23 जून 2011

सदाचार का आधार


कल मैने चर्चा के दौरान कहा था कि “नास्तिक-सदाचार अपने पैरों पर कैसे खड़ा होगा? उस सदाचार के तो पैर ही नहीं होते”।

हमारे में सभी सद्गुण भय से ही स्थायित्व पाते है। भय प्रत्येक जीव की प्राकृतिक संज्ञा है। 'ईश्वर-आस्तिक' को ईश्वर के नाराज़ होनें का भय होता है तो 'कर्म-फल-आस्तिक' को बुरे प्रतिफल मिलने का भय रहता है। 'नास्तिक' को बुरा व्यक्तित्व कहलाने का भय रहता है। भय के कारण ही सभी सदाचारी रहना उचित मानते है, और कदाचारों से दूर रहने का प्रयास करते है। आस्तिको को विशेष रूप से ईश्वर और कर्म-फल के प्रति श्रद्धा व सबूरी का आधार रहता है। अगर आस्तिक को सदाचार के एवज मे प्रशंसा और प्रतिफल त्वरित न भी मिले तो  वह सब्र कर लेता है, और निर्णायक दिन या अगले जन्म तक का भी इन्तजार कर लेता है। और आस्था के कारण अपने विश्वास से विचलित नहीं होता।

वहाँ भौतिकवादी नास्तिक, सदाचार के प्रतिफल में विपरित परिणामों का अनुमान मात्र लगाकर विचलित जाता है। अनुकूल परिणाम न आते देखकर निराश हो जाता है्। क्योंकि धैर्य का उसके पास कोई औचित्य ही नहीं होता। वह शीघ्र ही सदाचार से पल्ला झाड़ लेता है। वह जरा सी प्रतिकूलता देखते ही अपने अनास्थक मानसिकता पर और भी मजबूत हो जाता है। इसप्रकार सदाचार पर टिके रहने के लिए न तो उसके पास पर्याप्त मनोबल होता है, और न ही प्रतिफल का पूर्ण विश्वास। पर्याप्त आधार के बिना भला वह क्यों सब्र करेगा? 'अच्छे का नतीजा अच्छा', या 'भले का परिणाम भला' वाला नीतिबल तो कब का नष्ट हो चुका होता है। नैतिकता पर 'चलने' का आधार समाप्त ही हो जाता है। विश्वास स्वरूप 'पैर' ही न हो तो कदम क्या खाक उठा पाएगा? इसी आशय से मैने कहा था, “नास्तिकी-सदाचार के तो पैर ही नहीं होते” उसके पास दृढ़ता से खडे रहने का नैतिक बल ही नहीं होता। किस भरोसे खडा रहेगा? भला वह क्यों मोल लेगा भावी के भरोसे, निश्चित कष्ट, प्रतीक्षा और अनावश्यक तनाव? तत्क्षण प्रतिशोध ही उनके लिए न्यायमार्ग होता है। और प्रतिशोध किसी भी दृष्टि से सदाचार नहीं है।

सदाचरण सदैव, घोर परिश्रम, सहनशीलता और धैर्य की मांग करते है। अधिकांश बार उपकार का बदला अपकार से भी मिलता है। कईं बार सदाचारियों की गणना कायरों में गिनी जाती है। सामान्यतया तो उसे डरपोक ही मान लिया जाता है। सदाचारी के शत्रुओं की भी संख्या बढ जाती है। उसे पाखण्डी ही समझा जाता है। कभी कभी तो उसे शान्ति के बदले मिलती कीर्ती का भी हनन कर दिया जाता है। इतना सब होने के बाद, अनास्थावान्  का सदाचारों पर टिके रहना तलवार की धार पर चलनें के समान होता है। सदाचारों का लाभ तो मिले या न मिले, जीवन को क्यों लोहे के चने चबाने जैसे दुष्कर कार्य में व्यर्थ करना।

जबकि कर्म-फल पर विश्वास करता हुआ आस्तिक, श्रद्धा के साथ प्रतिफल धारणा पर अटल रहता है और विश्वास के प्रति सजग भी. उसे भरोसा होता है कि देर-सबेर अच्छे कर्मों का प्रतिफल अच्छा ही मिलना है। आज नहीं तो कल, इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में, वह सोचता है मै अपने सब्र की डोर क्यो छोडूं। वह सदाचरण दृढता से निभाता चला जाता है। इसी आत्मबल के कारण सदाचार निभ भी जाते है।

