3 मई 2013

क्रोध, मान, माया, लोभ.......

पिछली पोस्ट “चार शत्रुओं की पहचान !!” पर आप सभी के शानदार अभिमत मिले. सभी विद्वान मित्रों ने हमारे व्यक्तित्व के शत्रुओं की लगभग यथार्थ पहचान की.

व्यक्तित्व के वह चार शत्रु, मन के चार कषाय भाव है. यथा- क्रोध, मान (मद, अहंकार), माया (छद्म व्यवहार कपट), लोभ (लालच तृष्णा)

काम वस्तुत: उसके विकृत स्वरूप में ही दूषण है. यह अपने सामान्य स्वरूप में विकार नहीं है. एक ब्रह्मचारी के लिए तो काम हर दशा में अनादेय है वहीं, जो एक साथी से वचन बद्ध है या व्रतधारी है, उनके लिए मर्यादित स्वरूप में स्वीकार्य है. वैसे भी काम के प्रति जनसामान्य में सहानुभूति है :) मात्र विकृत स्वरूप से ही वितृष्णा है. अतः इसे सर्वसामान्य कथन के रूप में, व्यक्तित्व का शत्रु नहीं माना जा सकता. तथापि कामविकार को तृष्णा अर्थात लोभ में परिगणित तो माना जाता ही है.

प्रत्येक आत्म के साथ मोह का प्रगाढ बंधन होता है. और ये चार कषाय, मोह से ही सक्रीय होते है. मोह के दो स्वरूप है राग और द्वेष. मोह से ही मन के अनुकूल स्थिति 'राग' है और मोह से ही मन के प्रतिकूल स्थिति 'द्वेष' है. इन चार कषायों में दो 'राग' प्रेरित है और दो 'द्वेष' प्रेरित. माया और लोभ राग प्रेरित है तो क्रोध व मान द्वेष प्रेरित. ‘मोह’ से इतना स्रोत सम्बंध होने के उपरांत भी 'मोह' इन शत्रुओं का पोषक तो है किंतु सीधा दूषण नहीं है. इसलिए व्यक्तित्व के शत्रुओं के रूप में क्रोध, अहंकार, कपट और लोभ को चिन्हित किया जा सकता है.

निसंदेह अहंकार इन चारों में अधिक प्रभावशाली और दुर्जेय है. किंतु यदि मात्र अहंकार को लक्ष कर, उसे ही साधा जाय और शेष तीनो को खुला छोड दिया जाय तो वे अहंकार को सधने नहीं देते. वस्तुतः यह चारों कषाय एक दूसरे पर निर्भर और एक दूसरे के सहयोगी होने के बाद भी अपने आप में स्वतंत्र दूषण है. इसलिए चारों पर समरूप नियंत्रण आवश्यक है. एक को प्रधानता और दूसरे के प्रति जरा सी लापरवाही, उस एक को साधने के लक्ष्य को सिद्ध होने नहीं देती. कह सकते है यह शत्रुओं का घेरा है, जिस शत्रु को कमजोर समझा जाएगा वह निश्चित ही पिछे से वार करेगा. :) चारों के साथ, समरूप संघर्ष आवश्यक है.

अब बात ईर्ष्या और आलस की तो ईर्ष्या ‘अहंकार’ का ही प्यादा है और आलस ‘लोभ’ का प्यादा. यह दोनो भी, उन चार प्रमुख शत्रुओं के अधीनस्त ही है.

यदि हम गौर से देखेंगे तो स्पष्ट हो जाएगा कि क्रोध, घमण्ड, अविश्वसनीयता, और प्रलोभन हमारे व्यक्तित्व को असरदार बनने नहीं देते. और इन चारों के अधीस्त जो भी दूषण आते है वे भी सभी मिलकर हमें नैतिकता के प्रति टिकने नहीं देते.

ये सभी दूषण, कम या ज्यादा सभी में होते है किंतु इनकी बहुत ही मामूली सी उपस्थिति भी विकारों को प्रोत्साहित करने में समर्थ होती है. इसलिए इनको एक्ट में न आने देना, इन्हे निरंतर निस्क्रीय करते रहना या नियंत्रण स्थापित करना ही व्यक्तित्व के लिए लाभदायक है. यदि हमें अपनी नैतिक प्रतिबद्धता का विकास करना है तो हमें इन कषायों पर विजय हासिल करनी ही पडेगी. इन शत्रुओं से शांति समझौता करना (थोडा बहुत चलाना) निदान नहीं है. इन्हें बलहीन करना ही उपाय है. इनका दमन करना ही एकमात्र समाधान है.

