सत्य पाने का मार्ग अति कठिन है। सत्यार्थी अगर सत्य पाने के लिए कटिबद्ध है, तो उसे बहुत सा त्याग चाहिए। और अटूट सावधानी भी। कईं तरह के मोह उसे मार्ग चलित कर सकते है। उसके स्वयं के दृष्टिकोण भी उसके सत्य पाने में बाधक हो सकते है।
- मताग्रह न रखें
सत्य खोजी को चाहिए, चाहे कैसे भी उसके दृढ और स्थापित पूर्वाग्रह हो। चाहे वे कितने भी यथार्थ प्रतीत होते हो। जिस समय उसका चिंतन सत्य की शोध में सलग्न हो, उस समय मात्र के लिए तो उसे अपने पूर्वाग्रह या कदाग्रह को तत्क्षण त्याग देना चाहिए। अन्यथा वे पूर्वाग्रह, सत्य को बाधित करते रहेंगे।
सोचें कि मेरा चिंतन ,मेरी धारणाओं, मेरे आग्रहों से प्रभावित तो नहीं हो रहा? कभी कभी तो हमारी स्वयं की 'मौलिक विचारशीलता' पर ही अहं उत्पन्न हो जाता है। और अहं, यथार्थ जानने के बाद भी स्वयं में, विचार परिवर्तन के अवसर को अवरोधित करता है। सोचें कि कहीं मैं अपनी ही वैचारिकता के मोहजाल में, स्वच्छंद चिंतन में तो नहीं बह रहा? कभी कभी तो अजानते ही हमारे विश्लेषण मताग्रह के अधीन हो जाते है। प्रायः ऐसी स्थिति हमें, सत्य तथ्य से भटका देती है।
- पक्षपात से बचें
प्रायः हमारी वैचारिकता पर किसी न किसी विचारधारा का प्रभाव होता है। तथ्यों की परीक्षा-समीक्षा करते हुए, अनायास ही हमारा पलड़ा सत्य विरूद्ध झुक सकता है। और अक्सर हम सत्य के साथ 'वैचारिक पक्षपात' कर बैठते है। इस तरह के पक्षपात के प्रति पूर्ण सावधानी जरूरी है। पूर्व स्थापित निष्कर्षों के प्रति निर्ममता का दृढ भाव चाहिए। सम्यक दृष्टि से निरपेक्ष ध्येय आवश्यक है।
- सत्य के प्रति निष्ठा
"यह निश्चित है कि कोई एक 'परम सत्य' अवश्य है। और सत्य 'एक' ही है। सत्य को जानना समझना और स्वीकार करना हमारे लिए नितांत ही आवश्यक है।" सत्य पर इस प्रकार की अटल श्रद्धा होना जरूरी है। सत्य के प्रति यही आस्था, सत्य जानने का दृढ मनोबल प्रदान करती है। उसी विश्वास के आधार पर हम अथक परिश्रम पूर्व सत्य मार्ग पर डटे रह सकते है। अन्यथा जरा सी प्रतिकूलता, सत्य संशोधन को विराम दे देती है।
- परीक्षक बनें।
परीक्षा करें कि विचार, तर्कसंगत-सुसंगत है अथवा नहीं। वे न्यायोचित है या नहीं। भिन्न दृष्टिकोण होने कारण हम प्रथम दृष्टि में ही विपरित विश्लेषण पर पहुँच जाते है। जैसे सिक्के के दो पहलू होते है। दूसरे पहलू पर भी विचार जरूरी है। जल्द निर्णय का प्रलोभन त्याग कर, कम से कम एक बार तो विपरित दृष्टिकोण से चिंतन करना ही चाहिए। परिक्षक से सदैव तटस्थता की अपेक्षा की जाती है। सत्य सर्वेक्षण में तटस्थ दृष्टि तो आवश्यक ही है।
- भेद-विज्ञान को समझें
जो वस्तु जैसी है, उसे यथारूप में ही मनन करें और उसे प्रस्तुत भी उसी यथार्थ रूप में करें। न उसका कम आंकलन करें न उसमें अतिश्योक्ति करें न अपवाद मार्ग का अनुसरण करें। तथ्यों का नीर-क्षीर विवेक करें। उसकी सार्थक समीक्षा करते हुए नीर-क्षीर विभाजन करें। और हेय, ज्ञेय, उपादेय के अनुरूप व्यवहार करें। क्योंकि जगत की सारी सूचनाएँ, हेय, ज्ञेय और उपादेय के अनुसार व्यवहार में लानी चाहिए। अर्थात् ‘हेय’ जो छोड़ने लायक है उसे छोड़ें। ‘ज्ञेय’ जो मात्र जानने लायक है उसे जाने। और ‘उपादेय’ जो अपनाने लायक है उसे अपनाएँ।
वस्तुएँ, कथन आदि को समझने के लिए, अनेकांत जैसा एक अभिन्न सिद्धांत हमें उपलब्ध है। संसार में अनेक विचारधाराएं प्रचलित है। वादी अपनी एकांत दृष्टि से वस्तु को देखते है। इससे वे वस्तु के एक अंश को ही व्यक्त करते है। प्रत्येक वस्तु को विभिन्न दृष्टियों, विभिन्न अपेक्षाओं से पूर्णरूपेण समझने के लिए अनेकांत दृष्टि चाहिए। अनेकांतवाद के नय, निक्षेप, प्रमाण और स्याद्वाद अंग है। इनके भेद-विज्ञान से सत्य का यथार्थ निरूपण सम्भव है।
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सभी बिंदु अनुकरणीय और विचारणीय हैं...... सुंदर पोस्ट
जवाब देंहटाएंबड़ी गूढ़ बातें लिखी हैं आपने
जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी, बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
जवाब देंहटाएंप्राचीन हिन्दू भी थोड़े से शब्दों द्वारा मानव जीवन के सत्व अथवा सत्य को प्रस्तुत कर गए, जैसे, "हरी अनंत / हरी कथा अनंता..."... और दूसरी ओर "सत्यम शिवम् सुन्दरम" और "सत्यमेव जयते" कह मानव को अनंत आत्मा और शरीर को छलावा अथवा माया होने के संकेत कर जीवन को दृष्टा भाव से आनंद लेने का उपदेश दे गए...
किन्तु 'माया' को भेद पाना, विशेषकर कलियुग में, आम आदमी के लिए कठिन बताते हुए गुरु की आवश्यकता भी दर्शा गए... किन्तु द्वैतवाद के कारण गुरु कि प्रतिरूप सीढ़ी के माध्यम से कोई भी देख सकता है कि यह यह दोनों, ऊपर जाने के लिए और नीचे जाने, के लिए उपयोग में लायी जाती है, जिस कारण यदि 'लक्ष्य' सदैव मन में हो ('लक्ष्मण' जैसे) तो राम का साथ, यानी आराम अर्थात मानसिक शान्ति निश्चित जानिये...:)
हम तो अनेकांतवाद को मानने वाले हैं।
जवाब देंहटाएंसत्य पाने का मार्ग अति कठिन है। सत्यार्थी अगर सत्य पाने के लिए कटिबद्ध है तो उसे बहुत सा त्याग चाहिए। और अटूट सावधानी भी। कईं तरह के मोह उसे मार्ग चलित कर सकते है। उसके स्वयं के दृष्टिकोण भी उसके सत्य पाने में बाधक हो सकते है।
जवाब देंहटाएंher padaaw saargarbhit hai
Beautiful , appealing and convincing thoughts ! Thanks a million !
