6 अगस्त 2011

तथ्य की परीक्षण विधि - अनेकान्तवाद


त्य तथ्य पर पहुँचने के लिए हमें वक्ता के कथन का आशय (अभिप्रायः) समझना आवश्यक हो जाता है। आशय समझने के लिए, यह जानना आवश्यक हो जाता है कि वक्ता ने कथन किस 'परिप्रेक्ष्य' में किया है, किस 'अपेक्षा' से किया है। क्योंकि प्रत्येक कथन किसी न किसी अपेक्षा से ही किया जाता है। वाच्य का अभिप्रायः जानने के लिए भी, पठन कुछ इस प्रकार किया जाता है कि यह सुस्पष्ट हो जाय,लेखक नें कथन किस अपेक्षा से किया है। वक्ता या लेखक के अभिप्रायः को ताड़ लेना ही सत्य पर पहुँचने का सीधा मार्ग है। सत्य जानने के लिए, अभिप्रायः ताड़नें की विधि को ही अनेकांतवाद कहते है।


जैसे किसी व्यक्ति विशेष के बारे में सूचनाएं देते हुए कोई वक्ता कहता है कि- ‘यह व्यक्ति अच्छा है’। अब इस सूचना के आधार पर, उसके कथन में अन्तर्निहित अपेक्षा को परख कर, हमें तय करना है कि वक्ता ने किस अभिप्रायः से कहा कि 'वह व्यक्ति अच्छा है'। आईए समझने का प्रयास करते है……

1-उसके ‘सुंदर दिखने’ की ‘अपेक्षा’ से वह अच्छा है?
2-उसकी ‘मधुरवाणी’ की ‘अपेक्षा’ से वह अच्छा है?
3-उसके हर समय ‘मददतत्पर’ रहने की ‘अपेक्षा’ से वह अच्छा है?
4-या मात्र ‘मिलनसार’ होने की ‘अपेक्षा’ से वह अच्छा है?
5-मात्र ‘दिखावे’ (प्रदर्शन) की ‘अपेक्षा’ से वह अच्छा है?
6-अथवा वक्ता के प्रति 'मोह' की 'अपेक्षा' से ही वह अच्छा है?
7-या ‘व्यंग्य शैली’ की ‘अपेक्षा’ से किया गया कथन है कि वह 'अच्छा' है?

इस प्रकार वक्ता के ‘अभिप्रायः’ को पहचान लेना, उस दूसरे व्यक्ति के ‘अच्छे होने’ के सत्य को जानना हुआ।

प्राय: हम देखते है, किसी ठग की धूर्तता से कईं लोग बच जाते है, और कईं लोग फंस भी जाते है। धूर्तता से बचने वाले हमेशा धूर्त की मीठी बातों और तर्कसंगत प्रस्तुति के बाद भी उसमें छुपे धूर्त के अभिप्रायः को पहचान लेते है। और फंसने वाले उसके अभिप्रायः को पहचानने में भूल कर जाते है, या चूक जाते है। कहने का आशय है कि कथन के सत्यांश को गहराई से पकड़ने की विधि ही अनेकांत है।

इस सिद्धान्त की गहराई में जाने के पूर्व, एक बार पुनः दोहराव का जोखिम लेते हुए, अनेकांत की संक्षिप्त परिभाषा प्रस्तुत कर रहा हूँ। क्योंकि एक बार शब्दशः यह परिभाषा आत्मसात होने के बाद अगला गूढ़ वर्गीकरण और विवेचन, सहज बोध हो सकता है।

“समस्त व्यवहार या ज्ञान के लेन-देन का मुख्य साधन भाषा है। भाषा अनेक शब्दों से बनती है। एक ही शब्द, प्रयोजन एवं प्रसंग के अनुसार, अनेक अर्थों में प्रयुक्त होते है। हर कथन किसी अभिप्रायः से किया जाता है, अभिप्रायः इस बात से स्पष्ट होता है कि कथन किस अपेक्षा से किया गया है। कथ्यार्थ या वाच्यार्थ का निर्धारण अपेक्षा से ही सम्भव है। अतः अनेकांत को अपेक्षावाद भी कहते है। अनेकांत दृष्टि कथन को समझने की एक सटीक पद्धति है”।

62 टिप्‍पणियां:

  1. आपके ब्लॉग पर आता हूं, तो टेम्पलेट में ही खो जाता।
    बड़ी गूढ़ बातें की है आपने। समझने की कोशिश में दो बार पढ़ना पड़ा। टिप्पणी करना, इस विषय पर, क्षमता से बाहर है।

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  2. मनोज जी,
    आप जैसा विचारक भी यह कहेगा कि विषय अभी भी गूढ है तो मेरा तो सारा पर्यत्न विफल जा रहा है।
    सुझाएं कि क्या किया जा सकता है।

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  4. इतने सुलझे ढंग से आप बताते हैं कि सबकुछ स्पष्ट हो जाता है ... अभिप्राय को समझना वाकई मायने रखता है....
    आपको पढ़ते हुए मेरे दिमाग के कई बन्द कमरे खुलने लगे हैं ....

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  5. Vaichaarik drishti ko naya aayam deta post ke liye aabharVaichaarik drishti ko naya aayam deta post ke liye aabhar

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  6. आँखें खुली की खुली रह गईं मेरी इसे पढ़कर.
    वाह ,क्या खूब अच्छी तरह से आपने विषय को समझाया है.

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  7. सुज्ञ जी,
    आपका ये लेख आपके श्रेष्ठ निबंध में गिना जायेगा. इस निबंध से आपने 'भाषा-शास्त्री' और 'श्रेष्ठ निबंधकार' का दर्जा पा लिया है... आज के समय में एक ही निबंध में दो शैलियों के एक साथ दर्शन दुर्लभ होते हैं... सूत्र शैली और विस्तार शैली... अदभुत है आपका विवेचन.

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  8. सुज्ञ जी,
    ऐसे लेखों में त्रुटियाँ अखरती हैं :
    'परिक्षण' को 'परीक्षण' करें.
    कौशलेन्द्र जी द्वारा दिया ...... 'पदार्थ' का विच्छेदी अर्थ [पद+अर्थ] तार्किक लगा और उसे तत्काल अपना लिया. किन्तु 'अनेक' शब्द का बहुवचन 'अनेकों' शब्द स्वीकार नहीं कर पा रहा हूँ.

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  9. प्रतुल जी,
    त्रुटि सुधार ली गई है। बहुत आभार, मित्र होते ही है, भुल सुधार के लिए।:)

    कौशलेन्द्र जी ने 'पदार्थ' का तार्किक विच्छेदी अर्थ [पद+अर्थ] देकर मेरा कार्य आसान किया है। वस्तुतः इस आलेख में कई शब्दों का प्रयोग उसके मूल अर्थ में ही हो रहा है और होगा। उसक व्यवहारिक रूढ बने अर्थ में नहीं। कौशलेन्द्र जी नें समस्या भांप ली। और पदार्थ का उदाहरण देकर अन्य शब्दों को भी बोधगम्य बना दिया। कौशलेन्द्र जी आभार!!

