अनेकांतवाद के सिद्धांत को स्पष्ठ करने के पूर्व, जो दृष्टांत अनेकांतवाद के लिए दिया जाता है। यहां प्रस्तुत करता हूँ।
एक गांव में जन्मजात छः अन्धे रहते थे। एक बार गांव में पहली बार हाथी आया। अंधो नें हाथी को देखने की इच्छा जतायी। उनके एक अन्य मित्र की सहायता से वे हाथी के पास पहुँचे। सभी अंधे स्पर्श से हाथी को महसुस करने लगे। वापस आकर वे चर्चा करने लगे कि हाथी कैसा होता है। पहले अंधे ने कहा हाथी अजगर जैसा होता है। दूसरे नें कहा नहीं, हाथी भाले जैसा होता है। तीसरा बोला हाथी स्तम्भ के समान होता है। चौथे नें अपना निष्कर्ष दिया हाथी पंखे समान होता है। पांचवे ने अपना अभिप्राय बताया कि हाथी दीवार जैसा होता है। छठा ने विचार व्यक्त किए कि हाथी तो रस्से समान ही होता है। अपने अनुभव के आधार पर अड़े रहते हुए, अपने अभिप्राय को ही सही बताने लगे। और आपस में बहस करने लगे। उनके मित्र नें उन्हें बहस करते देख कहा कि तुम सभी गलत हो, व्यथा बहस कर रहे हो। अंधो को विश्वास नहीं हुआ।
पास से ही एक दृष्टिवान गुजर रहा था। वह अंधो की बहस और मित्र का निष्कर्ष सुनकर निकट आया और उस मित्र से कहने लगा, यह छहो सही है, एक भी गलत नहीं।
उन्होंने जो देखा-महसुस किया वर्णन किया है, जरा सोचो सूंढ से हाथी अजगर जैसा ही प्रतीत होता है। दांत से हाथी भाले सम महसुस होगा। पांव से खंबे समान तो कान से पंखा ही अनुभव में आएगा। पेट स्पर्श करने वाले का कथन भी सही है कि वह दीवार जैसा लगता है। और पूँछ से रस्से के समान महसुस होगा। यदि सभी अभिप्रायों का समन्वय कर दिया जाय तो हाथी का आकार उभर सकता है। जैसा कि सच में हाथी है।
प्रस्तुत दृष्टांत आपने अवश्य सुना पढा होगा, विभिन्न दर्शनों ने इसका प्रस्तुतिकरण किया है।
इस कथा का कृपया विवेचन करें……
- प्रस्तुत दृष्टांत का ध्येय क्या है?
- इस कथा का अन्तिम सार क्या है?
- विभिन्न प्रतीकों के मायने क्या है?
- क्या कोई और उदाहरण है जो इसका समानार्थी हो?
- यह दृष्टांत किस तरह के तथ्यों पर लागू किया जा सकता है?
अंतिम चित्र बढि़या है.
जवाब देंहटाएंइतनी विशेषता और किसी जीव में कम ही मिलती है।
जवाब देंहटाएंयह हर जगह लागू होती है...
जवाब देंहटाएंबुद्धि को विस्तार देना सबकी किस्मत में नहीं होता ...
जवाब देंहटाएंसबने अपने अपने अनुभव के हिसाब से हाथी को पारिभाषित कर लिया !
उपलब्द्ध ज्ञान और संकुचित बुद्धि का उपयोग करते हुए, अपने अपने हिसाब से विश्लेषण कर, अपने मन को संतुष्ट कर लेना मूर्खों के लिए आसानी से संभव है !
कुछ बिन्दु
जवाब देंहटाएं- हमारे अनुभव की सीमायें हैं
- सीमाओं के कारण अलग भी हो सकते हैं और इस कहानी जैसे समान (अन्धत्व) भी
- सीमायें समान होते हुए भी निष्कर्ष अलग या परस्पर विरोधी हो सकते हैं
- उस सीमा से परे की दृष्टि (इस कथा का दृष्टिवान) बेहतर हो सकती है
- अपने सीमित व्यक्तिगत अनुभव को सर्वज्ञान समझकर निष्कर्ष निकालना अपूर्ण/ग़लत हो सकता है
- बेहतर समझ के लिये विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी का समन्वय करके पूर्णता की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है
- अगर ज्ञान का विश्वसनीय स्रोत/साधन उपलब्ध हो तो टुकडों के समन्वय की आवश्यकता न भी पडे
- दृष्टिहीन, दृष्टिवान की दृष्टि भले ही न पा सकते हों, सही दृष्टिकोण का लाभ अवश्य उठा सकते हैं।
स्मार्ट इंडियन जी ने अच्छा निष्कर्ष प्रस्तुत किया है.
जवाब देंहटाएंमैं उनके विचारों से पूर्णतया सहमत हूँ.
'दृष्टिहीन, दृष्टिवान की दृष्टि भले ही न पा सकते हों, सही दृष्टिकोण का लाभ अवश्य उठा सकते हैं।'
इसके लिए अपनी सीमाओं को समझना और सीखने और समझने की इच्छा का होना अत्यंत आवश्यक है.
सुन्दर शिक्षाप्रद प्रस्तुति के लिए आभार.
हम अपने हिसाब से तय करते हैं - आँख हो या ना हो .... सार यही है कि अपनी बुद्धि से निर्णय लें , सुनी बातों पर कुछ निश्चित न करें
जवाब देंहटाएंआपकी इस कथा ने डॉ.जमील हसन का एक बड़ा मौजूं शेर याद दिला दिया.आप भी देखिये:-
जवाब देंहटाएंराधा-कृष्ण को सबने देखा सूरदास की आँखों से,
फिर भी किसने सूरदास को अँधा कहना छोड़ दिया,
स्मार्ट इन्डियन के बाद यह जोड़ना चाहता हूँ कि सापेक्षवाद का सिद्धांत भी यही कहता है -एकांगी दृष्टि से बचो !
जवाब देंहटाएंआँख होते हुए भी आवश्यक नहीं कि किसी विशेष परिस्थिति में 'हम' भी 'अंधे समान ही हों, जैसे बिना प्रकाश के अँधेरे में, या जब प्रकाश कम हो- हमारी माँ ने भी एक दिन सुबह सवेरे सांप को रस्सी समझ उठा लिया,,, किन्तु छूने से 'मन की बत्ती जल गयी', चिपचिपा पा उसे तुरंत छोड़ दिया!...
