa Mehta : शिल्पा मेहताhttps://www.blogger.com/profile/17400896960704879428noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-36828362004304537882013-05-07T13:07:43.465+05:302013-05-07T13:07:43.465+05:30आपने जो कुछ भी कहना था,कहकर समाप्त लिख दिया था वो ...आपने जो कुछ भी कहना था,कहकर समाप्त लिख दिया था वो वस्तुतः एक तरफा हो गया था. प्रत्युत्तर और स्पष्टता आवश्यक थी. अच्छा हुआ 'सहमति' पर आपकी बात को जो भी समझा जा रहा था, साफ करने का अवसर भी मिल गया. अतः यहां सहमति बनी कि 'काम' विषय पर विकार और निर्विकार दो श्रेणियाँ या प्रकार है. और दोनो के बीच की सीमारेखा सुनिश्चित की जा सकती है. हम एक एक कर विभेद को मिटाते है. पहले काम के मुद्दे पर हमारी एक राय है.<br /><br />अब आते है दूसरे मुद्दे पर कि ऐसा ही क्लासीफिकेश्न उन क्रोध,मान,माया,लोभ में क्यों नहीँ.........? इनमें भेद या प्रकार नहीं है. आप भेद के लिए जिन भावों का उल्लेख कर रही है जैसे - (लोभ- विकास , क्रोध- नाराजगी , गर्व - अहंकार) नाराजगी या नापसंद/अरूचि, गर्व/अहोभाव, प्रतिस्पर्धा/विकास, आदि इनसे भिन्न और स्वतंत्र भाव है. यह मूल भावों को विभाजित कर पैमाना निश्चित करने में सहायक नहीं है जैसे कोई माँ बिना क्रोध के किसी कृत्य पर नाराजगी व्यक्त कर सकती है. जन्म लेते ही बच्चा रूदन न करे तो उसे उल्टा कर उसके पीठ पर हल्की धौल दी जाती है. वह मारना व रूलाना, बच्चे के प्रति हिंसा नहीं है, क्योंकि वहां हिंसा का भाव ही नदारद है उलट उसके स्वस्थ जीवन का भाव है.उसी तरह जो पूर्व में क्रोध सरीखे दीखते 'मन्यु'की बात की गई,उस मन्यु में "क्रोध का अभाव" होता है. अतः जिस भाव में क्रोध है ही नहीं उसे ही, क्रोध का हिस्सा बनाकर, फिर आभासी सीमारेखा बनाकर कैसे पैमाना तैयार किया जा सकता है.अर्थात् पैमाना उपजाया नहीं जा सकता.<br /><br />आपके सभी उदाहरण मैं गम्भीरता से देख रहा हूं. कुछ तो तर्कसंगत नहीं बैठते तो प्रतिक्रिया टालता हूँ और कुछ जैसा कि राजन जी ने कहा था और जैसा 'स्त्री-नजर' व 'सहमति' पर आपके उदाहरणों के साथ हुआ आपकी ही विचारधारा के विपरित चला जाता था.<br /><br />आपका क्रोध पर जैन्युन सहमति के उदाहरण का भी कुछ ऐसा ही है. चुप-चाप सुनना, सहमति से बिलकुल न्यायसंगत नहीं है. पहला व्यक्ति तो क्रोध कर चुका, उसने क्रोध के पूर्व कोई सहमति नहीं ली, दूसरा व्यक्ति भी उसके क्रोध को विवेक से जानेगा समझेगा फिर चुप-चाप रहने का निर्णय लेगा, इस दूसरे में विवेक जागृत है अतः दूसरे में क्रोध है ही नहीं, चुप -चाप रहना, सहमति नहीं है, मात्र पहले के क्रोध के निवारणार्थ उपाय है.सुज्ञhttps://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-63338102390021623512013-05-07T11:10:21.650+05:302013-05-07T11:10:21.650+05:30सुज्ञ जी
मैंने तो समाप्त लिख दिया था ताकि आप को अ...सुज्ञ जी <br />मैंने तो समाप्त लिख दिया था ताकि आप को अगली कड़ी लिखने में बाधा न हो और बेकार में यहाँ समय व्यर्थ न करनी पड़े किन्तु आप ने ऐसी बात लिख दी की एक और आखरी लाइन लिखने के लिए मजबूर होना पड़ा :)<br />@ अर्थात आप किसी भी तरह की जैन्युन सहमति के होने या अस्तित्व में ही होने से साफ साफ इनकार कर रही है. इसका साफ अर्थ यह है कि सहजीवन में सहमति जैसा कुछ भी नहीं होता.