3 जुलाई 2016

कर्मानुसार फलप्राप्ति

एक बार एक राजा एक व्यक्ति के काम से खुश हुआ। उसने उस व्यक्ति को अपने पास बुलाकर कहा कि तेरी मेहनत, वफादारी व हिम्मत से मैं बहुत प्रसन्न हूँ, इसलिए मैं आज तुझे कुछ इनाम देना चाहता हूँ। फिर उसने कहा कि काम तो चाहे तुमने लगभग 500 रुपये जितना किया है पर मैं तुम्हें कुछ इससे अधिक देना चाहता हूँ। वह व्यक्ति बहुत खुश हो रहा था। और राजा ने उससे कहा, आज रात तुम मेरे व्यक्तिगत कमरे में ही गुजारना। वहाँ सब प्रकार का कीमती सामान है, तुम्हे जो चाहिए, वह उसमें से ले लेना परन्तु सुबह 7 बजे कमरा खाली कर देना।

व्यक्ति का तो ख़ुशी का ठिकाना न रहा। वह अपने भाग्य को सराहने लगा और सोचने लगा कि सचमुच, भगवन जब देता है तो छप्पर फाड़कर ही देता है। और वह व्यक्ति रात के ठीक 9 बजे राजा के कमरे में प्रवेश किया। अनेक प्रकार की आलीशान वास्तुअों, कीमती सामान को देख कर उसकी आँखे चमक उठी।वह एक- एक चीज़ को बडे ध्यान से देखता और मन में सोच लेता कि वह यह चीज भी अपने साथ ले जाएगा, वो भी ले जाएगा और इस प्रकार उसने कई वस्तुअों को अपने साथ ले जाने की योजना बना ली। और फिर मन-ही-मन मुस्कुराते हुए सामने बिछे हुए नरम-नरम गद्दों वाले बिस्तर की ओर चल दिया। उसने सोचा कि सारा दिन बहुत काम करके वह थक गया है। तो क्यों न कुछ देर सुस्ता ही लिया जाये और उसके बाद सब सामान इकट्ठा कर सुबह होते ही सामान सहित कमरे से बाहर चला जायेगा ।

यह सोचकर वह उस पलंग पर जाकर चैन से लेट गया। थका हुआ तो था ही, और कुछ ही क्षणों में उसे निद्रा देवी ने घेर लिया। वह सोया रहा, सोया रहा और इतना सोया रहा कि सुबह के 7 बज गए। उसी वक्त राजा के नौकर ने आकर दरवाजा खटखटाया। वह व्यक्ति आँखे मलता हुआ हड़बड़ा कर उठ बैठा। उसने जल्दी से बिस्तरे से उठ कर दरवाजा खोला। नौकर ने कहा समय पूरा हो गया है। उस व्यक्ति ने घड़ी की तरफ देखा और कमरे से बाहर निकलते वक्त सामान तो बाँधकर नहीं रखा था सो एक टेबल लैंप को ही खींचता हुआ ले आया। और किसी से पूछने पर मालूम हुआ कि उस लैम्प की कीमत कुल 500 रुपये ही है। जितना उस व्यक्ति ने काम किया था, उसको उतनी ही प्राप्ति हो गई।

जरा सोचिये सारा कमरा, कीमती सामान, आलीशान वस्तुअों से भरा उस व्यक्ति के समाने था, वह उस में से जितना चाहे उतना ले सकता था परन्तु तकदीर के बिना मनुष्य को कुछ भी प्राप्त नहीं होता। चाहे कारण कोई भी हो जैसे नींद का। परन्तु याद रखना तक़दीर भी अपने ही कर्मो से बनती है। श्रेष्ठ कर्म करने वालो की ही श्रेष्ठ तक़दीर बनती है। और निकृष्ट कर्म या खोटे कर्म करने वाले की खोटी तक़दीर। जैसे उस व्यक्ति ने 500 रुपये का काम किया था और 500 रुपये की ही उसको चीज़ मिल गई।

कितनी भी दौड़ लगाले मानव!! तृष्णा तृप्ति की रिबन नहीं लांघ सकता। कर्म, भाग्य और नियति से तेज दौड़ नहीं है तेरी!!

