किसी लेखक का वैराग्य विषयक ग्रंथ पढकर, एक राजा को संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न हुआ. ग्रंथ में व्यक्त, मिमांसा युक्त वैराग्य विचारों से प्रभावित हो राजा ने सोचा, ऐसे उत्तम चिंतक ग्रंथकर्ता का जीवन विराग से ओत प्रोत होगा. उसे प्रत्यक्ष देखने की अभिलाषा से राजा नें उसके गांव जाकर मिलने का निश्चिय किया.
गांव पहुँच कर, बहुत खोजने पर लेखक का घर मिला. घर में घुसते ही राजा ने तीन बच्चों के साथ ममत्व भरी क्रिडा करते व पत्नि के साथ प्रेमालाप करते लेखक को देखा. राजा को बडा आश्चर्य हुआ. निराश हो सोचने लगा –“कैसा दंभी व्यक्ति निकला?” राजा को आया देखकर, लेखक ने उनका सत्कार किया. राजा ने अपने आने का अभिप्राय लेखक को समझाया. लेखक ने राजा से शांत होने की प्रार्थना की और उचित आतिथ्य निभाया.
भोजन से निवृत होकर, लेखक व राजा नगर-भ्रमण के लिए निकल पडे. बाज़ार से गुजरते हुए उनकी नजर एक तलवार बनाने वाले की दुकान पर पडी. राजा को दुकान पर ले जाकर, लेखक नें दुकानदार से सर्वश्रेष्ठ तलवार दिखाने को कहा. कारीगर ने तेज धार तलवार दिखाते हुए कहा- “यह हमारा सर्वश्रेष्ट निर्माण है. जो एक ही वार में दो टुकडे करने का सामर्थ्य रखती है.” राजा के साथ खडे, तलवार देखते हुए लेखक ने मिस्त्री से कहा, “ भाई इतनी शक्तिशाली तलवार बनाते हो, इसे लेकर तुम स्वयं युद्ध के मैदान में शत्रुओं पर टूट क्यों नहीं पडते?” हँसते हुए मिस्त्री ने कहा – “ हमारा कार्य तलवारें गढना है; युद्ध करने का काम तो यौद्धाओं का है.
लेखक ने राजा से कहा- “ राजन् , सुना आपने?, "ठीक उसी प्रकार, मेरा कर्म लेखन का है, मूल्यवान विचार गढने का है. वैराग्य के साहस भरे मार्ग पर चलने का काम तो, आप जैसे शूरवीरों का है." महाराज, आपके दरबार में भी वीर-रस के महान् कवि होंगे, किंतु जब भी युद्ध छिडता है,क्या वे वीर-रस के कवि, जोश से अग्रिम मोर्चे पर लडने निकल पडते है? वे सभी वीर रस में शौर्य व युद्ध कौशल का बखान करते है, पर सभी वीरता पूर्वक युद्ध में कूद नहीं पडते, सभी के द्वारा सैन्य कर्म न होने के उपरांत भी, आपकी राज-सभा में उन सभी को सर्वोच्छ सम्मान हासिल है. पता है क्यों? वह इसलिए कि आपके योद्धाओं में वे अपूर्व साहस भरते है, जोश भरते है. शौर्य पोषक के रूप में उनका विशिष्ट स्थान हमेशा महत्वपूर्ण बना रहता है.
कथनी करनी का समरूप होना जरूरी है, किंतु इस सिद्धांत को सतही सोच से नहीं देखा जाना चाहिए. यहाँ अपेक्षा भेद से सम्यक सोच जरूरी है, कथनी रूप स्वर्ग की अभिलाषा रखने की पैरवी करते उपदेशक को, स्वर्ग जाने के करनी करने के बाद ही उपदेश की कथनी करने का कहा जाय तो, उसके चले जाने के बाद भला मार्ग कौन दर्शाएगा? वस्तुतः कथनी करनी में विरोधाभास वह कहलाता है, जब वक्ता या लेखक जो भी विचार प्रस्तुत करता है, उन विचारों पर उसकी खुद की आस्था ही न हो. लेकिन किन्ही कारणो से लेखक, वक्ता, चिंतक का उस विचार पर चलने में सामर्थ्य व शक्ति की विवशताएँ हो, किंतु फिर भी उस विचार पर उसकी दृढ आस्था हो तो यह कथनी और करनी का अंतर नहीं है. कथनी कर के वे प्रेरक भी इतने ही सम्मानीय है, जितना कोई समर्थ उस मार्ग पर 'चल' कर सम्माननीय माना जाता है.