<br />नहीं मै ऐसा नहीं कह रही हूँ , मै कह रही हूँ की जैसे जैन्युन सहमति होने पर काम विकार नहीं है वैसे ही जैन्युन सहमति और वाजिब कारण होने पर क्रोध को भी विकार न माना जाये , उदाहर मैंने ऊपर दिए है अपनी गलती होने पे सामने वाले की खरी खोटी चुप चाप सुनना जैन्युन सहमति है और ऐसे में काम की तरह क्रोध भी विकार नहीं है , और कृष्ण हो या हमारा बच्चा उनकी शरारतो पर हर यशोदा का क्रोध भी वाजिब है , वो विकार नहीं | जो तर्क आप काम को विकार न होने का दे रहे है वही तर्क मै क्रोध के विकार न होने का दे रही हूँ | anshumalahttps://www.blogger.com/profile/17980751422312173574noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-27909375949687428252013-05-06T18:09:53.890+05:302013-05-06T18:09:53.890+05:30अंशुमाला जी,
अव्वल तो इस तरह की मंथन चर्चाओं में ...अंशुमाला जी,<br /><br />अव्वल तो इस तरह की मंथन चर्चाओं में व्यक्तिगत जैसा कुछ नहीं होता.किसी संदर्भ से व्यक्तिगत विचार या वाक्य को कोट करना भी पडे तो मैं उसमें कुछ भी बुरा नहीं मानता. विरोधाभासी व्यक्तित्व को उजागर करना भी आवश्यक सा है. इसलिए इस सामान्य सी बात पर क्षमा की कोई बात नहीं है.<br /><br />आपकी धीरे धीरे वाली थ्योरी को तो मान सकते है पर थोडा थोडा या टुकडे टुकडे वाली थ्योरी से सहमत नहीं. आपके निजी विचार की तरह इसे स्वीकार करने में हर्ज नहीं है. इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि सभी को अपनी क्षमता और शक्ति अनुसार नैतिक मूल्यों की ओर गति करनी चाहिए, बस गति न केवल उत्कृष्ट्ता की ओर बल्कि अनिवार्यता से होनी चाहिए. चिंतक कहते है कि लक्ष्य बडा रखो. माननीय कलाम साहब कहा करते थे कि सपने देखो तो बडे देखो. लाखों खण्डित टुकडे मिलकर भी कभी एक अखण्ड हीरा नहीं बन सकते. बहुमूल्य अखण्ड मोती होता है, खण्डित मोती किस काम का? कानून नियम परफेक्ट ही निर्धारित किए जाते है उसमें छिद्र रखना कानून को ही न रखने के समान है. अतः नैतिकता के मानक तो अखण्ड और परफेक्ट होने चाहिए,हां पालन कर्ता अपने सामर्थ्य और शक्ति अनुसार प्रगति कर सकते है.शरूआतें छोटी छोटी हो सकती है, उन्नति मार्ग के पडाव असंख्य हो सकते है. लेकिन लक्ष्य तो सर्वोत्तम और सर्वश्रेष्ठ होना चाहिए.<br /><br />कोच का लक्ष्य तो उसे आत्मविश्वास से पूरा पुल एक से दुसरे किनारे तैरना सिखाना है, वह दूरी फिक्स है और अंततः वहाँ जाना ही है. अब वह थोडी थोडी दूरी के टार्गेट बनाता भी है तो वे पडाव मात्र है उस परफेक्ट लक्ष्य के मध्यांतर.<br /><br />@ ये सब बाते केवल ब्लॉग पर और प्रवचनों में मात्र सुनाने के लिए होंगे और सिर्फ ये कहने के लिए की "आप बहुत सही कह रहे है " " आप बड़ी अच्छी बाते कहते है " " हा हा समाज का बड़ा नैतिक पतन हो गया है " आदि आदि , टिप्पणिया मिलेगी कोई बदलाव संभव नहीं है | <br /><br />बदलाव न आने के लिए आप मेरे प्रयासों को चुनौति दे सकती है, उपदेश,प्रवचन सीख,उत्साह या प्रोत्साहन को चुनौति अवश्य दें लेकिन पाठकों की बुद्धिमत्ता और सकारात्मकता पर प्रश्नचिन्ह लगाना अच्छी बात नहीं है.<br /><br />मैं तो बस वही प्रयास कर रहा हूँ जो मुझे मेरी नजर में उपयुक्त लगते है, दुराग्रह नहीं है. जानता हूँ राह कठिन है लेकिन देखा है लेखन व विचारों के प्रसार से मानसिकता में परिवर्तन हुए है तो यह प्रयास करने में हर्ज ही क्या है. वैसे भी ब्लॉगिंग में यह न करते तो मनमौज का लेखन करते, दैनिक कार्यों के संस्मरण लिखते, ऐसे में एक अलग दिशा खोलने में कहाँ बुरा है. बाधाएं तो आती रहती है और निरूत्साह भी मिलता है.पर कुछ ना होने से कुछ का होना बेहतर है.<br /><br />सुज्ञhttps://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-43487340482693130182013-05-06T16:40:47.653+05:302013-05-06T16:40:47.653+05:30अंशुमाला जी,
