व्यक्तित्व के शत्रु शृंखला के पिछ्ले आलेखों में हमने पढा "क्रोध", "मान" और "माया" अब प्रस्तुत है अंतिम चौथा शत्रु- “लोभ”
मोह वश दृव्यादि पर मूर्च्छा, ममत्व एवं तृष्णा अर्थात् असंतोष रूप मन के परिणाम को 'लोभ' कहते है. लालच, प्रलोभन, तृष्णा, लालसा, असंयम के साथ ही अनियंत्रित एषणा, अभिलाषा, कामना, इच्छा आदि लोभ के ही स्वरूप है. परिग्रह, संग्रहवृत्ति, अदम्य आकांक्षा, कर्पणता, प्रतिस्पर्धा, प्रमाद आदि लोभ के ही भाव है. धन-दृव्य व भौतिक पदार्थों सहित, कामनाओं की प्रप्ति के लिए असंतुष्ट रहना लोभवृत्ति है। 'लोभ' की दुर्भावना से मनुष्य में हमेशा और अधिक पाने की चाहत बनी रहती है।
लोभ वश उनके जीवन के समस्त, कार्य, समय, प्रयास, चिन्तन, शक्ति और संघर्ष केवल स्वयं के हित साधने में ही लगे रहते है. इस तरह लोभ, स्वार्थ को महाबली बना देता है.
आईए देखते है महापुरूषों के सद्वचनों में लोभ का स्वरूप..........
“लोभो व्यसन-मंदिरम्.” (योग-सार) – लोभ अनिष्ट प्रवृतियों का मूल स्थान है.
“लोभ मूलानि पापानि.” (उपदेश माला) – लोभ पाप का मूल है.
“अध्यात्मविदो मूर्च्छाम् परिग्रह वर्णयन्ति निश्चयतः .” (प्रशम-रति) मूर्च्छा भाव (लोभ वृति) ही निश्चय में परिग्रह है ऐसा अध्यात्मविद् कहते है.
“त्याग यह नहीं कि मोटे और खुरदरे वस्त्र पहन लिए जायें और सूखी रोटी खायी जाये, त्याग तो यह है कि अपनी इच्छा अभिलाषा और तृष्णा को जीता जाये।“ - सुफियान सौरी
“अभिलाषा सब दुखों का मूल है।“ - बुद्ध
“विचित्र बात है कि सुख की अभिलाषा मेरे दुःख का एक अंश है।“ - खलील जिब्रान
"जरा रूप को, आशा धैर्य को, मृत्यु प्राण को, क्रोध श्री को, काम लज्जा को हरता है पर अभिमान सब को हरता है।" - विदुर नीति
"क्रोध को क्षमा से, विरोध को अनुरोध से, घृणा को दया से, द्वेष को प्रेम से और हिंसा को अहिंसा की भावना से जीतो।" - दयानंद सरस्वती
लोभ धैर्य को खा जाता है और व्यक्ति का आगत विपत्तियों पर ध्यान नहीं जाता. यह ईमान का शत्रु है और व्यक्ति को नैतिक बने रहने नहीं देता. लोभ सभी दुष्कर्मों का आश्रय है. यह मनुष्य को सारे बुरे कार्यों में प्रवृत रखता है.
लोभ को अकिंचन भाव अर्थात् अनासक्त भाव से ही जीता जा सकता है.
लोभ को शांत करने का एक मात्र उपाय है “संतोष”
दृष्टांत : आधा किलो आटा
मधुबिंदु
आसक्ति की मृगतृष्णा
शृंगार करो ना !!
मोह वश दृव्यादि पर मूर्च्छा, ममत्व एवं तृष्णा अर्थात् असंतोष रूप मन के परिणाम को 'लोभ' कहते है. लालच, प्रलोभन, तृष्णा, लालसा, असंयम के साथ ही अनियंत्रित एषणा, अभिलाषा, कामना, इच्छा आदि लोभ के ही स्वरूप है. परिग्रह, संग्रहवृत्ति, अदम्य आकांक्षा, कर्पणता, प्रतिस्पर्धा, प्रमाद आदि लोभ के ही भाव है. धन-दृव्य व भौतिक पदार्थों सहित, कामनाओं की प्रप्ति के लिए असंतुष्ट रहना लोभवृत्ति है। 'लोभ' की दुर्भावना से मनुष्य में हमेशा और अधिक पाने की चाहत बनी रहती है।
लोभ वश उनके जीवन के समस्त, कार्य, समय, प्रयास, चिन्तन, शक्ति और संघर्ष केवल स्वयं के हित साधने में ही लगे रहते है. इस तरह लोभ, स्वार्थ को महाबली बना देता है.
आईए देखते है महापुरूषों के सद्वचनों में लोभ का स्वरूप..........
“लोभो व्यसन-मंदिरम्.” (योग-सार) – लोभ अनिष्ट प्रवृतियों का मूल स्थान है.
“लोभ मूलानि पापानि.” (उपदेश माला) – लोभ पाप का मूल है.