जवाब देंहटाएंआदरणीय हंसराज भाईसाहब , बहुत ही सुब्दर अभिव्यक्ति|
जवाब देंहटाएंकुछ पूछना चाहता हूँ...
आपने कहा " जिस समय उसका चिंतन सत्य की शोध में सलग्न हो, उस समय मात्र के लिए उसे अपने पूर्वाग्रह कदाग्रह को तत्क्षण त्याग देना चाहिए। अन्यथा वह पूर्वाग्रह, सत्य को बाधित करता रहेगा।"
कई बार हमे भी पता होता है कि हमारे पक्ष में भी कुछ कमी है, कुछ बुराई है| ऐसा ज्ञान केवल पूर्वाग्रहों से रहित लोगों को ही होता है| किन्तु फिर भी विपक्ष (या यूं कहें कि वह पक्ष जिसके विषय में हम आश्वस्त हैं कि यह बुरा है) को हराने के लिए हमे अपने पक्ष की बुराइयों को साथ लेकर चलना क्या उचित है? मुझे लगता है कि ऐसा किया जा सकता है| सत्य का साथ हमने अभी भी नहीं छोड़ा है|
पक्षपात से बचते हुए सत्य के प्रति श्रद्धा भी है और अंतिम लक्ष्य यदि सत्य स्थापित करना ही है|
बंधु दिवस जी,
जवाब देंहटाएंजब हमनें जान लिया कुछ हमारे मिथ्या आग्रह है। उन्हें अन्तर भाव में स्वीकार कर लेना सत्य अन्वेषण का सही मार्ग ही है। प्रस्तुत लेख सत्य पर पहुंचने, या उसे जानने के सार्थक उपाय के परिपेक्ष में है।
प्राप्त सत्य से किस प्रकार व्यवहार करना, आज का हमारा विषय नहीं है। यदि मैं बुराई को हराने के लिए असत्य कुतर्क का समर्थन करता हूँ तो जल्दबाज़ी में गलत सन्देश जाएगा। और यदि सत्य पर अडिग रहने की बात करता हूँ तो बुराई का समर्थन हो जाता है। ऐसी दुविधा भरी स्थिति में ज्ञानियों नें कहा- मौन रहना ही श्रेयस्कर है।
बंधु दिवस जी,
जवाब देंहटाएंमेरे प्रत्युत्तर को प्रश्न उडा देने के आशय से न लिजिएगा। आपके प्रश्न के संदर्भ में एक स्वतंत्र पोस्ट की दरकार है। व्याख्या के बिना विषय से न्याय नहीं होगा। आपनें मेरी एक और पोस्ट के लिए सामग्री उपलब्ध करवा दी। आभार!!
आदरणीय हंसराज भाई साहब, आपने मेरी समस्या का लगभग सही समाधान कर दिया है...जो बच गया है आशा है उसका उत्तर आपकी आने वाली पोस्ट में मिल जाएगा...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद...
दिवस जी - आपने पूछा तो सुज्ञ भाई से था, पर एक उदाहरण देती हूँ |
जवाब देंहटाएंएक डॉक्टर है - देख रहा है कि रोगी के पैर का घाव , गैंग्रीन युक्त हो कर सड़ने वाला है | उसका पाँव काट दिया जाए -अभी - तो उसके प्राण बच सकते हैं | पर वह रोगी उम्र भर के लिए लंगड़ा हो जाएगा - यह तो डॉक्टर जानते ही है ...... यदि उस रोगी को जीवन भर के लिए लंगड़ा बन जाने दे कर उसके प्राण बचाने हों - तो किसे चुनना चाहिए ?
यदि आप आश्वस्त हैं कि जिस पक्ष के लिए आप आश्वस्त हैं कि कुछ बुराइयों के साथ भी यह पूर्ण "बुरा" या गलत मार्ग नहीं है , और इस बात से भी आश्वस्त हैं कि दूसरा मार्ग गलत ही है - तो अपने पक्ष की बुराइयों को साथ भी ले कर चलना श्रेयस्कर होगा ...
सुज्ञ भाई जी - माफ़ कीजियेगा - मैंने कुछ हस्तक्षेप किया - क्षमा चाहती हूँ ...
शिल्पा बहन,
जवाब देंहटाएंआपने युक्तियुक्त उदाहरण प्रस्तुत किया, यह सार्वजनिक मंच है। हस्तक्षेप का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता।
कुल मिलाकर स्थिति और सम्भावित अन्तिम परिणामो के आधार पर विवेकयुक्त निर्णय सही समाधान है।
बहुत गहन विश्लेषण ... सार्थक बातें
जवाब देंहटाएंशिल्पा जी, ऑपरेशन से एक सत्य कथा याद आ गयी, जो मुझे मेरे एक सहकर्मी ने कई वर्ष पहले सुनाई थी...
जवाब देंहटाएंउनके पिताजी के गुर्दे में पत्थर होने से उन्हें कई बार तीव्र वेदना होती रहती थी... डॉक्टर ने ऑपरेशन का सुझाव दिया, किन्तु क्यूंकि एक समय भारत में चलन था घर में ही इलाज कराने का, क्यूंकि ऐसी मान्यता थी कि हॉस्पिटल गए तो जीवित नहीं लौटेंगे (मेरे पिताजी के भी ऐसे ही विचार थे)...
जिस कारण बीच बीच में वो कष्ट सहते चले आते थे...
किन्तु एक दिन उनके एक मित्र एक पुडिया में चूर्ण ले कर आये और उनको उन्होंने बताया कि कैसे एक जोगी उनके घर आये थे तो उन्होंने उनको भोजनादि कराया... और, जब वो जाने लगे तो उनसे कहा कुछ मांगने को,,, तो उन सज्जन ने कहा कि प्रभु की कृपा से उन्हें कुछ नहीं चाहिए था किन्तु उनके एक मित्र को काफी कष्ट होता है गुर्दे के पत्थरों के कारण,,, उनके लिए यदि वो कुछ दे सकते हैं तो उनकी कृपा होगी... ऐसा सुन जोगी ने पुडिया उनको पकड़ा दी...
क्यूंकि पिताजी को उस समय भी दर्द हो रहा था, तो उन्होंने कहा कि वो चूर्ण को तुरंत ग्रहण कर लेंगे, भले ही वो विष निकले, कम से कम दर्द से तो छूट जायेंगे!
अगले दिन सुबह जब वो बाथ रूम गए तो छोटे छोटे कंकर से मूत्र के साथ निकल गए! और उनको आराम आ गया! वो उसी समय दौड़ मित्र के घर जा उनसे उस जोगी का पता मांगे... जिसके उत्तर में मित्र ने कहा वो तो रमता जोगी थे, उनका कोई पता वता नहीं होता!