@ आप किस जैन्युन की बात कर रहे है , ...अंशुमाला जी,<br /><br />@ आप किस जैन्युन की बात कर रहे है , बहला फुसला , डरा कर ली गई सहमती <br /><br />अर्थात आप किसी भी तरह की जैन्युन सहमति के होने या अस्तित्व में ही होने से साफ साफ इनकार कर रही है. इसका साफ अर्थ यह है कि सहजीवन में सहमति जैसा कुछ भी नहीं होता. उसका भावार्थ यह है कि संसार में जो भी सहमति वाला काम है वह सब विवाह अनुबंध से थोपा हुआ, कानून से एक तरफा अनुमति पाया हुआ, और शेष बहला फुसला , डरा कर ली गई सहमती वाला ही काम है. यानि समाज में जो भी काम व्याप्त है वह सभी तो बलात्कार है या यौनशोषण. आपकी नजर में काम हर दशा में विकार ही है. उसमें स्वीकार्य या अवीकार्य के पैमाने का कोई पडाव नहीं है.(यह आपका मानना है.)<br />ठीक है इसे आपके एक दृष्टिकोण की तरह स्वीकार करता हूँ. आपकी निजी विचारधारा.जिससे सभी का सहमत होना अनिवार्य नहीं है. <br />कोई विचारक जब विचार प्रस्तुत करता है,प्राप्त जानकारियों संदर्भों से विकसित हुआ उसका अपना निजी दृष्टिकोण ही होता है.बेशक शास्त्रीय ज्ञान का आधार भी लिया जाता है किंतु प्रस्तुति की अपेक्षा से यह प्रस्थापना मेरी निजी राय ही है. इसलिए बिलकुल यह माना जाये कि ये सुज्ञ जी कि निजी राय है , निजी सोचना है , कोई जरूरी नहीं इसे ही नैतिक सिद्धांत मान कर इस पर चलने कि बात सोची जाये.<br />मैं स्पष्ट्ता से कहता हूँ यह मेरी धारणा है,कुछ विचार आपके समक्ष रखे है,इतना ही.सुज्ञhttps://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-92053371704890109252013-05-06T12:57:35.331+05:302013-05-06T12:57:35.331+05:30अंशुमाला जी,मैंने अपनी तुलना आप दोनों से इसलिए की ...अंशुमाला जी,मैंने अपनी तुलना आप दोनों से इसलिए की क्योंकि इस तरह बातों को सलीके से रखना मुझे नहीं आता कई बार टिप्पणी टाईप करते हुए ये ही भूल जाता हूँ कि क्या कहना था।बात तो आम आदमी की ही हो रही है इसीलिए बीच में बोल भी रहा हूँ।आपके उदाहरण तथ्य के रूप में सही है लेकिन वो आपकी दलीलों को कमजोर कर रहे हैं ऐसा मुझे लगा।राजनhttps://www.blogger.com/profile/05766746760112251243noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-92008371565415780332013-05-06T12:27:25.991+05:302013-05-06T12:27:25.991+05:30अंशुमाला जी,फिर आपने विरोधाभासी उदाहरण दिया ।स्विम...अंशुमाला जी,फिर आपने विरोधाभासी उदाहरण दिया ।स्विमिंग पूल और बच्ची।यही तो कहा जा रहा है कि शुरुआत छोटी छोटी चीजों से ही की जाए ताकि किसी समस्या के गंभीर परिणामों को रोका जा सके और यह काम समय रहते किया जाए नहीं तो बहुत देर हो जाएगी।उदाहरण के लिए क्रोध पर हम प्रारंभ में ही लगाम लगाने की कोशिश करें तो यह बडी समस्या नहीं खड़ी करेगा।महिलाओं पर अत्याचार के बारे में केवल बलात्कार हत्या मारपीट आदि को रोकने की बात नहीं होती ये भी तो बताया जाता है कि ये सब हो क्यों रहा है ।महिलाओं के बारे में पुरष की सोच या कई छोटी छोटी गलत सोचों का समुच्चय ।उन पर ही बात नहीं करेंगें तो फायदा नहीं ।हाँ इस बात से सहमत हूँ कि ये बातें प्रवचन जैसी लगती हैं लेकिन क्या करें जो सच है वह तो रहेगा ही।अब ये मापदण्ड कठिन है या नहीं पता नहीं लेकिन शुरुआती तो यही है।राजनhttps://www.blogger.com/profile/05766746760112251243noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-30366818733558524932013-05-06T12:04:39.934+05:302013-05-06T12:04:39.934+05:30