जवाब देंहटाएंजब दीपक अथवा मोमबत्ती जलाई जाती है तो उसकी लौ पर पतंगे 'सती' हो जाते हैं, और सभी शायर उसे पतंगे और शमा के बीच जन्म-जन्मान्तर से चला आ रहा प्रेम कहते हैं!
और दूसरी ओर जब एक अनुभवहीन शिशु अज्ञानता वश उस लौ पर हाथ रखदे और हाथ जला ले तो यदि उस का पिता शायर हो तो शायरी भूल उस पर मलहम लगाएगा, तब उसे प्रेम शायद न कहे! लेकिन सत्य यह भी है कि अनुभव प्राप्त 'दूध का जला छाछ को भी फूंक मार कर पीता है'!
उत्तरपूर्व भारत में, जतिंगा घाटी में, कहा जाता है कि किसी स्थानीय निवासी की गाय जब एक शाम घर लौट कर नहीं आई तो वो एक मशाल ले कर उसे ढूँढने निकल पड़ा,,, गाय तो नहीं मिली किन्तु उस प्रकाश में आकाश से कई पक्षी आ कर गिर गए! उसने भगवान् को धन्यवाद दिया कि उसने उसके भोजन का एक माध्यम छीन लिया, तो उसके बदले भोजन का एक अन्य साधन दिला दिया!
फिर तो चलन ही हो गया कि जब उसी दिन समान वातावरण में वैसी ही परिस्थिति हो तो मशाल जलाओ और पक्षियों को गिरालो!
श्री सलीम अली द्वारा उस पर अनुसन्धान किया गया और पाया गया कि अधिकतर वे ही भूखे पक्षी गिरते थे जो जवान होते थे, यानि अज्ञानी और अनुभवहीन!
शायद कह सकते हैं कि जहाँ कृत्रिम प्रकाश होता है वहाँ मानव होता है, और जहां मानव होता है वहाँ पशु-पक्षी आदि के लिए भोजन पाने की संभावना भी होती है...
अब यदि आप किसी खगोलशास्त्री से पूछें कि एक ग्रह की 'मृत्यु' कैसे संभव है? तो वो बतायेगा कि कह सकते हैं कि जब ग्रह या तो सूर्य में, अथवा गैलेक्सी के केंद्र में, गिर जाए, और यदि कह लो वो किसी अन्य ग्रह आदि से टकरा कर छोटे छोटे टुकड़े हो अंतरिक्ष में चक्कर लगाता रहे...
यदि पृथ्वी सूर्य पर गिर जाए तो क्या हमारी अवस्था उसी पतंगे जैसी नहीं होगी??? वैसे भी, यदि पृथ्वी के वातावरण में उपस्थित ओजोन गैस में वर्तमान में दिखाई पड़ने वाले छिद्र और बड़े हो जाएँ (यानि 'शिव तीसरी आँख खोल दें'!) तो पृथ्वी पर आधारित प्राणीयों का क्या हाल होगा??? शायद अनुमान लगायें तो कामदेव अथवा भस्मासुर की याद आ सकती है! ... आदि आदि...
सुज्ञ भाई - यह शृंखला शुरू करने के लिए धन्यवाद | पिछली पोस्ट की रिक्वेस्ट आपने तुरंत मान ली :)
जवाब देंहटाएंअब कुछ समझ में आना शुरू हुआ है ...
सही कहा आपने। विचारणीय है।
जवाब देंहटाएंशिल्पा जी, किन्तु 'हम' यह नहीं कह सकते कि सभी शायर / कवि अज्ञानी होते हैं, क्यूंकि कहावत है "जहां न पहुंचे रवि / वहाँ पहुंचे कवि", अर्थात यह 'मन' की विचित्र कार्य क्षमता है कि हर व्यक्ति में विभिन्न गुण पाए जाते हैं, और हर प्राणी अथवा 'निर्जीव वस्तु' कुछ न कुछ उपयोगी कार्य कर रहा है...
जवाब देंहटाएंएक शायर को पचास के दशक में शे'र कहते सुना, "मगज़ (मधुमक्खी) को न जाने दो बाग़ में / खून हो जाएगा पतंगे का"! जिसकी समझ न आया उसने पूछ ही लिया मधुमक्खी का क्या लेना है पतंगे के लौ में जलने से?
शायर ने समझाते कहा कि मधुमक्खी बाग़ से रस ला अपने मोम से बने छत्ते में रखती है, और आदमी शहद तो स्वयं खा लेता है ही, छत्ते के मोम से मानव हित में, अन्धकार दूर करने के लिए, मोमबत्ती बना किन्तु पतंगे को जलाने का माध्यम बन जाता है! ('कृष्ण' भी अर्जुन से कहते हैं कि वो निमित्त मात्र है :)...
क्षमा प्रार्थी हूँ, शायर ने 'पतंगे' के स्थान पर 'परवाने' शब्द का उपयोग किया था!
जवाब देंहटाएंयही तो जीवन पर भी लागू है ...सबका अनुभव एक सा कहाँ होता है !
जवाब देंहटाएंजी जे सी सर ... जैसा अनुराग जी ने कहा - सीमा बन्द सोच और अनुभव हमें सब कुछ नहीं दिखा सकते - साधारण तौर पर यही लगेगा कि मधुमक्खी और परवाने का कोई सम्बन्ध नहीं | पर दूसरी ओर यह भी सोचें कि यदि आप परवाने को बचाने के लिए मधुमाखी को रोकें, तो हिंसा तो फिर भी हुई - बस दिशा बदल कर परवाने के बजाय मधुमक्खी से हुई !!!! जैसा सुज्ञ जी ने पिछली पोस्ट में टिप्पणी की थी - साधु को या तो हिरन के साथ अन्याय करना होता , या फिर शिकारी के साथ - तो वह चुप रहा | इसी तरह - सबसे बड़ी अहिंसा है कि प्रकृति को अपने कार्य करने दिए जाएँ , स्वयं को ईश्वर से अधिक समझदार समझ कर हस्तक्षेप न किया जाए | मानव प्रकृति को बदलने ना जाता, तो ओजोन लेयर में छेद भी न होते - यह जो भी गड़बड़ी होती है - इसलिए कि हम प्रकृति से छेड़ छड करते हैं |
जवाब देंहटाएंअनुराग जी कह रहे हैं कि "सीमित व्यक्तिगत अनुभव को सर्वज्ञान समझकर निष्कर्ष निकालना अपूर्ण/ग़लत हो सकता है" | जो पेड़ रास्ते के पथिक के लिए सिर्फ एक हरी छायादार छतरी है, जो भूख होने पर फल भी दे सकता है भोजन के लिए , .... एक कवि के लिए उस पेड़ मे फूल , पत्तियां , और टहनियां भी हैं | विज्ञान के विद्यार्थी के लिए हर पत्ते और फूल में सेल्स हैं, और वैज्ञानिक के लिए हर सेल में न्युक्लेअस, डी.एन.ए आदि हैं | परन्तु एक ज्ञानी साधू के लिए यह सब कुछ माया है - उसके लिए पेड़ एक आत्मा का वस्त्र भर है ....
