पिछ्ली पोस्ट में हमने पढा 'व्यक्तित्व के शत्रु' चार कषाय है यथा- "क्रोध, मान, माया, लोभ". अब समझने का प्रयास करते है प्रथम शत्रु "क्रोध" को......
'मोह' वश उत्पन्न, मन के आवेशमय परिणाम को 'क्रोध' कहते है. क्रोध मानव मन का अनुबंध युक्त स्वभाविक भाव है. मनोज्ञ प्रतिकूलता ही क्रोध का कारण बनती है. अतृप्त इच्छाएँ क्रोध के लिए अनुकूल वातावरण का सर्जन करती है. क्रोधवश मनुष्य किसी की भी बात सहन नहीं करता. प्रतिशोध के बाद ही शांत होने का अभिनय करता है किंतु दुखद यह कि यह चक्र किसी सुख पर समाप्त नहीं होता.
क्रोध कृत्य अकृत्य के विवेक को हर लेता है और तत्काल उसका प्रतिपक्षी अविवेक आकर मनुष्य को अकार्य में प्रवृत कर देता है. कोई कितना भी विवेकशील और सदैव स्वयं को संतुलित व्यक्त करने वाला हो, क्रोध के जरा से आगमन के साथ ही विवेक साथ छोड देता है और व्यक्ति असंतुलित हो जाता हैं। क्रोध सर्वप्रथम अपने स्वामी को जलाता है और बाद में दूसरे को. यह केवल भ्रम है कि क्रोध बहादुरी प्रकट करने में समर्थ है, अन्याय के विरूद्ध दृढ रहने के लिए लेश मात्र भी क्रोध की आवश्यकता नहीं है. क्रोध के मूल में मात्र दूसरों के अहित का भाव है, और यह भाव अपने ही हृदय को प्रतिशोध से संचित कर बोझा भरे रखने के समान है. उत्कृष्ट चरित्र की चाह रखने वालों के लिए क्रोध पूर्णतः त्याज्य है.
आईए देखते है महापुरूषों के कथनो में 'क्रोध' का यथार्थ.........
“क्रोधो हि शत्रुः प्रथमो नराणाम” (माघ कवि) – मनुष्य का प्रथम शत्रु क्रोध है.
“वैरानुषंगजनकः क्रोध” (प्रशम रति) - क्रोध वैर परम्परा उत्पन्न करने वाला है.
“क्रोधः शमसुखर्गला” (योग शास्त्र) –क्रोध सुख शांति में बाधक है.
“अपकारिणि चेत कोपः कोपे कोपः कथं न ते” (पाराशर संहिता) - हमारा अपकार करनेवाले पर क्रोध उत्पन्न होता है फिर हमारा अपकार करने वाले इस क्रोध पर क्रोध क्यों नहीं आता?
“क्रोध और असहिष्णुता सही समझ के दुश्मन हैं.” - महात्मा गाँधी
“क्रोध एक तरह का पागलपन है.” - होरेस
“क्रोध मूर्खों के ह्रदय में ही बसता है.” - अल्बर्ट आइन्स्टाइन
“क्रोध वह तेज़ाब है जो किसी भी चीज जिसपर वह डाला जाये ,से ज्यादा उस पात्र को अधिक हानि पहुंचा सकता है जिसमे वह रखा है.” - मार्क ट्वेन
“क्रोध को पाले रखना गर्म कोयले को किसी और पर फेंकने की नीयत से पकडे रहने के सामान है; इसमें आप ही जलते हैं.” - महात्मा बुद्ध
“मूर्ख मनुष्य क्रोध को जोर-शोर से प्रकट करता है, किंतु बुद्धिमान शांति से उसे वश में करता है।” - बाइबिल
“जब क्रोध आए तो उसके परिणाम पर विचार करो।” - कन्फ्यूशियस
“जो मनुष्य क्रोधी पर क्रोध नहीं करता और क्षमा करता है वह अपनी और क्रोध करनेवाले की महासंकट से रक्षा करता है।” - वेदव्यास
“क्रोध में मनुष्य अपने मन की बात नहीं कहता, वह केवल दूसरों का दिल दुखाना चाहता है।” - प्रेमचंद
“जिस तरह उबलते हुए पानी में हम अपना, प्रतिबिम्ब नहीं देख सकते उसी तरह क्रोध की अवस्था में यह नहीं समझ पाते कि हमारी भलाई किस बात में है।” - महात्मा बुद्ध
क्रोध को आश्रय देना, प्रतिशोध लेने की इच्छा रखना अनेक कष्टों का आधार है. जो व्यक्ति इस बुराई को पालते रहते है वे जीवन के सुख और आनंद से वंचित रह जाते है. वे दूसरों के साथ मेल-जोल, प्रेम-प्रतिष्ठा एवं आत्म-संतोष से कोसों दूर रह जाते है. परिणाम स्वरूप वे अनिष्ट संघर्षों और तनावों के आरोह अवरोह में ही जीवन का आनंद मानने लगते है. उसी को कर्म और उसी को पुरूषार्थ मानने के भ्रम में जीवन बिता देते है.