राजन जी
कुछ भी समझ नहीं पाएंगे यदि स...<br />राजन जी <br /> कुछ भी समझ नहीं पाएंगे यदि सोच ये होगी की दो विद्वान जन शास्त्रार्थ कर रहे है , एक आम आदमी सवाल कर रहा है और उसका जवाब दिया जा रहा है सोच ये होगी तो न कोई सवाल बचकाने लगेंगे और न उदहारण हलके :) anshumalahttps://www.blogger.com/profile/17980751422312173574noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-83459119119488052662013-05-06T11:58:29.240+05:302013-05-06T11:58:29.240+05:30मेरी टिपण्णी को व्यक्तिगत नहीं लीजियेगा अक्सर कहा... मेरी टिपण्णी को व्यक्तिगत नहीं लीजियेगा अक्सर कहा जाता है कि ऐसी बहसों का अंत व्यक्तिगत आरोपों प्रत्यारोपो पर ख़त्म होता है चुकी बात आप से हो रही है इसलिए संबोधन मात्र आप के लिए है , सवाल या आरोप ( जो आप माने) उन सभी के लिए है जो नैतिकता के इतने ऊँचे मानदंड रखते है की आम आदमी न चाहते हुए भी नैतिकता जैसी बातो से दूर हो जाता है , नैतिकता की ऐसी बाते करने वाली नैतिकता को इतना दुरूह बना देते है की व्यक्ति उनके पास भी आने से डरता है ये सभी बाते अत्यंत ही अव्यवहारिक होते है , बिलकुल ऐसे ही जैसे साधू संत बैठ कर सांसारिक गृहस्थ लोगो को नैतिकता के पाठ पढ़ाते है , जो उनके नजरिये से होता है व्यवहारिक बिलकुल भी नहीं , नतीजा सांसारिक आदमी सोच बैठता है की भाई ये बाते तो साधू संतो के लिए ही ठीक है वो ही कर सकते है हम जैसे के लिए है ही नहीं , और बड़ा निश्चिन्त हो कर कहता है की हम तो सांसारिक लोग है | <br />बिटिया तैरना सिख रही है , जब उनका कोच पुल के दुसरे किनारे पर खड़ा हो कर कहता रहा की कूदो और तैर कर आ जाओ, वो इनकार करती रही क्योकि लक्ष्य इतना कठिन था की उसके लिए सम्भव नहीं था , वो देख कर ही डर गई तैरना तो दूर रहा वो कूदने को भी तैयार नहीं हुई फिर मैंने कहा की कोच आप उसके नजदीक जा कर कहे की बस इतने पास आओ और फिर उससे दूर होते जाये तब तो उसकी हिम्मत बनेगी क्योकि लक्ष्य छोटा होगा | आम इंसान के लिए भी यही बात है , आज दुनिया इतना आगे निकल चुकी है की आप एक बार में उसे पलटने की बात नहीं कर सकते है , ये बिलकू वैसा ही है की जैसे अमावस्या के दुसरे दिन आप कहे की बहुत अँधेरा हो चूका अब तो सीधे पूर्णिमा आ जानी चाहिए , जो सम्भव नहीं है जिस तरह चंद धीरे धीरे आधा हुआ है वैसे ही धीरे धीरे पूरा भी होगा , आम लोगो का नैतिक पतन बहुत ज्यादा हो चुका है रहन सहन, सोच खाना पान बहुत ज्यादा बदल चूका है , ये स्थिति बदल नहीं सकती है आप इसमे थोडा सुधार कर सकते है जहा जहा खराबी ज्यादा है , आप कलयुग को द्वापर त्रेता बनाने का प्रयास कर रहे है | नतीजा कोई परिवर्तन नहीं होगा कोई बदलाव नहीं होगा जो जैसा है वैसा ही रहेगा | नैतिकता, ईमानदारी , अच्छी सोच आदि आदि आदि की परिभाषा समय युग के साथ बदलती है उसे स्वीकार करना चाहिए ये गलत बात है की सम्पूर्णता ही सब कुछ है अधूरापन कुछ भी नहीं , जब हम छोटी छोटी नैतिक बातो की बात करेंगे बदलाव तभी संभव है वरना आधी छोड़ पूरी को धावे आदि मिले न पूरी पावे , अंत में हम खाली हाथ होंगे , ये सब बाते केवल ब्लॉग पर और प्रवचनों में मात्र सुनाने के लिए होंगे और सिर्फ ये कहने के लिए की "आप बहुत सही कह रहे है " " आप बड़ी अच्छी बाते कहते है " " हा हा समाज का बड़ा नैतिक पतन हो गया है " आदि आदि , टिप्पणिया मिलेगी कोई बदलाव संभव नहीं है | <br /> ज्यादा तो हमेसा मै कहती हूँ ,लेकिन कुछ व्यक्तिगत कह दिया हो तो क्षमा कीजिएगा , मेरा नजरिया या सोच ऐसी नहीं थी | समाप्त :)anshumalahttps://www.blogger.com/profile/17980751422312173574noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-54662361057322548652013-05-06T11:58:16.950+05:302013-05-06T11:58:16.950+05:30मेरी टिपण्णी को व्यक्तिगत नहीं लीजियेगा अक्सर कहा...