जबकि प्रतिकूल परिस्थिति में नास्तिक के सब्र का बांध टूट जाता है। भलाई का बदला बुराई से मिलते ही उसके भौतिक नियमों में खलबली मच जाती है। वह सोचता है, आजकल तो सदाचार का बदला बुरा ही मिलता है। कोई आवश्यक नहीं अच्छे कार्यों का नतीजा अच्छा ही हो। ऐसा कोई भौतिक नियम तो है नहीं कि नियमानुसार भले का परिणाम भला ही मिले। फिर क्यों किसी उलजलूल कर्म-सिद्धांतो की पग-चंपी की जाय,और अनावश्यक सदाचार निभाकर क्यों दुख पीड़ा और प्रतीक्षा मोल ले। 

इसप्रकार धर्मग्रंथों से मिलने वाले नीतिबल के अभाव में, व प्रतिफल की धारणा के अभाव में, अपनी नैतिक उर्ज़ा दांव पर नहीं लगाना चाहता। इसीलिए पैरविहिन नास्तिक, सदाचार की 'लम्बी दौड'  दौडने मे अक्षम होता है। नास्तिक-सदाचार की श्रद्धाविहीन धारणाओं को पैर रहित ही कहा जाएगा। बिना दृढ़ आस्था के वे 'आचार' आखिर किसके पैरों पर खड़े होंगे? इसलिए नास्तिक सदाचार के खडे रहने के लिए पैर ही नहीं होते।

(प्रस्तुत लेख में 'नास्तिक' शब्द से अभिप्राय 'धर्मद्वेषी' या 'धर्महंता नास्तिक' से है)

18 जून 2011

विचार प्रबन्धन

आज कल लोग ब्लॉगिंग में बड़े आहत होते से दिख रहे है। जरा सी विपरित प्रतिक्रिया आते ही संयम छोड़ देते है अपने निकट मित्र का विरोधी मंतव्य भी सहज स्वीकार नहीं कर पाते और दुखी हृदय से पलायन सा रूख अपना लेते है।

मुझे आश्चर्य होता है कि जब हमनें ब्लॉग रूपी ‘खुला प्रतिक्रियात्मक मंच’ चुना है तो अब परस्पर विपरित विचारों से क्षोभ क्यों? यह मंच ही विचारों के आदान प्रदान का है। मात्र जानकारी अथवा सूचनाएं ही संग्रह करने का नहीं। आपकी कोई भी विचारधारा इतनी सुदृढ नहीं हो सकती कि उस पर प्रतितर्क ही न आए। कई विचार परम-सत्य हो सकते है पर हमारी यह योग्यता नहीं कि हम पूर्णरूपेण जान सकें कि हमने जो प्रस्तुत किया वह अन्तिम सत्य है और उसको संशय में नहीं डाला जा सकता।

अधिकांश हम कहते तो इसे विचारो का आदान प्रदान है पर वस्तुतः हम अपनी पूर्वाग्रंथियों को अन्य के समर्थक विचारों से पुष्ठ करनें का प्रयास कर रहे होते है। उन ग्रंथियों को खोलनें या विचलित भी होनें देने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। हमारा पूर्वाग्रंथी प्रलोभन इतना गाढ होता है कि वह न जाने कब अहंकार का रूप धर लेता है। इसी दशा में अपने विचारों के विपरित प्रतिक्रिया पाकर आवेशित हो उठता है। और सारा आदान-प्रदान वहीं धरा रह जाता है। जबकि होना तो यह चाहिए कि आदान प्रदान के बाद हमारे विचार परिष्कृत हो। विरोध जो तर्कसंगत हो, हमारी विचारधारा उसे आत्मसात कर स्वयं को परिशुद्ध करले। क्योंकि यही विकास का आवश्यक अंग है। अनवरत सुधार।