क्रोध को शांति व क्षमा से ही जीता जा सकता है. क्षमा मात्र प्रतिपक्षी के लिए ही नहीं है, स्वयं के हृदय को तनावों और दुर्भावों से क्षमा करके मुक्त करना है. बातों को तुल देने से बचाने के लिए उन बातों को भूला देना खुद पर क्षमा है. आवेश की पद्चाप सुनाई देते ही, क्रोध प्रेरक विचार को क्षमा कर देना, शांति का उपाय है. सम्भावित समस्याओं और कलह के विस्तार को रोकने का उद्यम भी क्षमा है. किसी के दुर्वचन कहने पर क्रोध न करना क्षमा कहलाता है। हमारे भीतर अगर करुणा और क्षमा का झरना निरंतर बहता रहे तो क्रोध की चिंगारी उठते ही शीतलता से शांत हो जाएगी. क्षमाशील भाव को दृढ बनाए बिना अक्रोध की अवस्था पाना दुष्कर है.
क्रोध को शांत करने का एक मात्र उपाय क्षमा ही है.
दृष्टांत : समता
दृष्टव्य : क्रोध
“क्रोध पर नियंत्रण”
क्रोध गठरिया
जिजीविषा और विजिगीषा
अगली कडी...... "मान" (अहंकार)
'मोह' वश उत्पन्न, मन के आवेशमय परिणाम को 'क्रोध' कहते है. क्रोध मानव मन का अनुबंध युक्त स्वभाविक भाव है. मनोज्ञ प्रतिकूलता ही क्रोध का कारण बनती है. अतृप्त इच्छाएँ क्रोध के लिए अनुकूल वातावरण का सर्जन करती है. क्रोधवश मनुष्य किसी की भी बात सहन नहीं करता. प्रतिशोध के बाद ही शांत होने का अभिनय करता है किंतु दुखद यह कि यह चक्र किसी सुख पर समाप्त नहीं होता.
क्रोध कृत्य अकृत्य के विवेक को हर लेता है और तत्काल उसका प्रतिपक्षी अविवेक आकर मनुष्य को अकार्य में प्रवृत कर देता है. कोई कितना भी विवेकशील और सदैव स्वयं को संतुलित व्यक्त करने वाला हो, क्रोध के जरा से आगमन के साथ ही विवेक साथ छोड देता है और व्यक्ति असंतुलित हो जाता हैं। क्रोध सर्वप्रथम अपने स्वामी को जलाता है और बाद में दूसरे को. यह केवल भ्रम है कि क्रोध बहादुरी प्रकट करने में समर्थ है, अन्याय के विरूद्ध दृढ रहने के लिए लेश मात्र भी क्रोध की आवश्यकता नहीं है. क्रोध के मूल में मात्र दूसरों के अहित का भाव है, और यह भाव अपने ही हृदय को प्रतिशोध से संचित कर बोझा भरे रखने के समान है. उत्कृष्ट चरित्र की चाह रखने वालों के लिए क्रोध पूर्णतः त्याज्य है.
आईए देखते है महापुरूषों के कथनो में 'क्रोध' का यथार्थ.........
“क्रोधो हि शत्रुः प्रथमो नराणाम” (माघ कवि) – मनुष्य का प्रथम शत्रु क्रोध है.
“वैरानुषंगजनकः क्रोध” (प्रशम रति) - क्रोध वैर परम्परा उत्पन्न करने वाला है.
“क्रोधः शमसुखर्गला” (योग शास्त्र) –क्रोध सुख शांति में बाधक है.