श्रेष्ठ विचार, श्रेष्ठ कर्मों के बीज होते है. वे बीज श्रेष्ठ कर्म उत्पादन के पोषण से भरे होते है. और निश्चित ही फलदायी होते है. उत्तम विचारों का प्रसार सदैव प्रेरणादायी ही होता है. भले यह प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर न हो, किंतु विचारों का संचरण, परिवर्तन लाने में सक्षम होता है. इसलिए चिंतकों के अवदान को जरा सा भी कम करके नहीं आंका जा सकता. वे विचार ही यथार्थ में श्रेष्ठ कर्मों के प्रस्तावक, आधार और स्थापक होते है.
गांव पहुँच कर, बहुत खोजने पर लेखक का घर मिला. घर में घुसते ही राजा ने तीन बच्चों के साथ ममत्व भरी क्रिडा करते व पत्नि के साथ प्रेमालाप करते लेखक को देखा. राजा को बडा आश्चर्य हुआ. निराश हो सोचने लगा –“कैसा दंभी व्यक्ति निकला?” राजा को आया देखकर, लेखक ने उनका सत्कार किया. राजा ने अपने आने का अभिप्राय लेखक को समझाया. लेखक ने राजा से शांत होने की प्रार्थना की और उचित आतिथ्य निभाया.
भोजन से निवृत होकर, लेखक व राजा नगर-भ्रमण के लिए निकल पडे. बाज़ार से गुजरते हुए उनकी नजर एक तलवार बनाने वाले की दुकान पर पडी. राजा को दुकान पर ले जाकर, लेखक नें दुकानदार से सर्वश्रेष्ठ तलवार दिखाने को कहा. कारीगर ने तेज धार तलवार दिखाते हुए कहा- “यह हमारा सर्वश्रेष्ट निर्माण है. जो एक ही वार में दो टुकडे करने का सामर्थ्य रखती है.” राजा के साथ खडे, तलवार देखते हुए लेखक ने मिस्त्री से कहा, “ भाई इतनी शक्तिशाली तलवार बनाते हो, इसे लेकर तुम स्वयं युद्ध के मैदान में शत्रुओं पर टूट क्यों नहीं पडते?” हँसते हुए मिस्त्री ने कहा – “ हमारा कार्य तलवारें गढना है; युद्ध करने का काम तो यौद्धाओं का है.
लेखक ने राजा से कहा- “ राजन् , सुना आपने?, "ठीक उसी प्रकार, मेरा कर्म लेखन का है, मूल्यवान विचार गढने का है. वैराग्य के साहस भरे मार्ग पर चलने का काम तो, आप जैसे शूरवीरों का है." महाराज, आपके दरबार में भी वीर-रस के महान् कवि होंगे, किंतु जब भी युद्ध छिडता है,क्या वे वीर-रस के कवि, जोश से अग्रिम मोर्चे पर लडने निकल पडते है? वे सभी वीर रस में शौर्य व युद्ध कौशल का बखान करते है, पर सभी वीरता पूर्वक युद्ध में कूद नहीं पडते, सभी के द्वारा सैन्य कर्म न होने के उपरांत भी, आपकी राज-सभा में उन सभी को सर्वोच्छ सम्मान हासिल है. पता है क्यों? वह इसलिए कि आपके योद्धाओं में वे अपूर्व साहस भरते है, जोश भरते है. शौर्य पोषक के रूप में उनका विशिष्ट स्थान हमेशा महत्वपूर्ण बना रहता है.
कथनी करनी का समरूप होना जरूरी है, किंतु इस सिद्धांत को सतही सोच से नहीं देखा जाना चाहिए. यहाँ अपेक्षा भेद से सम्यक सोच जरूरी है, कथनी रूप स्वर्ग की अभिलाषा रखने की पैरवी करते उपदेशक को, स्वर्ग जाने के करनी करने के बाद ही उपदेश की कथनी करने का कहा जाय तो, उसके चले जाने के बाद भला मार्ग कौन दर्शाएगा? वस्तुतः कथनी करनी में विरोधाभास वह कहलाता है, जब वक्ता या लेखक जो भी विचार प्रस्तुत करता है, उन विचारों पर उसकी खुद की आस्था ही न हो. लेकिन किन्ही कारणो से लेखक, वक्ता, चिंतक का उस विचार पर चलने में सामर्थ्य व शक्ति की विवशताएँ हो, किंतु फिर भी उस विचार पर उसकी दृढ आस्था हो तो यह कथनी और करनी का अंतर नहीं है. कथनी कर के वे प्रेरक भी इतने ही सम्मानीय है, जितना कोई समर्थ उस मार्ग पर 'चल' कर सम्माननीय माना जाता है.