अब आप इन चारों के अधीनस्त दुर्गुणों को उजागर करेंगे तो पोस्ट समृद्ध हो जाएगी....

आप ऐसा कोई संस्कार, सदाचार या नैतिक आचरण बताईए जो इन चारों कषायों को शिथिल किए बिना प्राप्त किया जा सकता है?

इस श्रेणी में अगली पोस्ट ‘क्रोध’ ‘मान’ ‘माया’ ‘लोभ’ प्रत्येक पर स्वतंत्र पोस्ट प्रस्तुत करने का प्रयास होगा.

इस शृंखला मे देखें क्रमशः
1-‘क्रोध’
2-‘मान’
3-‘माया’
4-‘लोभ’

30 अप्रैल 2013

चार शत्रुओं की पहचान !!

नमस्कार!! 

आज चर्चा छेडने का भाव है, व्यक्तित्व विकास के विषय पर.  मुझे प्रतीत होता है हमारे व्यक्तित्व के चार बडे शत्रु है जो हमारे व्यक्तित्व, हमारे चरित्र को सर्वप्रिय बनने नहीं देते. 

मैंने थोडा सा चिंतन किया तो बडा आश्चर्य हुआ कि- विज्ञान - मनोविज्ञान भी इन्हें ही प्रमुख शत्रु मानता है. और गौर किया तो देखा नीति शिक्षा भी इन चारों को अनैतिकता का मूल मानती है. घोर आश्चर्य तो तब हुआ जब दर्शन अध्यात्म भी इन चारों को मानव चरित्र के घोर शत्रु मानता है. और तो और, दंग रह गया जब देखा कि धर्म भी इन चारो को ही पाप प्रेरक कहता रहा.

आगे देखा तो पाया कि छोटे बडे सारे अवगुण इन चार दूषणों के चाकर है. चारों की अपनी अपनी गैंग है. हरेक के अधीन उसकी कक्षा और श्रेणी अनुसार दुर्विचार, दुष्कृत्य कार्यशील है.

क्या आप अनुमान लगा सकते है कि हमारे व्यक्तित्व के या व्यक्ति के चरित्र के यह चार शत्रु कौन है?

आप अपनी अपनी दृष्टि से चार शत्रुओं को उजागर कीजिए, चिन्हित कीजिए, और फिर आप और हम चर्चा विवेचन करते है और इनकी पहचान सुनिश्चित करते है.......

(चर्चा अच्छी जमी तो यह श्रंखला जारी रखेंगे...)
अगली पोस्ट, व्याख्या- क्रोध, मान, माया. लोभ

28 अप्रैल 2013

आभार, हिंदी ब्लॉग जगत........

ब्लॉग जगत में आते ही एक अभिलाषा बनी कि नैतिक जीवन मूल्यों का प्रसार करूँ. लेकिन डरता था पता नहीं प्रगतिशील लोग इसे किस तरह लेंगे. आज के आधुनिक युग में पुरातन जीवन मूल्यों और आदर्श की बात करना परिहास का कारण बन सकता था. लेकिन हिंदी ब्लॉगजगत के मित्रों ने मेरे विचारों को हाथो हाथ लिया. मात्र अनुकूलता की अपेक्षा थी किंतु यहाँ तो मेरी योग्यता से भी कईँ गुना अधिक, आदर व सम्मान मिला, और वो भी अल्पकाल में ही.

इतना ही नहीं, मित्रों के ब्लॉग-पोस्ट पर जा जाकर उनके विचारों के विरुद्ध तीव्र प्रतिघात दिए. जहाँ कहीं भी अजानते ही जीवन- मूल्यों को ठेस पहूँचने का अंदेशा होता, वहाँ चर्चा मेरे लिए अपरिहार्य बन जाती थी. मित्र ऐसी बहस से आहत अवश्य हुए, किंतु उन्होने अपना प्रतिपक्ष रखते हुए भी, समता भाव से मेरे प्रति स्नेह बनाए रखा.

