19 जनवरी 2015

रघुनाथ पटेल की छास

रघुनाथ पटेल एक छोटे से गांव के मुखिया थे, उनके यहाँ अच्छी संख्या में दूधारु गाय भैस आदि थे। गांव में बाकि लोग तो दूध बेच दिया करते थे, किन्तु बिलौना मात्र रघुनाथ पटेल के यहाँ ही होता था। अतः गांव के लोग अपने जरुरत की छास, रघुनाथ पटेल के यहाँ से ही लाते थे।

 एक बार उस गांव में कोई आचार्य महाराज, अपने शिष्य समुदाय सहित पधारे। जब शिष्य गांव में गोचरी (भिक्षा) के लिए घूमे, उन्हें रघुनाथ पटेल सहित बहुत से घरों से छास प्राप्त हुई। आहार ग्रहण करते हुए शिष्यों नें देखा, सभी घरों से मिली छास अलग अलग है। उन्होने आचार्य महाराज से पूछा, गुरूदेव जब छास का मूल स्रोत एक मात्र रघुनाथ पटेल का घर है तो फिर भी सभी की छास अलग अलग क्यों? स्वाद में इतना भारी अन्तर क्यों?

गुरूदेव ने कहा, निश्चित ही छास तो मूल से रघुनाथ पटेल के बिलौने की ही है। और सभी गांव वाले अपने अपने उपयोग हेतू वहीं से छास लाते है। किन्तु वे उसे घर लाकर, अपनी अपनी आवश्यकता अनुसार उसमें पानी मिलाते है। किसी के कुटुम्ब में सदस्य संख्या अधिक होने के कारण, कोई ज्यादा मिला देते है, तो कोई कम। कोई अपने अपने स्वाद के अनुसार नमक की कम ज्यादा मात्रा मिला देते है, तो कोई भिन्न भिन्न प्रकार के मसाले मिला देते है। इसी कारण छास में यह अन्तर है।

लगे हाथ गुरू नें विभिन्न धर्म दर्शनों में पाए जाने वाले अन्तर के कारण को स्पष्ट किया। गुरू नें कहा, धर्म का मूल स्रोत तो 'रघुनाथ पटेल की छास' समान एक ही है किन्तु लोगों ने अपनी अपनी अवश्यकता, सहजता, अनुकूलता अनुसार भिन्नताएं पैदा कर दी है।