श्रेष्ठ विचार, श्रेष्ठ कर्मों के बीज होते है. वे बीज श्रेष्ठ कर्म उत्पादन के पोषण से भरे होते है. और निश्चित ही फलदायी होते है. उत्तम विचारों का प्रसार सदैव प्रेरणादायी ही होता है. भले यह प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर न हो, किंतु विचारों का संचरण, परिवर्तन लाने में सक्षम होता है. इसलिए चिंतकों के अवदान को जरा सा भी कम करके नहीं आंका जा सकता. वे विचार ही यथार्थ में श्रेष्ठ कर्मों के प्रस्तावक, आधार और स्थापक होते है.
शायद इसीलिए भारत देश की हालत ख़राब है क्योंकि जिनकी विशेषता भ्रष्टाचार करना है, उनसे शासन भी चलवाया जा रहा है
जवाब देंहटाएंवे भ्रष्टाचार इसीलिये कर पा रहे हैं क्योंकि वे शासन में हैं...पावर करप्ट्स...
हटाएंसही बात है, काजल जी, ठगों के पास तिजोरी का सुरक्षा भार है.
हटाएं100 प्रतिशत सही बात है, अगर सीबीआई को पूर्ण स्वतंत्र कर दिया जाये तो सारे भ्रष्टाचारी नंगे हो जायेंगे..
जवाब देंहटाएंऔर स्वयं सीबीआई भ्रष्टाचार में लिप्त होजाय तो नंगा कौन करेगा ....भ्रष्टाचार तो सब मिलकर करते हैं कोई एक तंत्र नहीं ...आदमी का आचरण ही भ्रष्टाचार की जड़ है कोई संस्था नहीं ...
हटाएंविवेक जी, सही बात है.
हटाएंसटीक आलेख !!
जवाब देंहटाएंआभार, पूरण जी!!
हटाएंपेचीदा प्रश्न है, अनुभव न कर केवल उपदेश देना कभी भी अनुकरणीय नहीं रहा है। अच्छी तलवारें बनाने में योद्धा के अनुभव का आधार आवश्यक है।
जवाब देंहटाएं-- सही है अनुभव बिना केवल उपदेश, कथन या विचार अनुकरणीय नहीं है ...प्रसिद्दतम उदाहरण सभी जानते हैं श्री कृष्ण जहां अपने पिता, ब्रज जनता, गोपियों को,उद्धव को नवीन उपदेश व बातें बताते हैं वही स्वयं कर के दिखाते हैं,जहां गीता का उपदेश देते है वहीं स्वयं कुशल योद्धा हैं और अपना चक्र ईजाद करते हैं|
हटाएं....कालिदास एवं चंदबरदाई कवि भी थे और योद्धा भी , बीरबल भी कुशल योद्धा थे ...शिवाजी एवं सभी विशेष योद्धा स्वयं अपनी देख रेख में तलवारें अदि बनवाया करते थे...आज भी कुशल क्रिकेटर अपनी विशेष सुरक्षा गार्ड-उपकरण व बल्ला आदि बनवाते हैं...
पेचीदा तो है ही प्रवीण जी, जब एक से अधिक अनुभवों का वैचारिक अनुशीलन कर कोई तलवार बनाए और योद्धा को उसके वांछित से भी अधिक उपयोगी तलवार मिले तो ऐसा योद्धा स्वयं तलवार नहीं बनाना चाहेगा. भला अनुभवों का निचोड मिलता हो तो क्यों कोई मात्र अपने अनुभव तक सीमित रहना चाहेगा.
हटाएंसही कहा......अनुभव न कर सिर्फ उपदेश देना ...और अपने अनुभव को अन्य के अनुभव से समर्थित व तादाम्यता करना दोनों पृथक पृथक बातें हैं....
हटाएंअपनी स्वछंद धारणाओं से किसी भी बात को 'पृथक पृथक' कहना पर्याप्त नहीं होता. अनुभव स्वयं ज्ञान ही होता है, वह अपना भी हो सकता है और दूसरों से प्राप्त सभी तरह अनुभवों का विचारों के रूप में संचित संकलन भी हो सकता है.ऐसे अनुभवों को बांटना वस्तुतः विचार बांटना ही होता है. बांटने की प्रक्रिया ही उपदेश है. जरूरी नहीं अनुभव कृत्यों से ही प्राप्त होता है, अनुभव विचारों के आदान प्रदान से भी निर्णित होता है.सम्यगदृष्टि समंवय करेगा वहीं मायावी उसका विपरित अर्थ बनाकर उसे ही संदिग्ध कर देगा.