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  10. एक बहुत प्यारा और कीमती लेख ...कुछ लोगों के लिए इसे समझना बहुत आवश्यक है ! मगर समझता कौन है !
    आभार आपका !

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  11. शास्त्र के सम्यक ज्ञान के लिए सुपात्रता आवश्यक है अन्यथा अर्थ का अनर्थ होते विलम्ब नहीं होता. एक श्रीमान जी ने कहा की ब्राह्मण गोमांस भक्षण के लिए लालायित रहते हैं, बौद्धों के द्वारा गाय का महत्त्व प्रतिपादित किये जाने के कारण ही आज गायें जीवित हैं अन्यथा पता नहीं अब तक गायें जीवित रहती भी या नहीं. शास्त्र के बारे में सतही सूचना रखने वाले ऐसा ही अर्थ करते हैं. वैदिक संस्कृत में "गो" शब्द के अनेक अर्थ हैं . ब्राह्मणों के द्वारा जिस गोमांस भक्षण की बात की गयी है वह वस्तुतः योग में खेचरी मुद्रा की एक स्थित है. शास्त्रों की कुपात्रों द्वारा ऐसी ही व्याख्या किये जाने कारण आम लोगों में शास्त्रों के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न हो रही है.
    ज्ञान प्राप्ति के अनेकों साधन और प्रमाण हैं . उनमें से अनेकान्तवाद का सिद्धांत शास्त्र के निर्दुष्ट ज्ञान की प्राप्ति में सहायक है. एकान्तवाद और अनेकान्तवाद के सिद्धांतों को समझने के पश्चात पदार्थ ( पद के अर्थ को पदार्थ कहते हैं , यह matter नहीं है ) की निष्पत्ति सही ढंग से हो सकेगी.
    सभी के लिए शास्त्राध्ययन का निषेध कदाचित सुपात्रता न होने के कारण से ही किया गया था. यह व्यवस्था आज भी आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन के लिए प्रचलित है. कला के विद्यार्थी को चिकित्सा शास्त्र या यांत्रिकी विज्ञान के अध्ययन की पात्रता नहीं है. यदि यह व्यवस्था विवेक सम्मत है तो महर्षि प्रणीत वेदाध्ययन की पात्रता की व्यवस्था में दोष देखना कहाँ तक उचित है ?
    सुज्ञ जी ! मैं समझता हूँ जिन्हें वास्तव में ज्ञान की पिपासा है वे आपके प्रयास को समझने का प्रयास करेंगे.

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  12. लीजिये प्रतुल भैया जी ! आपके संकेत पर त्रुटि सुधार दी गयी है. सुह्र्द्जन वही होते होते हैं जो त्रुटियों के सुधार की ओर ध्यानाकर्षण करते हैं.
    हमें शालेय पाठ्यक्रम में पदार्थ की परिभाषा वही बतायी गयी थी जो आप सभी को, अर्थात... पदार्थ उसे कहते हैं जो स्थान घेरता हो , जिसमें कुछ आयतन हो ....इत्यादि . बाद में जब पढ़ा "पदस्य पद्योः पदानाम वा अर्थः पदार्थः " तब लगा कि हमें कितना दिग्भ्रमित किया गया है. वस्तुतः , अनुवादकों ने "द्रव्य" को "पदार्थ" अनुवादित कर अनर्थ कर दिया. आज भी शालाओं में पदार्थ की यही त्रुटिपूर्ण परिभाषा पढाई जा रही है. हमें इस तथाकथित पदार्थ की तीन स्थितियां बतायी जाती हैं - ठोस, द्रव और गैस. जबकि द्रव्य की तीन नहीं पाँच स्थितियाँ होती हैं - ठोस, द्रव, गैस, प्लाज्मा और सुपर फ्ल्युड.
    अब आप पदार्थ को "पद के अर्थ" के रूप में चिंतन करके देखिये ......आनंद के सागर में डूब जायेंगे . यह कितनी पूर्ण और निर्दुष्ट परिभाषा है पदार्थ की !

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  13. उफ़ ! फिर भी एक स्थान पर "अनेकों" रह ही गया.....सुधीजन कृपया सुधार कर "अनेक" पढ़ने का कष्ट करेंगे.
    प्रतुल जी ! एक सम्पादक ने किसी लेखक की कृति इस टिप्पणी के साथ वापस कर दी कि लेख तो अच्छा है पर लेख में विराम, अर्ध-विराम ....आदि का कहीं कोई पता नहीं है. लेखक ने लौटती डाक से एक पूरे पृष्ठ पर केवल विराम और अर्ध-विराम अंकित कर लेख पुनः भेज दिया , इस अनुरोध के साथ कि जब जहाँ आवश्यक हो इनमे से छांटकर लगा लेना .

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  14. हरिवंश राया बच्चन ने 'मधुशाला' में कहा,,,
    "मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला
    किस पथ से जाऊं असमंजस में है वो भोला भाला
    अलग अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ
    राह पकड़ तू एक चला चल पा जायेगा मधुशाला"!

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  15. आदरणीय भाई सुज्ञ जी, बादल धीरे धीरे छंटते ही जा रहे हैं| अब आसमान साफ़ दिखाई पड़ रहा है| अत: आदरणीय भाई प्रतुल जी की बात को दोहराना चाहूँगा कि यह आपका श्रेष्ठ निबंध है|
    मुझ जैसा अल्पज्ञानी तो शब्दों के जाल में ही फंस कर रह जाता है| किन्तु आपने बेहतर मार्गदर्शन किया...इसके लिए आपका आभारी हूँ...

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  16. सुज्ञ भैया - मैं मनोज जी से सहमत हूँ | विषय तो गूढ़ है ही - और आप बहुत साधारण शब्दों में समझा भी रहे हैं |

    परन्तु, यदि अध्यापक छठी क्लास के बच्चे को आठवी क्लास का पाठ कितना भी आसान कर के पढाये तो भी समझने में कठिनाई तो होगी ही | कठिन तो मुझे भी लग रहा है - ४-५ बार पढ़ती हूँ, फिर टिप्पणियों से सहायता ले कर पढ़ती हूँ , तब कुछ कुछ समझ आ जाता है ......... पर क्षमता नहीं लगती अपनी मुझे इस लेख पर कुछ टिप्पणी लिख पाने की |

    क्या एक रिक्वेस्ट कर सकती हूँ? पहले समझाई बातों को ही दुबारा समझा दें, धीरे धीरे | फिर बाद में आगे बढें, तो थोडा और क्लियर हो जाएगा |