मेरी टिपण्णी को व्यक्तिगत नहीं लीजियेगा अक्सर कहा जाता है कि ऐसी बहसों का अंत व्यक्तिगत आरोपों प्रत्यारोपो पर ख़त्म होता है चुकी बात आप से हो रही है इसलिए संबोधन मात्र आप के लिए है , सवाल या आरोप ( जो आप माने) उन सभी के लिए है जो नैतिकता के इतने ऊँचे मानदंड रखते है की आम आदमी न चाहते हुए भी नैतिकता जैसी बातो से दूर हो जाता है , नैतिकता की ऐसी बाते करने वाली नैतिकता को इतना दुरूह बना देते है की व्यक्ति उनके पास भी आने से डरता है ये सभी बाते अत्यंत ही अव्यवहारिक होते है , बिलकुल ऐसे ही जैसे साधू संत बैठ कर सांसारिक गृहस्थ लोगो को नैतिकता के पाठ पढ़ाते है , जो उनके नजरिये से होता है व्यवहारिक बिलकुल भी नहीं , नतीजा सांसारिक आदमी सोच बैठता है की भाई ये बाते तो साधू संतो के लिए ही ठीक है वो ही कर सकते है हम जैसे के लिए है ही नहीं , और बड़ा निश्चिन्त हो कर कहता है की हम तो सांसारिक लोग है | <br />बिटिया तैरना सिख रही है , जब उनका कोच पुल के दुसरे किनारे पर खड़ा हो कर कहता रहा की कूदो और तैर कर आ जाओ, वो इनकार करती रही क्योकि लक्ष्य इतना कठिन था की उसके लिए सम्भव नहीं था , वो देख कर ही डर गई तैरना तो दूर रहा वो कूदने को भी तैयार नहीं हुई फिर मैंने कहा की कोच आप उसके नजदीक जा कर कहे की बस इतने पास आओ और फिर उससे दूर होते जाये तब तो उसकी हिम्मत बनेगी क्योकि लक्ष्य छोटा होगा | आम इंसान के लिए भी यही बात है , आज दुनिया इतना आगे निकल चुकी है की आप एक बार में उसे पलटने की बात नहीं कर सकते है , ये बिलकू वैसा ही है की जैसे अमावस्या के दुसरे दिन आप कहे की बहुत अँधेरा हो चूका अब तो सीधे पूर्णिमा आ जानी चाहिए , जो सम्भव नहीं है जिस तरह चंद धीरे धीरे आधा हुआ है वैसे ही धीरे धीरे पूरा भी होगा , आम लोगो का नैतिक पतन बहुत ज्यादा हो चुका है रहन सहन, सोच खाना पान बहुत ज्यादा बदल चूका है , ये स्थिति बदल नहीं सकती है आप इसमे थोडा सुधार कर सकते है जहा जहा खराबी ज्यादा है , आप कलयुग को द्वापर त्रेता बनाने का प्रयास कर रहे है | नतीजा कोई परिवर्तन नहीं होगा कोई बदलाव नहीं होगा जो जैसा है वैसा ही रहेगा | नैतिकता, ईमानदारी , अच्छी सोच आदि आदि आदि की परिभाषा समय युग के साथ बदलती है उसे स्वीकार करना चाहिए ये गलत बात है की सम्पूर्णता ही सब कुछ है अधूरापन कुछ भी नहीं , जब हम छोटी छोटी नैतिक बातो की बात करेंगे बदलाव तभी संभव है वरना आधी छोड़ पूरी को धावे आदि मिले न पूरी पावे , अंत में हम खाली हाथ होंगे , ये सब बाते केवल ब्लॉग पर और प्रवचनों में मात्र सुनाने के लिए होंगे और सिर्फ ये कहने के लिए की "आप बहुत सही कह रहे है " " आप बड़ी अच्छी बाते कहते है " " हा हा समाज का बड़ा नैतिक पतन हो गया है " आदि आदि , टिप्पणिया मिलेगी कोई बदलाव संभव नहीं है | <br /> ज्यादा तो हमेसा मै कहती हूँ ,लेकिन कुछ व्यक्तिगत कह दिया हो तो क्षमा कीजिएगा , मेरा नजरिया या सोच ऐसी नहीं थी | समाप्त anshumalahttps://www.blogger.com/profile/17980751422312173574noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-78368908793729883342013-05-06T11:45:34.645+05:302013-05-06T11:45:34.645+05:30
@ मैंने जैन्युन अनुमति-सहमति की बात की थी.