हटाएंभगवान शिव के एक सहस्त्र शुभ नाम हैं समस्त नामों की एक साथ स्तुति संभव नहीं थी अत:भगवान विष्णु ने एक दिन एक पुष्प के सह एक नाम की स्तुति करते हुवे भगवान
हटाएंशिव के विधिवत आराधना की । आराधनापूर्ण होने के पश्चात् जब भगवान विष्णु ने पुष्पों
की गणना की तो एक पुष्प गिनती में न्यून था, कहीं आराधना अपूर्ण न हो इस आशय से विष्णु ने उस पुष्प के स्थान पर अपनी एक आँख चढ़ा दी जिसे शिव ने अपने मस्तक पर धारण कर लिया । ऐसी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने विष्णु को चक्र प्रदान
किया तत्पश्चात ही भगवान विष्णु, चक्रपाणि कहलाए ।
हर कोई अपना सर्वश्रेष्ठ करे।
जवाब देंहटाएंसत्य बचन ...
हटाएंसंजय जी,सही कहा,सभी अपने अपने कर्तव्यों पर निष्ठावान रहे....
हटाएंआज की ब्लॉग बुलेटिन १० मई, मैनपुरी और कैफ़ी साहब - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार जी
हटाएंबहुत विचारणीय और सारगर्भित आलेख...
जवाब देंहटाएंकैलाश जी, आपका आभार
हटाएंश्रेष्ठ विचार, श्रेष्ठ कर्मों के बीज होते है. वे बीज श्रेष्ठ कर्मों के पोषण से भरे होते है और निश्चित ही फलदायी होते है.
जवाब देंहटाएंकथनी और करणी का फ़र्क विशेष परिस्थितियों मे होता ही है और ग्राह्य भी है. जैसे जरूरी नही है कि इंजीनियरिंग का शिक्षक जो कार या हवाईजहाज बनाने की थ्योरी क्लास में पढाता है, उसी ने कभी कार या हवाईजहाज बनाया हो.
बहुत ही उपयोगी और सुंदर आलेख.
रामराम.
आज के इंजीनियर व शिक्षक अपनी नहीं पुस्तकों से रटी-रटाई बातें क्लास में पढ़ाते हैं अतः वे विचारक नहीं हैं, वि कुछ नहीं बना सकते .....यदि वे अपना स्वयं की थ्योरी व प्रयोगात्मक( यदि कोई है तो ) कार्य पढ़ाएं तो निश्चय ही उस पर उनकी आस्था होगी और कथनी-करनी का अंतर नहीं होगा ..
हटाएं---- विचार अपने स्वयं के मूल-विचारों एवं तदनुरूप कर्म को कहा जाता है उधार के पढ़े हुए विचार को नहीं ...
'उधार के पढ़े हुए विचार' का क्या अर्थ है? हर कोई मूल-विचारों का प्रवर्तक नहीं होता. ज्ञान तो पूर्वागामियों से लेना ही पडता है, स्थापित थ्योरी व निष्कर्ष आदि ही पुस्तकें बनती है उन्हें पढना ही होता है.पूर्व उपार्जित ज्ञान का अध्यन ही विद्या उपार्जन है. प्रत्येक व्यक्ति स्वयं की थ्योरी व प्रयोगात्मकता का प्रारम्भ कर्ता नहीं हो सकता. 'विष मारक है' यह दूसरों के अनुभव ज्ञान से मान लेना बुद्धिमत्ता है न कि प्रयोग करके स्वयं प्रतिपादित करना कि विष कैसे मारक हो सकता है!!
हटाएंकिसी भी विषय में सभी के अपने अपने विचार हो सकते हैं, और वो उन्हें मानने के लिये स्वतंत्र है.
हटाएंमेरा अपना मानना है {किसी पर थोपने का कोई विचार नही है} कि इस सृष्टि में ऐसा कोई विचार नही है जो मौलिक हो, प्रत्येक विचार हमारी बुद्धि में आने से पहले कहीं किसी के पास विद्यमान था ही.
यदि मौलिक है तो सिर्फ़ वो परम तत्व, जो जान लेने के बाद व्यक्त नही किया जा सकता. मुझे आज तक कोई विद्वान, महात्मा या शिक्षक ऐसा नही मिला जिसके पास अपना कोई विचार हो. सबका कहना था " ऐसा हमारे गुरू ने बताया या ऐसा फ़लां फ़लां शाश्त्र में लिखा है"
यह जरूरी भी नही है कि जो सिद्धांत जानता हो वह उसे प्रायोगिक रूप से करने में सक्षम हो, विज्ञान में भी मूल विचार के रूप में सिर्फ़ परिकल्पनाएं की गई थी उन्हें अमली जामा किसी और ने पहनाया.