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  17. शिल्पा दीदी,

    अब तक हमने विभिन्न तरीके से मात्र अनेकांतवाद का अर्थ जानने का प्रयास ही किया है। कोई भी बात किसी न किसी दृष्टिकोण से कही जाती है। वह दृष्टिकोण भी किसी अपेक्षा पर आधारित होता है। कथन की अपेक्षा जानने पर ही कथन का आशय समझ में आता है। हर दृष्टिकोण में सत्य का अंश छुपा होता है फिर वह सत्य विपरित भी होना सम्भव है। इसी भिन्न भिन्न दृष्टिकोण को समझने हेतू स्वीकार करने के लिए छः अंधे और हाथी का दृष्टान्त दिया गया था। परस्पर विपरित सत्य के लिए 'स्त्री-पुरूष' मूर्ती का उदाहरण दिया था। और तथ्यो के विश्लेषण के लिए यह कहा गया था……
    "हर दृष्टिकोण किसी न किसी अपेक्षा के आधार से होता है।
    अपेक्षा समझ आने पर दृष्टिकोण का तात्पर्य समझ आता है।
    दृष्टिकोण का अभिप्राय समझ आने पर सत्य परिशुद्ध बनता है।
    परिशुद्ध अभिप्रायों के आधार पर परिपूर्ण सत्य ज्ञात होता है।"

    सत्यान्वेषण लैब – अनेकांतवाद नामक लेख में अनेकांतवाद के बारे में भ्रांतिया दूर करने का प्रयास किया था।

    कुल मिलाकर "अनेकांतवाद" सत्य जाननें समझने की एक पद्धति का नाम है और उद्देश्य पूर्ण सत्य पर पहुंचना। यह एक सत्य शोध के लिए इंस्ट्रुमेंट की तरह कार्य करता है। यह तथ्यों के विश्लेषण की एक प्रक्रिया है। पहले सत्य के अंश पर पहुंचा जाता है। वह अंश जाननें के लिए कथ्य की 'अपेक्षा' ज्ञात की जाती है अपेक्षा ज्ञात होते ही कथन का अभिप्राय (आशय) ज्ञात हो जाता है। अपेक्षा और अभिप्राय जानने की कुछ विधियां दी गई है। उसी पर अगले लेखों में विवेचन किया जाना है जो है- नय, निक्षेप, प्रमाण और स्याद्वाद्।

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  18. इस लेख में ‘यह व्यक्ति अच्छा है’ के उदाहरण के माध्यम से कथन में अपेक्षा क्या होती है, और उसे कैसे समझा जाता है। बताया गया है।
    प्रस्तुत विषय में यदि अपेक्षा शब्द के मायने समझ न आए तो पूरी परिभाषा ही अर्थहीन हो जाती है। अतः यहाँ दृष्टिकोण की अपेक्षा की व्याख्या करके, अनेकांत की परिभाषा आलेखित की गई है।
    "अपेक्षा" को पुनः आपके कथन से ही समझने का प्रयास करते है……
    जैसे कि आपका कथन है………… "यदि अध्यापक छठी क्लास के बच्चे को आठवी क्लास का पाठ कितना भी आसान कर के पढाये तो भी समझने में कठिनाई तो होगी ही |"
    इस कथन में 'अपेक्षा' = यह कथन 'कठीनता' की अपेक्षा से किया गया है।
    कथन का 'अभिप्राय' = विषय को और सरल बना कर प्रस्तुत किया जाय।

    बस हर बात (कथन या पठन) में पहले 'अपेक्षा' और फिर 'अभिप्राय'को ग्रहण किया जाय। यही विश्लेषण है और पूर्ण सत्य तक पहुंचने की विधि भी। यही अनेकांत है।

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  19. 'सत्य' काल और समय पर आधारित है... सभी अपने को 'मैं' कहते है...

    अपने एल्बम में लगी अपनी तस्वीरों को, कह लीजिये जन्म से ले कर वर्तमान तक, सभी को आप कहते हैं यह 'मैं' हूँ!... किन्तु, फिर अपने शरीर की उत्पत्ति के विषय में चर्चा कर, हर एक तस्वीर के बारे में बताते हुए, शायद आप बताएँगे कि यह तस्वीर मेरी उस समय की है जब 'मैं' १/ ५/१०/,,,५०/ इत्यादि इत्यादि वर्ष का था... और संभव है - इस पर निर्भर कर कि आप किसी अनजान व्यक्ति को बता रहे हैं अथवा किसी मित्र को - हर एक तस्वीर से जुड़ी कुछ विशेष बताने योग्य जानकारी आदि भी दें,,, किसी यात्रा से सम्बंधित, किसी स्थान विशेष आदि से सम्बंधित, इत्यादि इत्यादि...इस प्रकार आप अपने इतिहास की, भूत की, ही वास्तव में चर्चा कर रहे होंगे... अर्थात, सभी किसी काल विशेष के सत्य होते हुए भी वास्तव में असत्य! जन्म से पहले आप थे भी कि नहीं, अथवा भविष्य में आप के 'भाग्य में क्या लिखा' है उस से आप शायद अनजान रहेंगे, यदि आप 'आम व्यक्ति' हैं, न की त्रिकालदर्शी, यानि शून्य काल और स्थान से सम्बंधित केवल परम सत्य, परम ज्ञानी, परमेश्वर के कृपा पात्र!...

    इसे अद्भुत अथवा डिजाइन कहा जा सकता है कि 'निद्रावस्था में' स्वप्न तो हरेक अपनी 'तीसरी आँख' में देखता है, और सुनने में भी आता रहता है कि कैसे किसी व्यक्ति विशेष ने जो कुछ स्वप्न में देखा वो भविष्य में सत्य निकला!
    ऐसे ही एक अनजान व्यक्ति ने सन '८० में मेरा चेहरा गौहाटी में पहली बार देख मुझे बता दिया था कि 'मेरे परिवार' में किसी का रक्त-चाप बढ़ा हुआ था, तो उस समय बात टाल दी कि शायद मेरा ही हो... किन्तु, दो सप्ताह के भीतर ही बड़े भाई का तार मिला कि पिताजी को हार्ट एटैक हुआ था! और यहाँ तक कि मेरी उस समय लगभग १० वर्षीया बेटी ने मेरी गौहाटी से इम्फाल की, सन '८१ में, फ्लाईट कैंसल होने की सूचना मेरे एयरपोर्ट जाने से पहले ही अचानक दे दी थी और वो 'सत्य' निकली!

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  20. जैसे तुलसीदास जी ने कहा ...दुष्ट महान है ! और अर्थ परिलक्षित हुआ महान दुष्ट हैं !

    किसने किस अभिप्राय से कहा और किसने क्या अर्थ लगाया !
    गूढ़ ज्ञान है , समझने में समय लगता है ...
    आभार !

