2 जनवरी 2011

दुर्गंध

पुराने समय की बात है, एक राजा अपने नगर का हाल-चाल जानने के लिये नगर भ्रमण को निकला। धुमते हुए चमारों के मोहल्ले में पहूंच गया। वहां चमडे की तीव्र दुर्गंध से उसका सर फटने लगा। गंध असह्य थी। उसने सोचा ऐसी तेज दुर्गंध में यह लोग रहते कैसे होंगे। उसी समय राजा ने सेवक को बुला कर आदेश दे दिया कि अब रोजाना सफाई कामदारो से इस क्षेत्र को साफ कर, पानी से सडकें धुलवाओ और सुगंधित इत्र युक्त जल का छिडकाव करो, जिससे लोग यहां आराम से रह सके।
दूसरे ही दिन प्रातः काल से यह कार्य प्रारम्भ हो गया। चार छः दिन बाद ही सभी चर्मकार इक्कठा हुए और राजदरबार जाने का निश्चित किया। दरबार में पहूंच कर राजा से निवेदन किया कि महाराज हमारा मुहल्ले में रहना दूभर हो गया है, पूरा मुहल्ला दुर्गंध मारता है। इस दुर्गंध के मारे हमारे सर फ़टते है, काम करना मुस्किल हो गया है।
महाराज को कामचोरी का अंदेशा हुआ, उन्होनें तत्काल उस सेवक को बुलाया और पुछा कि आज्ञा का पालन क्यों नहीं हुआ? सेवक कांपते हुए बोला- महाराज नित्य प्रतिदिन सफ़ाई बराबर हो रही है और आपके आदेश का पूरा पालन किया जा रहा है।
चर्मकारों ने कहा- महाराज विश्वास न हो तो आप स्वयं चल कर देख लिजिये, आप तो एक घड़ी भी सह नहीं पाएंगे।
राजा ने तत्काल चलने की व्यवस्था करवाई और चर्मकारो के साथ ही चमारों के मोहल्ले में पहूँचे। वहां जाते ही राजा को कोई दुर्गंध महसुस न हुई, राजा ने चमारो से पुछा- कहाँ है दुर्गंध? चर्मकारों ने कहा- क्या आपको यहां दुर्गंध नहीं लग रही? हमारा तो दुर्गंध के मारे सर फट रहा है। और यह दुर्गंध आपके आदमी ही यहां, रोज रोज फैला के जाते है।
राजा के साथ चल रहे मंत्री को माजरा समझ आ गया, उसने राजा के कान में हक़ीकत बयां कर दी।
हमेशा चमडे की दुर्गंध से अभ्यस्त व्यक्ति को मनभावन सौरभ सुगंध भी प्रायः असह्य लगती है।

29 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही प्रेरणास्‍पद कथा। यही जीवन है।

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  2. सही बात है. माहौल का प्रभाव और अभ्यस्तता.

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  3. बहुत सुन्दर प्रेरणा दायी कहानी है। सूअर से कोई पूछे कि मैले की दुर्गन्ध कैसे सहते होप तो वो कहेगा मेरे लिये तो यही सुगन्ध है। अभयस्तता किसी भी चीज़ की हो वही अच्छी लगती है। आपको सपरिवार नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें।

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  4. सुज्ञ जी! कुछ समय पहले हमने एक ग़ज़ल प्रकाशित की थी,उसका एक शेर उद्धृत करते हैं:
    ठण्डे घरों में करता पसीने का वो हिसाब
    तपती सड़क पे लम्हा इक गुज़ार तो आए!

    पसीने की सुगंध जिसने न अनुभव की हो उसे क्या पता इत्र कितना गँधाती है!!

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  5. आज के समय मे हमारा जीवन भी तो माया की दुर्गंध मे इतना रम गया है कि हमे असली सुगंध (इर्श्वर की राह), दुर्गंध ही दिखायी देती है।
    सुंदर प्रसंग के लिए आभार

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  6. वाह कमाल का एंगल है ..बोथकथा प्रभावित करने वाली है ।
    मेरा नया ठिकाना

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  7. यथास्थिति की अभ्यस्तता ऐसी ही होती है.
    आपको नववर्ष की शुभकामनाएँ...