यदि आपका निष्कर्ष सच्चाई के करीब है फिर भी कोई निर्थक कुतर्क रखता है तो आवेश में आने की जगह युक्तियुक्त निराकरण प्रस्तुत करना चाहिए, आपके विषय-विवेचन में सच्चाई है तो तर्कसंगत उत्तर देनें में आपको कोई बाधा नहीं आएगी। तथापि कोई जड़तावश सच्चाई स्वीकार न भी करे तो आपको क्यों जबरन उसे सहमत करना है? यह उनका अपना निर्णय है कि वे अपने विचारों को समृद्ध करे,परिष्कृत करे, स्थिर करे अथवा दृढ्ता से चिपके रहें।

मैं तो मानता हूँ, विचारों के आदान-प्रदान में भी वचन-व्यवहार विवेक और अनवरत विचारों को शुद्ध समृद्ध करने की ज्वलंत इच्छा तो होनी ही चाहिए, आपके क्या विचार है?

10 जून 2011

दुर्गम पथ सदाचार


युग चाहे कोई भी हो, सदैव जीवन-मूल्य ही इन्सान को सभ्य और सुसंस्कृत बनाते है।  जीवन मूल्य ही हमें प्राणी से इन्सान बनाते है। नैतिक जीवन मूल्य ही शान्त और संतुष्ट से जीवन जीने का मार्ग प्रशस्त करते है। किन्तु हमारे जीवन में बरसों के जमे जमाए उटपटांग आचार विचार के कारण, जीवन में सार्थक जीवन मूल्यो को स्थापित करना अत्यंत कष्टकर होता है।

हमारे आचार विचार इतने सुविधाभोगी हो चले है कि आचारों में विकार भी सहज सामान्य ग्राह्य हो गए है। सदाचार धारण करना कठिन ही नहीं, दुष्कर प्रतीत होता है। तब हम घोषणा ही कर देते है कि साधारण से जीवन में ऐसे सत्कर्मों को अपनाना असम्भव है। और फिर शुरू हो जाते है हमारे बहाने
आज के कलयुग में भला यह सम्भव है?’ या तब तो फिर जीना ही छोड दें?’आज कौन है जो यह सब निभा सकता है?’, ऐसे आदर्श सदाचारों को अंगीकार कर कोई जिन्दा ही नहीं रह सकता। वगैरह …

ऐसी दशा में कोई सदाचारी मिल भी जाय तो हमारे मन में संशय ही उत्पन्न होता है, आज के जमाने में ऐसा कोई हो ही नहीं सकता, शायद यह दिखावा मात्र है। यदि उस संशय का समाधान भी हो जाय, और किसी सदाचारी से मिलना भी हो जाय तब भी उसे संदिग्ध साबित करने का हमारा प्रयास और भी प्रबल हो जाता है। हम अपनी बुराईयों को सदैव ढककर ही रखना चाहते है। जो थोड़ी सी अच्छाईयां हो तो उसे तिल का ताड़ बनाकर प्रस्तुत करते है। किसी अन्य में हमें हमसे अधिक अच्छाईयां बर्दास्त नहीं होती और हम उसे झूठा करार दे देते है।

बुराईयां ढलान का मार्ग होती है जबकि अच्छाईयां चढाई का कठिन मार्ग। इसलिए बुराई की तरफ ढल जाना सहज, सरल और आसान होता है जबकि अच्छाई की तरफ बढना अति कठिन और श्रमयुक्त पुरूषार्थ

मुश्किल यह है कि अच्छा कहलाने का यश सभी लेना चाहते है, पर जब कठिन श्रम और बलिदान की बात आती है तो हम मुफ्त श्रेय का शोर्ट-कट ढूँढते है। किन्तु सदाचार और गुणवर्धन के श्रम व त्याग का कोई शोर्ट-कट विकल्प नहीं होता। यही वह कारण हैं जब हमारे सम्मुख सद्विचार आते है तो अतिशय लुभावने प्रतीत होने के उपरान्त भी सहसा मुंह से निकल पडता है इस पर चलना बड़ा कठिन है