बहुत सुंदर विचारों को बांटते हैं आप| साधुवाद के अधिकारी हैं आप|
जवाब देंहटाएं@ अजित गुप्ता जी, इसे मानव जीवन का 'सत्य' कह सकते हैं कि बचपन में 'हम' बाहरी संसार से, अनेक स्रोतों के माध्यम से, सीखते हैं... किन्तु 'हमारी' ग्रहण की गयी सूचना के विश्लेषण की क्षमता मानसिक परिपक्वता के पश्चात अच्छी हो जाती है,,, जैसे कह सकते हैं स्कूल-कॉलेज पास कर, लगभग १४ / १८ / २०,,, सीढियां चढ़, काम की तलाश के समय सभी एक स्तर पर पहुँच आठों दिशा में विभिन्न क्षेत्रों में से किसी एक में रोटी रोजी के लिए चलते चले जाते हैं, जैसे नहर में पानी चल पड़ता है... और जीवन पर्यंत अनुभव के आधार पर हरेक के ज्ञान में वृद्धि होने की सम्भावना रहती है व्यक्ति विशेष के मानसिक रुझान / स्थान / काल आदि पर निर्भर कर...
जवाब देंहटाएंऔर क्यूंकि अनंत कार्य-क्षेत्र दिखाई पढ़ते हैं, प्राचीन ज्ञानी के अनुसार 'माया' के कारण, अनेकांतवाद के कारण,,, जबकि द्वैतवाद शब्द मैंने 'ऊपर' अथवा 'नीचे' जाने, विपरीत अनुभूतियों, सुख-दुःख जैसे, के विषय में प्रयोग में किया था, कोई भले ही एकांत वाद (परम सत्य) को मानें अथवा अनेकान्तवाद (माया को) और बस भंवर में घूमते जल समान घूमते चले जाए, जैसे वर्तमान में सरकार के पञ्च वर्षीय योजना द्वारा प्रयास करते हुए भी कुछेक 'अमीर' और असंख्य 'गरीब' के बीच की दूरी बढती ही जाती प्रतीत होती है, और साथ साथ अधिक लोगों में अधिक दुःख की अनुभूति... ...
@कोई भले ही एकांत वाद (परम सत्य) को मानें अथवा अनेकान्तवाद (माया को) और बस भंवर में घूमते जल समान घूमते चले जाए,
जवाब देंहटाएं@ जे सी जोशी जी,
आपनें ब्रेकेट में,एकांत वाद (परम सत्य) और अनेकान्तवाद (माया को) रखकर अर्थ ही बदल दिया है। जबकि यह अर्थ नहीं है।
वस्तु में अनेक गुण होते है, और कथन के अनेक अर्थ। अनेकधर्मात्मक वस्तु के किसी एक अंश को ही स्वीकार करना और कथन के एक ही अर्थ को सर्वांग मानना एकांतवाद है। परम सत्य एकांतवाद का विषय नहीं है। जैसे ईश्वर को एक अपेक्षा विशेष से परम सत्य कहा जाता है। पर परम सत्य को हम ईश्वर नहीं कह सकते। क्योंकि सत्य अनंत है।
अनेकांतवाद माया नहीं है, वह तो उल्टे माया की गांठे खोलने का उपकरण है। अनेकांत, किसी वस्तु के अपेक्षा भेद से अनेक गुण स्वीकार करते हुए, एक गुण को मुख्य मानकर भी अन्य गुणो का निषेध नहीं करता। अनेकांत, कथन के अनेक अर्थ मानकर भी अभिप्राय को समझने के प्रयोजनार्थ प्रयुक्त होता है।
अद्वैतवाद, द्वैतवाद इस एकांतवाद और अनेकांतवाद से भिन्न विषय और भिन्न सिद्धान्त है।
अद्वैतवाद, द्वैतवाद इस एकांतवाद और अनेकांतवाद से भिन्न विषय और भिन्न सिद्धान्त है।
जवाब देंहटाएंसुज्ञ भाई जी, क्या आप एकान्तवाद और अनेकान्तवाद को समझाती हुई एक और पोस्ट लिख सकते हैं ? बहुत रूचि है जानने की, पर अधिक जानती नहीं | अभी तक - आपकी यह टिप्पणी न पढने तक - मैं अद्वैतवाद को एकान्तवाद समझ रही थी और द्वैत को एकांत !!
किसी भी आध्यात्मिक अनुभूति को शब्दों द्वारा किसी अन्य को समझा पाना अत्यंत कठिन है... फिर भी जैसे गीता में (अध्याय १० में) लिखा मिलता है उसके अनुसार 'कृष्ण' ही माया से सबके भीतर विराजमान प्रतीत होते हैं, यद्यपि सम्पूर्ण सृष्टि उनके ही भीतर समाई हुई है, यानि वो ही 'परम सत्य', अर्थात निरंतर गुब्बारे के समान फूलता ब्रह्माण्ड का अनंत शून्य, अंधकारमय अंतरिक्ष, भी हैं, और उनकी माया के कारण ही अनंत साकार रू भी उन्ही के मायावी रूप भी हैं...
जवाब देंहटाएंकिसी भी 'कृष्णलीला' के पात्र को यह जानना आवश्यक है, " मैं कौन हूँ " ?
ज्ञानी हिन्दुओं द्वारा उसका उत्तर भी दिया गया है, "मैं शिव हूँ", अर्थात अमृत आत्मा हूँ ! और, यह भी कि आप भी अमृत आत्मा ही हो ! 'हम' सभी वास्तव में शून्य काल और स्थान से सम्बंधित हैं, अजन्मे और अनंत हैं...