कुल मिलाकर कहुँ तो हिंदी ब्लॉगजगत से मुझे अभिन्न आदर सम्मान मिला. आज मेरे “सुज्ञ” ब्लॉग को तीन वर्ष पूर्ण हुए. इतना काल आप सभी के अपूर्व स्नेह के बूते सम्पन्न किया. सत्कार भूख ने इस प्रमोद को नशा सा बना दिया. तीन वर्ष का समय कब सरक गया, पता भी न चला. यह स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं कि काफी सारा समय जो व्यवसाय या परिवार का था, मैंने यहां उडेल दिया. किंतु मन की शांति भी तो आवश्यक है, यहाँ नहीं तो मैं अपनी रूचियां और रंजन कहीं अन्यत्र प्रतिपूर्ण करता. फिर इस रूचिप्रद कार्य को कुछ समय देना सालता नहीं है. वस्तुतः इस प्रमोद ने मुझे कितने ही तनावो से उबारा है और बहुत से कठिन समय में सहारा बना है. मैं कृतज्ञ हूँ आप सभी के भरपूर स्नेह के लिए.

सभी ब्लॉगर बंधु और पाठक मित्रों का हृदय से कोटि कोटि  आभार

23 अप्रैल 2013

यौनविकारों का बढता प्रदूषण, जिम्मेदार कौन?

1- जब भी ऐसी कोई घटना प्रकाश में आती है, संस्कार व संस्कृति को सप्रयोजन भांडना शुरू हो जाता है. लेकिन संस्कार व संस्कृति को बार बार दुत्कारने के फलस्वरूप, लोगों में दुनिया व समाज की परवाह न करने का भाव जड जमाता है. अनुशासन विहिन भाव को स्वछंदता का खुला मैदान मिल जाता है. ऐसे में मनोविकारी अपनी कामकुंठा को बेहिचक अभिव्यक्त करने का दुस्साहस करता है. मनोविकारी को अवसर देने के लिए जिम्मेदार कौन है? हम ही न?

 2- फिल्म, टीवी आदि मीडिया, ऐसी क्रूर काम-घटनाओं के समाचार द्वारा 'काम' और 'दुख' दोनो को बेचता है. साथ ही बिकने के लिए प्रस्तुति को और भी वीभत्स रूप देता है. मीडिया व विज्ञापन प्रतिदिन, निसंकोच और बेपरवाह होकर, कामविकारों को सहजता से प्रस्तुत करते है. परिणाम स्वरूप कामतृष्णा और कामविकारों को सहज सामान्य मनवा लिया जाता है. संयम को दमित कुंठा और उछ्रंखलता को प्राकृतिक चित्रित किया जाता है. इस प्रकार मनोविकार आम चलन में आते है उपर से तुर्रा यह कि यौनाचारों को उपेक्षित रखे,  बच कर रहे तो हौवा, टैबू आदि न जाने क्या क्या कहकर, समाज को अविकसित करार दिया जाता है. कहिए कौन है जिम्मेदार?

3- नैतिक शिक्षा तो जैसे बाबाओ के प्रवचन समान परिहास का ही विषय बन गया है. और हम सुधरे हुए लोगों ने नैतिक शिक्षा और आदर्श चरित्र पालन को मजाक बनाने में अपना भरपूर योगदान किया है. आज नैतिक समतावान, सरल और चरित्र प्रतिबद्ध लोग तो किसी फिल्म के कॉमेडी करेक्टर बन कर रह गए है.

4- घर के संस्कार कितने भी दुरस्त रखें जाय, बाहरी रहन सहन , वातावरण के संयोग से विकारों का आना अवश्यंभावी है. शिक्षितों का उछ्रंखल व्यवहार, अशिक्षितों को भी छद्म आधुनिक दिखने को प्रेरित करता है.

5- इंटरनेट पर पसरी वीभत्स अश्लीलता ने  विक्षिप्तता की सीमा पार कर ली है. उन पर आते वीभत्स कामाचार के प्रयोग, रोज रोज पुराने पडते जाते है. खून में उबाल और आवेगों को बढाने के लिए विकार के तीव्र से तीव्रतम प्रयोग होते जाते है, और क्रूर और दुर्दांत. यह पोर्न साईटें, निरंतर और भी हिंसक, दर्दनाक, पीडाकारक दृश्य परोसते है. पीडन से आनंद पाने की विकृत अदम्य तृष्णा. ऐसी पिपासा का किसी भी बिंदु पर शमन नहीं होता, किंतु नशे की खुराक की तरह कामेच्छा और भी क्रूरतम होती चली जाती है.