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  21. हिन्दुओं ने 'सत्य' उसे माना जो काल के साथ बदलता नहीं है, 'सत्य' के विषय में पुनश्च -

    हमारे सौरमंडल के राजा सूर्य की तुलना में एक पांच गुना, या उससे अधिक, भारी सितारा अरबों वर्ष प्रकाश और शक्ति के स्रोत का कार्य निभा जब अपनी 'मृत्यु' के निकट, रैड स्टेज में, पहुँच जाता है तो फिर फूल कर किसी दिन अंदरूनी शक्ति के गुरुत्वाकर्षण शक्ति से अधिक हो जाने से गुब्बारे के समान फट जाता है, और उसका सारा कूड़ा अंतरिक्ष के शून्य में फ़ैल जाता है... किन्तु अब गुरुत्वाकर्षण शक्ति उस कूड़े को भीतर, उसके मूल केंद्र की ओर, दबाने लगती है... जिससे इतनी गर्मी उत्पन्न होती है कि सारा कूड़ा जल जाता है,,, और, उस सितारे के स्थान पर, अब एक नया निराकार किन्तु अपूर्व गुरुत्व्कर्षण शक्ति वाला 'शून्य' उत्पन्न हो जाता है,,, जिसे आधुनिक पश्चिमी वैज्ञानिक 'ब्लैक होल' कहते हैं और मानते हैं कि हमारी तश्तरीनुमा गैलेक्सी (हिन्दुओं के शब्दों में सुदर्शन-चक्र रुपी) के केंद्र में ब्लैक होल उपस्थित है जिसके चारों ओर असंख्य तारे आदि घूमते चले आ रहे हैं ,,,
    और दूसरी ओर प्राचीन 'हिन्दू' ने इसे 'कृष्ण' कहा, यानि द्वापर युग में इसके प्रतिरूप को सुदर्शन-चक्र धारी कृष्ण, जो उनके विराट स्वरुप सुदर्शन-चक्र धारी विष्णु (नादबिन्दू से उत्पत्ति कर ब्रह्माण्ड का अनंत शून्य!) के अष्टम अवतार माने जाते हैं !

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  22. सुज्ञ जी,
    यदि यह धारणा स्थिर हो जाये की एक से अनेक है, और अनेक में एक है - तो फिर द्वैत कहाँ अनेकता कहाँ, लेकिन जिन्हें उस एक का ज्ञान नहीं उनके लिए तो तथ्य की परिक्षण-विधि -अनेकांतवाद ही है - श्री योगवाशिष्ठ महारामायण

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  23. पंकज जी,
    "एक से अनेक है, और अनेक में एक है" इस धारणा की व्याख्या कर उसे स्थिर करनें, परमसत्य को पुष्ट करने की विधि ही अनेकांत है। यही वह ज्ञान है जिससे उस स्थिरता युक्त धारणा को प्राप्त किया जा सकता है।

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  24. आदरणीय बहन शिल्पा जी, आपकी व मेरी समस्या शायद एक ही है| तकनीकी के छात्र होने के कारण भारी भरकम भाषा जल्दी से समझ नहीं आती| मेरे साथ तो ऐसा ही होता है, शायद आपके साथ भी यही समस्या हो|
    प्रारम्भ में मुझे काफी समस्या होती थी| किन्तु जिस प्रकार आदरणीय भाई सुज्ञ जी उदाहरण के साथ अपनी बात रखते हैं, उससे समझने में सरलता होती है| और टिप्पणियों के रूप में सार प्रस्तुत कर देना भी लाभकारी लगा|
    आभार...

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  25. सुज्ञ भैया - जय श्री राम |धन्यवाद
    अनेकान्तवाद का अब तक जो अर्थ समझ आया वह है-संक्षेप में -
    " इस जगत को या उसके किस्सी भी हिस्से को यदि सही सही समझना हो, तो सिर्फ उस व्यक्ति का निजी अनुभव जो इसे समझना चाह रहा है - काफी नहीं है | यह इसलिए है कि हमारी कुछ भी समझने की जानने की प्रक्रिया हमारी ५ इन्द्रियों, मन और बुद्धि ही हमारे ज्ञान द्वार है, जो खुद में ही अपूर्ण हैं - जैसे हाथी को परखने वाले अंधे सज्जनों की आँखें थीं |

    उससे आगे, हमारे एक्सपीरिएन्स का दायरा भी सीमित है, और सत्य बहुत विस्तृत है | तो किसी एक व्युपोइंट से किया गया ओब्ज़र्वेशन अधूरा होता है | इसलिए, यदि सच में हमें कुछ जानना हो, किसी भी विषय में - तो सत्य के टुकड़े सब ओर से इकट्ठे करने और समझने होंगे | और परम सत्य के लिए तो यह बात और भी अधिक ज़रूरी है - क्योंकि वह इतना विस्तृत है कि हम उसे इंडीविजुअली समझ ही नहीं सकते |

    यदि हम सच में जानना चाहते हैं........., तो "मैं जानता हूँ " का पूर्वाग्रह छोड़ कर हमें जानकारी खुले मन मस्तिष्क से ग्रहण करनी होगी, समझनी होगी, और समग्रता में जो सत्य समझ पड़े, उसे अपनाना होगा (नीर क्षीर विवेक - जो आप ही ने एक और पोस्ट में समझाया था) यह पूरी पद्धति "अनेकान्तवाद" है|

    क्या मैं ठीक समझ रही हूँ ?

    दिवस भैया , धन्यवाद | जी , मेरा क्या प्रोब्लम है - कि या तो किसी विषय में बिल्कुल ही इंटरेस्ट न आये ------ और आये तो जो मेरे शिक्षक (यहाँ सुज्ञ भैया) मुझे समझा रहे हों उसे जब तक पूरी तरह समझ ना पाऊँ तब तक चैन नहीं आता | कोशिश कर रही हूँ |

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  26. पिछला लेख समझने में कठिन लगा ये तो काफी सरल था
    मेरे ख़याल से ये जो हिंदी के शब्द होते हैं , जो आम आदमी को रेग्युलर यूज में नहीं आते, उनके साथ उनकी अंग्रेजी भी लिख दी जाए तो तो जटिलतम लेख अति सरल हो सकते हैं

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  27. @Global Agrawal
    आदरणीय भाई, मेरे विचार से उपरोक्त हिंदी शब्दों का अर्थ तो हम समझ सकते हैं, किन्तु आवश्यकता उनके पीछे के भावों को समझने की है|
    जैसा कि भाई सुज्ञ जी ने कहा कि यदि अपेक्षा शब्द के मायने समझ न आएं तो पूरी परिभाषा ही अर्थ हीन हो जाती है| अब यहाँ अपेक्षा शब्द का मतलब तो शायद ही कोई हिंदी भाषी न जानता हो, किन्तु इसके भाव को समझना थोडा कठिन हो जाता है| आवश्यकता उसी की है| यदि साथ में अंग्रेजी के अर्थ लिख दिए तो मेरे जैसा अल्प बुद्धि तो अर्थ का अनर्थ ही कर बैठेगा...
    आशा है आप मेरी बात समझ रहे होंगे|
    शिल्पा दीदी...सही कहा आपने, अब तो मेरी भी जिज्ञासा धीरे धीरे बढ़ने लगी है| भाई सुज्ञ जी इसके लिए आपका आभारी हूँ...