शिल्पा बहन,
जवाब देंहटाएंद्वैत अद्वैत का सम्बंध आध्यात्म-दर्शन से है। अद्वैत,आत्मतत्व अथवा ब्रह्म को सभी में एक। और द्वैत ईश्वर की आत्मा एवं दूसरी सभी प्राणीभूत की आत्मा, इसप्रकार दो आत्मतत्व में मानने के सिद्धांत है।
किन्तु अनेकांत सत्य को जानने समझनें के टूल मात्र है। उपकरण है। जो हमें किसी वस्तु अथवा कथन को समझने में सहायता करते है। अनेकांत को समझने पर उसका विरूद्धार्थी एकांत स्वयं समझ आ जाता है। इसकी संक्षिप्त परिभाषा मैनें पूर्व टिप्पणी में दी ही है।
अनेकांत के एक अंग, 'अपेक्षावाद' का प्रयोग मैने कल अपनी पोस्ट "धर्म और जीवन" में आपको दी गई टिप्पणी में किया था। (देखें… किस अपेक्षा से धर्म किसे कहते है)http://shrut-sugya.blogspot.com/2011/07/virtue.html?showComment=1311753172741#c1380892916977781271
इस तरह विभिन्न अपेक्षाओं से कथन पर विचार किया जाता है।
अनेकांत विषय 'जैन-दर्शन'में प्राप्त होता है। बहुत ही गूढ और विस्तृत है। एक पोस्ट में सहज गम्य प्रस्तुत नहीं किया जा सकेगा। भावना तो मेरी भी है इस विषय पर लिखुं पर पता नहीं पाठक रूचि लेंगे अथवा नहीं। वैसे दिवस जी के प्रश्न का समाधान भी इसी विषय में व्यक्त हो जाएगा। कमसे कम 5 लेखों की श्रंखला ही बन जाएगी। और सरल बनाना तो और भी कठिन।
आदरणीय बहन शिल्पा जी, आपने उचित उदाहरण के साथ मेरी समस्या का समाधान किया है|
जवाब देंहटाएंदरअसल एक ऐसी ही समस्या मेरे सामने बार बार आ रही थी| मैं नहीं ला रहा था, लोग लेकर आ रहे थे| बहुत से अजीब प्रश्नों की श्रृंखला के साथ वे लोग मेरे समक्ष प्रस्तुत हो जाते हैं, जो मेरे विचारों से सहमत नहीं हैं|
दर्शन अथवा साहित्य का मुझे कोई विशेष ज्ञान नहीं है| हाँ इन्हें पढने में रूचि अवश्य है, किन्तु अल्प ज्ञान के चलते समझने में थोड़ी परेशानी हो जाती है| मैं तो सामजिक समस्याओं पर अपना दिमाग अधिक खपाता हूँ| ऐसी ही किसी समस्या के चलते मैंने यहाँ यह प्रश्न रखा था|
आपने व आदरणीय भाई हंसराज जी ने उसका समाधान किया| इसके साथ ही हंसराज भाई की आने वाली प्रस्तुति की प्रतीक्षा भी रहेगी| ताकि बेहतरी से इसे समझ सकूँ| आपका व भाई हंसराज जी का आभारी हूँ|
मेरे इसी प्रश्न से कुछ कुछ सम्बंधित एक पोस्ट आज मैंने लिखी थी|
सुज्ञ जी - धन्यवाद | यदि आप वह शृंखला लिखते हैं - तो मैं तो ज़रूर पढूंगी :)
जवाब देंहटाएंजेसी सर - धन्यवाद इस वृत्तान्त को हम सब से शेयर करने के लिए ... दिवस भाई -मेरा भी डाउट क्लीयर हुआ आपके सवाल की वजह से - थैंक्स ..
अनेकान्तवाद पर इन्टरनेट पर देखें तो 'जैन धर्म' में अवश्य अपनाया गया, किन्तु सार देखें तो वो 'सनातन धर्म' के अंतर्गत आने वाले "हरी अनंत / हरी कथा अनंत आदि..." यानि "जितने मुंह उतनी बातें" द्वारा समझा जा सकता है...
जवाब देंहटाएं"Anekāntavāda (Devanagari: अनेकान्तवाद) is one of the most important and fundamental doctrines of Jainism. It refers to the principles of pluralism and multiplicity of viewpoints, the notion that truth and reality are perceived differently from diverse points of view, and that no single point of view is the complete truth..."
हर व्यक्ति को इस कारण परम सत्य तक पहुंचना आवश्यक माना गया...
बंधु दिवस जी, बहन शिल्पा जी, एवं आदरणीय जे सी जी,
जवाब देंहटाएंइस सार्थक चर्चा और प्रोत्साहन के लि आभार!!
चर्चा अभी जारी है………सत्य पर विचार-मंथन होना ही चाहिए।
बंधु दिवस जी,
एक अन्य दृष्टिकोण से एक दृष्टांत ध्यान में आ रहा है…………
वन में सत्य व अहिंसा के व्रतधारी कोई संत चिंतन-मनन में व्यस्त थे। उनके सामने से ही एक मृग कुदता-फांदता सा दायी तरफ़ चला गया। कुछ ही देर में उसके पिछे एक व्याघ्र (शिकारी) दौडता सा आया। वह उस हिरण को खोज रहा था। शिकारी नें उन महात्मा से पुछा- "आपने किसी हिरण को यहां से जाते देखा, वह किस तरफ गया?" महात्मा नें सोचा यदि मैं उसे दिशा बता देता हूँ तो यह शिकारी अवश्य उसको मार डालेगा, और मेरा अहिंसा व्रत खण्डित हो जाएगा। और अगर मैं इसको विपरित दिशा बताता हूँ तो असत्य होगा। और मेरा सत्य व्रत खण्डित हो जाएगा। संत ने मौन रहना ही उचित माना। और अपने ध्यान में मग्न हो गए।
सुज्ञ जी,
जवाब देंहटाएंआप प्रारम्भ में सत्य के शोधक प्रतीत होते थे और अब विशेषज्ञ हो गये हैं.
सत्य के विषय पर पिछली चर्चा का यह संशोधित संस्करण है ... प्रतिभागियों ने सुन्दर चर्चा शुरू की हुई है...
हमें तो इस बार चर्चा-सुख ही लेने दें... थके दिमाग से नवीन बात कहना कष्टकर हो रहा है.. सो उसे विश्राम दे रखा है. ताजगी आते ही उसे काम पर लगाउंगा.
sarthak lekhan.....
जवाब देंहटाएंcomments bhee padke accha laga....
कुछ प्रश्न :
जवाब देंहटाएं( कृपया इन्हें सिर्फ प्रश्न के लिए किये जा रहे प्रश्न न समझें - यह मेरा प्रयास है अपनी कुछ उलझनों को सुलझाने का )
हर प्रश्न एक अलग टिपण्णी में करूंगी - हर एक का उत्तर जो भी सुधिजन देंगे - उनसे चर्चा कर के समझने का प्रयास करूंगी - कृपया इसे मेरी जिद/ बहस आदि न समझा जाए - मैं किसी को हारने / जीतने आदि का प्रयास नहीं कर रही हूँ - मानसिक रूप से कुछ उलझी हुई हूँ - तो आपसे "सत्य" समझने का प्रयास है यह |
प्रश्न बडे गम्भीर है :)
हटाएंअध्ययन करना होगा :)
तब तक सुधिजन उत्तर दे सकते है।
वैसे - शायद मेरे प्रश्न यहाँ शायद अनुपयुक्त हैं - विषयांतरण हो रहा है - यह पोस्ट है 'सत्य खोज की तरीकों' पर और मैं बात कर रही हूँ व्यावाहारिकरण पर | यदि आपको यह यहाँ उचित न लगे तो इसकी चर्चा कहीं और हो सकती है |
हटाएं@ तब तक सुधिजन उत्तर दे सकते है।
न - मुझ अधिक आशा नहीं इस बात की | यह पोस्ट करीब एक साल पुरानी है - तो यहाँ किसी के अभी आने की संभावना कम ही है | या तो वे पहुंचे जिन्होंने कमेन्ट सबस्क्राइब किये हों, या वे जो इसे plus + पर देखग कर आयें | यहाँ अधिकतर ब्लॉग "लेखक" जन हैं, "पाठक" कम ही हैं | तो अधिकतर लोग ब्लॉग की आखरी पोस्ट भर पढ़ कर टिपण्णी करते हैं (वह भी कभी कभी बिना पढ़े ) - पुरानी पोस्ट शायद कम ही लोग पढ़ते होंगे :(
मैंने यह लिखा इसलिए था कि कोई यह सोच कर उत्तर देने से न रुके कि मेरा यह प्रश्न सिर्फ सुज्ञ जी से था - तो वे क्यों उत्तर दें | :)
१. "सत्य" क्या है, यह जाने बिना ही इसे पाने की यात्रा - क्यों करना चाहते हैं सब ? आमतौर पर हम कोई यात्रा क्यों करते हैं ? इसलिए कि यात्रा की मंजिल पर कुछ /या कोई/ या कोई सुख/ पुरस्कार/ आदि हमें मिलेगा | लेकिन यदि हम जानते ही नहीं कि सच है क्या - तो यह यात्रा क्यों ? क्या हम सच ही सत्य की यात्रा कर रहे हैं, या कि अपने आप को दूसरों से ऊंचा मानने / स्थापित करने का प्रयास भर होता है ? या शायद हम यह मान रहे हैं कि सच जो भी है - वह परम सुख कारक है - इसलिए यात्रा कर रहे हैं ? तब तो यह पूर्वाग्रह हो ही गया न यात्रा की शुरुआत से पहले ही ?
