23 मई 2011

समता


समता का अर्थ है मन की चंचलता को विश्राम, समान भाव को जाग्रत और दृष्टि को विकसित करें तो ‘मैं’ के सम्पूर्ण त्याग पर समभाव स्थिरता पाता है। समभाव जाग्रत होने का आशय है कि लाभ-हानि, यश-अपयश भी हमें प्रभावित न करे, क्योंकि कर्मविधान के अनुसार इस संसार के रंगमंच के यह विभिन्न परिवर्तनशील दृश्य है। हमें एक कलाकार की भांति विभिन्न भूमिकाओं को निभाना होता है। इन पर हमारा कोई भी नियंत्रण नहीं है। कलाकार को हर भूमिका का निर्वहन तटस्थ भाव से करना होता है। संसार के प्रति इस भाव की सच्ची साधना ही समता है।

समता का पथ कभी भी सुगम नहीं होता, हमने सदैव इसे दुर्गम ही माना है। परन्तु क्या वास्तव में धैर्य और समता का पथ दुष्कर है? हमने एक बार किसी मानसिकता को विकसित कर लिया तो उसे बदलने में वक्त और श्रम लगता है। यदि किसी अच्छी वस्तु या व्यक्ति को हमने बुरा माननें की मानसिकता बना ली तो पुनः उसे अच्छा समझने की मानसिकता तैयार करने में समय लगता है। क्योंकि मन में एक विरोधाभास पैदा होता है,और प्रयत्नपूर्वक मन के विपरित जाकर ही हम अच्छी वस्तु को अच्छी समझ पाएंगे। तब हमें यथार्थ के दर्शन होंगे।

जीवन में कईं बार ऐसे मौके आते है जब हमें किसी कार्य की जल्दी होती है और इसी जल्दबाजी और आवेश में अक्सर कार्य बिगड़ते हुए देखे है। फिर भी क्यों हम धैर्य और समता भाव को विकसित नहीं करते। कईं ऐसे प्रत्यक्ष प्रमाण हमारे सामने उपस्थित होते है जब आवेश पर नियंत्रण, सपेक्ष चिंतन और विवेक मंथन से कार्य सुनियोजित सफल होते है और प्रमाणित होता है कि समता में ही श्रेष्ठता है।

समता रस का पान सुखद होता है। समता जीवन की तपती हुई राहों में सघन छायादार वृक्ष है। जो ‘प्राप्त को पर्याप्त’ मानने लगता है, उसके स्वभाव में समता का गुण स्वतः स्फूरित होने लगता है। समता की साधना से सारे अन्तर्द्वन्द्व खत्म हो जाते है, क्लेश समाप्त हो जाते है। उसका समग्र चिंतन समता में एकात्म हो जाता है। चित्त में समाधि भाव आ जाता है।

21 टिप्‍पणियां:

  1. समता की साधना से सारे अन्तर्द्वन्द्व खत्म हो जाते है, क्लेश समाप्त हो जाते है। उसका समग्र चिंतन समता में एकात्म हो जाता है। चित्त में समाधि भाव आ जाता है।
    kitni achhi baat kahi hai ...vyavahaar me lana chahiye

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  2. धैर्य जीवन की सफ़लता का राज है, सुंदर भाव

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  3. सुज्ञजी, समता भाव लाना बहुत ही दुष्‍कर कर्म है। जब कोई आप पर सीधे ही आक्रमण करदे तब भी आप समता रखें, बहुत कठिन हो जाता है। लेकिन जब यह भाव सधने लगता है जब अनावश्‍यक वाद-विवाद से आप बच जाते हैं। मैंने समता भाव को साधने का बहुत प्रयास किया है, मुझे स्‍वयं पर आश्‍चर्य भी होता है। लेकिन कभी-कभी अति होने पर धैर्य साथ छोड़ भी देता है। ब्‍लाग पर यह भाव बहुत काम आता है, कुछ लोग पूर्वाग्रह से ग्रसित होते हैं, वे मौका तलाशते हैं कि कैसे आपपर वार करें, लेकिन मै अधिकतर ऐसे प्रसंगों पर शान्‍त रहने का ही प्रयास करती हूँ।

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  4. कुछ लोग पूर्वाग्रह से ग्रसित होते हैं, वे मौका तलाशते हैं कि कैसे आपपर वार करें, लेकिन मै अधिकतर ऐसे प्रसंगों पर शान्‍त रहने का ही प्रयास करती हूँ।

    अजित जी,

    शान्त रहने के संघर्ष में चिंतन करें तो पाएंगे कि अधिक परेशानी तो वार करने वाले को हुई है। यह बात हमारे शान्त चित्त में योगदान देगी।

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  5. आजकल समता के विषय में 'सेक्युलर' शब्द सुनने में आता है, जिसे कुछ 'सर्व धर्म सम भाव' द्वारा समझाते हैं... जैसा वर्तमान में भी देखने को मिलता है मूषक से पर्वत तक, जीव से निर्जीव तक, विभिन्न देवता की पूजा,,,