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  8. अर्थार्त:

    पिछडेपन के अभ्यस्त लोगों को विकास नहीं सुहाता।
    सामिष दुर्गंधी आहार के आदी को सात्विक आहार,घास पत्ती लगते है।
    शराब के शौकिनों को दूध से उल्टियां होती है।
    अशिक्षा से मस्त लोगों को शिक्षित बिगडेल लगते है।
    शारीरिक श्रम करने वालों को बौद्धिक श्रमवान आलसी प्रतीत होते है।
    बुरे कर्मों में रत आत्मा को शुभकर्म करने वाले विक्षिप्त नज़र आते है।

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  9. बहुत सुंदर विचार जी,वैसे एक मित्र जब यहाण नये नये आये थे वो भी कुछ इसी आंदाज मे बोले थे, आप का लेख पढ कर उन की बात याद आ गई, धन्यवाद

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  10. पिछडेपन के अभ्यस्त लोगों को विकास नहीं सुहाता।
    सामिष दुर्गंधी आहार के आदी को सात्विक आहार,घास पत्ती लगते है।
    शराब के शौकिनों को दूध से उल्टियां होती है।
    अशिक्षा से मस्त लोगों को शिक्षित बिगडेल लगते है।
    शारीरिक श्रम करने वालों को बौद्धिक श्रमवान आलसी प्रतीत होते है।
    बुरे कर्मों में रत आत्मा को शुभकर्म करने वाले विक्षिप्त नज़र आते है।

    ----------------

    बेहद प्रेरणा गयी प्रसंग ! एवं सटीक व्याख्या।

    .

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  11. राज जी,
    @ वैसे एक मित्र जब यहाँ नये नये आये थे वो भी कुछ इसी आंदाज मे बोले थे, आप का लेख पढ कर उन की बात याद आ गई,

    -- क्या हुआ उनका हश्र? जरा ठीक से सावधान करिये न!

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  12. very nice post
    आज समाज की यही सच्चाई है

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  13. हमारी दवा बाजार में जब कोई नया आता है तो उस को दवईयो की गंध आती है जब की हमें तो पता भी नही चलता .
    हा हा हा हा

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  14. .
    .
    .
    सुज्ञ जी,

    *** यह केवल एक मनगढ़न्त सुनीसुनाई कहानी ही है... पशुओं की खालों से चमड़ा बनाने का कार्य जहाँ होता है... वहाँ पर वाकई बहुत दुर्गंध आती है... परंतु आप कानपुर की लेदर इंडस्ट्री के किसी भी वर्कर से जाकर यदि पूछें तो वह आपको बतायेगा कि सुगंधित इत्र से उसे भी सुगंध ही आती है, दुर्गंध नहीं... वह भी काम के बाद रगड़ रगड़ कर साफसुथरा होता है और साफ माहौल में ही रहना चाहता है...

    यह कोई बात हुई, कि सीवर साफ करने वाला सफाई कर्मी तभी खुश रहेगा जब उसके घर व आस पड़ोस में भी बजबजाती नालियाँ हों... साफ सुथरे माहौल में उसके सिर में दर्द हो जायेगा... कैसी घृणित सोच है यह... शर्म आती है मुझे इस सोच पर...

    यह अलग बात है कि राजाओं की कई कई पीढ़ियाँ इसी तरह की मनगढ़न्त कहानियाँ सुनाकर दलित चर्मकारों को अमानवीय परिस्थितियों में रखते रहे... और उन्हें उन अमानवीय स्थितियों के ही लायक/अभ्यस्त बताकर अपने कर्तव्य से मुंह भी मोड़ते रहे...

    यह कहानी क्या प्रेरणा दे रही है मेरे साथियों को ? कोई समझायेगा क्या...

    *** अजित गुप्ता जी की इस पोस्ट पर भाई विचारशून्य ने कहा था...
    "हाँ एक बात मैं यहाँ कहना चाहूँगा की मैंने कई बार यह महसूस किया है की जो लोग मद्यपान नहीं करते या मांसाहारी नहीं है या प्याज लहुसन का प्रयोग नहीं करते जाने क्यों उन लोगों का दृष्टिकोण दूसरों के प्रति (दूसरों से मेरा मतलब है वे लोग जो इन चीजों का प्रयोग करते हैं) "holier than thou " वाला होता है जो मैं समझता हूँ कि नहीं होना चाहिए..."

    तो इस "holier than thou " एटीट्यूड को छोड़िये महाराज



    ...