मैं...<br /><br />@ मैंने जैन्युन अनुमति-सहमति की बात की थी. <br /> मैंने विवाह और कानून के साथ आसंज का उदहारण भी दिया था , आप किस जैन्युन की बात कर रहे है , बहला फुसला , डरा कर ली गई सहमती , <br />@ अगर किसी भी सामान्य स्थिति को सहमति नहीं मानना है तो पैमाना होगा भी कैसे?<br />यही बात तो मै क्रोध के लिए भी कह रही हूँ , बहुत कुछ है आप ने कैसे कह दिया कि काम के विषय में संभावना है और बाकि के नहीं , आप ने मेरे उदहारण नहीं देखे , या शायद आप देखना नहीं चाहते है , आप ने भगवान को अलग कर दिया , फिर मेरे उदहारण पर भी कुछ नहीं कहा , आप के दिए उदहारण को आप ने अहंकार मानने से इनकार कर दिया क्योकि वो आप कि नजर में अहंकार नहीं था किन्तु दूसरो कि नजर में तो था ,<br />@ मैंने सम्पूर्णता से लिया ही इसीलिए है कि सहज और अति में भेद कौन करेगा? और कैसे करेगा?<br /> वही करेगा जो काम को लेकर तो पैमाना बना रहा है एक सीमा रेखा खीच कर कहा रहा है कि यहाँ के बाद अति है उसके पहले काम विकार नहीं है , जिसे सारी दुनिया विकार कहती रही और आज उसे विकारो कि लिस्ट से बाहर निकाल दिया गया बड़ी सहजता से आपनी सहूलियत से किन्तु लोभ- विकास , क्रोध- नाराजगी , गर्व - अहंकार को लेकर वो कोई सीमा रेखा नहीं खीच रहा है उसके लिए सब के सब विकारो कि लिस्ट में आ गए है | काम के लिए भी आप के नजरिये से जो सही लगा वहा पैमाना बना दिया जहा नहीं लगा वह पैमाना बनाने से इंकार कर रहे है | इस तरह तो आप के विचारो को संतुलित कैसे माना जाये , क्यों न माना जाये कि ये सुज्ञ जी कि निजी राय है , निजी सोचना है , इसे ही नैतिक और सही क्यों माने और क्यों सभी को इसे ही नैतिक सिद्धांत मान कर इस पर चलने कि बात सोची जाये , क्यों माने कि यदि नैतिकता है तो यही है और इसके इतर कुछ भी नहीं |anshumalahttps://www.blogger.com/profile/17980751422312173574noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-62536160513256558922013-05-05T22:30:17.170+05:302013-05-05T22:30:17.170+05:30----लोभ और एषणा दोनों प्राप्ति की इच्छा ही हैं......----लोभ और एषणा दोनों प्राप्ति की इच्छा ही हैं.... क्या इच्छा व एषणा में अंतर है ? नहीं ,दोनों का अर्थ एक ही है...लोभ ..इच्छा नहीं है वह इच्छा के उपरांत उत्पन्न प्रभावी अनुभाव है .....आपके इस वाक्य से ही सिद्ध होता है कि इच्छा से लोभ उत्पन्न होता है ...जो स्वयं आपके कथ्य-मत के विपरीत है... <br /><br />---इसी प्रकार 'आलस्य' कामचोरी (पुरूषार्थ संवरण) का 'लोभ'है या नहीं? (आपको विषय पर संयत रखने का भाव है)...क्या इस वाक्य का कोई अर्थ निकलता है ??..कुछ नही..<br /> ...आगे क्या कहा जाय .. काम क्रोध आदि मानव भावों के मूलतत्वों का उचित तथ्यत: व सम्यग् ज्ञान की अपेक्षा सिर्फ ..केवल उपदेशात्मक-ज्ञान पर ही विचार करने से एसा होता है .... <br />डा श्याम गुप्तhttps://www.blogger.com/profile/03850306803493942684noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-32521586524781155222013-05-05T20:19:20.290+05:302013-05-05T20:19:20.290+05:30श्याम जी,