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  28. बहुत ही अच्छे से समझाया है आपने अनेकांतवाद को, जय हो ।

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  29. प्रिय मित्र Diwas,
    देखते हैं, सुज्ञ जी क्या कहते हैं, फिर मैं अपनी बात को कुछ और स्पष्ट करने का प्रयास करूँगा :)

    एक पर्सनल बात :
    सच बोलूं तो अपने नाम से आसपास आदरणीय शब्द देख कर डर लगने लगता है :)

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  30. बिना अभिप्राय अपेक्षा समझ नहीं आती है।

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  31. @Global Agrawal
    आदरणीय भाई...
    डर कैसा? आपको सम्मान देने के पीछे किसी का कोई छल नहीं है|
    दरअसल मुझे भी समझने में थोड़ी परेशानी होती है| अत: भाषा की सरलता पर मैं विचार करना चाहता हूँ| मुझे लगता है कि अंग्रेजी में लिखे अर्थों से शब्दों की भावना ही मर जाएगी| फिर भी जैसा भाई सुज्ञ जी उचित समझें| वे विषय को बेहतर समझा सकते हैं| अत: जो मार्ग वे अपनाएं, संभवत: उचित ही होगा|
    सादर,
    दिवस...

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  32. सरल शब्दों में अद्भुत ज्ञान और प्रयोग.. बहुत ही सहज प्रतीत होता है आपकी बातों से.. लाभान्वित हुआ, सुज्ञ जी!

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  33. आपके सारे आलेख सरल शब्दों में विषय को बहुत सहजता से समझा देते है. सारे आलेख संग्रहणीय है.

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  34. सबसे पहले तो सभी पाठकों का अभिवादन!! आपका आभार आपने विषय को गम्भीरता से लिया और अभिगम करके मेरे प्रयास को सार्थक कर दिया।
    सच कहुँ तो यह मेरा सबसे प्रिय विषय रहा है। मैं दृढतापूर्वक मानता हूँ,सत्य के अन्वेषण के लिये यह सर्वश्रेष्ठ ज्ञान है। पर यह लेखमाला प्रारम्भ करते समय मेरे मानस में भी विषय इतना स्पष्ठ नहीं था। आप सभी के सहयोग से और समझाने के प्रयास में अर्थाभिगम सुस्पष्ठ हो गया।

    शिल्पा दीदी और बंधु दिवस का आभार, आपने एक कठिन विषय पर मेरी लेखनी को उक्साया।
    इस अनेकांत विषय को हृदयगम करके लोगों के सुनने, समझने और बोलने में सार्थक बौधिक तकनिक का जरा सा भी विकास होता है तो स्वयं को बड़भागी महसुस करूँगा।

    गौरव जी, दिवस जी, वैसे तो सरल-बोध के लिए अंग्रेजी शब्दों के उपयोग से कोई परहेज नहीं है। पर विषय ही ऐसा है कि इसको निर्दोष रखने के लिए, मौलिकता बनाए रखने के लिए मूल शास्त्रीय शब्दों का ही प्रयोग आवश्यक है। सहज सरल बोध अगर न हो पाया तो दुख नहीं, शुद्ध ज्ञान बचा रहा तो कभी न कभी अवश्य बोधगम्य हो जायेगा। पर सरल बनाने के प्रयास में वह ज्ञान विकृत हो गया तो तो सार्थकता समूल नष्ट ही हो जाएगी। भारतीय दर्शन शास्त्र में प्रयुक्त कईं विशिष्ठ शब्द है और कईं उसके मूल भावार्थ में है। कभी कभी उन भावो के समानार्थी शब्द आंग्ल भाषा में उपलब्ध ही नहीं होते। हम पर्याप्त अर्थ और जानकारी के अभाव में अजानते प्रयुक्त कर भी दें आगे जाकर वे शब्द विपरित अर्थ में लिए जा सकते है। फिर भी समझाने के लिये यदि एक दम योग्य भावार्थी, पदार्थी शब्द इंगलिश भाषा में मिल जाय तो उपयोग में कोई दोष भी नहीं है।
    इस बात से शायद गौरव जी, दिवस जी दोनों सहमत होगे।

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  35. मित्र दिवस ने कहा है ....
    @मुझे लगता है कि अंग्रेजी में लिखे अर्थों से शब्दों की भावना ही मर जाएगी|

    सुज्ञ जी कहते हैं ....
    @सरल बनाने के प्रयास में वह ज्ञान विकृत हो गया तो तो सार्थकता समूल नष्ट ही हो जाएगी। भारतीय दर्शन शास्त्र में प्रयुक्त कईं विशिष्ठ शब्द है और कईं उसके मूल भावार्थ में है।

    आप दोनों की बात से पूर्ण सहमती है , मैंने ही एक लेख इस बात पर लिखा था की किस तरह कन्या शब्द को translate करके कन्यादान को कु-प्रथा बताया जा रहा है

    मेरा सुझाव तो एडिशनल सुझाव है इसका इम्प्लीमेंटेशन ना हो तो कोई कमीं नहीं आती .बिलकुल भी नहीं , लेकिन मुझे लगता है इसे किसी तरह इम्प्लीमेंट करने पर स्कोप बढ़ सकता है
    .......कहीं हमारे बीच कुछ misunderstanding हो रही है

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  36. मेरे दिमाग में एक अलग ही पाठक वर्ग घूम रहा है ....काफी समय पहले शक्तिमान नामक सीरियल आता था, गंगाधर शास्त्री (मुकेश खन्ना ) द्वारा बोले बेहद सामान्य शब्द कईं लोगों को समझ नहीं आते थे , मुझे इस बात पर यकीन नहीं होता था , लेकिन काफी समय बाद मैंने महसूस किया की सच यही है .....

    मैं एक प्रयोग की बात कर रहा हूँ .......
    एक उदाहरण:
    मैं एक संशयवादी हूँ
    इसे ऐसे लिखा ------
    मैं एक संशयवादी(Skeptic)हूँ
    संशयवादी को skeptic कहने से उस शब्द का अर्थ समझने वालों को संख्या बहुत बढ़ सकती है
    गूगल पर सर्च करने वाले लोग हमेशा key word " skeptic " ही सर्च करते हैं
    ठीक ऐसे ही
    आपने ये भी देखा होगा की गीता का उल्लेख करते हुए जब एक-दो आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अंग्रेजी शब्द जोड़ दिए जाते हैं तो समझने में सुविधा होती है
    अंग्रेज़ी शब्द डिप्रेशन (Depression) को हिंदी में अवसाद या विषाद कहते हैं
    कितने ही लोग होंगे जो ये नहीं जानते की विषाद शब्द सुनते ही कोई डिप्रेस व्यक्ति की इमेज दिमाग में आनी चाहिए
    लेकिन हमारे इस बात को बार बार यूज करने से लोग ये जान पायेंगे की डिप्रेशन के बारे में बहुत पहले का भारतीय ज्ञान काफी कुछ कहता रहा है

    जवाब देंहटाएं
  37. .....और ये बिलकुल जरूरी नहीं की सही शब्द ढूँढने में हम बहुत समय दें जब मिले तब साथ में रख सकते हैं ..मैं शब्द रिप्लेस करने को नहीं कह रहा हूँ , इस बहाने हमारे पास कितना trans-creation (translation नहीं ) डेटा जमा हो जाएगा ..ये आगे बहुत काम आएगा .