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  15. प्रवीण जी,

    प्रस्तूत कहानी कोई एतिहासिक गाथा नहीं है,और न ही यह दंतकथा है।
    दृष्टांत मात्र माध्यम है यह बात प्रस्तूत करने का कि कई बार रहन सहन की अभ्यस्तता हमें उसी दशा में रहने को मोहित करती रहती है।
    पुरुषार्थी उससे बाहर भी आते है,सदैव ऐसा ही होता है,यह भावार्थ कही से भी नहीं है। अतः बाकि सभी तर्क अनावश्यक है।
    यहां सुगंध को दुर्गंध साबित करने का कहीं से भी प्रयास नहिं है।

    @'तो इस "holier than thou " एटीट्यूड को छोड़िये महाराज'

    क्या इस तथ्य को उल्टा किया जा सकता है,अर्थार्त मांसाहारी,शराबी कहें कि हम ज्यादा पवित्र है इन मांसाहार और शराब के त्यागीयों से?

    पवित्रता शायद हो न हो, पर त्यागी, भोगीयों से तो सदैव श्रेष्ठ माने जायेंगे। गुड-गोबर को समान मानना भी तो न्याय नहीं। यह विवेक है, कोई अबोध मानसिकता नहीं।

    आभार, इस सार्थक चर्चा के लिये।

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  16. कथा और उसका अर्थ दोनों अच्छा लगा |

    आप की पिछली पोस्ट के विचार बहुत अच्छे लगे थे तो मैंने बिना आप की इजाजत के उसे कॉपी कर अपने भाई बहनों और मित्रो को मेल कर दिया आप का नाम लिख कर | लिंक इसलिए नहीं भेजा , मालूम था की सिर्फ लिंक भेजा तो उनमे से कोई भी उसे ओपन करके नहीं पढ़ेगा, दवाइया लोगों को जबरजस्ती देनी पड़ती है |

    आशा है आप को मेरे इस काम पर बुरा नहीं लगेगा |

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  17. प्रेरक पोस्ट
    जो जैसी स्थिति/वातावरण में रहता है, वहीं उसे सुख है।

    प्रणाम

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  18. अंशुमाला जी,

    यह तो आपने मुझे उपकृत किया, अच्छे विचारों का प्रसार हो, यही बेहतर है। मेरा कुछ भी नहीं होता, मूल तो सदैव ज्ञानियों का होता है।
    आपकी बात सही है, पोलियो खुराक भी घर घर जाकर पिलानी पडती है।

    आभार व्यक्त करता हूँ आपका, भले में भाग रखने के लिये।

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  19. रोज चमडे की दुर्गंध से अभ्यस्त लोगों को यह सुगंध असह्य लग रही थी।
    .

    ऐसे ही जिनको "नफरतों की दुर्गन्ध" की आदत पद गयी है , उनको "अमन और शांति की सुदंध हज़म नहीं हो रही..

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  20. मासूम साहब,

    वास्तविक सुगंध दुर्गंध का फ़ैसला पाठको पर ही क्यों न छोड दें।

    दुखी न हो, कोई एक मात्र आप ही तो नहीं है झंडेबरदार!!

    अमन की बात भी बहुत दूर दिमागों तक जाती है।:) काहे परेशान है।

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  21. सुज्ञ जी शुक्रिया आप के इस यादगार जवाब के लिए.

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  22. पुनः आया और अपनी टिप्‍पणी न पा कर फिर शामिल हो रहा हूं. बेहतर की चाह और प्रयास सब करते है, रुचियां अलग-अलग हो सकती हैं.

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  23. राहुल जी,

    बाहरी पिछडापन हमारी आदतों में शुमार हो जाता है। तब वह आन्तरिक पिछडापन बन जाता है, और वह सुहाने सा लगता है, निश्चित ही वे सफल होते है जो उस आदत से बाहर आते है। वह एक कठिन पुरूषार्थ होता है।

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  24. नव वर्ष की शुभकामनाएं ।

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  25. लजवाब. सूवर को शहद खाने से संतुष्टि नहीं मिलती

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  26. मुम्बई में वर्सोवा नामक गांव है,और मलाड में अक्सा बीच, यहाँ बांस के बंधे लकड़ो पर मछलियाँ सुखाई जाती है, अब हैम तो मछली खाते नहीं है,हमें दुर्गन्ध का आभास होता है,परंतु हमारे कई मित्र उसकी सुगंध लेने शाम को वही टहलने जाते है।

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