17 जनवरी 2015

मानस अनुकूलन


एक बार कुछ वैज्ञानिकों ने एक बड़ा ही रोचक परीक्षण किया..
उन्होंने पाँच बन्दरों को एक बड़े से पिंजरे में बंद कर दिया और बीचों-बीच एक सीढ़ी लगा दी जिसके ऊपर केले लटक रहे थे..
जैसा की अनुमानित था, एक बन्दर की नज़र केलों पर पड़ी वो उन्हें खाने के लिए दौड़ा..
जैसे ही बन्दर ने कुछ सीढ़ियां चढ़ीं उस पर ठण्डे पानी की तेज धार डाल दी गयी और उसे उतर कर भागना पड़ा..
पर वैज्ञानिक यहीं नहीं रुके,
उन्होंने एक बन्दर के किये गए की सजा बाकी बन्दरों को भी दे डाली और सभी को ठन्डे पानी से भिगो दिया..
बेचारे बन्दर हक्के-बक्के एक कोने में दुबक कर बैठ गए..
पर वे कब तक बैठे रहते,
कुछ समय बाद एक दूसरे बन्दर को केले खाने का मन किया..
और वो उछलता कूदता सीढ़ी की तरफ दौड़ा..
अभी उसने चढ़ना शुरू ही किया था कि पानी की तेज धार से उसे नीचे गिरा दिया गया..
और इस बार भी इस बन्दर के गुस्ताखी की सज़ा बाकी बंदरों को भी दी गयी..
एक बार फिर बेचारे बन्दर सहमे हुए एक जगह बैठ गए...
थोड़ी देर बाद जब तीसरा बन्दर केलों के लिए लपका तो एक अजीब वाकया हुआ..
बाकी के बन्दर उस पर टूट पड़े और उसे केले खाने से रोक दिया, ताकि एक बार फिर उन्हें ठन्डे पानी की सज़ा ना भुगतनी पड़े..
अब वैज्ञानिकों ने एक और मज़ेदार चीज़ की..
पिंजरे के अंदर बंद, बंदरों में से एक को बाहर निकाल दिया और एक नया बन्दर अंदर डाल दिया..
नया बन्दर वहां के नियम नहीं जानता था.
वो तुरंत ही केलों की तरफ लपका..
पर बाकी बंदरों ने झट से उसकी पिटाई कर दी..
उसे समझ नहीं आया कि आख़िर क्यों ये बन्दर ख़ुद भी केले नहीं खा रहे और उसे भी नहीं खाने दे रहे..
ख़ैर उसे भी समझ आ गया कि केले सिर्फ देखने के लिए हैं खाने के लिए नहीं..
इसके बाद वैज्ञानिकों ने एक और पुराने बन्दर को निकाला और नया अंदर कर दिया..
इस बार भी वही हुआ नया बन्दर केलों की तरफ लपका पर बाकी के बंदरों ने उसकी धुनाई कर दी और मज़ेदार बात ये है कि पिछली बार आया नया बन्दर भी धुनाई करने में शामिल था..
जबकि उसके ऊपर एक बार भी ठंडा पानी नहीं डाला गया था!
प्रयोग के अंत में सभी पुराने बन्दर बाहर जा चुके थे और नए बन्दर, अंदर थे जिनके ऊपर एक बार भी ठंडा पानी नहीं डाला गया था..
पर उनका व्यवहार भी पुराने बंदरों की तरह ही था..
वे भी किसी नए बन्दर को केलों को नहीं छूने देते..

अनास्थावादी इसी तरह मानसिक अनूकूलन करते है। आपकी आस्थाओं को, विश्वास को बार बार असफल दर्शाते है। कर्मफल के न्याय के प्रति आपको संदेहग्रस्त बना देते है। आपको यथार्थ भी आडम्बर प्रतीत होने लगता है। कष्टों की बरम्बारता आपके मानस में असफलता को रूढ़ कर देती है। फिर न तो आप सम्यक् आस्थावान रहते है न अपने आसपास के किसी को रहने देते है।

16 जनवरी 2015

अकिंचन


सड़क के किनारे, मिट्टी के बर्तन व कलाकृतियाँ सजा कर, कुम्हार खाट पर पसरा हुआ था।
एक विदेशी उन कलाकृतियों का तन्मयता से अवलोकन कर रहा था। उसने मोल पूछा और कुम्हार ने लेटे लेटे ही मूल्य बता दिया।
विदेशी उसकी लापरवाही से बड़ा क्षुब्ध हुआ। उसे आश्चर्य हो रहा था। उसने कुम्हार को टोकते हुए कहा, “तुम काम में तत्परता दर्शाने के बजाय आराम फरमा रहे हो?”
कुम्हार ने कहा, "जिसको लेना होगा वह तो खरीद ही लेगा, आतुरता से आखिर क्या होगा?"
“इस तरह आराम से पडे रहने से बेहतर है तुम ग्राहकों को पटाओ, उन्हें अपनी यह सुन्दर वस्तुएं बेचो। तुम्हे शायद मालूम ही नहीं तुम्हारी यह कलाकृतियां विशेष और अभिन्न है। अधिक बेचोगे तो अधिक धन कमाओगे।“, विदेशी ने कहा।
कुम्हार ने पूछा, "और अधिक धन कमाने से क्या होगा?"
विदेशी ने समझाते हुए कहा, “तुम अधिक धन कमाकर, इन वस्तुओं का उत्पादन बढा सकते हो, बडा सा शोरूम खोल सकते हो, अपने अधीन कर्मचारी, कारीगर रख कर और धन कमा सकते हो।“
कुम्हार नें पूछा, “फिर क्या होगा?”
"तुम अपने व्यवसाय को ओर बढा सकते हो, देश विदेश में फैला सकते हो, एक बड़ा बिजनस एम्पायर खड़ा कर सकते हो", विदेशी ने कहा।
“उससे क्या होगा”, कुम्हार ने फिर पूछा।
विदेशी ने जवाब दिया, “तुम्हारी बहुत बडी आय होगी, तुम्हारे पास आलिशान सा घर, आरामदायक गाडियां और बहुत सारी सम्पत्ति होगी।“
कुम्हार ने फिर पूछा, “उसके बाद?”
"उसके बाद क्या, उसके बाद तुम आराम से जीवनयापन करोगे, आराम ही आराम, और क्या?"