“अपकारिणि चेत कोपः कोपे कोपः कथं न ते” (पाराशर संहिता) - हमारा अपकार करनेवाले पर क्रोध उत्पन्न होता है फिर हमारा अपकार करने वाले इस क्रोध पर क्रोध क्यों नहीं आता?
“क्रोध और असहिष्णुता सही समझ के दुश्मन हैं.” - महात्मा गाँधी
“क्रोध एक तरह का पागलपन है.” - होरेस
“क्रोध मूर्खों के ह्रदय में ही बसता है.” - अल्बर्ट आइन्स्टाइन
“क्रोध वह तेज़ाब है जो किसी भी चीज जिसपर वह डाला जाये ,से ज्यादा उस पात्र को अधिक हानि पहुंचा सकता है जिसमे वह रखा है.” - मार्क ट्वेन
“क्रोध को पाले रखना गर्म कोयले को किसी और पर फेंकने की नीयत से पकडे रहने के सामान है; इसमें आप ही जलते हैं.” - महात्मा बुद्ध
“मूर्ख मनुष्य क्रोध को जोर-शोर से प्रकट करता है, किंतु बुद्धिमान शांति से उसे वश में करता है।” - बाइबिल
“जब क्रोध आए तो उसके परिणाम पर विचार करो।” - कन्फ्यूशियस
“जो मनुष्य क्रोधी पर क्रोध नहीं करता और क्षमा करता है वह अपनी और क्रोध करनेवाले की महासंकट से रक्षा करता है।” - वेदव्यास
“क्रोध में मनुष्य अपने मन की बात नहीं कहता, वह केवल दूसरों का दिल दुखाना चाहता है।” - प्रेमचंद
“जिस तरह उबलते हुए पानी में हम अपना, प्रतिबिम्ब नहीं देख सकते उसी तरह क्रोध की अवस्था में यह नहीं समझ पाते कि हमारी भलाई किस बात में है।” - महात्मा बुद्ध
क्रोध को आश्रय देना, प्रतिशोध लेने की इच्छा रखना अनेक कष्टों का आधार है. जो व्यक्ति इस बुराई को पालते रहते है वे जीवन के सुख और आनंद से वंचित रह जाते है. वे दूसरों के साथ मेल-जोल, प्रेम-प्रतिष्ठा एवं आत्म-संतोष से कोसों दूर रह जाते है. परिणाम स्वरूप वे अनिष्ट संघर्षों और तनावों के आरोह अवरोह में ही जीवन का आनंद मानने लगते है. उसी को कर्म और उसी को पुरूषार्थ मानने के भ्रम में जीवन बिता देते है.
क्रोध को शांति व क्षमा से ही जीता जा सकता है. क्षमा मात्र प्रतिपक्षी के लिए ही नहीं है, स्वयं के हृदय को तनावों और दुर्भावों से क्षमा करके मुक्त करना है. बातों को तुल देने से बचाने के लिए उन बातों को भूला देना खुद पर क्षमा है. आवेश की पद्चाप सुनाई देते ही, क्रोध प्रेरक विचार को क्षमा कर देना, शांति का उपाय है. सम्भावित समस्याओं और कलह के विस्तार को रोकने का उद्यम भी क्षमा है. किसी के दुर्वचन कहने पर क्रोध न करना क्षमा कहलाता है। हमारे भीतर अगर करुणा और क्षमा का झरना निरंतर बहता रहे तो क्रोध की चिंगारी उठते ही शीतलता से शांत हो जाएगी. क्षमाशील भाव को दृढ बनाए बिना अक्रोध की अवस्था पाना दुष्कर है.
क्रोध को शांत करने का एक मात्र उपाय क्षमा ही है.
दृष्टांत : समता
दृष्टव्य : क्रोध
“क्रोध पर नियंत्रण”
क्रोध गठरिया
जिजीविषा और विजिगीषा
अगली कडी...... "मान" (अहंकार)
सच कहा, न जाने कितनी समस्याओं की जड़ है यह।
जवाब देंहटाएंजी, प्रवीण जी, समस्याओं का प्रारम्भ भी यहीं से है.
हटाएंऔर क्रोध का प्रारम्भ .?
हटाएंऔर क्रोध की जड़ ?
हटाएंक्रोध का प्रारम्भ द्वेष से होता है और द्वेष और क्रोध की जड़ "मोह" है. इस लेख की प्रस्तावना और क्रोध की परिभाषा देखें, श्याम जी.