यदि कोई जानने वाला उपलब्ध है ज्ञान देने के लिए - तो उसके ज्ञान से ज्ञान अर्जित किया जा सकता है , उसके दृष्टिकोण का लाभ लिया जा सकता है | हर वैज्ञानिक को गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत दोबारा प्रूव करने की आवश्यकता नहीं होती , जो सिद्धांत न्यूटन ने दिए, उन्हें मान कर आगे जाया जा सकता है ... नहीं - तो फिर पूरी कहानी हर एक वैज्ञानिक को जीरो से दोहरानी होगी - फिर आगे नहीं बढ़ा जा सकता |
हर एक व्यक्ति को हर चीज़ सिर्फ "अपने अनुभव से सीखना है" की जिद हो, कोई कुछ भी मान कर चलने को राजी न हो , तो आगे कैसे बढ़ा जायेगा ? क्योंकि हर एक के पास आखिर तो सिर्फ अधिकतम भी हो तो १०० वर्ष का जीवन है - तो हर एक की यात्रा एक सीमा से आगे नहीं जा सकती | जीवन को एक सिंगल एथलीट रेस नहीं, बल्कि रिले रेस जैसे ही आगे बढ़ाया जा सकता है, जहाँ हम वहा शुरू करें, जहाँ तक हमसे पहले वाला एथलीट दौड़ चुका हो .....
@ वाणी गीत जी, यही 'मैं' कहने की सोच रहा था... जिस के कारण अनेकान्तवाद भी है...
जवाब देंहटाएंजब सन '५५ में वो शे'र सुना था तो बहुत आनंद आया था, किन्तु अब जीवन के सत्तर+ पहुँच जो जीवन के विभिन्न अनुभव के आधार पर प्रश्न उठते हैं, और उनकी खोज रहती है, उसके आधार पर मुझे उस शायर से यह पूछना चाहिए था कि चलिए, मधुमक्खी को बाग़ में जाने से आपने परवानों को मोमबत्ती की लौ पर जलने से तो बचा लिया,,, किन्तु जब तक आप कुम्हार के पहिये को (काल-चक्र को?) और 'अग्नि', 'जल' आदि पंचतत्व को नहीं रोकेंगे, परवाने तो अब मोमबत्ती के स्थान पर दीपक की लौ में जल मरेंगे!
और, इसी प्रकार, यदि पृथ्वी रेत ही की बनी होती तो दीये नहीं बन पाते (पानी भी नदी/ तालाब में नहीं टिक पाता!), किन्तु मिटटी में रेत के अतिरिक्त 'क्ले' की भी उपलब्धता के कारण दीपक बनाना संभव हो पाता है... तो संभव है यदि दोष देना है किसी भी जीव की मृत्यु का दोष पृथ्वी को अर्थात स्वयं अमृत 'गंगाधर शिव' को ही जाएगा, जैसे प्राचीन हिन्दू भी त्र्रेयम्बकेश्वर (ब्रह्मा-विष्णु-महेश) में से महेश अर्थात शिव को ही 'संहारकर्ता' दर्शा गए!...
आज 01- 08 - 2011 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
जवाब देंहटाएं...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
@ अंतिम चित्र बढि़या है.
जवाब देंहटाएंराहुल जी,
सही कहा, 'दृष्टिवान' के निष्कर्ष को अभिव्यक्ति दे रहा है, यह चित्र।
_____________________________________________
@ इतनी विशेषता और किसी जीव में कम ही मिलती है।
संदीप पवाँर जी,
विभिन्न दृष्टिकोण दर्शाने के लिए उपयुक्त प्राणी है।
___________________________________
@ यह हर जगह लागू होती है...
समीर जी,
सत्य वचन!!, यह उदाहरण या दृष्टांत सभी जगह लागू होता है। जगत में वस्तु अथवा पदार्थ में अनेक गुण-धर्म होते है एक-एक गुण-धर्म की व्याख्या और अन्तिम सच्चाई जानने के लिए इस उपकरण को लागू किया जा सकता है। उसी प्रकार कथन के भी अनेक दृष्टिकोण होते है। वास्तविक अभिप्राय जानने के लिए इस अनेकांत का प्रयोग किया जा सकता है। आपने सही कहा- "यह हर जगह लागू होती है।"
बहुत सुन्दर और विचारणीय पोस्ट! लाजवाब प्रस्तुती!
जवाब देंहटाएंसतीश जी,
जवाब देंहटाएंबुद्धि को विस्तार न दे पाने की विवशता 'मूर्खता' नहीं, 'अज्ञान' है। छः अंधो का अन्धत्व अज्ञान का प्रतीक है। उनका एक दृष्टिकोण अज्ञान नहीं है, किन्तु एक दृष्टिकोण को ही मान्य रखना, और अन्य दृष्टिकोण का निषेध करना अज्ञानता है। आपने सही कहा, अपने एक दृष्टिकोण की हठ के अभिप्राय से ही यह संकुचित बुद्धि है।
शिल्पा जी, आपकी टिप्पणी बाद में दिखाई दी...
जवाब देंहटाएंयह तो सब जानते ही हैं कि मृत्यु तो हर प्राणी की निश्चित है, क्यूंकि सभी साकार अस्थायी हैं, और प्रकृति कि झलक इस में भी होती अनेक बहाने के माध्यम से दिखाई पड़ती है (बकरा या तो 'झटके' से कटेगा, अथवा 'हलाल' होगा, कई ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं),,, और केवल शक्ति ही अमृत है...