    प्राचीन 'भारत' में जब शायद 'हिन्दू' ही इस भूमि में रहते थे, स्वतंत्रता रही होगी आप को कि आप बिना रोक टोक किस प्रकार सर्वमान्य निराकार परमात्मा तक अंतर्मुखी हो किसी भी माध्यम द्वारा पहुँच सकते हैं (अथवा पहुँचने का प्रयास कर सकते हैं)... किन्तु इसे, द्वैतवाद को, भले-बुरे को, काल का प्रभाव ही माना गया मानव की अपने ही अंश आत्मा की परीक्षा हेतु निराकार ब्रह्म द्वारा रचित 'माया' के कारण... जिस कारण गीता में भी कृष्ण को कहते दर्शाया गया कि वो यद्यपि सभी साकार के भीतर विराजमान है किन्तु प्रत्येक मानव का कर्तव्य है कि वो दुःख- सुख में, सर्दी-गर्मी में एक सा ही व्यवहार करे, स्थितप्रज्ञ रहे और उसमें अपने सभी कर्मों को - सात्विक, राजसिक, तामसिक - आत्म-समर्पण कर दृष्टा भाव से जीवन यापन करे, क्यूंकि फल तो उसने पहले से ही निर्धारित किया हुआ है :)...किन्तु कलियुग में यदि 'हम' इसे कठिन समझते हैं तो यह भी स्वभाविक ही है, काल का ही प्रभाव है...काल-चक्र में प्रवेश पा आत्मा को विभिन्न कर्मों को करना ही पड़ेगा, किसी को भी छूट नहीं है :)

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  6. @ परन्तु क्या वास्तव में धैर्य और समता का पथ दुष्कर है?

    सुज्ञ जी ! यह पथिक पर निर्भर करता है कि किस पथ पर चलने की ...कितनी क्षमता उसमें है . यह उसका आकलन है कि पथ कौन सा दुष्कर है. इसमें एकरूप सिद्धांत नहीं बनाया जा सकता ...क्योंकि यह व्यवहारवाद का विषय है. यद्यपि सत्य यही है कि स्थितिप्रज्ञता के भाव से किया गया अभिनय ही श्रेयस्कर पथ है. किन्तु मानसिक गुणों का क्या करें ! सत-रज-तम गुण के आधार पर ही तो किसी का मेंटल कांस्टीट्यूशन निर्मित होता है ...और फिर वह अपनी इसी मानसवृत्ति के अनुरूप अपना जीवन पथ चुनता है.

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  7. -@"किन्तु मानसिक गुणों का क्या करें ! सत-रज-तम गुण के आधार पर ही तो किसी का मेंटल कांस्टीट्यूशन निर्मित होता है ...और फिर वह अपनी इसी मानसवृत्ति के अनुरूप अपना जीवन पथ चुनता है."

    कौशलेन्द्र जी,
    इस तरह निश्चय (फिक्स)व्यवहार नहीं हो सकता अन्यथा पुरूषार्थ महत्वहीन हो जायेगा। पुरूषार्थ से ही श्रेणि चढकर व्यक्ति तम से रज और रज गुण से सत गुण में प्रवेश पा सकता है। मनोवृत्ति में उत्थान के लिये ही तो पुरूषार्थ कहा गया है और ऐसे ही पुरूषार्थ का एक साधन है समता भाव। पुरूषार्थ सदैव दुष्कर होता है पर असम्भव नहीं।

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  8. दुष्कर तो है, परंतु प्रयास करने में क्या हर्ज़ है? आप जैसे अच्छे लोग याद दिलाते रहेंगे तो काम और आसान हो जायेगा।

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  9. राहुल सिंह जी नें मेल से अभिव्यक्ति दी………

    ''भली बातें, भले विचार''

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  10. बिल्‍कुल सच कहा है आपने ...इस प्रस्‍तुति में ।

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  11. समता का भाव आ जाये तो जीवन सफ़ल हो जाये।

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  12. समता की साधना से सारे अन्तर्द्वन्द्व खत्म हो जाते है, क्लेश समाप्त हो जाते है। उसका समग्र चिंतन समता में एकात्म हो जाता है। चित्त में समाधि भाव आ जाता है।

    Wonderful post !...Very useful one.

    Thanks and regards.

    .

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  13. समता की साधना से सारे अन्तर्द्वन्द्व खत्म हो जाते है, क्लेश समाप्त हो जाते है। उसका समग्र चिंतन समता में एकात्म हो जाता है। चित्त में समाधि भाव आ जाता है।


    स्मार्ट इन्डियन जी की बात दोहरा रहा हूँ ......

    दुष्कर तो है, परंतु प्रयास करने में क्या हर्ज़ है? आप जैसे अच्छे लोग याद दिलाते रहेंगे तो काम और आसान हो जायेगा।

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  14. समता की साधना से सारे अन्तर्द्वन्द्व खत्म हो जाते है, क्लेश समाप्त हो जाते है।

    पर मन में ये समता का भाव लाना...बहुत ही मुश्किल है, अक्सर लोगो के मन में दूसरे से श्रेष्ठता की भावना आ जाती है...पर मन को सुकून देना है तो ये भाव विकसित करने ही होंगे.

    बहुत ही सार्थक चिंतन

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  15. हंसराज भाई बेहद सुन्दर अभिव्यक्ति...बहुत सार्थक चिंतन...

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  16. समता की भावना लाना ही तो कठिन कार्य है ..सार्थक चिंतन

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  17. बहुत ही सुन्दर भाव संजोये हैं !
    मन को छू गया आपका लेख !

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  18. अती उत्तम लेखन ... पर ऐसे भाव लाना बहुत कठिन है ... बहुत तपस्या करनी होती है ...

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  19. समता रस का पान सुखद होता है। .बहुत सराहनीय प्रस्तुति.
    बहुत सुंदर बात कही है इन पंक्तियों में. दिल को छू गयी. आभार !

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