हटाएंप्रथम पोस्ट की टिप्पणीयाँ निहारें और दूसरी में व्याख्या, आप तो सम्यक् ज्ञान से सब कुछ समझने में सशक्त है....आपके लिए कहाँ अनसमझा अनजाना है.....
सही कहा-क्रोध ही मनुष्य का प्रथम शत्रु है.,,,
जवाब देंहटाएंRECENT POST: दीदार होता है,
जी!! आभार
हटाएंसही कहा धीरेन्द्र जी ...परन्तु प्रथम व अंतिम सोचने की आवश्यकता नहीं , दुर्गुण व शत्रु प्रथम-अंतिम क्या सभी का शमन होना है ......वास्तव में किसी भी एक दुर्गुण के नियमन से प्रारम्भ कर दीजिये ...सभी दुर्गुण क्रमिकता से नियमन में आते जायेंगे ...हम कहीं से प्रारम्भ करें बस ....काम, क्रोध, मद ,लोभ .मोह कहीं से किसी भी एक से ....
हटाएं"आत्म संयम के द्वारा क्रोध को नियंत्रित किया जा सकता है....."
जवाब देंहटाएंकाम = कामना, अभिलाषा
क्रोध = रोष, कोप
मद= अहंकार, घमंड
लोभ = लालच, लालसा
आभार! नीतु जी,
हटाएंआपके दिए शब्दार्थ सही है नीतु जी. 'काम'के प्रचलित अर्थ को लेते हुए भी यह मूल अर्थ मेरे ध्यान में था. कामना,अभिलाषा,इच्छा,आशा,आकांक्षा आदि श्रेयस्कर और अनिष्टकारी दोनो भेदों में होती है (प्रचलित काम की तरह ही) अतः समग्रता से इसे दुर्गुणों में कैसे लें. इसलिए विकारी कामना को लोभ के अंतर्गत समाहित किया गया है.
सत्य कहा नीतू जी..... वास्तव में काम .अर्थात इच्छा, कामना , काम्यता ही सबसे बड़ा शत्रु है है विकारों को प्रारम्भ करने वाला ----> लोभ , लालच, लालसा अर्थात प्राप्ति हेतु प्रयत्न ---> जिसके अप्राप्ति ,असफलता या अयोग्यता से ---> क्रोध ---> स्मृति नाश ...आदि |
हटाएंगीता का कथन है ...त्रिविधं नरकस्य द्वारं नाशनात्मकः| काम क्रोध लोभस्तस्मादेत्रयं त्यजेत.... काम क्रोध व लोभ तीं नरक के द्वार हैं ....यहाँ मोह, मद आदि को नहीं गिना गया है ..क्योंकि वे इन के ही परिणामी भाव हैं...
अद्भुत सरल शैली में गहन विषय समझाते है आप । मोह से उत्पन्न विकार क्रोध ही नाश का कारण हैं । तुलसी बाबा ने भी तो कहा हैं -
जवाब देंहटाएं"क्रोध पाप का मूल हैं, और पाप नाश का मूल।
तुलसी तज यूँ क्रोध को,शिव तज्यो केतकी फूल।।"
अमित जी, बहुत बहुत आभार!!
हटाएं“अपकारिणि चेत कोपः कोपे कोपः कथं न ते” (पाराशर संहिता) - हमारा अपकार करनेवाले पर क्रोध उत्पन्न होता है फिर हमारा अपकार करने वाले इस क्रोध पर क्रोध क्यों नहीं आता?
जवाब देंहटाएंअति सुंदर!
बहुत बहुत आभार, अनुराग जी,
हटाएंआपने भी उसी सूक्ति को चुना जो मुझे भी प्रभावशाली लगी.
क्या बात है अनुराग जी ...सुन्दर ...अर्थात क्रोध पर क्रोध किया जाना चाहिए कि वह क्यों आता है .... और उसका मूल कामनाओं को खोज कर उनका शमन करना चाहिए ...अर्थात परमार्थ में क्रोध अनावश्यक नहीं ..
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंक्रोध उत्पत्ति के कारकों को तत्क्षण पहचान लेना ही श्रेयष्कर है. परमार्थ के अवसर उपलब्ध होना दुर्लभ बहुत!!