आईंस्टाइन ने भी परमाणु की थ्योरी दी थी, परमाणु बम बनाने आईंस्टाइन बम फ़ेक्ट्री में नही गया बल्कि उसकी कथनी पर किसी और ने बनाया था, और गिराया किसी और ने था. अब यहां सवाल फ़िर वही खडा हो गया कि जब वो सिर्फ़ परमाणु बम की कथनी कर सकता है तो बनाना और गिराना भी उसी को चाहिये था. इस हिसाब से उसकी थ्योरी तो गलत, नाकारा और कमजोर होनी थी, पर जापान में उसका प्रभाव सबने देखा जो आज तक लोग कांप जाते हैं.
गैलिलियो के सिद्धांत "पृथ्वी गोल है" के पूर्व धरती को चपटी (बाईबिल अनुसार) माना जाता था. इसी बात पर गैलिलियो को पोप से क्षमा मांगने को कहा गया, वर्ना तुझे दंड दिया जायेगा. जबकि वो सही था. और गैलिलियो ने कहा " मुझे क्या फ़र्क पडता है...माफ़ी मांग लेता हूं..पर मेरे माफ़ी मांग लेने से धरती चपटी नही हो जायेगी.
अब देखिये, गैलिलियो का सिद्धांत या परिकल्पना सही होते हुये भी उसे माफ़ी मांगनी पडी, क्योंकि उसे अपनी कथनी को सही सिद्ध करने का कोई उपाय उस समय नही मालूम था, उस समय उसके पास सिर्फ़ परिकल्पना थी. गैलिलियो के पास उस समय यह सिद्ध करने के लिये कोई और आदमी होता तो आईंस्टाइन की तरह वो भी अपनी बात सिद्ध कर सकता था. यानि यहां सिर्फ़ कथनी थी और यह कथनी किसी करणी के सहयोग बिना, सत्य होते हुये भी, कमजोर पड गयी.
कल्पना चावला अंतरिक्ष मे गयी तो क्या वो शटल उसने खुद बनायी थी? जो कभी वापस लौट ही नही पायी? क्या इसीलिये कि वो शटल किसी और ने बनाई थी?:)
कथनी और करणी को एक दूसरे के पूरक के रूप में लिया जाना चाहिये ना कि लठ्ठ लेकर जस का तस उसके पीछे पड जाना चाहिये.:)
कथनी और करणी का संबंध एक कविता मय संबंध है इसे कविता ही रहने दें. मां अपने बच्चे को डराने के लिये कहती है बेटा सोजा, नही तो ताऊ आ जायेगा तो क्या सचमुच ताऊ वहां बंदूक लेकर आ जाता है?:)
कथनी और करणी एक होने का सिद्धांत आप सब जगह एक समान लागू नही कर सकते विशेषकर विज्ञान के क्षेत्र में जहां हर अगली पीढी पिछली पीढी के कंधो पर खडी होकर अपने काम को आगे बढाती है.
और एक बात बताऊं कि धर्म और विज्ञान कोई जुदा जुदा नही हैं, दोनों परिकल्पनाओं के सिद्धांत पर ही चलते हैं. यहां पर यह विषय का भटकाव हो जायेगा, इस लिये फ़िर कभी.
आज की चर्चा आनंद मयी रही, शुभकामनाएं.
रामराम.
बहुत बहुत आभार ताऊ,
हटाएंमेरी बात को बोधगम्य बनाने के लिए, आपके इन विचारों ने पोस्ट को उत्थान दिया है. यह टिप्पणी पोस्ट की अधूरप को पूर्ण करती है. एक बार पुनः आभार!!
सही कहा ताऊजी ..... श्री कृष्ण ने गीता में कोई नवीन तथ्य का उदघाटन नहीं किया है अपितु पुरा ज्ञान को नही परिभाषित किया है ...परन्तु वह उनका स्वयं का मौलिक उपदेश व ज्ञान माना जाता है क्योंकि वह संदर्भित करके स्वयं कहा गया है.. वास्तव में विचार एक मौलिक व्याख्या है ..
हटाएं---न्यूटन का नियम कोई उनका मौलिक नहीं है वह नियम पहले से ही संसार में मौजूद है ...फिर भी उसे न्यूटन का नियम कहते हैं क्योंकि उसने उसकी मौलिक व्याख्या की ..