कुम्हार ने छूटते ही पूछा, "तो अभी क्या कर रहा हूँ? जब इतना उहापोह, सब आराम के लिए ही करना है तब तो मै पहले से ही आराम कर रहा हूँ।"

क्या पाना है, यदि लक्ष्य निर्धारित है, अन्तः सुख प्राप्त करना ही ध्येय है, तो भ्रमित करने वाले छोटे छोटे सुख साधन मृगतृष्णा है। वे साधन मार्गभ्रष्ट कर अनावश्यक लक्ष्य को दूर करने वाले और मार्ग की दूरी बढाने वाले होते है। यदि सुख सहज मार्ग से उपलब्ध हो तो सुविधाभोग, भटकन के अतिरिक्त कुछ नहीं।

19 अगस्त 2014

शहर बनाने के चक्कर में घर बना खण्डहर

एक सेठ जी थे, जो दिन-रात अपना काम-धँधा बढ़ाने में लगे रहते थे। उन्हें तो बस, शहर का सबसे अमीर आदमी बनना था। धीरे-धीरे पर आखिर वे नगर के सबसे धनी सेठ बन ही गए।

इस सफलता की ख़ुशी में उन्होने एक शानदार घर बनवाया। गृह प्रवेश के दिन, उन्होने एक बहुत शानदार पार्टी का आयोजन किया। जब सारे मेहमान चले गए तो वे भी अपने कमरे में सोने के लिए चले आए। थकान से चूर, जैसे ही बिस्तर पर लेटे, एक आवाज़ उन्हें सुनायी पड़ी...

"मैं तुम्हारी आत्मा हूँ, और अब मैं तुम्हारा शरीर छोड़ कर जा रही हूँ !!"

सेठ घबरा कर बोले, "अरे! तुम ऐसा नहीं कर सकती!!, तुम्हारे बिना तो मैं मर ही जाऊँगा। देखो!, मैंने वर्षों के तनतोड़-परिश्रम के बाद यह सफलता अर्जित की है। अब जाकर इस सफलता को आमोद प्रमोद से भोगने का अवसर आया है। सौ वर्ष तक टिके, ऐसा मजबूत मकान मैने बनाया है। यह करोड़ों रूपये का, सुख सुविधा से भरपूर घर, मैंने तुम्हारे लिए ही तो बनाया है!, तुम यहाँ से मत जाओ।"    

आत्मा बोली, "यह मेरा घर नहीं है, मेरा घर तो तुम्हारा शरीर था, स्वास्थ्य ही उसकी मजबूती थी, किन्तु करोड़ों कमाने के चक्कर में, तुमने इसके रख-रखाव की अवहेलना की है। मौज-शौक के कबाड़ तो भरता रहा, पर मजबूत बनाने पर किंचित भी ध्यान नहीं दिया। तुम्हारी गैर जिम्मेदारी ने इस अमूल्य तन का नाश ही कर डाला है।"

आत्मा नें स्पष्ट करते हुए कहा, "अब इसे ब्लड प्रेशर, डायबिटीज, थायरॉइड, मोटापा, कमर दर्द जैसी बीमारियों ने घेर लिया है। तुम ठीक से चल नहीं पाते, रात को तुम्हे नींद नहीं आती, तुम्हारा दिल भी कमजोर हो चुका है। तनाव के कारण, ना जाने और कितनी बीमारियों का घर बन चुका है, ये तुम्हारा शरीर!!"