हटाएंजी, किसी भी समस्या के कारणों की पहचान सहायक है। लेकिन साथ ही यह समझना भी ज़रूरी है कि बड़े लोग जो कहते-करते हैं कई बार हमारे लिए वह ठीक से समझ पाना आसान नहीं होता, उन जैसा बनना तो कठिन है ही। जब क्रोध पर क्रोध की उपमा देने की बात है, वह तब तक की ही बात है जब तक मन से क्रोध मिटा नहीं। क्रोध मानसिक परिपक्वता/उन्नति का व्युत्क्रमानुपाती है। जिसकी जितनी प्रगति होती जाती है, द्रोह, द्वेष, और क्रोध जैसे दुर्गुण उतने ही कम होते जाते हैं। परमार्थ की भावना जिस मन में हो उसमें क्रोध कैसे रहेगा, किस पर रहेगा? निस्वार्थ मन को क्रोध का कारण क्या? मन निरहंकार होने लगता है तो अपनी गलतियाँ स्पष्ट होने लगती हैं और उनके दमन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। इसके विपरीत जब मन में क्रोध और अहंकार दोनों हों तब हम अहंकारवश अपनी कमी को सही ठहराने के लिए उसे महिमामंडित करने लगते हैं। लेकिन दुर्गुण तो दुर्गुण ही है, कम हो या ज़्यादा, दिखे या छिपा रहे, अपना हो या पराया ...
हटाएंउपरोक्त सूक्त क्रोधरत को ही सम्बोधित है कि "इतना ही तेरा क्रोध स्वभाविक और सहज है तो बता भला अपने क्रोध पर तुझे क्रोध क्यों नहीं आता? तो कहे कि क्रोध पर क्रोध तो व्यर्थ है तो फिर हर तरह का क्रोध व्यर्थ ही है, शुभ फलद्रुप नहीं!!
हटाएंबहुत ही महत्वपूर्ण पंक्ति.......
"दुर्गुण तो दुर्गुण ही है, कम हो या ज़्यादा, दिखे या छिपा रहे, अपना हो या पराया"
परमार्थ के अवसर तो पत्येक पल उपलब्ध रहते हैं ...दुर्लभ क्यों हैं ...बस इच्छाशक्ति होनी चाहिए..
हटाएं
जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी कभी कभी हम अपना क्रोध किसी पर मात्र इसलिए भी प्रकट करते हैं की कोई गलती न करे या न दोहराए। मैंने देखा है की कुछ ढीठ कर्मचारी अपने बॉस के क्रोध के भय से ही सही ढंग से कार्य करते है। ऐसे ढीठ लोगों से निबटने के लिए क्या क्रोध आवश्यक नहीं ?
गलती न दोहराने के दबाव के लिए भी क्रोध आवश्यक नहीं है.
हटाएंपद की गरीमा से दिया गया गम्भीर आदेश ही पर्याप्त है. जो बॉस आदेशों में क्रोध का प्रयोग करते है वे सुधार से अधिक अपने अहंकार को पोषने के लिए करते है. ढीठ लोगों से निबटने के उद्देश्य से क्रोध किया गया और कर्मचारी उस क्रोध से भी ढीठ बन गए तो आगे क्या होगा? अतः क्रोध आवश्यक नहीं है.