प्रत्येक कारण को टालने के बजाय सभी के समुच्य पर विचार करना होगा. प्रलोभन से अलिप्त रहकर. पुरूषार्थ में पर्याप्त सम्भावनाएँ है. बस प्रयास ईमानदार होने चाहिए. आप क्या कहते है इन निष्कर्षों पर ?

16 अप्रैल 2013

मैं बेकार क्यों डरुं?

एक मछुआरा समुद्र के तट पर बैठकर मछलियां पकड़ता और अपनी जीविका अर्जित करता।

एक दिन उसके वणिक मित्र ने पूछा, "मित्र, तुम्हारे पिता हैं?"

मछुआरा बोला "नहीं, उन्हें समुद्र की एक बड़ी मछली निगल गई।"

वणिक ने पूछा, "और, तुम्हारा भाई?"

मछुआरे ने उत्तर दिया, "नौका डूब जाने के कारण वह समुद्र की गोद में समा गया।"

वणिक ने दादाजी और चाचाजी के सम्बन्ध में पूछा तो उन्हे भी समुद्र लील गया था।

वणिक ने कहा, "मित्र! यह समुद्र तुम्हारे परिवार के विनाश का कारण है, इस बात को जानते हुए तुम यहां बराबर आते हो! क्या तुम्हें मरने का डर नहीं है?"

मछुआरा बोला, "भाई, मौत का डर किसी को हो या न हो, पर वह तो आयगी ही। तुम्हारे घरवालों में से शायद इस समुद्र तक कोई नहीं आया होगा, फिर भी वे सब कैसे चले गये? मौत कब आती है और कैसे आती है, यह आज तक कोई भी नहीं समझ पाया। फिर मैं बेकार क्यों डरुं?"

वणिक के कानों में भगवान् महावीर की वाणी गूंजने लगी-"नाणागमो मच्चुमुहस्स अत्थि।" मृत्यु का आगमन किसी भी द्वार से हो सकता है।

वज्र-निर्मित मकान में रहकर भी व्यक्ति मौत की जद से नहीं बच सकता, वह तो अवश्यंभावी है। इसलिए प्रतिक्षण सजग रहने वाला व्यक्ति ही मौत के भय से ऊपर उठ सकता है।


बोध कथा: आत्म-चिंतन

13 अप्रैल 2013

अनर्थक जड़-ज्ञान

उस ज्ञान का कोई अर्थ नहीं, जिसके साथ बुध्दि, विवेक, सजगता और सावधानी न हो।

हंस: श्वेतो बक: श्वेतो को भेदो बकहंसयो:।
नीरक्षीरविवेके तु हंस: हंसो बको बक: ॥

रामकृष्ण परमहंस ने अपने शिष्यों से वार्तालाप में एक बार बताया कि ईश्वर द्वारा बनायी गयी इस सृष्टि के कण-कण में परमेश्वर का वास है। अत: प्रत्येक जीव के लिए हमें अपने मन में आदर एवं प्रेम का भाव रखना चाहिए।

एक शिष्य ने इस बात को मन में बैठा लिया। कुछ दिन बाद वह कहीं जा रहा था। उसने देखा कि सामने से एक हाथी आ रहा है। हाथी पर बैठा महावत चिल्ला रहा था - सामने से हट जाओ, हाथी पागल है। वह मेरे काबू में भी नहीं है। शिष्य ने यह बात सुनी; पर उसने सोचा कि गुरुजी ने कहा था कि सृष्टि के कण-कण में परमेश्वर का वास है। अत: इस हाथी में भी परमेश्वर होगा। फिर वह मुझे हानि कैसे पहुँचा सकता है ? यह सोचकर उसने महावत की चेतावनी पर कोई ध्यान नहीं दिया। जब वह हाथी के निकट आया, तो परमेश्वर का रूप मानकर उसने हाथी को साष्टांग प्रणाम किया। इससे हाथी भड़क गया। उसने शिष्य को सूंड में लपेटा और दूर फेंक दिया। शिष्य को बहुत चोट आयी।