"अब तुम ही बताओ, क्या तुम किसी ऐसे जर्जरित घर में रहना चाहोगे, जिसके चारो ओर कमजोर व असुरक्षित दीवारें हो, जिसका ढाँचा चरमरा गया हो, फर्नीचर को दीमक खा रही हो, प्लास्टर और रंग-रोगन उड़ चुका हो, ढंग से सफाई तक न होती हो, यहाँ वहाँ गंदगी पड़ी रहती हो। जिसकी छत टपक रही हो, जिसके खिड़की दरवाजे टूटे हों!! क्या रहना चाहोगे ऐसे घर में? नहीं रहना चाहोगे ना!! ...इसलिए मैं भी ऐसे आवास में नहीं रह सकती।"

सेठ पश्चाताप मिश्रित भय से काँप उठे!! अब तो आत्मा को रोकने का, न तो सामर्थ्य और न ही साहस सेठ में बचा था। एक गहरी निश्वास छोड़ते हुए आत्मा, सेठ जी के शरीर से निकल पड़ी... सेठ का पार्थिव बंगला पडा रहा।

मित्रों, ये कहानी आज अधिकांश लोगों की हकीकत है। सफलता अवश्य सर कीजिए, किन्तु स्वास्थ्य की बलि देकर नहीं। अन्यथा सेठ की तरह मंजिल पा लेने के बाद भी, अपनी सफलता का लुत्फ उठाने से वंचित रह जाएँगे!!
 "पहला सुख निरोगी काया"

16 अगस्त 2014

परोपकार

एक बार एक लड़का अपने स्कूल फीस के बंदोवस्त के लिए घरों के द्वार द्वार जाकर कुछ सामान बेचा करता था।

एक दिन उसका कोई सामान नहीं बिका और उसे बड़े जोर से भूख भी लग रही थी। उसने तय किया कि अब वह जिस भी दरवाजे पर जायेगा, उससे खाना मांग लेगा।

पहला दरवाजा खटखटाते ही एक लड़की ने दरवाजा खोला, जिसे देखकर वह घबरा गया और बजाय खाना माँगने के, उसने पानी का एक
गिलास माँगा....

लड़की ने भांप लिया था कि वह क्षुधा संतप्त है, वह एक बड़ा गिलास दूध का ले आई. लड़के ने धीरे-धीरे दूध पी लिया...

"कितने पैसे दूं?" - लड़के ने पूछा।
"पैसे किस बात के?" - लड़की ने प्रतिप्रश्न करते कहा, "माँ ने मुझे सिखाया है कि जब भी किसी पर उपकार करो तो उसके पैसे नहीं लेने चाहिए."

"तो फिर मैं आपको दिल से धन्यवाद देता हूँ."

जैसे ही उस लड़के ने वह घर छोड़ा, उसे न केवल शारीरिक तौर पर शक्ति मिल चुकी थी , बल्कि उसका ईश्वर और मनुष्य पर भरोसा और भी बढ़ गया था।

वर्षों बाद वह लड़की गंभीर रूप से बीमार पड़
गयी। लोकल डॉक्टर ने उसे शहर के बड़े अस्पताल में इलाज के लिए भेज दिया।

विशेषज्ञ डॉक्टर होवार्ड केल्ली को मरीज देखने के लिए बुलाया गया. जैसे ही उसने लड़की के कस्बे का नाम सुना, उसकी आँखों में चमक आ गयी।