जैसे ॐ का साकार प्रतिबिम्ब अथवा रूप ब्रह्मा, विष्णु और महेश हिन्दुओं ने माना, वैसे ही 'आधुनिक वैज्ञानिक' भी देखें तो मिटटी को भी तीन मुख्य श्रेणियों में बांटते हैं,,, सैंड (रेत), सिल्ट (?), और क्ले (?) ,,, और, दूसरी ओर, मिटटी से ही बने चट्टानों को भी तीन श्रेणियों में बांटा जाता है,,, सैडीमेनट्री, जो मिटटी नदी बहा कर ले जाती है और उसकी तह जम कालान्तर में चट्टान बन जाती है ; मेटामौर्फिक, जो प्रथम श्रेणी की चट्टान कालान्तर में दबाव और गर्मी के कारण और अधिक शक्तिशाली हो जाती है ; और वौल्केनिक, जो पृथ्वी के गर्भ में पिघली चट्टानें, लावा के रूप में ज्वालामुखी के मुंह से ('काली की लाल जिव्हा समान') बाहर आ, और ठंडी होने पर शक्तिशाली हो जाती हैं...
प्राचीन योगियों के अनुसार जीव का शरीर, आत्मा अर्थात शक्ति का, काल पर आधारित वस्त्र मात्र है, जिसे उसके प्रतिबिम्ब समान 'हम', विभिन्न आत्माएं, एक सीमित जीवन काल में, विभिन्न अवस्थाओं में, निरंतर बदलते चले जाते हैं... और इस प्रकार गीता में 'कृष्ण' अनेकान्तवाद के कारण, यानि 'माया' को स्वयं, अर्थात अपने विराट रूप, निराकार ब्रह्म द्वारा जनित बताते हैं...
बेहद विचारणीय एवं ज्ञानवर्धक प्रस्तुति ..आभार ।
जवाब देंहटाएंयही तो जीवन पर भी लागू है ...सबका अनुभव एक सा कहाँ होता है !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर पोस्ट!
kahani kahne ko kahte to jaise-taise kuch kah lete.......lekin vivechna
जवाब देंहटाएंaur o bhi bimbon-pratikon ke sahare.........mushikl hai.......hum to sochne me hi kankhne lage......bhai koi hamare 'guruji' ko bulao.......
pranam.
क्या कोई और उदाहरण है जो इसका समानार्थी हो?
जवाब देंहटाएंयह दृष्टांत किस तरह के तथ्यों पर लागू किया जा सकता है?
@ जरूर हो सकता है..... मैं आपको एक सत्य कथा सुनाता हूँ...
आज से बयालीस वर्ष पहले की बात है. इटली देश के एक अनपढ़ गँवार परिवार में एक चालाक धूर्त लड़की रहती थी... परिवार के बुरे हालातों में उसने लन्दन की एक सराय में एक 'सर्विस गर्ल' की नौकरी कर ली... दूर देश का एक भोला राजकुमार उस देश में अपनी पढ़ाई करने आया हुआ था वह अकसर उस होटल में मस्ती करने आया करता ... वह उस धूर्त लड़की के मोहपाश में फँस गया. और समय के फेर ने धूर्त लड़की को राजकुमार से रिश्ता जुडवा दिया.. देश के दुर्भाग्य ने उसे उजले दिन दिखाये.... उसे सत्ता मिली...
उस धूर्त लड़की ने अपने इर्द-गिर्द जिस जमात को इकट्ठा किया... वह सभी अंधभक्त थे... इसलिये धूर्त लड़की को प्रिय थे... सभी सरकार में शामिल कर लिये गये..
एक बार उन सभी अंधभक्तों को लोहितवसन बाबा जी मिले ... बाबा जी ने उनका परिचय पूछा ...
अंधभक्तों ने कहा हम सभी सरकार में मंत्री हैं.
बाबा जी ने पूछा कि "ये सरकार क्या होती है?"
पहले अंधभक्त ने कहा - "सरकार कभी न दिखने वाली जादूई शक्ति है जिसके भय से गरीब और मूर्ख जनता को डराकर रखा जाता है."
दूसरे अंधभक्त ने कहा - "सरकार एक अवरोध है जिसकी आड़ में रहकर सभी ग़लत कामों को आसानी से किया जाता है."
तीसरे अंधभक्त ने कहा - "सरकार 'कानूनी ओवरकोट' है जिसे पहनकर हम नंगे घूम सकते हैं, चिदम्बरी-लुंगी में रह सकते हैं."
चौथे अंधभक्त ने कहा - "सरकार धन-वर्षा है जिसमें जितना चाहे भीग लो."
पाँचवे अंधभक्त ने कहा - "सरकार ऎसी रेवड़ी है जो केवल अपने जैसों को ही बाँटी जाती है."
छठे अंधभक्त ने कहा - "सरकार बड़ा हमाम है जिसमें सभी एक-साथ प्योर होकर नहाते हैं."
तभी बाबाजी ने उनकी नेता से पूछा, "आपके लिये सरकार क्या है?"
अंध-स्वामिनी ने कहा, "सरकार एक बिजनिस है... जहाँ हर काम के लिये जनता से टैक्स वसूला जाता है... टिप्स, टोल-टैक्स, कमीशन, दलाली, गिफ्ट, आदि के मौके भी मिलते हैं.
अनंतवादियों ने 'सरकार' का मुख्य अर्थ जो किया है, वह है :
"जो अन्याय करते हैं वही ताकतवर समझे जाते हैं... मतलब ki सरकार कहलाते हैं."
___________________
मैं जानना चाहता हूँ कि यदि उन अंधभक्तों की जगह 'मनमोहन', 'कपिल', 'दिग्विजय', 'प्रणव', 'चिदंबरम' और 'सलमान खुर्शीद' होते तो क्या बोलते?
...... अभी फिलहाल एक प्रश्न का जवाब दे पाया हूँ ... समय मिलते ही बाक़ी प्रश्न हल करूँगा.
आपका लेख और स्मार्ट इन्डियन अनुराग जी का कमेन्ट..........एक पाठक को और क्या चाहिए ?:)
जवाब देंहटाएंएक जिज्ञासा है मन में की आप कहाँ से ढूंढते हैं इतने सटीक चित्र ?