--- समस्त ज्ञान के श्रोत वेद हैं, व्याख्याता शिव एवं उपदेष्टा सरस्वती ....एको सद विप्राः वहुधा वदंति ....जो अपनी निजी नवीन व्याख्या करता है उसी को व्यवहार में विचार का प्रतिपादक कहा जाता है ..उसीको मौलिक विचार ..
----बात अपने विचार पर स्वयं आस्था एवं उसे पूर्ण रूप से जानने की है ..... सिद्धांत को बनाना उस पर आस्था रखना ही कथनी व करनी का समान होना है.... बम बनाया किसी और ने डाला किसी और ने.. यह करनी नहीं उपयोग है...
हटाएं--- ये बातें अविद्या अर्थात संसारी-भौतिक ज्ञान व विचारों की है ...योग, वैराग्य, आचरण आदि वास्तविक विद्या --ज्ञान में कथनी-करनी में सामान होना अनिवार्य है.. ...
विष आदि भौतिक जगत की वस्तुएं-अविदया हैं... इन्हें आप दूसरों के विचार के अनुसार उधार ले सकते हैं ( यद्यपि इस क्षेत्र में भी तमाम व्यक्तियों ने स्वयं विष खाकर उसके गुणों पर अपना मत संसार को दिया है ... होम्योपेथी की ईजाद भी स्वयं पर प्रयोगों से हुई )...परन्तु विद्या अर्थात योग वैराग्य आचरण आदि में स्वयं किये बिना उपदेश दूसरे के ज्ञान को उधार लेना होगा...
हटाएंअपना अपना मत अपनी अपनी समझ, विद्या-अविद्या, भौतिक-अभौतिक, नास्तिक-आस्तिक ये सभी एक ही तत्व के दो पहलू हैं, मूल रूप से एक हैं पर दिखते अलग अलग हैं, इन्हें एक साथ देखने वाली दॄष्टि परमात्मा ने हमें नही दी. पर ईश्वर ने यह छूट अवश्य दे दी कि जो समझना हो वो समझो.:)
हटाएंज्ञान में कथनी और करणी की समानता होना अनिवार्य है???
मेरी समझ से तो ज्ञान प्राप्त हो जाने के बाद कथनी और करणी दोनों ही खत्म हो जाती है, शेष बचा रह जाता है सिर्फ़ आनंद, जिसकी तलाश में हम जन्मों से भटक रहे हैं.
चर्चा आनंद दायी रही, इस चर्चा को मेरी तरफ़ से यहीं विराम, आभार.
रामराम.
@ एको सद विप्राः वहुधा वदंति ...
हटाएंइस सूत्र को यहाँ वहाँ मात्र कहते ही है या आत्मसात भी किया है? 'विप्राः वहुधा वदंति' विप्र क्यों बहुत तरीकों से कहते है? इस लेख में भी बहुधा में से एक दृष्टिकोण है, ताऊ जी भी कभी से कह रहे है- "किसी भी विषय में सभी के अपने अपने विचार हो सकते हैं" फिर आप जडता पूर्वक एकांगी धारणा पर क्यों डटे हुए है? या तो आपने उस एक सत्य को पा लिया है कि विप्रों के बहुविध उपदेश ज्ञान की आपको जरूरत ही नहीं रही.... "एक सत्य" ज्ञान वा विचार है या करणी करने का कर्म?
यथा इस 'सत्य' की करणी कर लो तो उसके पश्चात ही इस सूत्र कथन को प्रस्तुत करना.......
विशेष इस चर्चा को मैं भी विराम देना उचित मानता हूँ.
----युद्धों के काल में किसान, दरवारी,बणिक, मिस्त्री,लोहार , लेखक, कवि, आदि सभी युद्ध भी किया करते थे .....आज भी अमेरिका में सभी नागरिकों को कुछ वर्ष सेना में देना अनिवार्य है ...
जवाब देंहटाएं---- आजकल भी मेनेजर उसीको बनाया जाता है जो हर क्षेत्र कथनी व करनी में कुशल हो भले ही वह एक विषय का विशेषज्ञ हो ...
अस्थिर और मिथ्या संभाषणों से आपको बचना चहिए. युद्ध काल में 'सभी' युद्ध रत हो जाय ऐसा न कभी हुआ है न कभी होगा. योद्धा सभी वर्ग से आ सकते है और यौद्धा भी कवि लेखक हो सकते है. आलेख का अभिप्राय यह नहीं है कि कोई लेखक कवि योद्धा हो ही नहीं सकता, अभिप्राय यह है कि हर लेखक कवि का योद्धा ही होना जरूरी नहीं है. इन बातों को समझने के लिए सम्यकदृष्टि चाहिए साथ ही विवेक का रहना जरूरी है.