वह एकदम सीट से उठा और उस लड़की के कमरे में गया। उसने उस लड़की को देखा, एकदम पहचान लिया और तय कर लिया कि वह उसकी जान बचाने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा देगा। उसकी मेहनत और लग्न रंग लायी और उस लड़की कि जान बच गयी।

डॉक्टर ने अस्पताल के ऑफिस में जा कर उस
लड़की के इलाज का बिल लिया और उस बिल के कोने में एक नोट लिखा और उसे उस लड़की के पास भिजवा दिया।

लड़की बिल का लिफाफा देखकर परेशान हो उठी उसे मालूम था कि वह बीमारी से तो वह उभर गयी है किन्तु बिल की भारी राशि उसकी जान ही ले लेगी। फिर भी उसने हिम्मत बटोर कर बिल देखा, उसकी नज़र बिल के कोने में हस्तलिखित टिपण्णी पर गयी...

वहाँ लिखा था, "एक गिलास भर दूध द्वारा इस बिल का भुगतान किया जा चुका है." नीचे उस डॉक्टर, होवार्ड केल्ली के हस्ताक्षर थे।

आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता के मारे उस लड़की की आँखों से आंसू टपक पड़े। उसने ऊपर की और दोनों हाथ उठा कर कहा, " हे भगवान..! आपका बहुत-बहुत धन्यवाद!!"

हमारे दिल की अनुकम्पा, करुणा और वात्सल्य भी एक नेटवर्क की तरह समाज में प्रसरित होता है।

"परोपकार किसी न किसी स्वरूप में आप तक अवश्य लौटता है।"

15 अगस्त 2014

अनर्थक बोझ

फेसबुक पर एक सुन्दर दृष्टान्त पढ़ने में आया……

एक मनोवैज्ञानिक श्रोताओं को स्ट्रेस मैनेजमेंट समझा रही थी।  बात करते करते उसने पानी का ग्लास उठाया और सवालिया निगाह कमरे में मौजूद लोगों पे घुमाई.. लोग समझे फिर वही पुराना "आधा भरा या आधा खाली" वाला सवाल आएगा!! मगर प्रश्न हुआ, "इस ग्लास का वजन क्या होगा??" किसी ने कहा 50 ग्राम, किसी ने कहा 80.. ज्यादा से ज्यादा 100 ग्राम।

"दरअसल ग्लास का असली भार ज्यादा ध्यान देने लायक नहीं है",  वक्ता ने समझाया, "असली मुद्दा है कि आप इस वजन को कितनी देर उठाए रहते हैं। अगर एक दो मिनट की बात है तो कोई समस्या नहीं, किन्तु घंटे भर में मेरे हाथ में दर्द होने लगेगा। अगर मैं यही वजन दिन भर उठाये रखूँ तो शायद मेरा हाथ सुन्न पड़ जायेगा। किसी भी अवधि में ग्लास का वजन नहीं बदलता, मगर जितनी देर मैं इसे उठाये रखूँ .. मेरे लिए कठिनाई उतनी ही बढ़ जाएगी.."

"जीवन की परेशानियाँ, जीवन के तनाव भी ऐसे ही हैं.. एक दो मिनट की चिंता से अन्तर नहीं पड़ता। लेकिन जैसे जैसे आप ज्यादा देर तक उसे ढोते रहते हैं, आपकी परेशानी बढती जाती है.. अगर दिन भर लगा दें तो सर दर्द हो जाए और ज्यादा लगाया तो और कुछ करने लायक ही नहीं रहते आप.."

"उम्मीद है ग्लास नीचे रखना याद रखेंगे आप!! ... "

यह दृष्टांत केवल तनाव या परेशानियों के बोझ को उतारने के लिए ही नहीं, मोह आसक्ति, आलोचना, कटुवचन, सामान्य से शौक, मामूली लगती बुरी आदतें, अनावश्यक उपभोग, चारित्रिक कमियाँ सभी के लिए यह आदर्श दृष्टांत है........