“अध्यात्मविदो मूर्च्छाम् परिग्रह वर्णयन्ति निश्चयतः .” (प्रशम-रति) मूर्च्छा भाव (लोभ वृति) ही निश्चय में परिग्रह है ऐसा अध्यात्मविद् कहते है.
“त्याग यह नहीं कि मोटे और खुरदरे वस्त्र पहन लिए जायें और सूखी रोटी खायी जाये, त्याग तो यह है कि अपनी इच्छा अभिलाषा और तृष्णा को जीता जाये।“ - सुफियान सौरी
“अभिलाषा सब दुखों का मूल है।“ - बुद्ध
“विचित्र बात है कि सुख की अभिलाषा मेरे दुःख का एक अंश है।“ - खलील जिब्रान
"जरा रूप को, आशा धैर्य को, मृत्यु प्राण को, क्रोध श्री को, काम लज्जा को हरता है पर अभिमान सब को हरता है।" - विदुर नीति
"क्रोध को क्षमा से, विरोध को अनुरोध से, घृणा को दया से, द्वेष को प्रेम से और हिंसा को अहिंसा की भावना से जीतो।" - दयानंद सरस्वती
लोभ धैर्य को खा जाता है और व्यक्ति का आगत विपत्तियों पर ध्यान नहीं जाता. यह ईमान का शत्रु है और व्यक्ति को नैतिक बने रहने नहीं देता. लोभ सभी दुष्कर्मों का आश्रय है. यह मनुष्य को सारे बुरे कार्यों में प्रवृत रखता है.
लोभ को अकिंचन भाव अर्थात् अनासक्त भाव से ही जीता जा सकता है.
लोभ को शांत करने का एक मात्र उपाय है “संतोष”
दृष्टांत : आधा किलो आटा
मधुबिंदु
आसक्ति की मृगतृष्णा
दृष्टव्य : जिजीविषा और विजिगीषा
निष्फल है बेकार हैशृंगार करो ना !!
"क्षांति से क्रोध को जीतें, मृदुता से अभिमान को जीतें, सरलता से माया को जीतें और संतोष से लोभ को जीतें।" (दशवैकालिक)चरित्र (व्यक्तित्व) के कषाय रूप चार शत्रुओं (क्रोध,मान,माया,लोभ) की शृंखला सम्पन्न
अभी तक वर्णित शत्रुओं मे लोभ शायद सबसे अनोखा है। इसकी अस्वीकार्यता शायद सभी समुदायों, पंथों, विचारधाराओं मे होते हुए भी इसकी मौजूदगी सबसे अधिक होगी। लगता है जैसे लोभ को तार्किकता मोड़ने का जादू आता है - जो दिखे सब "मेरा" हो जाये।
जवाब देंहटाएं:)
हटाएंबेचारा 'अभिमान' सर्वाधिक बलशाली होने के बाद भी खुद के दुर्गुण अभिव्यक्त करने में उदार रहता है. किंतु 'लोभ' अपने स्वभावानुसार बडा कर्पण है. स्वयं को अप्रकट रखने के लिए विकास का प्रलोभन डालता है इस तरह प्रतिस्पर्धा के छद्मावरण रहकर अपनी आवश्यकता प्रमाणित करता है. प्रतिस्पर्धा का भी तार्किक विरोध हो तो स्वयं के साथ 'स्वस्थ' लगाकर स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को स्वीकार्य बनाने की जुगत भिडाता है. 'विकास' की आड में मानसिक तनाव व विकारों को छुपा लेता है. पहले से ही सुखी को अनजाने सुख के लिए दुखी बनाने की राह....
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा प्रस्तुति !
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कालीपद जी, आभार!!
हटाएंआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(11-5-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
जवाब देंहटाएंसूचनार्थ!
आभार वंदना जी!!
हटाएंलोभ सबसे बड़ा विकार है कम से कम भारत के संदर्भ में ।
जवाब देंहटाएंलोभ ही पाप का मूल है , सत्य है !
जवाब देंहटाएंसुख और दुख यदि मन पर ही निर्भर है तो मन संतोष से जो सुख पा लेता है वह अपूरित तृष्णा से सम्भव नहीं.
हटाएंzaroori baat!
जवाब देंहटाएंस्वागत प्रबोध जी!!
हटाएंआभार आपका!!
संग्रहणीय आलेख
जवाब देंहटाएंलोभ आदमी को स्वार्थी बना देता है।
बढिया
स्वागत महेंद्र जी,
हटाएंसही कहा!! और फिर एक दुष्चक्र का निर्माण!!
बढ़िया और सार गर्भित प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंआशा
लोभ छोड़, सब क्षोभ छोड़।
जवाब देंहटाएं“अभिलाषा सब दुखों का मूल है।“ - बुद्ध..... यहाँ बुद्ध ने अभिलाषा अर्थात...इच्छा , कामना, काम को कहा है लोभ को नहीं ....
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