हटाएंअमेरिका में ऐसा कोई नियम नहीं है कि 'सभी नागरिकों' को कुछ वर्ष सेना में रहना अनिवार्य है.
विषय का विशेषज्ञ हर क्षेत्र कथनी में कुशल हो सकता है लेकिन करणी में कुशल तो अपने विषय में ही होगा.
इसमें कोई भी मिथ्या संभाषण नहीं है .....आवश्यकता पड़ने पर युद्ध कल में सभी यहाँ तक कि स्त्रियाँ भी...भाग लेती थीं.....
हटाएंयौद्धा या सैनिक सभी वर्ग से आ सकते है फिर भी सभी का युद्धरत होना कोई जरूरी नहीं प्रत्येक का अपना विशिष्ट कर्तव्य होता है बस उसी कर्तव्य का पूर्ण होना जरूरी है.
हटाएं@ ...आज भी अमेरिका में सभी नागरिकों को कुछ वर्ष सेना में देना अनिवार्य है ...
हटाएं- अच्छा मज़ाक कर लेते हैं डॉ. गुप्ता - गजब का सेंस ऑफ ह्यूमर है।
@@ अच्छा मज़ाक कर लेते हैं डॉ. गुप्ता - गजब का सेंस ऑफ ह्यूमर है
हटाएंi think anurag ji - u have a wonderful sense of complimenting people :)
सहमत...उत्तम विचारों का प्रसार प्रेरणादायी होता ही है.
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा पढ़कर...
१००% सत्य ....
हटाएंआभार समीर जी, आपका आना प्रसन्न कर गया.....
हटाएंउत्तम सोच,उत्तम विचारों का प्रसार प्रेरणादायी होता ही है.
-----अतः स्वयं वैराग्य आदि पर आस्था न रखने, उसका आचरण न करने वाले को उस विषय पर लेखक बनने का अधिकार नही है....स्वयं क्रोध पर विजय न पाने वाले को क्रोध आदि पर उपदेश देने व लिखने का अधिकार नहीं है.... कथनी -करनी समनुरूप होनी ही चाहिए ....
जवाब देंहटाएंयही तो लेख में कहा गया है कि सम्यक ज्ञान के अभाव में और अपेक्षा बोध की समझ न होने पर व्यक्ति सतही या उपरी सोच से काम लेता है और उधार के पढ़े "कथनी -करनी समनुरूप" के वाक्यांशों पर निर्भर हो जाता है. ज्ञान, ज्ञान होता है उसे हर कोई उपार्जित और प्रकट कर सकता है, किंतु कर्म और पुरूषार्थ हर किसी के बस का नहीं. हम इतनी बडी बात कर ही नहीं सकते कि किसे क्या अधिकार है क्या नहीं.
हटाएं--- तो फिर बिना संन्यासी बने शास्त्रार्थ, धर्म-तत्व पर बात करने का क्या अधिकार है.
हटाएंसही कहा ...परन्तु फिर सन्यासी,विरागी व वैराग्य किसे कहते हैं इस बात को तथ्यत: जानना होगा ...सिर्फ सन्यासी ही विरागी नहीं होता....
हटाएंक्या अंतर पडता है कि 'सिर्फ सन्यासी ही विरागी नहीं होता' जब बात किसी के अधिकारों पर हो रही हो, जो यथार्थ में विरागी हो जाते है उन्हें तो उपदेश देने तक का राग नहीं रहता. किंतु वैराग्य के चिंतक हो सकते है. संसार में रहकर,संसार के सारे रागयुक्त कार्य करते हुए भी अंतर से अलिप्त और रागमुक्त हो सकते है. ऐसे साधक वैराग्य की प्रत्यक्ष करणी न करते हुए भी निश्चित ही वैराग्य उपदेश में समर्थ होते है. क्या दुष्कर्मों के दुष्फल की कथनी या उपदेश देते हुए संतो को दुष्कर्म करके और फल भोग के ही कथनी करनी चाहिए? कथनी करनी की एकरूपता दिखाने के लिए इस तरह कौन पतन में गिरना चाहेगा? उनके लिए यह जानना ही काफी है कि दुष्कर्म दुखद फलदाता होते है.
हटाएंसार्थक विचार और सधे कर्म ....जीवन में यह संतुलन हर किसी के लिए आवश्यक है , संभवतः तभी कुछ हो सके |
जवाब देंहटाएंसच कहा...