  • कुछ समय के लिए मोह सुहाता है किन्तु इसे हर समय उठाए रहना अति दुष्कर व दुष्परिणामी बन जाता है।
  • कुछ समय के लिए शौक सुहाता है किन्तु जब ये लत बन जाता है इसका बोझ असहनीय बन जाता है।
  • कुछ समय के लिए मामूली सी बुरी आदतें मनरंजन करती है किन्तु वे जब स्वभाव का हिस्सा बन जाती है, व्यक्तित्व बैठ जाता है।
  • कुछ समय के लिए गैरजरूरी उपभोग आनन्द देता है पर उसका भार हमेशा के लिए ढोया नहीं जा सकता।
  • कुछ समय तक किसी की आलोचना हमारी चतुरता का सुख दे जाती है पर हर समय आलोचना निन्दक स्वभाव सम बोझ बन जाती है।
  • उसी तरह कुछ चारित्रिक कमियाँ जीवन में कुछ समय के लिए सहज सामान्य प्रतीत होती है, यदि लगातार बनी रहे तो चरित्र को ही तोड़ के रख देती है।
इन सभी विकारों का हमारे जीवन में आ जाना सहज है किन्तु इन विकारों के बोझ को ढ़ोते जाना चरित्र को धराशायी कर देता है। इसलिए यह भार असहनीय बने इतना अवसर नहीं देना है।

12 अगस्त 2014

वैचारिक क्षमता

एक राजमहल के द्वार पर एक वृद्ध भिखारी आया। द्वारपाल से उसने कहा, ‘भीतर जाकर राजा से कहो कि तुम्हारा भाई मिलने आया है।’ द्वारपाल ने समझा कि शायद कोई दूर के रिश्ते में राजा का भाई हो। सूचना मिलने पर राजा ने भिखारी को भीतर बुलाकर अपने पास बैठा लिया। उसने राजा से पूछा, ‘कहिए बड़े भाई! आपके क्या हालचाल हैं?’ राजा ने मुस्कराकर कहा, ‘मैं तो आनंद में हूं। आप कैसे हैं?’ भिखारी बोला,  ‘मैं जरा संकट में हूं। जिस महल में रहता हूं, वह पुराना और जर्जर हो गया है। कभी भी टूटकर गिर सकता है। मेरे बत्तीस नौकर थे, वे भी एक एक कर चले गए। पांचों रानियां भी वृद्ध हो गईं। यह सुनकर राजा ने भिखारी को सौ रुपए देने का आदेश दिया। भिखारी ने सौ रुपए कम बताए, तो राजा ने कहा, ‘इस बार राज्य में सूखा पड़ा है।’

तब भिखारी बोला, ‘मेरे साथ सात समंदर पार चलिए। वहां सोने की खदानें हैं। मेरे पैर पड़ते ही समुद्र सूख जाएगा। मेरे पैरों की शक्ति तो आप देख ही चुके हैं।’ अब राजा ने भिखारी को एक हजार रुपए देने का आदेश दिया। भिखारी के जाने के बाद राजा बोला, ‘भिखारी बुद्धिमान था। भाग्य के दो पहलू होते हैं राजा व रंक। इस नाते उसने मुझे भाई कहा। जर्जर महल से आशय उसके वृद्ध शरीर से था, बत्तीस नौकर दांत और पांच रानियां पंचेंद्रीय हैं। समुद्र के बहाने उसने मुझे उलाहना दिया कि, राजमहल में उसके पैर रखते ही मेरा खजाना सूख गया, इसलिए मैं उसे सौ रुपए दे रहा हूं। उसकी बुद्धिमानी देखकर मैंने उसे हजार रुपए दिए और कल मैं उसे अपना सलाहकार नियुक्त करूंगा।’