यह हमारे सुविधाभोगी मानस की ही प्रतिक्रिया होती है। हम कठिन, कष्टकर, त्यागमय प्रक्रिया से गुजरना नहीं चाहते। भले मानव में आत्मविश्वास और मनोबल  की अनंत शक्तियां विद्यमान होती है। प्रमाद वश हम उसका उपयोग नहीं करते। जबकि जरूरत मात्र जीवन-मूल्यों को स्वीकार करने के लि इस मन को सजग रखने भर की होती है। मनोबल यदि एकबार जग गया तो कैसे भी दुष्कर गुण हो अंगीकार करना सरल ही नहीं, मजेदार भी बनता चला जाता है। 

यदि एक बार सदाचारों उपजे शान्त जीवन का चस्का लग जाय, सारी कठिनाईयां परिवर्तित होकर हमारे ज्वलंत मनोरथ में तब्दिल हो जाती है। फिर तो यह शान्ति और संतुष्टि, उत्तरोत्तर उत्कृष्ट उँचाई सर करने की मानसिक उर्ज़ा देती रहती है। जैसे एड्वेन्चर का रोमांच हमें दुर्गम रास्ते और शिखर तक सर करवा देता है, यह मनोवृति हमें प्रतिकूलता में भी अपार आनन्द प्रदान करती है। जब ऐसे मनोरथ इष्ट बन जाए तो सद्गुण अंगीकार कर जीवन को मूल्यवान बनाना कोई असम्भव कार्य नहीं है। 

2 जून 2011

कथ्य तो सत्य तथ्य है। बस पथ्य होना चाहिए-3


चिंतन के चट्कारे
  • कर्तव्यनिष्ठ हुए बिना सफलता सम्भव ही नहीं।
  • प्रतिभा अक्सर थोडे से साहस के अभाव में दबी रह जाती है।
  • यदि मन स्वस्थ रहे तो सभी समस्याओं का समाधान अंतरस्फुरणा से हो जाता है।
  • संसार में धन का,प्रभुता का,यौवन का और बल का घमंड़ करने वाले का अद्यःपतन निश्चित है।
  • सच्चा सन्तोषी वह है जो सुख में अभिमान न करे, और दुःख में मानसिक वेदना अनुभव न करे।
  • धन के अर्जन और विसर्जन दोनों में विवेक जरूरी है।
  • असफलता के अनुभव बिना सफलता का आनंद नहीं उठाया जा सकता।
  • संतोष वस्तुतः मन के घोड़ों पर मानसिक लगाम है।
  • संतोष अभावों में भी दीनता व हीनता का बोध नहीं आनें देता।
  • सन्तोष का सम्बंध भौतिक वस्तुओं से नहीं, मानसिक तृप्ति से है।
  • स्वाभिमान से जीना है तो सन्तोष को मानस में स्थान देना ही होगा। वर्ना प्रलोभन आपके स्वाभिमान को टिकने नहीं देगा।

1 जून 2011

कथ्य तो सत्य तथ्य है। बस पथ्य होना चाहिए-2


चिंतन के चट्कारे

  • अच्छा क्या है यह सभी जानते है, पर उसपर आचरण करने वाले विरले होते है।
  • सुखमय जीवन के लिए मन की शान्ति जरूरी है।
  • जीवन की उठापटक में सफलता पूर्वक जीवन जीना ही साधना है।
  • मानव जीवन ही ऐसा जीवन है जिसमें हम श्रेयस्कर कर सकते है।
  • सादगी से बढकर जीवन का अन्य कोई श्रृंगार नहीं है।
  • यशलोलुप और पामर व्यक्ति मानवता की सच्ची सेवा नहीं कर सकता।
  • जब दृष्टि बदलेगी तो विचार स्वतः ही बदल जाएंगे।
  • दूसरों के शोषण और अपने पोषण की मनोविकृति ही  मानव की अशान्ति का कारण है।
  • सदैव यह चिंतन रहना चाहिए कि मुझे जो प्रतिकूलता मिल रही है वह मेरे द्वारा ही उत्पन्न की हुई है।
  • किसी के एकबार गलत व्यवहार से उसके साथ सम्बंध तोड़ लेते है। और यह हमारा क्रोध हमारे साथ बार बार गलत व्यवहार करता है, हम क्रोध से सम्बंध तोड़ क्यों नहीं देते?

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