वह कराहता हुआ रामकृष्ण परमहंस के पास आया और बोला - आपने जो बताया था, वह सच नहीं है। यदि मुझमें भी वही ईश्वर है, जो हाथी में है, तो उसने मुझे फेंक क्यों दिया ? परमहंस जी ने हँस कर पूछा - क्या हाथी अकेला था ? शिष्य ने कहा - नहीं, उस पर महावत बैठा चिल्ला रहा था कि हाथी पागल है। उसके पास मत आओ। इस पर परमहंस जी ने कहा - पगले, हाथी परमेश्वर का रूप था, तो उस पर बैठा महावत भी तो उसी का रूप था। तुमने महावत रूपी परमेश्वर की बात नहीं मानी, इसलिए तुम्हें हानि उठानी पड़ी।

कथा का अभिप्राय यह है कि प्रत्येक धारणा को, उसमें निहित विचार को विवेक बुद्धि से ग्रहण करना चाहिए। भक्ति या आदर भाव से ज्यों का त्यों पकड़ना, सरलता नहीं, मूढ़ता है। बेशक! विचार-विलास भरी वक्रता न हो, स्थितप्रज्ञ सम जड़ता भी किसी काम की नहीं है।

6 अप्रैल 2013

सत्य का भ्रम

गलत बात को भी बार-बार सुनने से कैसे भ्रम उत्पन्न होते हैं, इस पर यह रोचक कथा मननीय है।

एक सरल स्वभाव के ग्रामीण ने बाजार से एक बकरी खरीदी। उसने सोचा था कि इस पर खर्च तो कुछ होगा नहीं; पर मेरे छोटे बच्चों को पीने के लिए दूध मिलने लगेगा। इसी सोच में खुशी-खुशी वह बकरी को कंधे पर लिये घर जा रहा था। रास्ते में उसे तीन ठग मिल गये। उन्होंने उसे मूर्ख बनाकर बकरी हड़पने की योजना बनायी और उसके गाँव के रास्ते में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर खड़े हो गये। जब पहले ठग को वह ग्रामीण मिला, तो ठग बोला - "भैया, इस कुतिया को क्यों पीठ पर उठाये ले जा रहे हो ?" ग्रामीण ने उसकी ओर उपेक्षा से देखकर कहा - "अपनी ऑंखों का इलाज करा लो। यह कुतिया नहीं, बकरी है। इसे मैंने आज ही बाजार से खरीदा है।" ठग हँसा और बोला - "मेरी ऑंखें तो ठीक हैं, पर गड़बड़ तुम्हारी ऑंखों में लगती है। खैर, मुझे क्या फर्क पड़ता है। तुम जानो और तुम्हारी कुतिया।"

ग्रामीण थोड़ी दूर और चला कि दूसरा ठग मिल गया। उसने भी यही बात कही - "क्यों भाई, कुतिया को कंधो पर लादकर क्यों अपनी हँसी करा रहे हो। इसे फेंक क्यों नहीं देते ?" अब ग्रामीण के मन में संदेह पैदा हो गया। उसने बकरी को कंधो से उतारा और उलट-पलटकर देखा। पर वह थी तो बकरी ही। इसलिए वह फिर अपने रास्ते पर चल पड़ा।

थोड़ी दूरी पर तीसरा ठग भी मिल गया। उसने बड़ी नम्रता से कहा - "भाई, आप शक्ल-सूरत और कपड़ों से तो भले आदमी लगते हैं; फिर कंधो पर कुतिया क्यों लिये जा रहे हैं ?" ग्रामीण को गुस्सा आ गया। वह बोला - "तुम्हारा दिमाग तो ठीक है, जो इस बकरी को कुतिया बता रहे हो ?" ठग बोला - "तुम मुझे चाहे जो कहो; पर गाँव में जाने पर लोग जब हँसेंगे और तुम्हारा दिमाग खराब बतायेंगे, तो मुझे दोष मत देना।"

जब एक के बाद एक तीन लोगों ने लगातार एक जैसी ही बात कही, तो ग्रामीण को भरोसा हो गया कि उसे किसी ने मूर्ख बनाकर यह कुतिया दे दी है। उसने बकरी को वहीं फेंक दिया। ठग तो इसी प्रतीक्षा में थे। उन्होंने बकरी को उठाया और चलते बने।

यह कथा बताती है कि गलत तथ्यों को बार-बार व बढ़ा चढ़ाकर सुनने में आने से भल-भले विद्वान भी भ्रम में पड़ जाते है।

