28 मई 2013

धुंध में उगता अहिंसा का सूरज

हत्या न करना, न सताना, दुख न देना अहिंसा का एक रूप है। यह अहिंसा की पूर्णता नहीं. उसका आचारात्मक पक्ष है। विचारात्मक अहिंसा इससे अधिक महत्वपूर्ण है। विचारों में उतर कर ही अहिंसा या हिंसा को सक्रिय होने का अवसर मिलता है. वैचारिक हिंसा अधिक भयावह है। उसके परिणाम अधिक घातक हैं. विचारों की शक्ति का थाह पाना बहुत मुश्किल है. जिन लोगों ने इसमें थोड़ा भी अवगाहन किया है, वे विचार चिकित्सा नाम से नई चिकित्सा विधि का प्रयोग कर रहे हैं। इस विधि में हिंसा, भय और निराशा जैसे नकारात्मक विचारों की कोई मूल्यवत्ता नहीं है। अहिंसा एकमात्र पॉजिटिव थिंकिंग पर खड़ी है. पॉजिटिव थिंकिंग एक अनेकांत की उर्वरा में ही पैदा हो सकती है। अनेकांत दृष्टि के बिना विश्व-शांति की कल्पना ही नहीं हो सकती।

शांति का दूसरा बड़ा कारण है- त्याग की चेतना के विकास का प्रशिक्षण. भोगवादी वृत्ति से हिंसा को प्रोत्साहन मिलता है। यदि व्यक्ति को शांति से जीना है तो उसे त्याग की महिमा को स्वीकार करना होगा, त्याग की चेतना का विकास करना होगा। हमारे पूज्य गुरुदेव आचार्य भिक्षु ने सब प्रकार के उपचारों से ऊपर उठकर साफ शब्दों में कहा- ‘त्याग धर्म है; भोग धर्म नहीं है. संयम धर्म है; असंयम धर्म नहीं है.’ यह वैचारिक आस्था व्यक्ति में अहिंसा की लौ प्रज्जवलित कर सकती है। बात विश्व-शांति की हो और विचारों में घोर अशांति व्याप्त हो तो शांति किस दरवाजे से भीतर प्रवेश करेगी? एक ओर शांति पर चर्चा, दूसरी ओर घोर प्रलयंकारी अणु अस्त्रों का निर्माण, क्या यह विसंगति नहीं है? ऐसी विसंगतियां तभी टूट सकेंगी, जब अणु अस्त्रों के प्रयोग पर नियंत्रण हो जाएगा। जिस प्रकार पानी मथने से घी नहीं मिलता, वैसे ही हिंसा से शांति नहीं होती। शांति के सारे रहस्य अहिंसा के पास हैं। अहिंसा से बढ़कर कोई शास्त्र नहीं है, शस्त्र भी नहीं है।
- ‘कुहासे में उगता सूरज’ से आचार्य तुलसी 

14 टिप्‍पणियां:

  1. हिंसा और अहिंसा को थोड़ा व्यापक रूप में देखा जाय तो हिंसा केवल क्रिया होती है प्रतिक्रिया हिंसा नहीं कहलती(अहिंसा भी नहीं कहा है)

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  2. शान्ति की राह बहुत कठिन है, अपने मन से हिंसा करनी पड़ जाती है।

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    1. बहुत सरल है, सर जी। हाँ यदि हम प्रतिक्रिया में अहिंसा सथापित करना चाहें तो यह सचमुच कठिन ही नहीं पूर्णत: असंभव है। कयोंकि हम केवल क्रिया को ही नियंत्रित कर सकते हैं। प्रतिक्रिया तो सहज़, स्वाभाविक और क्रिया के साथ ही उतपन्न और पूर्व निश्चित हो जाती है।
      क्रिया में अहिंसा पालन के लिएहमें बस अहिंसा के वास्तविक स्वरूप को समझकर अपनी पाँचों इंद्रियों को हर पल चैतन्य रखने की आवशयकता होती है। शेष कोई कठिनाई इस मार्ग में कभी नहीं आती।

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    2. मन की हिंसा, प्रोत्साहन का काम करे हमारे विचारों को हिंसक बनाने में, या किसी दूसरे हिंसक को प्रोत्साहित करे कि इसमें बुरा क्या है। निश्चित ही खराब कारण बनती है। राह तो बहुत कठिन अवश्य है, पर जैसे अन्य कठिनाईयां निभा ले जाते है, इस कठिनाई से भी उपर उठने का पुरूषार्थ करना ही होगा।

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  3. ‘त्याग धर्म है; भोग धर्म नहीं है. संयम धर्म है; असंयम धर्म नहीं है. जीवन का मर्म ही यही है परंतु आजकल यदि प्रत्यक्ष रूप से कोई हिंसा करने में असमर्थ है तो परोक्ष रूप से यानि मानसिक हिंसा से कोई बच नही पाता.

    प्रतिक्रमण के समय दिन भर की इतनी मानसिक हिंसा सामने आ खडी होती है कि स्वयं पर ही शर्म आने लगती है. यद्यपि कुछ न्य़ुनता दिनों दिन आती जा रही है पर है तो सही, इसे स्वीकार करने में कोई हिचक नही है.

    रामराम.

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    1. दुखद यह है कि मानसिक हिंसा, वचन हिंसा में समाहित होकर वर्तन व्यवहार में आने का मार्ग खोज ही लेती है।

      आपने सत्य कहा, और इसीलिए तो प्रतिक्रमण है, जब मन अपने शुद्ध शान्त स्वरूप से अतिक्रमण कर देता है तो उसे पुनः संयम मार्ग पर लाने का उपाय ही प्रतिक्रमण है। इसी चिंतन-मनन से दिनों दिन दोषों में न्य़ुनता आती है, मानसिक दोष, गलतियां मन ही मन स्वीकार करने से दोषों के प्रति गाढ आसक्ति में निरन्तर कमी आती है और यही आत्मिक विकास है।

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  4. प्रवीण भाई ने कहा ठीक ही है ...
    अहिंसा मार्ग पर चलना आसान नहीं भाई ...

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    1. मन सहज प्रवाह ने अधीन रहता है पर वही मनोबल बन जाय तो कुछ भी कठिन नहीं…

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  5. अहिंसा के मार्ग पर चलना सबके बस की बात नही,,

    Recent post: ओ प्यारी लली,

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    1. इन्द्रीय विषयों को वश में करते ही सब कुछ हमारे बस में हो जाता है।

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  6. शांति के सारे रहस्य अहिंसा के पास हैं। अहिंसा से बढ़कर कोई शास्त्र नहीं है, शस्त्र भी नहीं है। अक्षरश: सही कहा ...

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