कई बार अति सामान्य लगने वाले लोग भीतर से बहुत गहन गम्भीर और कुशल होते हैं, इसलिए व्यक्ति की परख उसके बाह्य रहन-सहन से नहीं, बल्कि वैचारिक क्षमता और चातुर्य भरे आचरण से करनी चाहिए।


9 अगस्त 2014

जीवन संघर्ष

क्यों लगता जीवन भार सखे, सहले सब दुख प्रहार सखे।
जीत जीत मत हार सखे, करले निष्फल हर वार सखे॥

माना कि दुर्भागी तुम सा, इस अवनीतल पर एक नहीं।
दुख संकट तुझ पर है सारे, और संग सहारा टेक नहीं।
सभी अहित चाहते तेरा, और कोई ईरादा नेक नहीं।
बस सांसों में साहस भर ले, तू इधर उधर अब देख नहीं।

है सभी पिरोए तेरे ही, कांटों कुसुमों के हार सखे॥
जीत जीत मत हार सखे, करले निष्फल हर वार सखे॥

निश्चय जो हो खुशियों का, क्या दुख दे पाए कोई तुझे?
तेरी अपनी मुस्कान प्रिये, तेरे ही अधरों पर तो सजे।
तेरे ही तानों बानों में, उलझे संकल्प विकल्प अरे!!
ईंधन जब झोके अग्नी में, फिर तू ही बता कैसे वो बुझे?

मत देख पराए दोषों को, तू अपनी ओर निहार सखे॥
जीत जीत मत हार सखे, करले निष्फल हर वार सखे॥

कमियाँ खोज खोज मेरी, करता पग पग पर अपमान।
फजियत का मौक़ा ना चुके, यों रोज बिगाडे मेरे काम।
वह मजे लूटता है मेरे, बस देख देख मुझको परेशान।
श्रेय कामना मेरी अपनी, फिसलती कर से रेत समान।

छोड़ कोसना ओरों को, निज दोष छिद्र परिहार सखे॥
जीत जीत मत हार सखे, करले निष्फल हर वार सखे॥

7 अगस्त 2014

पाखण्डोदय

एक कामचोर भंडारी के कारण राजकोष में बड़ी भारी चोरी हो गई। राजा ने उस भंडारी को तलब किया,और ठीक से जिम्मेदारी न निभाने का कारण पूछा। भंडारी ने उछ्रंखलता से जवाब दिया, "चारों और चोरी बेईमानी फैली है मैं क्या करूँ, मैं तो ईमानदार हूँ।"

राजा ने उसका नाक कटवा कर उसे छुट्टी दे दी। शर्म के मारे वह नकटा किसी दूसरे राज्य में चला गया। लोगों के उपहास से बचने के लिए खुद को साधु बताने लगा। वह चौरे चौबारे प्रवचन देता- "नाक ही अहंकार का मूल है, यह हमारी दृष्टि और ईश्वर के बीच व्यवधान है। ईश्वर के दर्शन में सबसे बड़ी बाधा नाक होती है। इसे हटाए बिना ईश्वर के दर्शन नहीं होते। मैंने वह अवरोध हटा लिया है, मैं ईश्वर के साक्षात दर्शन कर सकता हूँ"

कथनी और करनी की गज़ब एकरूपता देख, लोगों पर उसके प्रवचन का जोरदार प्रभाव पड़ने लगा। लोग तो बस ईश्वर के दर्शन करना चाहते थे, उससे आग्रह करते कि, "भैया हमें भी भगवान् के दर्श करा दो।" वह भक्तों को नाक कटवा आने की सलाह देता। नाक कटवा कर आने वाले चेलों के कान में मंत्र फूंकता, "देखो अब सभी से कहना कि मुझे ईश्वर दिखने लगे है। मैंने तो नकटा न कहलाने के लिए, यही किया था। अगर तुमने कहा कि मुझे तो ईश्वर नहीं दिखते तो लोग नकटा नकटा कहकर तुम्हारा मजाक उडाएंगे,तुम्हारा तिरस्कार करेंगे। इसलिए अब तुम्हारी भलाई इसी में है कि 'नकटा दर्शन' के सिद्धान्त का प्रचार-प्रसार करो और अपने समुदाय की वृद्धि करो। हमारे 'ईश दर्श सम्प्रदाय' में रहकर उपहास मुक्त जीवन यापन कर सकोगे, और इस तरह तुम नकटे होकर भी सम्मान के सहभागी बने रहोगे"