निसंदेह अपनी कमियों का अवलोकन करना और उन्हें दूर करने के प्रयास करना विकास में सहायक है। किन्तु बार बार उन्ही कमियों की स्मृति में ही डूबे रहना, उन्हें विकराल स्वरूप में पेश करना,समझना और उसी में शोक संतप्त रहना, आशाविहिन अवसाद में जांना है। शोक कितना भी हृदय विदारक हो, आखिर उससे उबरने में ही जीवन की भलाई है। समस्याएं चिंताए कितनी भी दूभर हो, गांठ बांधने, बार बार याद करने से कुछ भी हासिल नहीं होना है। उलट कमियों का निरंतर चिंतन हमें नकारात्मकता के गर्त में गिराता है, सुधार व समाधान तो सकारात्मकता भरी सोच में है, बीती ताहि बिसार के आगे की सुध लेहि!!

भारतीय संस्कृति को आईना बहुत दिखाया जाता है। कुछ तो सूरत सीरत पहले से ही सुदर्शन नहीं थी, उपर से जो भी आया आईना दिखा गया।  पहले पहल पाश्चात्य विद्वानों ने वो आईना दिखाया, हमें अपना ही प्रतिबिंब विकृत नजर आया। बाद में पता चला कि वह आईना ही बेडोल था, अच्छा खासा चहरा भी उसमें विकृत नजर आता था, उपर से बिंब के नाक-नक्स की व्याख्या! कोढ़ में खाज की भाषा!! अब  उन्ही की शिक्षा के प्रमाण-पत्र में  उपहार स्वरूप वही 'बेडोल आईना' हमारे अपनों ने पाया है। अब हमारे स्वजन ही उसे लिए घुमते है, सच बताने को अधीर !! परिणाम स्वरूप उत्पन्न होती है कुतिया उठाए घुमने की हीनता ग्रंथी, बेईमान व्याख्या का ग्लानीबोध!! इस प्रकार सकारात्मक सम्भावनाएं  क्षीण होती चली जाती है।

यह कथाएँ भी देखें :  
सोचविहारी और जडसुधारी का अलाव
अस्थिर आस्थाओं के ठग
बुराई और भलाई
सीख के उपहार

1 अप्रैल 2013

इस जीवन में, उस जीवन में

मृत्यु के बाद जीवन है या नहीँ, स्वर्ग नरक है या नहीं, कर्मफल है या नहीं, पूर्वजन्म पुनर्जन्म है या नहीं और अगर है तो जन्म-मरण से मुक्ति है या नहीँ. ये प्रश्न उन्हें अधिक सालते है जो दिखावा तो सद्कर्म का करते है किंतु उनकी अंतरआत्मा में संशय बना रहता है कि इस तरह के छद्म सद्कर्मों से कर्मफल प्रभावित होते भी होंगे या नहीं. खुदा ना करे ऐसा कोई न्यायाधीश न्यायालय या न्याय व्यवस्था हो जो झूठ मुठ के स्वार्थी छद्म सदाचारों का दूध का दूध और पानी का पानी कर दे?

आस्तिक हो या नास्तिक, जिन्हें अपने विचारों पर संदेह रहित निष्ठा है, किंतु कर्म उनका निष्काम व यथार्थ सदाचरण है, स्वार्थवश शिष्टाचारों का पखण्ड नहीं है, भरमाने की धूर्तता नहीं है तो उसके दोनो हाथ में लड्डू है. यदि यही मात्र जीवन है तो वह सदाचार व त्यागमय व्यक्तित्व के कारण इस भव में प्रशंसित और पूर्ण संतुष्ट जीवन जी लेते है. और अगर जीवन के बाद भी जीवन है तो उन्ही त्यागमय सदाचारों के प्रतिफल में सुफल सुनिश्चित कर लेते है. जिसे कर्मफल ( बुरे का नतीजा बुरा, भले का नतीजा भला) में विश्वास है, चाहे इस जन्म में हो या अगले जन्म में, किसी भी दशा में चिंतित होने की क्या आवश्यकता हो सकती है?