जवाब देंहटाएंmere prashn ka uttar yahaan nahi hai
हटाएंचतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥७-१६॥ (geeta)
( अर्थात हे भारत श्रेष्ट अर्जुन! आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी, ऐसे चार प्रकार के लोग मुझे भजते हैं |)
@"सत्य" क्या है, यह जाने बिना ही इसे पाने की यात्रा - क्यों करना चाहते हैं सब ?
हटाएंलक्ष्य अमुमन सभी भविष्य के गर्भ में ही होते है। सत्य की यात्रा तो अपने अस्तित्व के उद्देश्य की खोज है।
सभी यात्राएं मात्र आनन्ददायक लक्ष्य के लिए ही नहीं की जाती। जैसे जीवनयात्रा को ही लें, जीवन का अन्तिम पड़ाव मृत्यु है तो क्या हम मृत्यु पाने के लिए जीवनयात्रा कर रहे है? हम जानते है कि अवश्यंभावी मृत्यु सच है फिर भी प्रसन्नता से यात्रा करते है।
@क्या हम सच ही सत्य की यात्रा कर रहे हैं, या कि अपने आप को दूसरों से ऊंचा मानने / स्थापित करने का प्रयास भर होता है ?
सत्य की यात्रा में प्रारम्भ, पड़ाव और मंजिल सभी सत्य ही होता है। पर सत्य के पथिक को सरलता का पाथेय लेकर चलना पड़ता है। सत्य के उपयोग में मानव स्वभाव के अनुसार भिन्नता हो सकती है। कोई सत्य का मात्र दिखावे के लिए प्रयोग करता है तो कोई सावधानी से विवेकपूर्वक सत्यमार्ग पर चलता है।
@ लक्ष्य अमुमन सभी भविष्य के गर्भ में ही होते है। सत्य की यात्रा तो अपने अस्तित्व के उद्देश्य की खोज है।
हटाएंभविष्य के गर्भ में sirf यह होता है की हम अपना लक्ष्य प्राप्त कर सकेंगे, या नहीं करेंगे | परन्तु यात्रा की तो किसी जाने हुए और इच्छित लक्ष्य की ओर ही की जाती है | मिला या न मिल पाया, वह अनजान है - परन्तु मन में तो है की वह क्या है जिसे हम पाना चाह रहे हैं |
@ सभी यात्राएं मात्र आनन्ददायक लक्ष्य के लिए ही नहीं की जाती। जैसे जीवनयात्रा को ही लें, जीवन का अन्तिम पड़ाव मृत्यु है तो क्या हम मृत्यु पाने के लिए जीवनयात्रा कर रहे है? हम जानते है कि अवश्यंभावी मृत्यु सच है फिर भी प्रसन्नता से यात्रा करते है।
अंतिम पड़ाव मृत्यु है - सही है , परन्तु हममे से कोई भी इस यात्रा को "कर" नहीं रहा शायद | जीवन जन्म से मृत्यु को जाता ही है - इसमें हमारी सहमती या असहमति बिलकुल मायने नहीं रखती | जबकि "मैं सत्य की खोज / यात्रा करून " यह हमारी अपनी घोषणा होती है, हमारा अपना निर्णय होता है | जन्म से मृत्यु यात्रा "हो" रही है, हम इसे "कर" नहीं रहे हैं | जैसे एक कैदी जेल में है - वह बहुत कुछ करना चाह सकता है / कर सकता है | परन्तु उसकी यथास्थिति तो यही है की वह कैदी है | नहीं - मैं मजबूरी में हो रही यात्रा नहीं, बल्कि चुनी हुई राह की यात्र के बारे में पूछ रही हूँ |
@ सत्य की यात्रा में प्रारम्भ, पड़ाव और मंजिल सभी सत्य ही होता है। -- absolutely true, i agree.
@ कोई सत्य का मात्र दिखावे के लिए प्रयोग करता है तो कोई सावधानी से विवेकपूर्वक सत्यमार्ग पर चलता है।
जी - सच कहा आपने | दिखावा और सच ही में सत्य - इन में बहुत अंतर है | दिखावा बस एक हथियार है अहंकार को बढाने का |
"सत्य की यात्रा में प्रारम्भ, पड़ाव और मंजिल सभी सत्य ही होता है।" @--आपने कहा- absolutely true, i agree.