[पिछले दो चार दिनों से वेब ब्राउजर में तकनीकी खराबी से कमेन्ट करने में परेशानी आ रही है ]
अभी आने का फायदा हुआ ......प्रतुल जी का दिया उदाहरण पढने में मजा आया :)
जवाब देंहटाएंआदरणीय स्मार्ट इण्डियन अनुराग जी,
जवाब देंहटाएंआपके विश्लेषित बिंदु आलेख का उत्थान और पूर्णता प्रदान कर रहे है। अनेकांतवाद को ‘दृष्टिवाद’ भी कहते है। विभिन्न दृष्टिकोण से प्राप्त सूचनाओं को सम्यक दृष्टि से समझनें एवं पूर्ण सत्य जानने की प्रणाली का ही नाम है “अनेकांत” । सहमति दर्शाते हुए………
@- हमारे अनुभव की सीमायें हैं
@- सीमाओं के कारण अलग भी हो सकते हैं और इस कहानी जैसे समान (अन्धत्व) भी
@- सीमायें समान होते हुए भी निष्कर्ष अलग या परस्पर विरोधी हो सकते हैं
@- उस सीमा से परे की दृष्टि (इस कथा का दृष्टिवान) बेहतर हो सकती है
@- अपने सीमित व्यक्तिगत अनुभव को सर्वज्ञान समझकर निष्कर्ष निकालना अपूर्ण/ग़लत हो सकता है
>>> अनुभव की सीमाओं के समान ही हमारा ज्ञान भी सीमित हो सकता है। जबकि ज्ञान अपने आप में सीमातीत है। दृष्टिकोण को संकुचित रखना अन्धत्व (अज्ञान दशा) है। और सम्यक् दृष्टि से उसे विस्तृत फलक दिया का सकता है। जैसा आपने कहा- सीमा से परे की दृष्टि, ‘दृष्टिवान’ की तरह बेहतर। व्यक्तिगत सीमित अनुभव को अथवा एकांगी (एकांतवाद) को सर्वज्ञान समझकर निष्कर्ष निकालना अपूर्ण/ग़लत हो सकता है
@- बेहतर समझ के लिये विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी का समन्वय करके पूर्णता की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है।
@- अगर ज्ञान का विश्वसनीय स्रोत/साधन उपलब्ध हो तो टुकडों के समन्वय की आवश्यकता न भी पडे
>>> प्रत्येक दृष्टिकोण में सत्य का टुकडा (अंश ) हो सकता है। पर सम्पूर्ण सत्य तो समान और परस्पर विरोधी दृष्टिकोण के सम्यक विश्लेषण पर ही प्राप्त किया जा सकता है। अनेकांत वही प्रक्रिया है या कहें कि प्रणाली है। उसमें ‘नय’ ‘निक्षेप’ ‘प्रमाण’ और ‘स्याद्वाद’ आदि संशोधन विधाएं है
@- दृष्टिहीन, दृष्टिवान की दृष्टि भले ही न पा सकते हों, सही दृष्टिकोण का लाभ अवश्य उठा सकते हैं।
>>> सही कहा, दृष्टिहीन में सर्वोत्तम दृष्टि युक्त ज्ञान उत्पन्न न भी हो, उपलब्ध इस उपकरण से दृष्टिकोण को निर्मल बना ही सकता है।
@-इसके लिए अपनी सीमाओं को समझना और सीखने और समझने की इच्छा का होना अत्यंत आवश्यक है.
जवाब देंहटाएंराकेश जी,
आपने सही कहा है।
सत्य खोजी प्रत्येक व्यक्ति होता है। पर सत्य के प्रति गम्भीर नहीं होता। ज्ञानियों नें कईं उपकरण दे रखें है। और हम जानते भी है कि सत्य-संशोधन के यह उपकरण काम भी करते है। हम जानते है प्रत्येक दृष्टिकोण पर विचार होना चहिए, जानकारी के आधार पर तो हम इस कहानी के दृष्टिवान ही है। पर वाकई इस टूल को अजमाने का अवसर आता है। हम जल्दबाजी में त्वरित निर्णय ले लेते है। और ऐसा मूल्यवान टूल दिमाग के एक कोने पडा रहता है।
रश्मि प्रभा जी,
जवाब देंहटाएंसत्य है, विवेक बुद्धि और यथार्थ विवेचन जरूरी है।
कुसुमेश जी,
सार्थक चिंतन युक्त शेर है।
अरविन्द जी,
एकांगी दृष्टि (एकांत दृष्टिकोण) और उसी को सर्वस्व मानने की समझ अज्ञान मूलक है। सापेक्षता और स्याद्वाद के सिद्धांत इसी अनेकांतवाद अथवा दृष्टिवाद के अंग है।
@ प्रतुल वशिष्ट जी, प्राचीन 'हिन्दुओं' ने कहा मानव रूप केवल एक माध्यम है, और यह हमारे सौर-मंडल के नवग्रहों, सूर्य से शनि (सूर्य-पुत्र) तक के सार से बना है... यदि सरल भाव यानी ठन्डे दिमाग से सोच सकें तो 'हम' जान पायेंगे कि सूर्य एक शक्तिशाली राजा है जो केंद्र में रह अपने नवग्रहों को अपनी अपनी कक्षा में अपने चारों ओर (इनके अतिरिक्त अन्य ग्रहों को भी) घुमाते चला आ रहा है, केवल ६४ वर्षों से ही नहीं अपितु साढ़े चार अरब वर्षों (४५०,००,००००० वर्षों) से! संकेतों और बिम्बों द्वारा ही संभव है 'सत्य' को जान पाना क्यूंकि काल-चक्र सतयुग से कलियुग की ओर चलता है साढ़े चार अरब वर्षों से, और हम नाटक के पात्र सीमित काल के दौरान ही नाटक देख पाते हैं...
जवाब देंहटाएंयहाँ ध्यान देने वाली बात यह है की 'बाबा' और ‘सरकार’, दोनों कलियुग के ही नहीं अपितु घोर कलियुग के, कृष्णलीला के, पात्र हैं, और हम दृष्टा मात्र...