जो यह मानते है कि खाओ पीओ और मौज करो, यही जीवन है, उनके लिए अवश्य समस्या है. जिनका ‘मिलेगा नहीं दुबारा’ मानकर मनमौज और जलसे करना ही लक्ष्य है तो दोनो ही स्थिति में उनका ठगे जाना पक्का है. क्योंकि सद्कर्म पूर्णरूप से त्याग और आत्मसंयम में बसा हुआ है, और उसी स्थिति मेँ यथार्थ सदाचरण हो पाता है. जैसे अर्थ शास्त्र का नियम है कि यदि लाभ के रूप में हमारी जेब में एक रूपया आता है तो कहीं ना कहीं किसी की जेब से एक रूपया जाता ही है, कोई तो हानि उठाता ही है. भौतिक आनंद का भी बिलकुल वैसा ही है, जब हम अपने जीवन के लिए भौतिक आनंद उठाते है तो उसकी प्रतिक्रिया में कहीं न कहीं, कोई न कोई भौतिक कष्ट उठा ही रहा होता है. चाहे हमारी जानकारी में आए या न आए. लेकिन आत्मिक आनंद के साथ ऐसा नहीं है. क्योंकि आत्मिक आनंद, त्याग-संयम व संतोष से उपार्जित किया गया होता है.

यह यथोचित ही है कि इस जीवन को ऐसे जीना है, जैसे दुबारा नहीं मिलने वाला. वह इसलिए कि मनुष्य जन्म दुर्लभ है, बार बार नहीं मिलता. किंतु इस जीवन की समाप्ति भी निश्चित है. मृत्यु अटल सत्य है. इसलिए जीते हुए भी इस सत्य की सतत स्मृति जरूरी है क्योंकि यह स्मृति ही सार्थक, निस्वार्थ, त्यागमय, संयमित सदाचरण का मार्ग प्रशस्त करती है. जिसका लाभ दोनो ही कंडिशन में सुखद रूप से सुरक्षित है.


जीवन का लक्ष्य
मृत्यु स्मृति

28 मार्च 2013

शिष्टाचार

पाश्चात्य देशों में जो 'शिष्टाचार' बहुप्रशंसित है। वह 'शिष्टाचा'र वस्तुतः भारतीय अहिंसक जीवन मूल्यों की खुरचन मात्र है। भारतीय अहिंसक मूल्यों में नैतिकता पर जोरदार भार दिया गया है। पाश्चात्य शिष्टाचार उन्ही नैतिक आचारों के केवल अंश है। पश्चिम ने सभ्यता और विकास के अपने सफर में यह शिष्टाचार, भारतीय अहिंसा के सिद्धांत से ही तो ग्रहण किए है। उनके लिये जितना भी अहिंसा का पालन  "सुविधाजनक" था, इतना अपना लिया। जो दूभर था छोड दिया। परिणाम स्वरूप, उनका वह सहज अहिंसक आचरण,  शिष्टाचार के स्वरूप में स्थापित हो गया।

जबकि भारत में यह अहिंसा पालन और नैतिक आचरण किताबों में कैद और उपदेशों तक सीमित हो गया। क्योंकि पालन बड़ा कठीन था और मानवीय स्वभाव सदैव से सरलतागामी और सुविधाभोगी रहा है। हमें अहिंसा कठिन तप लगने लगी और नैतिकता दुष्कर और दूरह। नैतिक निष्ठा से दूर होकर हम, उस पतन की ओर ढ़लने लगे जो हमें बिना किसी विशेष परिश्रम के, सुखदायक स्थिति में रखता था। इस प्रकार सुविधाभोगी मानस से नैतिक आचरण तो गया ही गया, उसके अंश स्वरूप का शिष्टाचार भी हमारे जीवन से तिरोहित हो गया।

वस्तुतः सदाचरण हमारे जीवन को मंगलमय रखता है। शान्ति फैलाता है और जीवन संघर्ष के कितने ही तनावों से मुक्त रखता है, इसलिए कल्याणकारी है। इसका पालन कठिन है, लेकिन इस गुण के लाभ देखकर इसके प्रति आकर्षण हमेशा ही बना रहता है। इसी कारण पाश्चात्य शिष्टाचार के प्रति हमें अहोभाव होता है। किन्तु सदाचार का मूल ‘अहिंसा’ जो हमारी भारतीय संस्कृति का सुदृढ़ आधार था, हम विस्मृत कर बैठे। हम इतने सुविधाभोगी हो गए कि अहिंसा का विचार भी हमें अव्यवहारिक और अति समान प्रतीत होता है, जबकि शिष्टाचार के प्रति चाहने मात्र को आकर्षण बना रहता है। इसलिए हमें लगता है कि अगर पश्चिम से शिष्टाचार के गुर सीख लिए तो भयो भयो।