हटाएंमोनिका जी,
हटाएंसही बात है, विचार ऐसे जो सार्थक हो और कर्म वे जो सधे हों
सचमुच अच्छे विचारों से ही चरित्र निर्माण होता है।
जवाब देंहटाएंसही कहा जी, अच्छे विचारों का प्रभाव प्रमाणित है.
हटाएंएक चिकित्सक जो धूम्रपान और मदिरापान करता है लेकिन इनके खतरों के विषय में आम आदमी से कहीं अधिक जानता है।और यदि वह इनसे हमें आगाह करता है तो भी उसकी बात मानने से केवल इसलिए इंकार करना गलत होगा कि वह खुद भी इनका सेवन करता है।लेकिन यदि वह या कोई भी शराब सिगरेट आदि को अनैतिक मानता है तो खुद उसे भी इनका परित्याग करना चाहिये या इसका अधिकतम प्रयास करना चाहिये।हाँ ये बात सही है कि जो बात कही जा रही है हमें उस पर ध्यान देना चाहिए न कि कहने वाले पर लेकिन आमतौर पर लोग ऐसे व्यक्ति को एक रोलमॉडल मान लेते हैं और विश्वास करते हैं कि जो वह कह रहा है उस पर स्वयं भी चलता होगा।लेकिन जब ऐसा नही होता तो उसकी सीख को भी अव्यवहारिक मान लिया जाता है।और यदि सभी इस तरह कथनी करनी मे भेद करने लगे तो नैतिकता सदाचार कभी स्थापित नही हो सकते।वीररस की कविता गाने वाले चाहे युद्ध न करे लेकिन जीवन मे ऐसे मौके आ सकते है जैसे घर मे चोर लुटेरे आ जाएँ या कभी गुंडो से भिडने की नौबत आ जाए वहाँ खुद उसे साहस का परिचय देना चाहिए या कम से कम डरना तो नही ही चाहिए।लेकिन यदि कभी उसके सामने ऐसा मौका ही नही आया तब तक कथनी करनी मे भेद जैसी बात का कोई मतलब नहीं।
जवाब देंहटाएंराजन जी,
हटाएंबहुत ही सरल-सुबोध शब्दों में आपने यथार्थ रख दिया.....
आपने सही कहा..."यदि सभी इस तरह कथनी करनी मे भेद करने लगे तो नैतिकता सदाचार कभी स्थापित नही हो सकते।" क्योंकि यदि आदर्श नैतिक निष्ठा के लिए, करणी कर्ताओं पर ही आधार रखा जाय तो विचारकों की आवश्यकता शून्य हो जाती है. फिर तो लेखकों साहित्यकारों का औचित्य ही समाप्त हो जाता है. शायद इसीलिए कबीरदास जी ने कहा होगा... उत्तम विद्या लीजिए जदपि नीच पै होय....वस्तुतः विचारक का विचार के प्रति आस्थावान होना ही पर्याप्त है. आपने सही कहा कि मौका ही नही आया तब तक कथनी करनी मे भेद जैसी बात का कोई मतलब नहीं। क्योंकि निष्ठा का भी अपने आप में बहुत मूल्य है.
हर बार कथनी-करनी में एका वाली बात नहीं मानी जा सकती. चिकित्सक व्याधि से ग्रस्त नहीं होता किन्तु लक्षणों की पूरी जानकारी रखता है और निदान भी करता है.
जवाब देंहटाएंसही कहा है आपने,और यह ज्ञान भी पूर्व शोध संशोधन और निष्कर्षों से उसी स्वरूप में लिया जाता है.प्रत्येक बार पुनः शोध की कार्यवाही से गुजरना नहीं होता.
हटाएंश्रेष्ठ विचार, श्रेष्ठ कर्मों के बीज होते है. वे बीज श्रेष्ठ कर्मों के पोषण से भरे होते है और निश्चित ही फलदायी होते है. उत्तम विचारों का प्रसार प्रेरणादायी होता ही है. विचार परिवर्तन लाने में सक्षम होते है. भले यह प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर न हो, किंतु चिंतकों के अवदान को जरा भी कम करके नहीं आंका जा सकता.
जवाब देंहटाएं- सत्य वचन!
बहुत बहुत आभार, अनुराग जी
हटाएंउत्तम विचार में अमल में लाये जा सके , उनमे स्वयं की भी श्रद्धा हो तो अलख जगाते हैं !
जवाब देंहटाएंरोचक वृत्तांत और परिचर्चा !
विचार पर विचारक की अटूट श्रद्धा आवश्यक है, श्रद्धा रही तो प्रखर मनोबलों द्वारा धारण किए जाएंगे. और मनोबल मजबूत होते ही अमल में आने की सम्भावनाएं रहेगी.
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