    जवाब देंहटाएं
  38. गौरव जी,
    गौरव जी आपके कथन की 'अपेक्षा' समझ रहा हूँ। यह सच है कि एक बडे पाठक वर्ग के लिए यह प्रयास बोधगम्य हो जाएगा।
    मेरा सुझाव तो एडिशनल सुझाव है इसका इम्प्लीमेंटेशन ना हो तो कोई कमीं नहीं आती .बिलकुल भी नहीं , लेकिन मुझे लगता है इसे किसी तरह इम्प्लीमेंट करने पर स्कोप बढ़ सकता है
    .......कहीं हमारे बीच कुछ misunderstanding हो रही है।
    कोई दो राय नहीं कि आपका सुझाव क्रियान्वित करने से विस्तार प्राप्त होगा। यहां कोई misunderstanding नहीं हो रही। प्रस्तुत लेख ही दृष्टिकोण की misunderstanding दूर करने के लिए ही तो है। इस दृष्टिकोण में आपके कथन की अपेक्षा है इस ज्ञान का अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचना। और आशय या अभिप्राय है इस श्रेष्ठ ज्ञान को सर्वभोग्य बनाना।

    जवाब देंहटाएं
  39. दिवस जी के कथन में अपेक्षा है शब्दों के भाव सुरक्षित रखना, और अभिप्राय है ज्ञान की शुद्धता और मौलिकता बची रहे।

    अपेक्षा के आधार पर आप दोनो के कथन परस्पर विपरित होते हुए भी सत्य है। सही है। अब बात आती है क्रियान्वित करने की तो हम दोनो अभिप्राय का विश्लेषण करेंगे तो पाएंगे दोनो आवश्यक है। तब हमें समय,आवश्यकता उपयोगिता और परिणामों पर चिंतन करते हुए। जिस समय जो अधिक उपयोगी और योग्य होगा, लागू करना होगा। यही अनेकांत का दायित्व है।

    जवाब देंहटाएं
  40. @दिवस जी के कथन में अपेक्षा है शब्दों के भाव सुरक्षित रखना, और अभिप्राय है ज्ञान की शुद्धता और मौलिकता बची रहे।

    सुज्ञ जी,
    बिलकुल सही है, इस बात पर शुरू से सहमति है और हमेशा रहेगी ....वैसे भी मैं शब्दों के जिस अंग्रेजी-संस्कृत कनेक्शन की बात कर रहा हूँ वो तो तभी हो सकता है जब मूल शब्द मौजूद हों

    जवाब देंहटाएं
  41. just reading - i am not fit to comment here

    जवाब देंहटाएं
  42. गौरव जी,
    भाषा का एक मात्र सार्थक उपयोग है, भावों की अभिव्यक्ति, जो भी जिस किसी भाषा के शब्द अगर सटीक भावाभिव्यक्ति करने में समर्थ है वह शब्द सार्थक व सदुपयोगी है।

    इसी लेख में परिभाषा में मैने लिखा है…………
    समस्त व्यवहार या ज्ञान के लेन-देन का मुख्य साधन भाषा है। भाषा अनेक शब्दों से बनती है। एक ही शब्द, प्रयोजन एवं प्रसंग अनुसार अनेक अर्थों में प्रयुक्त होते है।

    अतः अभिप्राय को सद्स्वरूप में प्रकट करे वह शब्द सार्थक है।

    सभी मित्रों से,
    मेरी, गौरव जी और दिवस जी की इस चर्चा में आप अनेकांतवाद के लाभ प्रकट रूप से अनुभव कर सकते है। मैने पिछले ही लेख में कहा था………
    "सम्पूर्ण विश्व में “ही” और “भी” का साम्राज्य व्याप्त है। जहाँ ‘ही’ का बोलबाला है वहाँ कलह, तनाव, विवाद है। और जहाँ इसके विपरित ‘भी’ का व्यवहार होता है, वहाँ सभी का सम्यक समाधान हो जाता है। और यह उत्थान की स्थिति का निर्माण करता है। सापेक्षदृष्टि मण्डनात्मक प्रवृति की द्योतक है जबकि एकांतदृष्टि खण्डनात्मक प्रक्रिया। इसिलिए सापेक्षतावाद अपने आप में सम्पूर्ण माना जाता है।"
    मेरे दोनो मित्रों नें अपनी बात में 'भी' का उपयोग करके अनेकांत-दर्शन को पुष्ट किया है। यदि 'ही' का ही प्रयोग होता तो यह चर्चा विवाद में बदल जाती।
    इसे ही कहते है प्रत्यक्ष प्रमाण!!

    जवाब देंहटाएं
  43. क्षमा प्रार्थी हूँ कहते कि उद्देश्य 'परम सत्य' को पाना है और मानव को भी भगवान् का अनुरूप अथवा प्रतिबिम्ब जानना है, भले ही आप नाक को सीचे पकड़ो अथवा घुमा के...

    पता नहीं वर्तमान हिन्दुओं ने अपने ही ज्ञानी पूर्वजों द्वारा सांकेतिक भाषा में लिखी अपने ही गैलेक्सी की उत्पति के विषय में 'क्षीर-सागर-मंथन' की कथा पढ़ी भी है कि नहीं...और यदि पढ़ी भी है तो बस एक मनोरंजक कहानी के समान ही शायद...

    यदि उसे दोहरायें तो, पहले आप जान पायेंगे कि वर्तमान में भी अपनी विशाल असंख्य तारों आदि वाली गैलेक्सी - बीच में मोटी और किनारे की ओर पतली, तश्तरीनुमा अथवा 'सुदर्शन-चक्र' समान - अपने केंद्र के चारों ओर, असंख्य तारों, और हमारे सौर-मंडल को भी उसके किनारे की ओर धारण किये हुवे, घूमती गैलेक्सी को 'मिल्की वे गैलेक्सी' कहा जाता है... जिससे 'क्षीर-सागर' कहा जाना तो कम से कम समझ आएगा...और जब वैज्ञानिक बताते हैं कि उसके केंद्र में सुपर गुरुत्वाकर्षण शक्ति वाला निराकार 'ब्लैक होल' है तो शायद आपको पता चले कि क्यूँ विष्णु के अष्टम अवतार 'कृष्ण' को सुदर्शन-चक्र धारी कहा गया होगा...