जिसने पतंग उडाई है वो और अच्छी तरह जानता है कि जब हम पतंग के सीज़न में आसमान की ओर सूरज डूबने से पहले देखें तो हमें सब ओर पतंगें ही दिखाई देंगी (और रात में तो वैसे ही असंख्य तारे सदैव दिखाई देते रहते हैं, काली रात में एक दम साफ़)…
अनुभव के आधार पर हम जानते हैं कि हर पतंग के पीछे एक पतंग उड़ाने वाला होगा जिसने अपने हाथों पर डोर पकड़ी होगी और वो केवल पतंग उड़ाने से ही आनंद उठा नहीं पाता, उन में से कोई न कोई ‘पुरुषोत्तम’ होने का परमानन्द उठाने हेतु, यानि अपना वर्चस्व सिद्ध करने हेतु अन्य पतंगों से पेच लड़ाता है…
और संभव है वो सब पतंगों को लम्बे पेंच लड़ाने के स्थान पर थोड़े से समय में खींच के काटता चला जाये (भागते भूत कि लंगोटी समान!),,, यदि वो अनुभवी हो, उसका मांजा भी सबसे तेज़ हो, और कह सकते हैं उसका भाग्य भी उन दिनों अच्छा चल रहा हो…
किन्तु, जैसे बचपन में, एक शाम मुझे भी (अपने भीतर स्थित कृष्ण की कृपा से?) अपने इलाके में सबसे नामी खींच से काटने वाले एक पतंबाज़ की पतंग काट अपने मित्रों से बधाई पा आनंद की क्षणिक अनुभूति पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ :)
@जे सी जोशी जी,
जवाब देंहटाएंआपका चिंतन भी ला-जवाब है।
अनेकांत किसी उपासना पद्धति का कर्मकाण्ड़ नहीं है। दृष्टिवाद ज्ञान का विषय है। सत्य पर पहुँचने का साधन।
प्राचीन हिन्दु मनिषियों की मनिषा पर जिस वैज्ञानिक साक्ष्यों से आप चिंतन करते है। यह भी अनेकांत के सापेक्षता नियम का अनुगमन है। यह भी एक अनन्य दृष्टिकोण है, सत्य जानने के लिए इस दृष्टिकोण को भी स्थान देना अनेकांतवाद है। दृष्टिवाद है।
@शिल्पा दीदी,
आपके उत्साहित करने पर एक गम्भीर और गूढ विषय पर हाथ आजमाया है। सभी पाठकों के विमर्श से ही सफल प्रयास होगा और प्रयास सफल होगा।
@डॉ वर्षा सिंह जी,
प्रोत्सहन के लिए आभार्।
@वाणी शर्मा जी,
अनुभव पर चिंतन की न्यूनता-अधिकता ही जिम्मेदार है।
@संगीता दीदी,
आलेख को चर्चा मंच प्रदान करने का आभार्।
@बब्ली जी,
प्रोत्सहन के लिए आभार्।
@सदा जी,
आपके आने से संबल मिलता है।
@विद्या जी,
सही ही है, प्रेरणा के लिए आभार्।
@संजय झा जी,
भाई कहानी ही कह लेते, मायूस क्यों कर रहे है। लो आवाज देते ही गुरु हाजिर!! 4 मिनट में?
@प्रतुल जी,
मनोरंजक राजनीति-कथा है। संजय जी आपको ही याद कर रहे थे। तबीयत तो ठीक ही होगी, शुभेच्छा।
@गौरव जी,
आलेख को सार्थक चित्रों से समृद्ध करना आपसे ही सीखा।
सार्थक व सटीक चित्र गूगलबाबा की कृपा से :) और खोज अलग अलग शब्दावली से, कहीं न कहीं मिल ही जाते है वांछित चित्र।
@ @शिल्पा दीदी (nazariya) :) :)
हटाएंजी छोटे भाई सुज्ञ जी :)
:)……… :):)
हटाएंसुज्ञ जी इस पोस्ट पर बहुत देर से आना हुआ और कमेंट्स पढ़कर बहुत लाभ भी पा गया इसलिए कभी-कभी देर भी बेहतर होती है.
जवाब देंहटाएंस्मार्ट इन्डियन ने बहुत बढ़िया लिखा है. उनकी और मेरी सोच अक्सर ही बहुत मिलती है.
और मैं बुद्ध के चिंतन से अत्यंत प्रभावित हूँ इसलिए कहता हूँ कि हमें एकांगी दृष्टिकोण नहीं रखना चाहिए और अंतर्दृष्टि विकसित करनी तहिये ताकि हम वस्तुओं को उनके भिन्न-भिन्न स्वरूप, गुण-धर्म, और प्रत्ययों के अंतर्गत बोधगम्य कर सकें. अनेकान्तवाद का विचार भी ऐसा ही है.
निशांत जी,
जवाब देंहटाएंदेर हुई, अन्धेर नहीं। क्योंकि आपने सत्य उजागर(प्रकाशित)किया।
"ताकि हम वस्तुओं को उनके भिन्न-भिन्न स्वरूप, गुण-धर्म, और प्रत्ययों के अंतर्गत बोधगम्य कर सकें." बिलकुल ऐसा ही है और विस्तृत विवेचित भी।
ओह इतना विचार विमर्श ... अब मैं क्या कहूँ ?
जवाब देंहटाएंबस इतना ही कि अपने अनुभवों के साथ साथ दूसरों की बातों को भी ध्यान से सुनना चाहिए ... साथ ही अधूरी जानकारी पर कोई निष्कर्ष नहीं निकाल लेना चाहिए ...
प्रतुल जी की सरकार पर की गयी टिप्पणी कटु सत्य है
हंसराज जी, "बिना अग्नि के धुंआ नहीं होता"... आज 'मैं' जो कुछ भी विचार, कुछेक अंग्रेजी अथवा हिंदी ब्लोग्स में, रख पा रहा हूँ उन्हें, 'मैं', 'कृष्ण' की कृपा मानता हूँ,,, जो अर्जुन को भी तथाकथित 'परम सत्य', यानि उनके अपने ही विराट स्वरुप 'विष्णु' के अपने ही मन की आँख (शिव की तीसरी आँख) की अनुभूति करा गए :)
जवाब देंहटाएं'स्थान' की विशेषता का पूर्वोत्तर दिशा में - जहां प्रति वर्ष मॉनसून के बादल खींचे चले आते हैं - असम की राजधानी गुवाहाटी (तत्कालीन गौहाटी), जहां कामाख्या माँ का मंदिर स्थापित है, और मणिपुर में भी हुए - (जहां मैंने पाखंग्बा के सर्प रूप को एक रात हाइवे पर अचानक देखा) - कुछ आध्यात्मिक अनुभवों ने 'मुझे' आश्चर्यचकित कर दिया था... उन में से एक घटना जो मुख्य थी, जिसमें 'मेरी' तब लगभग १० वर्षीय तीसरी बेटी ने, जब 'मैं' गौहाटी के (शिव के प्रिय 'बेर का पेड़') बोरझाड एयरपोर्ट के लिए निकला भी नहीं था, मुझसे पूछ लिया, "पापा, आपकी फ्लाईट केंसल हो गयी?" मैंने आश्चर्य चकित हो उसको बताया कि अंकल मुझे एयरपोर्ट ले जाने वाले हैं... और, यद्यपि दिल्ली से हवाई जहाज किसी कारण देरी से आया भी, किन्तु पायलट ने इम्फाल जाने से मना कर दिया!