इस विषय पर मेरी पहली पोस्ट "चार शत्...श्याम जी,<br />इस विषय पर मेरी पहली पोस्ट <a href="http://shrut-sugya.blogspot.in/2013/04/blog-post_30.html" rel="nofollow">"चार शत्रुओं की पहचान"</a> देखिए..... वहां पाठकों से 'व्यक्तित्व' के चार शत्रुओं को पहचानने के लिए कहा गया था. मैं विस्तार से कहुँ उससे पहले ही विद्वान पठकों ने सटीक पहचान करते हुए "क्या हैं" का विश्लेषण कर लिया. और "क्यों रोके जाने चाहिए" तो वह भी मैंने अपनी पोस्ट में स्पष्ट कर लिया था कि हमारे व्यक्तित्व को स्मृद्ध करने के लिए,व्यक्तित्व विकास के लिए, चरित्र उत्कृष्ट बनाने के लिए. और बंधन का आग्रह नहीं है, इन्हें निरूत्साहित करने का ही आग्रह है.ताकि सदाचार अपने<br />लिए जगह बना सके. सुज्ञhttps://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-28700177595354369752013-05-05T20:00:29.829+05:302013-05-05T20:00:29.829+05:30वृत्तियाँ भी आप कहें और सहज भी आप कहें, फिर 'त...वृत्तियाँ भी आप कहें और सहज भी आप कहें, फिर 'तो' लगाकर प्रश्न क्यों?<br />मैं तो कषाय को 'मन के भाव'कहता हूँ. दुर्विचार हमेशा सहज ही होते है,कठिन तो सद्विचार होते है अतः सहजता मधुरता का पर्याय नहीं है. दुर्विचारों के मन में स्थान बनाते ही मन कसैला सा हो जाता है.सुज्ञhttps://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-54687491001136124842013-05-05T19:39:08.387+05:302013-05-05T19:39:08.387+05:30सत्य असत्य निश्चय करने की इतनी जल्दबाजी न करिए प्र...सत्य असत्य निश्चय करने की इतनी जल्दबाजी न करिए प्रभु!! लोभ और एषणा दोनो 'प्राप्ति की इच्छा' ही है. लोभ से एषणा की उत्पत्ति हुई है या एषणा से लोभ की, कभी निर्धारित नहीं कर पाएँगे.<br />व्यक्तियों के एक समान परिश्रम की मात्रा, गुणवत्ता,दिशा व श्रृद्धा होने के उपरांत एक समान धन-लाभ फिक्स कर पाएँगे? पूर्व कर्म-फल, प्रारब्ध, काल और नियति का क्या करेंगे? एक मात्र परिश्रम फलदाता नहीं है.<br />पुरूषार्थ का मूल्य और महत्व दोनो है किंतु एक मात्र पुरूषार्थ ही करण और कारण नहीं है.<br />अब फिर से अपनी पहली टिप पर गौर करें, 'आलस्य' कामचोरी (पुरूषार्थ संवरण) का 'लोभ'है या नहीं? (आपको विषय पर संयत रखने का भाव है)सुज्ञhttps://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-43661307016927886642013-05-05T18:09:06.745+05:302013-05-05T18:09:06.745+05:30बस अब आप चिंतन करिए कि पुरुषार्थ( धर्म, अर्थ,काम, ...बस अब आप चिंतन करिए कि पुरुषार्थ( धर्म, अर्थ,काम, मोक्ष )में भी 'काम' है और पंच विकार (काम,क्रोध,मद,मोह,लोभ)में भी 'काम'है. अतः आप बेहतर समझ पाएँगे कि मैंने चार कषाय (क्रोध,मान,माया,लोभ)को ही क्यों चुना.... सुज्ञhttps://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-38476643074420872872013-05-05T17:59:23.213+05:302013-05-05T17:59:23.213+05:30प्रत्येक विचार का एक अनुशासन होता है, विचार जब अपन...प्रत्येक विचार का एक अनुशासन होता है, विचार जब अपने विषय की मर्यादा तोड उछ्रँखल बहने लगते है तो बिखर जाते है, और अपना मनोरथ पूर्ण नहीं कर पाते.<br /><br />जैसा कि आपने कहा- "वह तो सार्वकालिक सत्य तथ्य है" (सही शब्द सर्वकालिक)तो महराज जो जो तथ्य है, सत्य है, सर्वकालिक है उसकी जड़, उसकी वास्तविकता आप क्या खोजेंगे? वह तो पहले से ही वास्तविक है. सत्य पर संदेह भरी जिज्ञासा हो तो ही सत्य की जडें खोदी जाती है. जिन्हे सर्वकालिक सत्य तथ्य पर पूर्ण आस्था है उनके लिए जडें खोलकर देखने का उपक्रम, निर्थक मूढता है.<br /><br />प्रस्तुत आलेख में व्यक्तित्व के लिए हानिकारक दुर्गुणों को सभी क्षेत्रों में दुर्गुण या विकार ही माना गया है इसी आशय से धर्म क्षेत्र से भी उन्ही विकारों के उल्लेख तक ही सीमा है. समस्त धर्म को चर्चित करना यहाँ निर्थक है. यही चर्चा का अनुशासन भी है.सुज्ञhttps://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-77064735258701496322013-05-05T17:46:06.064+05:302013-05-05T17:46:06.064+05:30'ब्रह्मचारी के लिए तो काम हर दशा में अनादेय है...'