अहिंसा गंगोत्री है, सदाचरण और नैतिक आचरण की। उसके प्रबल प्रवाह से घबराकर हमने उसे मुख पर ही बांध दिया है, फिर भी उससे निकलती सदाचार की स्वच्छ धाराएँ है किन्तु उसे भी हमने गंदला कर दिया है। उन्ही धाराओं से अंश रूप भरा शिष्टाचार रूपी छोटी बोतल का पानी हमें सुहाने लगा है।

श्रेष्ठ संस्कृति पर मात्र गर्व लेने से कुछ नहीं होगा। जो गर्विला खजाना था वह तो कबका गर्त में गढ़ चुका है। पुनः श्रम कर खोद निकालना होगा, व्यर्थ धूल कचरा झाड़ना होगा। और दृढ मनोबल से उसे चलन में लाना होगा। कठिनाईयां तो असंख्य आएगी, पहले पहल तो शायद कीमत भी पूरी न मिले। लेकिन अन्ततः सतत उपयोग से आचार-स्मृद्धि आएगी ही। तब उस श्रेष्ठ आचार समृद्धि पर अवश्य गर्व लिया जा सकता है।

हम, पोलिश कर चमकाए गए एक दो ओंस के हीरे पर मोहित हो रहे है जबकि हमारे पास हीरे की पूरी खदान मौजूद है, बस हम उसके अस्तित्व और उपादेयता से अनभिज्ञ है। हमें परख ही नहीं है।

अब अहिंसा और नैतिकता से मुंह बिचकाना छोडिये, वह निधि है, वह हमारी जड़ें है। यह कभी भी गुजरे जमाने की बात नहीं हो सकती। उलट अहिंसा तो सभ्यता, विकास, शान्ति और चिरस्थायी सुख का मेरूदंड़ है।

25 मार्च 2013

अहिंसा के मायने


कई बार लोग अहिंसा की व्याख्या अपने-अपने मतलब के अनुसार करते हैं। पर अहिंसा का अर्थ कायर की तरह चुप बैठना नहीं है।

एक राज्य पर किसी दूर देश के विधर्मी शासक ने एक बार आक्रमण कर दिया। राजा ने अपने सेनापति को आदेश दिया कि सेना लेकर सीमा पर जाये और आक्रमणकारी का मुँहतोड़ उत्तर दे। सेनापति अहिंसावादी था। वह लड़ना नहीं चाहता था। पर राजा का आदेश लड़ने का था। अत: वह अपनी समस्या लेकर परामर्श करने के लिए भगवान बुध्द के पास गया। सेनापति ने कहा, ''युध्द हो पर शत्रु सेना के सैकड़ों सैनिक मारे जायेंगे, क्या यह हिंसा नहीं है ?'' ''हाँ, हिंसा तो है।'' भगवान बोले। ''पर यह बताओ, यदि हमारी सेना ने उनका मुकाबला न किया, तो क्या वे वापस अपने देश चले जायेंगे ?''

''नहीं, वापस तो नहीं जायेंगे।'' सेनापति ने कहा। ''अर्थात वे हमारे देश में निरपराध नागरिकों की हत्या करेंगे। फसल और सम्पत्ति को नष्ट करेंगे ?'' ''हाँ, यह तो होगा ही।'' सेनानायक बोला। ''तो क्या यह हिंसा नहीं होगी ? यदि तुम हिंसा के भय से चुप बैठे रहे, तब हमारे देश के नागरिक मारे जायेंगे। और इस हिंसा का पाप तुम्हारे सिर आयेगा।'' सेनापति ने सिर झुका लिया। ''क्या हमारी सेना आक्रमणकारियों को रोकने में सक्षम है ?'' भगवान ने आगे पूछा। ''जी हाँ। यदि उसे आदेश दिया जाये, तो वह हमलावरों को बुरी तरह मार भगायेगी।'' सेनापति का उत्तर था। ''ऐसी दशा में देश व प्रजा की रक्षा करना ही तुम्हारा परम कर्तव्य है,यही तुम्हारा प्रतिरक्षा धर्म है।'' स्पष्ट है कि अंहिसा का अर्थ कायरता नहीं है। अहिंसा का अर्थ है किसी दूसरे पर अत्याचार न करना। लेकिन यदि कोई हम पर आक्रमण और अत्याचार करे, तो वीरतापूर्वक उसके द्वारा की जाने वाली हिंसा का प्रतिरोध करना।
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