क्रोध हमारा बहुत शक्तिशाली शत्रु है। मैं भुक्तभोगी हूँ, क्रोध ने मेरा इतिहास बिगाड़ रखा है। इस श्रॄंखला की सकारात्मक बात ये है कि आप इन शत्रुओं पर काबू पाने का उपाय भी सुझा रहे हैं, जैसे क्रोध को शांत करने का उपाय आपने क्षमा बताया। अब बात को थोड़ा सा ट्विस्ट देता हूँ, क्षमा निस्संदेह क्रोध को शांत करने का उपाय है लेकिन क्षमा भी सबल को ही शोभा देती है। निर्बल तो वैसे भी कुढ़कर रह जाता है या फ़िर निंदा, चुगली, दुरभिसंधियों के माध्यम से अपनी भड़ास निकालता है। वैसे भी आप देखें तो वास्तविक शक्तिशाली लोग प्राय: क्रोधित नहीं ही होते। बहुत से पहलवानों(इंस्टैंट\ज़िम वाले नहीं बल्कि अखाड़े वाले) को नजदीक से देखा जाना है, क्रोध उन्हें छूकर भी नहीं जाता। तो इस हिसाब से क्रोध को शांत करने का क्षमा से भी ज्यादा फ़लदाई उपाय मुझे लगता है, मनुष्य स्वयं को निर्बल न होने दे, न शारीरिक रूप से और न नैतिक रूप से।
जवाब देंहटाएंवाह, क्या बात है! आपको बिन्दु मिल गई = यू गॉट द पॉइंट! सहोSसि सहं मयि देहि
हटाएंसंजय जी,
हटाएंआपकी बात सौ प्रतिशत सही है. सिक्के के दो पहलू की तरह, निष्कर्ष कहने के दो तरीके.....: "क्षमा वीरस्य भूषणम" .....क्षमा सबल को ही शोभा देती है. या फिर सबल क्षमा करने में सफल होते है. अर्थात मजबूत मनोबल का व्यक्ति ही क्षमा कर पाता है. इसलिए हाँ, मनुष्य स्वयं को निर्बल न होने दे, क्षमा के लिए गज भर का कलेजा चाहिए. सबल तो बनना ही है प्रस्तुत लेख का उद्देश्य भी यही है 'सबल व्यक्तित्व का निर्माण'. क्षमा सबलों के पास रहती है तो वे क्या करें जो सबल बनना चाहते है? अभ्यास!!! क्षमा के आभूषण से अभ्यस्त होने का प्रयास. स्वयं के क्षमा शोभित होने का अभ्यास. तभी क्षमा प्रदान करने की शक्ति उत्पन्न होगी. तभी व्यक्ति सही मायने नैतिक सबल बन पाएगा. इसलिए अगर सबल भी बनना है तो पहले मनोबल में क्षमा को स्थान देना होगा.
अपना फ़ंडा यही है, सही रेखा को पकड़कर चलते रहो तो सही बिन्दु को मिलना ही है = stick to the right line and keep moving, one will get right point for sure.
हटाएंजब कभी घर में हम पार्लियामेंट-पार्लियामेंट खेलते हैं तो हमारी होम मिनिस्टर कई बार कन्फ़्यूज़ हो जाती है। हम पर आरोप लगता है कि ’तुम्हारा पता ही नहीं चलता कि सही में कह रहे हो या ताना मार रहे हो।’ अगली बार ऐसा मौका आने पर उसे शेर सुनाने वाला हूँ -
दुनिया ने तजुर्बात-ओ-हवादिस की शक्ल में,
जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूँ मैं’ (with due credit to your goodself) :)
जी सुज्ञ जी, लौटकर आऊँगा। अभी ही देखा आपका कमेंट।
हटाएंक्या कहा है संजय भाई...
हटाएंक्षमा बड़ेंन को चाहिए छोटन के अपराध
का रहीम हरी को घटो जो ब्रिगु मारी लात |....और इसके लिए आपको हरि तो बनाना ही पडेगा ...नहीं तो आप क्षमा करते ही रह जायेंगे और वे आपको पीट जायेंगे ...जैसे पाकिस्तान व चीन आपको पीट रहे हैं जाने कब से....
हरि कौन बन पाया है, लेकिन आदर्श तो उच्च रखा ही जा सकता है, हरिप्रिय बनाने की कोशिश तो की ही जा सकती है। गीता से भगवान के प्यारों के लक्षणों से दो-एक अंश:
हटाएंअद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ॥
क्रोध कमजोरी है, अहंकारवश उसे सही ठहराना भी कमजोरी है
अनुराग जी,
हटाएंनिर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥
अद्भुत!!
-----निश्चय ही हरि में लीन हरि भक्त ..स्वयं हरि ही होजाता है ....
हटाएं----इश्वरीय गुणों के वर्णन , ईश्वर वर्णन का अर्थ ही यह है कि मानव उनका पालन करे एवं उनसे तादाम्य स्थापित करके उन जैसा होजाय ..फिर आत्मा स्वयं परमात्मा का रूप ले लेती है ...यही हरि होना है .....इसी अवस्था में ही व्यक्ति पूर्ण-काम होकर क्रोध आदि पर विजय प्राप्त कर सकता है एवं क्षमत्व आदि गुण धारण करने योग्य हो सकता है ...
क्रोध को शांत करने का एक मात्र उपाय क्षमा ही है|
जवाब देंहटाएंनिष्कर्ष एकदम सटीक है | जब तक मन में क्रोध का कारण टिका रहेगा क्रोध बार बार आएगा |
मोनिका जी,
हटाएंबहुत ही यथार्थ कही है........