ब्रह्मचारी के लिए तो काम हर दशा में अनादेय है '---- इस कथन अर्थ है कि काम का अर्थ सिर्फ स्त्री-पुरुष के कामांगों के कृतित्व ..कामेक्षा (= सेक्स ) ..को ही काम माना जारहा है ...जबकि एसा नहीं है ....पुरुषार्थ चतुष्टय ( धर्म, अर्थ,काम, मोक्ष )...में काम = सिर्फ सेक्स नहीं है अपितु सांसारिक कर्म है, कर्तव्य है | shyam guptahttps://www.blogger.com/profile/11911265893162938566noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-71298854245393246942013-05-05T17:35:47.465+05:302013-05-05T17:35:47.465+05:30वास्तव में ...ये चार कषाय हैं ....यही कहना काफी नह...वास्तव में ...ये चार कषाय हैं ....यही कहना काफी नहीं है....वस्तुतः ..<br /> कषाय क्या हैं...क्यों हैं.<br /> काम क्रोध लोभ मोह माया ...क्या हैं व क्यों रोके जाने चाहिए ... यह ज्ञान होने के पश्चात ही इन पर बंधन लगाया जा सकता है ...अतः ये क्या हैं पहले यह ज्ञात होना चाहिए .. shyam guptahttps://www.blogger.com/profile/11911265893162938566noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-23500390832540016162013-05-05T17:26:33.843+05:302013-05-05T17:26:33.843+05:30श्याम जी, ...वाह... क्या निश्चल बह रहे है. पूरक सम...श्याम जी, ...वाह... क्या निश्चल बह रहे है. पूरक समन्वयक कैसे? पूरक अर्थ है पूरा करना. कोई अवगुण यदि किसी दूसरे अवगुण की अधूरप पूर्ण करता है तो सद्गुण कैसे हो गया? बुराईयाँ अगर एकता स्थापित करले तो 'समन्वय' का लाभ लेकर आवश्यक तत्व बन जाती है?सुज्ञhttps://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-34779039052637389992013-05-05T17:22:24.951+05:302013-05-05T17:22:24.951+05:30क्यों क्या वैज्ञानिकयुग, वैज्ञानिकता, ज्ञान, आत्म-...क्यों क्या वैज्ञानिकयुग, वैज्ञानिकता, ज्ञान, आत्म-ज्ञान .. वस्तुओं की जड़ तक जाकर वास्तविकता प्राप्त करने को नहीं कहते.... जड़ या वास्तविकता जानने के लिए समय -असमय क्या होता है ...वह तो सार्वकालिक सत्य तथ्य है ...<br />-----अजीब कथन है ...."गहन आध्यात्म ( सही शब्द अध्यात्म है ) धर्म-चर्चा नहीं. यह तो मनोविज्ञान,दर्शन,नीतिशास्त्र और धर्म के संदर्भ से एक समान 'अवगुण' माने जाते मन के भावों को ग्रहण किया गया है."...<br />----बात मानव मन के भावों, चरित्र-अवगुण की हो जो मनोविज्ञान, दर्शन, नीति, धर्म में एक समान ग्रहण किया गया हो ..परन्तु वह अध्यात्मिक - धर्म चर्चा नहीं है ... ?????...एक दूसरे के विपरीत हैं .. shyam guptahttps://www.blogger.com/profile/11911265893162938566noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-75547449188880844242013-05-05T17:07:48.985+05:302013-05-05T17:07:48.985+05:30यदि वृत्तियाँ सहज हैं ( यदि वे वृत्तियाँ हैं !) तो...यदि वृत्तियाँ सहज हैं ( यदि वे वृत्तियाँ हैं !) तो मन व आत्म को कसैला क्यों करेंगी ....<br /> shyam guptahttps://www.blogger.com/profile/11911265893162938566noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-82049645651862734942013-05-05T16:53:28.445+05:302013-05-05T16:53:28.445+05:30क्या बात है नागरिक जी ....एक दूसरे के पूरक अर्थात ...क्या बात है नागरिक जी ....एक दूसरे के पूरक अर्थात समन्वयक अर्थात ये दुर्गुणों का सद्गुण है ..वाह ..अर्थात ये मनुष्य के चरित्र के आवश्यक तत्व हैं ... shyam guptahttps://www.blogger.com/profile/11911265893162938566noreply@blogger.com