बहुत ही अल्प समय में यह सम्प्रदाय बढ़ने लगा। एक बार नकटे हो जाने के बाद इस सम्प्रदाय में बने रहना और इसके भेद को अक्षुण्ण रखना विवशता हो गई........

5 अगस्त 2014

परोपकार उलट कर स्व-उपकार बनता है।

एक बार पचास लोगों का ग्रुप किसी सेमीनार में हिस्सा ले रहा था। सेमीनार शुरू हुए अभी कुछ ही मिनट बीते थे कि- स्पीकर अचानक ही रुका और सभी पार्टिसिपेंट्स को गुब्बारे देते हुए बोला , ”आप सभी को गुब्बारे पर इस मार्कर से अपना नाम लिखना है।” सभी ने ऐसा ही किया।

अब गुब्बारों को एक दुसरे कमरे में रख दिया गया। स्पीकर ने अब सभी को एक साथ कमरे में जाकर पांच मिनट के अंदर अपना नाम वाला गुब्बारा ढूंढने के लिए कहा। सारे पार्टिसिपेंट्स तेजी से रूम में घुसे और पागलों की तरह अपना नाम वाला गुब्बारा ढूंढने लगे। पर इस अफरा-तफरी में किसी को भी अपने नाम वाला गुब्बारा नहीं मिल पा रहा था… 5 पांच मिनट बाद सभी को बाहर बुला लिया गया।

स्पीकर बोला , ” अरे! क्या हुआ , आप सभी खाली हाथ क्यों हैं ? क्या किसी को अपने नाम वाला गुब्बारा नहीं मिला ?” "नहीं ! हमने बहुत ढूंढा पर हमेशा किसी और के नाम का ही गुब्बारा हाथ आया”, एक पार्टिसिपेंट कुछ मायूस होते हुए बोला।

“कोई बात नहीं , आप लोग एक बार फिर कमरे में जाइये , पर इस बार जिसे जो भी गुब्बारा मिले उसे अपने हाथ में ले और उस व्यक्ति का नाम पुकारे जिसका नाम उसपर लिखा हुआ है।“, स्पीकर ने निर्दश दिया।

एक बार फिर सभी पार्टिसिपेंट्स कमरे में गए, पर इस बार सब शांत थे , और - कमरे में किसी तरह की अफरा- तफरी नहीं मची हुई थी। सभी ने एक दुसरे को उनके नाम के गुब्बारे दिए और तीन मिनट में ही बाहर निकले आये।

स्पीकर ने गम्भीर होते हुए कहा ,” बिलकुल यही चीज हमारे जीवन में भी हो रही है। हर कोई अपने लिए ही जी रहा है , उसे इससे कोई मतलब नहीं कि वह किस तरह औरों की मदद कर सकता है , वह तो बस पागलों की तरह अपनी ही खुशियां ढूंढ रहा है , पर बहुत ढूंढने के बाद भी उसे कुछ नहीं मिलता।

मित्रों हमारा सुख दूसरों के सुख के साथ प्रतिबद्ध है। स्वार्थी मानसिकता त्याग कर दूसरों को अर्पण की गई खुशियाँ हमारी ही ख़ुशी का द्वार होती है। जब हम औरों को उनकी खुशियां देने की प्रवृति बना लेंगे, हमारी खुशियाँ हमें खोजती चली आएगी।

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