"जब तक मन में क्रोध का कारण टिका रहेगा क्रोध बार बार आएगा|"
क्षमा परमोधर्म
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार (06-05-2013) के एक ही गुज़ारिश :चर्चा मंच 1236 पर अपनी प्रतिक्रिया के लिए पधारें ,आपका स्वागत है
सूचनार्थ
सरिता जी,
हटाएंबहुत बहुत आभार!!
बहुत अच्छा लेख.
जवाब देंहटाएंजब क्रोध आता है उस समय इतना विवेक कहाँ रहता है कि सोचें क्या परिणाम होगा?बहुत बार किसी बात का गुस्सा कहीं और निकलता है.बहुत ज़रूरी है कि हमारे आस-पास ऐसे लोग /मित्र हों जो क्रोध की स्थिति में हमें सही सलाह दें.
अक्सर किसी व्यक्ति को उकसाने वाले उसके नुक्सान के अधिक जिम्मेदार होते हैं.ऐसे लोगों से/ तत्वों भी खुद को बचाना क्रोध आने से बचने का एक उपाय होगा.
अल्पना जी,
हटाएंबहुत ही व्यवहारिक बात!!
यह बात यथार्थ है कि क्रोध के आते ही विवेक चला जाता है, इस लिए पहली आवश्यकता भी यही है कि इस यथार्थ की गांठ बांध लेना कि उस समय विवेक साथ नहीं देगा, साथ ही विवेक छटकने के पूर्व ही उसका भरपूर उपयोग कर लेना चाहिए :)
क्रोध की अवस्था में अच्छी सलाह देने वाले मित्र उपलब्ध हों तब भी क्रोध ऐसी स्वमोही स्थिति पैदा करता है कि हमें अपने क्रोध के समर्थक के अलावा, कोई मित्र नहीं सुहाता.
उकसाने वालों का तंत्र अधिक व्यापक होता है. और आग में घी डालने की प्रवृति भी कोमन जैसी व्याप्त!!इस तथ्य को याद रखना विवेक को जागृत बनाए रखने के समान है. और यही उपाय में परिवर्तित हो जाता है.
क्रोध विवेक हर लेता है , शक्तिशाली व्यक्ति क्रोध नहीं करता .
जवाब देंहटाएंमनन करते हुए क्रोध पर काबू पाने की कोशिश करते हैं !
संकलन योग्य श्रृंखला के लिए आभार !
वाणी जी,
हटाएंसटीक निष्कर्ष.....
क्रोध विवेक हर लेता है, और सशक्त व्यक्ति क्रोध नहीं करता.
क्रोध में किये गये कार्य पर बहुधा बाद में कष्ट होता है.
जवाब देंहटाएंजी, मुख्य कष्ट तो यह है, कोई स्वीकार करे या न करे, क्रोध बहुधा पश्चाताप पर समाप्त होता है.
हटाएंक्रोध विवेक, वुद्धि को निष्क्रिय कर देता है.
जवाब देंहटाएंडैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
latest post'वनफूल'
जी, कालीपद जी
हटाएंविवेक को सक्रिय रखने से क्रोध आता ही नहीं, और क्रोध के शमन के उपाय की भी आवश्यकता नहीं रहती.
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंबिलकुल उचित कहा सुज्ञ जी ..पर विवेक कैसे प्राप्त हो कि क्रोध आये ही नहीं ...
हटाएंआपको तो इच्छाशक्ति पर भरोसा है न? आपके लिए इच्छाशक्ति दुर्लभ नहीं.....
हटाएंbahut sundar post .... abhaar
जवाब देंहटाएंमहेंद्र जी, आपका बहुत बहुत आभार!!
हटाएंक्रोध से कितना नुक्सान होता है सभी जानते हैं लेकिन जब इस पर बस बहुत कम लोगों का चल पाता है ..बड़े बड़े महान लोगों की बाते हमें सतर्क करती हैं लेकिन हम आम इंसान अपनी फितरत से बाज नहीं आते .. ..
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रेरक प्रस्तुति ..आभार
आभार कविता जी,
हटाएंमानव स्वभाव के साथ गाढे चिकनाई युक्त जमे भाव होते है. एकदम उखड पडे, यह कठिन है. पर ऐसे चिंतन से उनका हिलना भी बहुत बडी उपलब्धि होती है.
बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको
जवाब देंहटाएं