बहुत देर सोचने पर याद आया कि उसी दिन, तीन वर्ष पूर्व ८ दिसंबर १९७८ को, हमारी माँ का स्वर्गवास दिल्ली में हुआ था! और क्यूंकि हिन्दू मान्यतानुसार मेरे बड़े भाई उनके श्राद्ध आदि का काम देख रहे थे, मैं 'माँ ' (माँ काली/ माँ गौरी के प्रतिरूप?) को भूल चूका था! याद आया कि हमारी माँ भी देवकी समान ८ बच्चों की माँ रही थी (उन दिनों आपको अधिकतर बड़े परिवार दिखना आम था), जिनमें से २ को 'कंस' ने अल्पायु में ही उठा लिया था (किन्तु मुझे बहुत वर्षों पश्चात इसका पता चला था)!...
जहां तक 'वस्तुओं' का सम्बन्ध है, जैशा निशांत जी ने भी कहा, "...ताकि हम वस्तुओं को उनके भिन्न-भिन्न स्वरूप, गुण-धर्म, और प्रत्ययों के अंतर्गत बोधगम्य कर सकें...", उस पर तो 'विज्ञान' के क्षेत्र में बहुत काम हो चूका है, किन्तु "मैं कौन हूँ?" अभी विज्ञान के अंतर्गत नहीं आया है, जबकि प्राचीन 'भारत' में 'हिन्दू' इस विषय पर जा कह गए, "शिवोहम"!...
सबसे पहले इतनी उम्दा बात दृष्टांत और चित्र के माध्यम से एक दम सरल और सुगम्य रूपं में हमारे साथ साझा करने के लिए अभिनंदन स्वीकार करें सर जी| अब आप ने जो प्रश्न पत्र दिया है उस का उत्तर देने का प्रयास करता हूँ, आशा है पासिंग मार्क्स तो मिल ही जाएँगे :)
जवाब देंहटाएं[1] प्रस्तुत दृष्टांत का ध्येय क्या है? - दर्शन शास्त्र का संक्षिप्त परिचय|
[2] इस कथा का अन्तिम सार क्या है? - आँखें मूँद कर कुछ भी मत कहो| देखो, समझो तब बोलो|
[3] विभिन्न प्रतीकों के मायने क्या है? - इस प्रश्न के अंतर्निहित तत्व बहुत ही गूढ हैं, सक्षेप में कहना, फिलहाल मेरे लिए दुष्कर है|
[4] क्या कोई और उदाहरण है जो इसका समानार्थी हो? - हैं तो कई, पर यकायक याद नहीं आ रहे| हाँ कुछ मित्रों ने ऊपर बहुत अच्छे उदाहरण दिये हुए हैं| वो अपर्याप्त नहीं हैं| वैसे शायद रामायण की ये चौपाई फिट बैठ जाये :-
जाकी रही भावना जैसी|
प्रभु मूरत देखी तिन्ह तैसी||
[5] यह दृष्टांत किस तरह के तथ्यों पर लागू किया जा सकता है? - रोज़ रोज़ की बिना मतलब की बहसों पर|
आशा है पासींग मार्क्स तो मिल ही जाने चाहिए :)))))))))))))))))))))
अनेकान्तवाद पर बेहतरीन प्रस्तुति के लिए बधाई ! यह हर जगह लागू हो सकती है ! किसी भी विषय पर भिन्न- भिन्न व्यय्क्ति के भिन्न दृष्टिकोण हो सकते हैं , जो उसकी बुद्धि, वय , क्षमता और अनुभव आधारित होती है और सभी दृष्टिकोण में कुछ न कुछ सत्य अवश्य होता है !
जवाब देंहटाएंहर किसी को किसी चीज़ को देखने का अपना-अपना नज़रिया होता है।
जवाब देंहटाएंआपके ब्लॉग का टेम्पलेट लाजवाब है।
गजब हैआपका ब्लाग भी और इसके टिप्पणीकार भी,चर्चा भी अब तक सात महिनो के ब्लाग प्रवास मे मैने ऐसा ब्लाग नही देखा। ज्ञानियो और साथ रहने पर ज्ञानी नजर आने वाले अनाड़ियों का गजब संगम , पर निश्चित ही आगे मै भी आपके ब्लाग पर नजर सतत बनाये रखूंगा, आखिर ज्ञानी बनना किसको बुरा लगता है खासकर जब बात माडर्न आर्ट की हो तो :) खैर हासिले महफ़िल ब्लागर प्रतुल वशिष्ठ जी हैं। मुझे आपके साथ उनका ब्लाग भी बहुत पसंद आया ।
जवाब देंहटाएंइस विमर्श में भाग लेने वाले सभी विद्वज्जनों का सादर अभिवादन !
जवाब देंहटाएंबंधुओ ! यह सम्पूर्ण सृष्टि मनुष्य की जिज्ञासा का विषय है. इस सृष्टि में जो भी है सबका अपना-अपना सत्य है ...और फिर सभी सत्यों का भी एक अंतिम सत्य है. सृष्टि और उसके विषय अनंत हैं पर उनके प्रति जिज्ञासा रखने वाला मनुष्य ....... सीमित शक्तियों वाला एक प्राणी!