हटाएंजब सत्य की यात्रा की मंजील के रूप में 'सत्य' को आप स्वीकार करती है तो अब क्या जानना शेष रह जाता है। यह 'सत्य'ही इच्छित लक्ष्य भी है। जिस प्रकार ध्यान 'सफलता'पर रहता है सफलता के स्वरूप पर नहीं। ठीक वैसे ही लक्ष्य 'सत्य' होता है 'सत्य का स्वरूप' नहीं। अन्तत: सत्य तो पाने पर ही समझा जा सकता है, कि उसका स्वरूप और उपादेय क्या है।
जीवनयात्रा के संदर्भ में जन्म और मृत्यु तो स्वाधीन नहीं है यह सच है, पर बीच की यात्रा निश्चित ही स्वाधीन है। उस जीवन यात्रा में 'सार्थक जीवन' और 'पुरूषार्थ' व्यक्ति चुन सकता है। मृत्यु भले वह न चुन सके, 'सफल मृत्यु' पा सकता है, अथवा मृत्यु को सफल बना सकता है। उसी तरह सत्य की यात्रा है, सभी पडावों से उपलब्धि पा सकता है और अन्तिम सत्य को सम्पूर्ण बना सकता है।
@ जब सत्य की यात्रा की मंजील के रूप में 'सत्य' को आप स्वीकार करती है तो अब क्या जानना शेष रह जाता है। यह 'सत्य'ही इच्छित लक्ष्य भी है।
हटाएंजी - मैं ठीक शब्दों में समझा नहीं पा रही अपना प्रश्न | मैं यह कहने की कोशिश कर रही हूँ कि -
अ. जैसे मैं ट्रेन में बैठी | तो समझिये मेरा लक्ष्य है दिल्ली | तो दिल्ली क्या है - वहां जा कर मुझे इस कोलेज में यह कोंफरेंस अटेंड करनी है - इन लोगों से मिलकर यह रिसर्च पेपर पढना है, उनसे टेक्नीकल यह विषय डिस्कस करना है - मैं यह सब जानती हूँ | और मंजिल है वह सम्मान जो मुझे मिलेगा मेरी रिसर्च के लिए | यदि कुछ नहीं जानती तो सिर्फ यह कि यह की गयी चर्चा अपने उद्देश्य में सफल होगी या नहीं , मुझे सम्मान मिलेगा या मेरा अपमान किया जाएगा - किन्तु यह अवश्य जानती हूँ कि मैं अपेक्षा तो यही कर रही हूँ कि सम्मान मिले |
ब. जैसे मैंने लौटरी की टिकट खरीदी - तो मैं जानती हूँ कि लक्ष्य है लौटरी खुलना, पैसे मिलना, "सुख" पाना | खुले या नहीं - यह नहीं जानती - किन्तु अपेक्षा तो सुख की है ही |
स. जैसे मैंने कोई नयी वैज्ञानिक खोज की - एक नया बिजली का जनरेटर बनाया जो पेट्रोल के बजाय किसी और फ्री स्रोत की ऊर्जा प्रयुक्त करे | मैं रिलायंस एनर्जी के मालिक अनिल अम्बानी से मिलने का appointment मांगती हूँ - इस अपेक्षा के साथ कि वे मेरा "इन्वेंशन" खरीदेंगे - मुझे "सम्मान" और "धन" दोनों (सुख कारक) मिलेंगे | तो लक्ष्य है सुख / पैसा / सम्मान | अब यह भी हो सकता है कि वे मुझे धोखेबाज पाखंडी समझ कर भगा दें - मुझे मंजिल न मिले - पर मैं जानती थी कि "मेरी अपेक्षित" मंजिल थी सम्मान और पैसा |
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@जिस प्रकार ध्यान 'सफलता'पर रहता है सफलता के स्वरूप पर नहीं। ठीक वैसे ही लक्ष्य 'सत्य' होता है 'सत्य का स्वरूप' नहीं। अन्तत: सत्य तो पाने पर ही समझा जा सकता है, कि उसका स्वरूप और उपादेय क्या है।
मुझे इस परीक्षा में इतने अंको से पास होना है | ध्यान सफलता पर भी रहता है और उसके स्वरुप पर भी |
लेकिन सत्य की खोज में - मैं यह तो जानती हूँ कि मैं "सत्य" को अपना ध्येय बना रही हूँ - क्योंकि बचपन से सुन सुन कर कंडिशनिंग हो गयी है कि सत्य की खोज परम है , आदि आदि | परन्तु यह तो अँधेरे ही में है कि वह परम सत्य है क्या ?
इश्वर है ? नहीं है ? मृत्यु है ? या सिर्फ कपडे बदल रहा है आत्मा ? पुनर्जन्म है ? नहीं है ? इस जीवन की अधूरी खोज के आगे ? जीवन ख़त्म - nothingness ? या गीता के कृष्ण के कहे अनुसार मुझे इस यात्रा से आगे यात्रा पर चलने योग्य परिवेश में पुनर्जन्म ? या कुरान के अनुसार इस जन्म में "कृष्ण" को पूजने के कारण / मूर्तिपूजा आदि के कारण अनंत काल तक नरक का झुल्साव ? या कि कुछ भी नहीं - बस - मृत्यु और सब ख़त्म ? सत्य (परम सत्य) है क्या - यह मैं नहीं जानती | फिर क्यों यह खोज ? मेरे माता पिता , मेरा बेटा, मेरे दोस्त - ये सब हैं ? या यह सिर्फ माया है ? यह माया का स्वप्न भर है ? इश्वर ने दुनिया बनाई यह सच है ? या हम बंदरों से मनुष्य बने यह सच है ? धरती "माँ" है? चाँद, सूरज, देव हैं ? या ये सब अंतरिक्ष में घुमते हुए पदार्थ के गोले भर हैं ? सत्य है क्या ? मैं जानती ही नहीं | फिर "सत्य" की खोज मैं क्यों कर रही हूँ ??
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@ उस जीवन यात्रा में 'सार्थक जीवन' और 'पुरूषार्थ' व्यक्ति चुन सकता है। मृत्यु भले वह न चुन सके, 'सफल मृत्यु' पा सकता है, अथवा मृत्यु को सफल बना सकता है। उसी तरह सत्य की यात्रा है, सभी पडावों से उपलब्धि पा सकता है और अन्तिम सत्य को सम्पूर्ण बना सकता है।
सहमत हूँ - पा सकता है - या प्रयास कर सकता है | यह "निज" सत्य है - व्यावहारिक |
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@इश्वर है ? नहीं है ? मृत्यु है ? या सिर्फ कपडे बदल रहा है आत्मा ? पुनर्जन्म है ? नहीं है ? .........फिर "सत्य" की खोज मैं क्यों कर रही हूँ ??
हटाएंक्या वाकई आप मुझे इस योग्य मानती है कि मैं इन शाश्वत प्रश्नो के उत्तर दे सकता हूँ :)
-सारी कायनात इस खोज में लगी हुई है, करोडों ग्रंथ इस विषय पर लिखे गए, हर संस्कृति का आध्यत्म इसी खोज में लगा हुआ है श्रुत महापुरूषों की वाणी उपलब्ध है फिर भी इस सत्य का स्वरूप अज्ञात है।
किन्तु जो अज्ञात होता है वही तो खोज का विषय होता है, यह मानव के लिए चिर अनुत्तरित सर्वोच्छ प्रश्न है। मानवीय स्वभाव की यह विशेषता है जो ज्ञात करना जितना दुष्कर होता है उसको जानने की इच्छा और भी ज्वलंत व प्रबल हो जाती है।
"फिर "सत्य" की खोज मैं क्यों कर रही हूँ ?? " इस प्रश्न का उत्तर पाने की प्रक्रिया में भी आप सत्य की खोज में लगी रहेगी।
जैसे "मैं आत्मा हूँ या नहीं" ऐसा संश्यात्मक प्रश्न करने वाला व्यक्ति स्वतः आध्यात्मिक हो जाता है और उसी क्षण से वह इस सत्य की खोज में लग जाता है।
@ क्या वाकई आप मुझे इस योग्य मानती है कि मैं इन शाश्वत प्रश्नो के उत्तर दे सकता हूँ :)
हटाएंन - मैं आपसे इन प्रश्नों के उत्तर नहीं मांग रही थी | मैं यह पूछ रही थी कि यह कुछ opposite viewpoints हैं, जिनमे से कौनसा "असल सत्य" है यह कोई नहीं जानता - फिर सब क्यों सत्य की खोज कर रहे हैं |
@ किन्तु जो अज्ञात होता है वही तो खोज का विषय होता है, यह मानव के लिए चिर अनुत्तरित सर्वोच्छ प्रश्न है। मानवीय स्वभाव की यह विशेषता है जो ज्ञात करना जितना दुष्कर होता है उसको जानने की इच्छा और भी ज्वलंत व प्रबल हो जाती है।
तो क्या यह खोज हम सब सिर्फ और सिर्फ जिज्ञासा वह हो कर कर रहे हैं ? is it just plain personal curiosity - no "greatness" involved with the search ?