    जब राक्षशों (शत्रु ग्रह / स्वार्थी व्यक्ति) और देवता (मित्र ग्रह / परोपकारी व्यक्ति) के मिले जुले प्रयास से गुरु बृहस्पति की देख-रेख में, सुमेरु पर्वत (अपनी अपनी धुरी पर घूमते पृथ्वी आदि ग्रह जो सूर्य कि भी अपनी अपनी लालशा में परिक्रमा कर रहे हैं) की मथनी बना, सागर-मंथन आरंभ हुआ तो पहले विष चारों दिशा में व्याप्त हो गया, और उसमें से हलाहल अथवा कालकूट को शिव ने अपने कंठ में धारण कर लिया (वैज्ञानिकों के अनुसार शुक्र ग्रह का वातावरण विषैला है, शुक्राचार्य को हिन्दुओं द्वारा राक्षशों का गुरु कहा गया और योगियों द्वारा मानव कंठ में भी शुक्र ग्रह का सार माना जाता है)...
    हिव के मस्तक पर चंद्रमा को दिखाया जाया जाता है, अथवा मानव के मस्तक में भी शिव को अमृत दायिनी चंद्रमा का सार (सोमरस) माना जाता है जिसने विष्णु के रूप में देवताओं अर्थात सौर-मंडल को अमरता प्रदान की सतयुग के अंत में, जबकि इसके पहले मणि-माणिक्य दुसरे चरण में प्राप्त हुए और अप्सराएं तीसरे चरण में...

    और हिन्दू मान्यतानुसार काल चक्र सतयुग की १००% क्षमता से कलियुग के अंत की ०% क्षमता तक ४३,२०,००० वर्ष के एक महायुग के दौरान घटित होने वाले अनंत दृश्य दर्शाता है, और यह सिलसिला १०८० बार चलता है सतयुग से कलियुग तक अंतरिक्ष के हर ३६० डिग्री के तीन भाग यानी १०८० बार ब्रह्मा के एक दिन में यूँ लगभग साढ़े चार अरब वर्ष तक, उसके पृथ्वी पर पशु जगत के अनंत नेत्रों के माध्यम से...

    जवाब देंहटाएं
  44. कृपया, लालशा = कक्षा पढ़ें
    हिव के मस्तक = शिव के मस्तक पढ़ें

    जवाब देंहटाएं
  45. @मित्रों,
    कृपया ये ब्लॉग पढ़ें, अच्छे लेख हैं

    http://vinaybiharisingh.blogspot.com/

    जवाब देंहटाएं
  46. मेरे दोनो मित्रों नें अपनी बात में 'भी' का उपयोग करके अनेकांत-दर्शन को पुष्ट किया है। यदि 'ही' का ही प्रयोग होता तो यह चर्चा विवाद में बदल जाती।
    इसे ही कहते है प्रत्यक्ष प्रमाण!!
    @ उत्कृष्ट विमर्श.... अद्भुत प्रतिउत्तर...
    सुज्ञ जी, आपका चिंतन ऋषि तुल्य हो चला है.
    नमन.

    जे सी जी का चिंतन बिना ब्रह्माण्ड घुमाए नहीं रहता.
    उत्कृष्ट चिंतन की मिसाल कायम करते हैं वे भी.

    जवाब देंहटाएं
  47. डिस्क्लेमर :
    जिन कमेंट्स में मैं लिंक दे रहा हूँ , वे कमेन्ट पढ़ कर हटाये जा सकते हैं , सदविचारों के प्रसार मेरी एक मात्र अभिलाषा है :)

    जवाब देंहटाएं
  48. @ प्रतुल वशिष्ठ जी, 'हम' सभी मानव, पृथ्वी पर, कुछेक वर्ष के लिए ही आये हैं (वर्तमान में न मालूम क्यों!)... और इसे आज के युवकों के शब्द में दुर्भाग्य ही कहेंगे कि 'भारत' अथवा 'महाभारत' अनादिकाल से एक देव भूमि रही है, जिस कारण यह योगियों, सिद्धों आदि की पवित्र भूमि रही है, जिस में सदियों से पश्चिम दिशा निवासी 'ब्रह्माण्ड घुमाने' यानि 'समुद्र मंथन' अथवा 'मानस मंथन' के कारण समय समय पर आते रहे / रहते हैं इस भूमि से 'सोना' - पीला अथवा काला - आदि खनिज पदार्थ निकालने, जिन कार्यों में उन्होंने अपने देशों में भी महारत प्राप्त की है,,, और इस भूमि से, बदले में, ज्ञानी लोग, सिद्ध पुरुष आदि पश्चिम देशों में जाते रहते हैं...

    यही है 'योग' जिसे मानव की प्रकृति में भी आध्यात्मिक और भौतिक के बीच बराबरी ( ) के लिए द्वन्द चलता है... भारत में इसी लिए 'शिव' (पृथ्वी-चन्द्र, दाए और बाए पैर के योग के द्योतक) को 'नटराज' भी कहते हैं, और, जो देखा जा सकता है हमारे सौर-मंडल (महाशिव) के सदस्यों के लगभग साढ़े चार अरब वर्षों से हमारी गैलेक्सी में, शून्य में, विद्यमान रह अपना अपना निर्धारित कार्य अनादि काल से करते चले आने से...

    जवाब देंहटाएं
  49. कृपया बराबरी = बैलेंस (balance) पढ़े...

    जवाब देंहटाएं
  50. मित्रों,
    सन्डे के दिन बढ़िया ज्ञान प्राप्त हुआ, चर्चा हो गयी, अच्छे नतीजे आ गए .. बस और क्या चाहिए ? :)
    सुज्ञ जी और चर्चा में शामिल सभी प्रिय मित्रों को धन्यवाद :)
    शुभरात्रि :)

    जवाब देंहटाएं
  51. पढ रहा हूँ, समझने का प्रयास कर रहा हूँ। यह शृंखला पढने में जानकर देर लगाता हूँ ताकि टिप्पणियाँ और विचार विनिमय देखकर समझना और आसान हो जाये। सभी को साधुवाद!

    जवाब देंहटाएं
  52. अनुराग जी,

    आपने तो पहले लेख पर ही अपनी टिप्पणी से अनेकांत को व्याख्यायित कर दिया था। जबकि दूसरी टिप्पणी में आपने बताया इस विषय पर आपने कभी कोई अध्यन नहीं किया है। वस्तुतः इस विषय का आपको स्वयं बोध हो गया था। जो आपके चिंतनशील अभिगम के परिणाम स्वरूप है। ॠजुप्राज्ञ को विशेष अध्यन नहीं करना पडता। पर सामान्य बुद्धि व्यक्तित्व जब स्वयं सहज-बोध न हो पाए तो जानकार अथवा शास्त्राध्ययन का आलम्बन लेना अनिवार्य हो जाता है।
    आपका बोध तो अपूर्व है। विलक्षण है।