पृथ्वी पर सत्य की खोज में रहने वाला एक ही प्राणी है ...मनुष्य ...जो भटकता रहता है .....अपने-अपने साधनों, अपने-अपने मार्गों और अपनी-अपनी क्षमताओं के साथ ...लगा रहता है सत्य के अन्वेषण में. कभी किंचित कुछ पा गया तो गर्व से फूल गया ....घोषित कर दिया कि मैंने पा लिया है सत्य को. किसी अनुभवी ने सुना तो वह चिंतित हो गया. सोचा, यह तो सत्य के एक अंश भर को ही जान सका है...इसकी आगे की यात्रा रुक जायेगी. पूर्ण सत्य कभी जान ही नहीं सकेगा. एकांगी ज्ञानी को बुलाकर वृद्ध अनुभवी ने एक कल्पित कथा के माध्यम से उसके ज्ञान चक्षु खोलने का प्रयास किया. सुज्ञ जी द्वारा दिया गया दृष्टांत वही है . आशय यह है कि सत्य का सम्यक ज्ञान ...पूर्णान्गी ज्ञान ही कल्याणकारी है ...आंशिक ज्ञान अकल्याणकारी दिशा में ले जा सकता है. आज विभिन्न विषयों में जितने भी शोध हो रहे हैं ...एकांगी हैं ....इसलिए पूर्ण सत्य से परे हैं .....और भटकाव या दोषपूर्ण निर्णयों के कारण बन रहे हैं. जीवन से जुड़े किसी भी क्षेत्र की बात हो ...सत्यानुसंधान का यह निर्दुष्ट साधन हर जगह उपयोगी है. समाज विज्ञान , अर्थशास्त्र ....जीवन विज्ञान ....चिकित्सा शास्त्र ....कोई भी विषय हो, सभी जगह सम्यक ज्ञान की ही अपेक्षा है अन्यथा कभी तो चाय को शरीर के लिए हानिकारक बताया जाएगा तो कुछ ही दिनों बाद उसके एंटी-ओक्सिडेंट गुणों के कारण अत्यंत गुणकारी. आरक्षण को कुछ लोग अच्छा बताएँगे तो कुछ लोग बुरा . किसी के लिए धर्मनिरपेक्षता ही सत्य है तो किसी के लिए धार्मिक होना. धर्म किसी के लिए अफीम है तो किसी के लिए सर्व-कल्याणकारी आचरण का प्राण . दुनिया के सारे विवाद .....सारी लड़ाइयाँ ....सारे मिथ्याचरण ...सारे अपराध ....सारी विसंगतियां इसी "गज-सत्य" के कारण ही हैं .
भारतीय दर्शन हमें सत्यानुसंधान की सही दिशा की ओर ले जाता है. सुज्ञ जी का दिया दृष्टांत मात्र बुद्धिविलास के लिए नहीं है बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में उसकी व्यावहारिक उपादेयता है. एक रोचक बात बताता हूँ. आधुनिक विज्ञानियों ने वानस्पतिक औषधियों के कार्यकारी तत्वों का पता लगाया. फिर सोचा कि पूरी औषधि के स्थान पर क्यों न केवल कार्यकारी तत्वों का ही औषधि के लिए उपयोग किया जाय ! उन्होंने ऐसा ही किया. अब जो परिणाम आये उनसे सभी लोग चौंक गए. औषधि के एकांग सत्य का प्रयोग भी एकांग प्रभावकारी ही सिद्ध हुआ. परिणाम आप सबके सामने है, वानस्पतिक औषधियों से आधुनिक तरीके से विलगायी गयी औषधियां साइड इफेक्ट्स से भरपूर प्रभाव छोड़ रही हैं. अब इसके भी दो परस्पर विरोधी निष्कर्ष निकाले गए १- वानस्पतिक औषधियां मनुष्य के लिए अहितकारी हैं , २- हमें वानस्पतिक औषधियों को उनके सम्पूर्ण रूप में ही प्रयोग में लाना चाहिए ताकि एक्टिव प्रिसिपल्स के अतिरिक्त उनके दुष्प्रभावों को दूर करने वाले अन्य प्रिंसिपल्स के सत्य का भी सदुपयोग किया जा सके. ध्यान दिया जाय, हाथी वाला उदाहरण यहाँ भी प्रयुक्त हो रहा है. चिकित्सा विज्ञान में भी आंशिक सत्यों के आधार पर रोग निवारण के लिए किये जा रहे वर्त्तमान उपायों के उपद्रवों से अब कोई भी अनजान नहीं रह गया है.
जवाब देंहटाएंअभी ताज़ा उदाहरण लीजिये. जापान में आणविक संयत्र में हुयी दुर्घटना के बाद अब पूरे विश्व के वैज्ञानिकों में आणविक ऊर्जा के औचित्य पर फिर से चर्चा चल पड़ी है. इस दुर्घटना का कारण था हाथी के एक अंग को छूकर पूर्ण सत्य जान लेने का भ्रम....और फिर उस आंशिक सत्य के आधार पर ऊर्जा उत्पादन हेतु संयत्र स्थापित करने का लिया गया अकल्याणकारी निर्णय.
अभी कुछ दिन पहले सुश्री हिना रब्बानी पाकिस्तान से यहाँ आयीं. वे अपने राष्ट्रीय हित के सत्य में डूबी रहीं हमारे राष्ट्र नायक अपने स्वप्न सत्य में डूबे रहे ....और संचार माध्यम उनके सौन्दर्य के सत्य में डूबा रहा. ...सब अपने-अपने आंशिक सत्यों में डूबे रहे और मिलकर भारत का बड़ा गर्क करते रहे.
दुर्भाग्य से, ये नितांत वैज्ञानिक सोच वाले और व्यावहारिक दृष्टांत केवल दर्शन के विषय भर बनकर रह गए हैं जबकि इनकी उपादेयता मनुष्य जीवन के हर पक्ष के लिए सदा-सर्वदा है ...और जिनके व्यावहारिक पक्ष से हम सब केवल अपने प्रज्ञापराध के कारण ही वंचित हैं.
"गज-सत्य" के दुष्परिणामों के कारण अब एक नयी अवधारणा को जन्म मिला है ...यह है "होलिस्टिक अप्रोच". सम्यक ज्ञान की प्राप्ति के लिए विज्ञान के क्षेत्र में इस अवधारणा को विशिष्ट सम्मान प्राप्त है.
हम आशा करते हैं कि सुज्ञ जी द्वारा दिए गए जीवन दृष्टांत का सही दिशा में उपयोग किया जाएगा.