@ "फिर "सत्य" की खोज मैं क्यों कर रही हूँ ?? " इस प्रश्न का उत्तर पाने की प्रक्रिया में भी आप सत्य की खोज में लगी रहेगी।
true - लगी तो रहूंगी...
यह कोई नहीं जानता सर्वोच्छ समग्र ज्ञानी बन जाने के बाद क्या होता है, फिर भी हम ज्ञानार्जन में लगे रहते है।
हटाएंशोध के दौरान ही 'असल सत्य' को जान लें तो शोध वहीं समाप्त हो जाती है। वह शेष है इसीलिए 'सत्य की खोज' विषय बना हुआ है।
(बस एक ही प्रश्न रह जाता है कि जो सर्वज्ञ थे, जिन्होंने सत्य को जान लिया था वे क्यों इस परम सत्य को तर्कसंगत तरीके से व्याख्यायित न कर गए। कर जाते तो हमें बहुत से संशयों से मुक्ति मिल जाती। इसका भी युक्तियुक्त समाधान है किन्तु बहुत ही विस्तार से आलेखन करना होगा, फिर कभी…)
मानवीय जिज्ञासा को आप कमतर मत आंकिए, यही वह आधारभूत तत्व है जिसके कारण मानव पूरी कायनात में श्रेष्ठ और विकसित है। जिज्ञासा वह महान बोध है जिसके कारण ही मानव ने आध्यात्मिक और भौतिक-वैज्ञानिक प्रगति की।
ji- yah baat (वह शेष है इसीलिए 'सत्य की खोज' विषय बना हुआ है।) to hai
हटाएंji - yah prash mujhe bhi aksar confuse karta hai (जो सर्वज्ञ थे, जिन्होंने सत्य को जान लिया था वे क्यों इस परम सत्य को तर्कसंगत तरीके से व्याख्यायित न कर गए)
@ maanveey jigyaasa - true - i agree
२. सत्य जानते हुए भी हम में से कई लोग (कई बार मैं भी ) या तो सत्य के साथ खड़े नहीं होते / या साफ़ ही असत्य के साथ खड़े हो जाते हैं - यह चाहे नीचे दिए किसी भी कारण से हो
जवाब देंहटाएंअ. किसी फाइनेंशियल / पोलिटिकल फायदे के लिए हो
बी. या किसी के प्रेम में हम उसे hurt न करना चाहते हों
सी. या हम में १०० लोगों की भीड़ में अकेले खड़े सत्यवादी का साथ देने का साहस नहीं होता
डी. या हम सत्य को समय पर पहचान नहीं पाने के कारण तब झूठ के साथ खड़े दीखते हैं - और बाद में ग्लानि के कारण उस सत्यवादी से नज़रें छुपाते हैं
इ. या हम अपने आप को ही महाज्ञानी माने बैठे हैं और स्वयंभू गुरु महाराज बन गए हैं ?
ऍफ़. या हम यह समझ रहे हैं कि "मैं किसी श्रेष्ठ लक्ष्य को हासिल करने के लिए यह छोटा सा झूठ का साथ दे रहा हूँ - तो यह कोई बड़ी बात नहीं ?
जी. and so on and on ....
@सत्य जानते हुए भी………
हटाएं--तो इस सत्य के वाकई सत्य होने का निर्धारण किसने किया? हमने ही। इस तरह सभी के अपने अपने सत्य बन जाते है। ऐसे 'अपने सत्य' को साबित करने के हज़ारों सटीक तर्क भी।
@सत्य के साथ खड़े नहीं होते / या साफ़ ही असत्य के साथ खड़े हो जाते हैं - यह चाहे नीचे दिए किसी भी कारण से हो
-- उपरोक्त सभी कारण सत्य के लिए है भी नहीं, 'सत्य' का तो मात्र नाम लिया जाता है, वस्तुतः यह सभी कारण सत्य की ओट में छिपे 'अहंकार' के है।
अप्रकट दम्भ होता है, सत्य तो कबका हाशिए पर चला जाता है।
नहीं भैया, आप मेरा प्रश्न शायद नहीं समझे |
हटाएं@--तो इस सत्य के वाकई सत्य होने का निर्धारण किसने किया? हमने ही
न - मैं "परम सत्य" जैसे सत्य की बात नहीं कर रही हूँ, साधारण रोजमर्रा के सच की बात कर रही हूँ | एक उदहारण देती हूँ |
मैं एक टीचर हूँ - प्राइवेट कॉलेज में काम करती हूँ | बहुत सी गलत चीज़ें होती हैं - मैं जानती हूँ की यह नियम विरुद्ध है | परन्तु चुप रहती हूँ | तो यह तो मालूम है कि "सत्य" के लिए किस ओर का रास्ता सही है - परन्तु जानते बूझते भी गलत का रास्ता पकडती हूँ | मैं ही नही - हमारे मेनेजमेंट के २ engg कॉलेज हैं | यहाँ १४ साल से नौकरी कर रही हूँ | दोनों कॉलेज में जोड़ कर कुल जमा २ स्टाफ ऐसे हैं जो कहते हैं कि "नहीं - मैं यह नहीं करूंगा / करूंगी |" और वे दोनों बहुत टार्गेट किये जाते हैं | पारिवारिक कारणों से वे यह जगह छोड़ कर जा भी नहीं सकते | हम सब जानते हैं कि वे दोनों सही हैं | किन्तु हम में से एक भी उन दोनों के साथ नहीं है | HOD मीटिंग में भी जाती हूँ तो उनका साथ नहीं देती हूँ मेनेजमेंट के सामने - क्यों ? क्योंकि मेरे अपने लोभ हैं | मेरी अपनी "मजबूरियां" (भीष्म की तरह .. अपन किसी स्वार्थ के चलते अपने ऊपर ओढ़ी हुई ही सही - पर हैं | :( ......)
तो "परम सत्य " तो नहीं - पर व्यावहारिक सत्य तो हम सब जानते ही हैं | और अक्सर उसके साथ नहीं होते | मैं लिखती तो हूँ "गीता" पर परन्तु जब मुझे लाइसेंस बनवाना हो - तो मैं क्या मध्यस्थ को पैसे नहीं देती ? एक नहीं - अनेक उदाहरण हैं |
@ -- उपरोक्त सभी कारण सत्य के लिए है भी नहीं, 'सत्य' का तो मात्र नाम लिया जाता है, ...