    जवाब देंहटाएं
  53. शिल्पा जी ! एकान्तवाद एक गली है जो किसी दिशा विशेष में ले जायेगी. उधर बरगद,पीपल या बबूल का पेड़ है ....हम इतना ही प्रत्यक्ष कर पायेंगे. हमारा सत्य इतना ही होगा ...यह एकांगी सत्य है, सम्पूर्ण सत्य नहीं. हमें गली को छोड़कर खुले में आना होगा. तब हमें सम्पूर्ण दृश्य दिखाई देगा, बरगद के अतिरिक्त और भी कई वृक्ष,खेत और न जाने क्या-क्या दिखाई देगा. इतना सब देखने के बाद ही हम उस इलाके को भली-भाँति जान पायेंगे. यह गली को छोड़ खुले में आकर देखना ही अनेकान्तवाद है. इसका व्यावहारिक उपयोग सत्यान्वेषण के लिए किया जाता था. हमारे महर्षियों की प्रयोगशाला सम्पूर्ण प्रकृति थी. अनेकान्तवाद उनके उपकरणों में से एक था. इसका लाभ यह हुआ कि महर्षियों के शोध सन्देह से परे हुआ करते थे. आज हम शोधकार्यों के लिए विश्लेषण ( ANALYSIS ) करते हैं. ध्यान दीजिये, प्रयोगशालाओं में किया गया हर विश्लेषण मूल तत्व के स्वरूप को समाप्त कर देने के कारण विघटनकारी होता है.यह होलिस्टिक अप्रोच नहीं है इसीलिये हमारे शोध वर्षों और पीढ़ियों चलते हैं.हर शोधकर्ता एक-एक सत्य लेकर सामने आता है.कोई हाथी का पैर तो कोई उसका कान. परमाणु पर किये गए सारे शोध अंतिम नहीं हैं. पर भारतीय पद्यति से किये गए शोध अंतिम हैं. उन्होंने कहा कि परमाणु भी पान्चमहाभौतिक है....यहाँ तक कि सब-एटोमिक पार्टिकल्स भी पान्चमहाभौतिक हैं....और यही अंतिम सत्य है. महर्षियों का अनेकान्तवाद किसी भी रहस्य के सभी पक्षों को अनावृत करता है ...and it was one of the tools of revealing the trouth .....आश्चर्य होता है न ! कि बिना आधुनिक उपकरणों के कैसे उन्होंने ग्रह-नक्षत्रों के बारे में इतने सटीक निष्कर्ष निकाल लिए. भारतीय दर्शन सबसे बड़ी प्रयोगशाला है. चिकित्सा शास्त्र में किये गए इनके शोध अद्भुत हैं

    अग्रवाल जी ! समानार्थी शब्दों के मामले में मैं प्रतुल जी के पक्ष में हूँ. अंग्रेजी इतनी समृद्ध नहीं है कि भारतीय दर्शन के शब्दों का सही अर्थ दे सके. कुछ लोगों ने विदेशियों के लिए अंग्रेजी अनुवाद किया है पर उससे अनर्थ ही
    हुआ है. मैंने बनारस में ऐसी पुस्तकें देखी हैं और अपना माथा पीटा है.

    जवाब देंहटाएं
  54. अनेकांत विषय पर सुगम व बोधगम्य लेख। टिप्पणियाँ भी बेहतरीन। ज्ञानार्जन हुआ।

    सुज्ञ जी!!! आपके लेख ज्ञान-वर्धन में बहुत सहायक हैं। लेकिन यदि लेख से भाषा-संबंधी त्रुटियां हटा दी जाएं तो लेख अधिक प्रभाव छोड़ेगा। इसी लेख में परिप्रेक्ष्य को परिपेक्ष्य, स्पष्ट को स्पष्ठ, अन्तर्निहित को अन्तनिहित, अभिप्राय: को अभिप्राय, पकड़ने को पकडने, गूढ़ को गूढ, हेतु को हेतू लिखा गया है।

    जवाब देंहटाएं
  55. कौशलेन्द्र जी,

    भैया, आप तो विषय को सरल बोधगम्य बनाने का सारा श्रेय ही ले जाते है।:)) इस सरल प्रस्तुति के लिए आपका अहसानमंद नहीं तो (भाई के नाते) गौरव अवश्य महसुस करता हूँ।

    भ्राता मनोज भारती जी,

    न तो गढ़ा हुआ लेखक हूँ, न साहित्य-कला का विद्यार्थी रहा हूँ। कॉमर्स का विद्यार्थी और कर्म भी व्यापार। साहित्य में दर्शन का शौकिया अध्ययन और ब्लॉगिंग के सहज उपलब्ध माध्यम को देखकर लिखने के शौक ने सिर उठाया। त्रुटियुक्त लेखन का परिणाम आपके सामने है। पर आप जैसे मित्रों का हितबोध भाषा में निखार लाने में सहायक सिद्ध होगा। सुधार किया गया है। समय मिले तो ऐसे ही सचेत करते रहें,उपकार होगा।

    जवाब देंहटाएं
  56. आप सभी की रूचिप्रद टिप्पणियाँ पाकर अब लगता है मैं निसंकोच विषय में आगे बढ़ सकता हूँ।
    आपके प्रश्न मुझे प्रोत्साहित करेंगे। और सावधान भी रहुँगा कि गहन अध्यन के उपरांत ही तथ्य प्रस्तुत करूँ। साथ ही अतिउत्साह में अतिक्रमण से बचा रहुँ।

    जवाब देंहटाएं
  57. सुज्ञ जी,
    बिलकुल सही है
    .......प्यारा और कीमती लेख

    जवाब देंहटाएं
  58. @अग्रवाल जी ! समानार्थी शब्दों के मामले में मैं प्रतुल जी के पक्ष में हूँ. अंग्रेजी इतनी समृद्ध नहीं है कि भारतीय दर्शन के शब्दों का सही अर्थ दे सके. कुछ लोगों ने विदेशियों के लिए अंग्रेजी अनुवाद किया है पर उससे अनर्थ ही हुआ है. मैंने बनारस में ऐसी पुस्तकें देखी हैं और अपना माथा पीटा है.

    कौशलेन्द्र जी,
    पूरी तरह सहमत हूँ आपकी और प्रतुल जी की बात से .. लेकिन में ट्रांसलेशन की नहीं ट्रांसक्रिएशन की बात कर रहा हूँ , जैसा प्रोफ़ेसर पी लाल ने किया था .
    साथ ही मैं शब्दों रिप्लेस करने को नहीं कह रहा

    जवाब देंहटाएं
  59. [सुधार ]...

    साथ ही मैं हिन्दी शब्दों रिप्लेस करने को नहीं कह रहा

    जैसे आप ही के कमेन्ट से एक लाइन ले रहा हूँ

    @आज हम शोधकार्यों के लिए विश्लेषण ( ANALYSIS ) करते हैं. ध्यान दीजिये,.....

    यहाँ आपने विश्लेषण और ANALYSIS दोनों को साथ लिखा है , बिलकुल ऐसे ही अपनी बात को हम बहुत से पाठकों को समझा सकते हैं

    जवाब देंहटाएं

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