न | मैं सत्य के नहीं सत्य के विरोध में / असत्य के साथ में खड़े होने के कारण कह रही थी | अहंकार / लोभ / मोह जो भी कारण हो - कई बार हम जानते बूझते असत्य के साथ खड़े दीखते हैं - हाँ - मैं अपनी भी बात कर रही हूँ | जैसे - मेरे अपने घर में काम करने वाली बाइयों से जानती हूँ कि उनके घर में प्रति सदस्य इतने रुपये गए प्रति वोट पिछले इलेक्शन में | परन्तु मैं चुप रही - क्यों ? कारण कोई भी हो - असत्य का साथ तो हैं ही न ये ?
"परम सत्य" तो हमारे परम व चरम लक्ष्य की खोज के अर्थ में प्रयुक्त होता है। किन्तु जिस सत्य की हम बात कर रहे है वह सत्य बस सत्य होता है मेरा आशय भी उस व्यवहारिक सत्य का ही है।
हटाएंकोई भी व्यक्ति अपना समग्र जीवन भी लगा दे तब भी उन सभी जगह नहीं पहुँच पाता जहाँ सत्य का घात होता हो। हम एक जगह न्याय के साथ खडे होते है तब उसी व्यस्तता के बीच हमारे पास ही दूसरा अन्याय हो जाता है फिर चाहे उसे होने देने में हम स्वय को कोसें।
प्रश्न उठता है, तो फिर सत्य का पालन क्या है?
वस्तुतः सत्य का पालन यह है कि हमें स्वयं के क्रिया-कल्पों में असत्य का उपयोग नहीं करना है।
इसलिए "सत्य के साथ खडे रहना" एक निर्थक शब्दावली है ज्यादा से ज्यादा यह कहा जा सकता है "मैं अन्याय का साथ नहीं दूंगा" पर "सत्य के साथ खडे रहना" वाक्य कईं उल्झने पैदा करता है। १- जिस सत्य के साथ हम खडे रहने का दावा करते है यथार्थ में वह पूर्ण सत्य है भी कि नहीं। २- कभी कभी हम मात्र दिखावे भर के लिए रहना चाहते है। ३- साथ तो हम सत्य का दे रहे होते है पर कभी वह सत्य किसी अन्य के लिए अनिष्ट्कारी परिणाम दे सकता है। ४- कई मामलों में मौन सत्य को सही तरीके से स्थापित होने में सहायता करता है।
इसीलिए मैनें कहा था अहंकार!! क्योंकि अधिकांश मानलों में "सत्य के साथ खडे रहना" का उद्घोष मोह व उससे प्रेरित अहंकार जनित होता है। और यही सब कारण असत्य के साथ खड़े रहने के भी है।
@ प्रश्न उठता है, तो फिर सत्य का पालन क्या है?
हटाएंवस्तुतः सत्य का पालन यह है कि हमें स्वयं के क्रिया-कल्पों में असत्य का उपयोग नहीं करना है।
प्रणाम आपके इस चिंतन और कथन को | इसीलिए आप आदरणीय हैं - की आपके अपने सिद्धांतों को आप स्वयं follow करते हैं |
@ "सत्य के साथ खडे रहना" एक निर्थक शब्दावली है ज्यादा से ज्यादा यह कहा जा सकता है "मैं अन्याय का साथ नहीं दूंगा" पर "सत्य के साथ खडे रहना" वाक्य कईं उल्झने पैदा करता है।
सत्य कहा आपने | सत्य पर मैंने एक कविता लिखी तहे - सत्य कड़वा होता है - क्या सचमुच - उसमे भी यह कहा था की मैं असत्य के साथ खड़ा हों यह कथन ही confusion है |
@ इसीलिए मैनें कहा था अहंकार!! क्योंकि अधिकांश मानलों में "सत्य के साथ खडे रहना" का उद्घोष मोह व उससे प्रेरित अहंकार जनित होता है। और यही सब कारण असत्य के साथ खड़े रहने के भी है।
सहमत हूँ - अहंकार ही है यह सब |
३. क्या कोई "परम" सत्य है भी ? यदि है - तो इतनी सदियों की खोज के बाद भी क्यों अब तक वह elusive ही है ? कहीं हम शून्य में अंतरिक्ष तो नहीं खोज रहे ?
जवाब देंहटाएंजी नहीं, शाश्वत सुख ही परम् सत्य है। मानव सारे सुख देख परख भोग लेता है पर सभी को क्षणिक पाता है। इतनी बुद्धि इतना कौशल उसके पास क्यों है, इस योग्यता का असली उपयोग क्या है जबकि उससे जो भी आनन्द वह पाता है क्षण में ही चला जाता है। तृष्णा असंतोष ही झोली में बचता है। वह चिंतन करता है, मानवजीवन का कोई सार्थक और स्थिर उद्देश्य अवश्य होना चाहिए। तभी वह 'शाश्वत सुख'की अभिलाषा करता है, उसी में उसे उद्देश्य से साक्षात्कार होता है। कल्याणमार्ग अनुसरणीय विदित होता है वही 'परम् सत्य' है। परन्तु पाए बिना परम-सत्य का यथार्थ समझ नहीं आता, जिन्होंने पा लिया वे जब इसकी व्याख्या करे तो जानने वाले पात्र का ज्ञान छोटा पड जाता है, अर्थ ग्रहण करने में भाषा-शब्द-वाणी ही असमर्थ हो जती है।
हटाएं४. यदि हम सच ही सत्य / धर्म की राह पर हैं - तो हम कई लोगों को चोट पहुंचाना क्यों चाहते हैं ? क्या 'सत्य हमेशा कड़वा और आहत करने वाला होगा' ऐसा मान कर चलना आवश्यक है ? इससे उलट - क्या 'सत्य मीठा और सुखकारक होगा' यह मान कर चलना आवश्यक है ?
जवाब देंहटाएंसम्यक सत्य या धर्म की यथार्थ राह पर रहता व्यक्ति कभी सत्य से चोट नहीं पहुंचाता। जो चोट पहुंचाते है वे मात्र सत्याभासी या धर्माडम्बरी हो सकते है। सत्य स्वयंमेव किसी भी आत्मा के लिए हित में ही होता है। इसलिए मधुर ही हो सकता है, कडवा कदापि नहीं। जब सत्य कहने से अधिक प्रतिपक्षी के अहं को चोट पहुँचाना ही उद्देश्य होता है इस जुमले का प्रयोग किया जाता है कि "सत्य हमेशा कड़वा होता है" सुक्ष्मता से देखें तो यह अहंकारी वचन से अधिक कुछ भी नहीं। और वक्ता की तरह यह कड़वा सत्य सुनने वाला श्रोता उस कड़वास से आहत होता है तो वह चोट भी श्रोता के अहंकार को चुभती है। सत्य का तो कोई दोष नहीं। अतः यह सब अहंकार की शब्दावलियां है।
जवाब देंहटाएंकभी कभी हितेच्छेक का सत्य भी अखरता है पर श्रोता को कड़वा लगे तो दोष उसके अपने दर्प का है, उसका अहं जो आहत होता है। वहां भी सत्य अपने आप में कड़वा नहीं होता। विवेकवान होगा तो इस सच को समझ लेगा।
पूर्णतयः सहमत हूँ - शत प्रतिशत ... please see this post
हटाएंhttp://shilpamehta1.blogspot.in/2012/02/is-truth-bitter.html