22 जून 2016

चरित्राभ्यास


एक युवक प्रतिदिन संत का प्रवचन सुनता था। एक दिन जब प्रवचन समाप्त हो गया तो वह संत के समीप गया और बोला, "महाराज! मैं काफी दिनों से आपके प्रवचन सुन रहा हूं, किंतु यहां से जाने के बाद मैं अपने गृहस्थ जीवन में वैसा सदाचरण नहीं कर पाता, जैसा यहाँ से सुनकर जाता हूं। इससे सत्संग के महत्व और प्रभाव पर संदेह भी होने लगता है। बताइए, मैं क्या करूं?"

संत ने युवक को बांस की एक टोकरी देते हुए उसमें पानी भरकर लाने के लिए कहा, युवक टोकरी में जल भरने में असफल रहा।

संत ने यह कार्य निरंतर जारी रखने के लिए कहा, युवक प्रतिदिन टोकरी में जल भरने का प्रयास करता, किंतु सफल नहीं हो पाता। कुछ दिनों बाद संत ने उससेे पूछा, "इतने दिनों से टोकरी में लगातार जल डालने से क्या टोकरी में कोई अंतर नजर आया?"

युवक बोला, "एक फर्क जरूर नजर आया है, पहले टोकरी के साथ मिट्टी जमा होती थी, अब वह साफ दिखाई देती है। कोई गंदगी नहीं दिखाई देती और इसके छेद पहले जितने बड़े नहीं रह गए, वे बहुत छोटे हो गए हैं।"

तब संत ने उसे समझाया, "यदि इसी तरह उसे पानी में निरंतर डालते रहोगे, तो कुछ ही दिनों में ये बांस के तानेबाने फूलकर छिद्र बंद हो जाएंगे और तुम टोकरी में पानी भर पाओगे। इसी प्रकार जो निरंतर सत्संग करते हैं, उनका मन एक दिन अवश्य निर्मल हो जाता है, अवगुणों के छिद्र भरने लगते हैं और टोकरी में गुणों का जल भरने लगता है।"

युवक ने संत से अपनी समस्या का समाधान पा लिया।

निरंतर सत्संग से दुर्जन भी सज्जन हो जाते हैं क्योंकि महापुरुषों की हितकर वाणी उनके मानसिक विकारों को दूर कर, उनमें सदविचारों का आलोक प्रसारित करने में समर्थ बनती है।

करत करत अभ्यास के और जड़मति होत सुजान!!

झंझट

एक संत बहुत दिनों से नदी के किनारे बैठे थे, एक दिन किसी व्यकि ने उससे पुछा, "आप नदी के किनारे बैठे-बैठे क्या कर रहे हैं?"

 संत ने कहा, "इस नदी का जल पूरा का पूरा बह जाए इसका इंतजार कर रहा हूँ।"

व्यक्ति ने कहा, "यह कैसे हो सकता है। नदी तो बहती ही रहती है सारा पानी अगर बह भी जाए तो, आप को क्या करना?"

संत ने कहा, "मुझे उस पार जाना है, सारा जल बह जाए तो मैं चल कर उस पार जा पाऊँगा।"

उस व्यक्ति ने ताना मारते हुए कहा, "आप मूर्खताभरी नासमझ बात कर रहे हैं, ऐसा तो हो ही नही सकता!!"

तब संत ने मुस्कराते हुए कहा, "यह काम तुम लोगों को देख कर ही सीखा है। तुम लोग हमेशा सोचते रहते हो कि जीवन मे थोड़ी बाधाएं कम हो जाएं, कुछ समस्याएँ ख़त्म हो जाय, अलाना-फलाना काम खत्म हो जाए तो सदाचरण, सेवा, साधना, सत्कार्य करेगें!"

"जीवन भी तो प्रवाहमान नदी के समान है यदि जीवन मे तुम यह आशा लगाए बैठे हो, तो मैं इस नदी के पानी के पूरे बह जाने का इंतजार क्यों न करूँ..??"

अभी भी समय है, तृष्णा का अंत नहीं, जीवन के संतोषकाल या उत्तरकाल की प्रतीक्षा न करो, प्रमाद न करो। बनते सदाचरण, सत्कार्य, परहित, परोपकार को समय और श्रम दो। पता नहीं जीवनघट कब रीत जाए.....

21 जून 2016

कर्म और ज्ञान

एक बार एक जंगले में आग लग गई । उसमें दो व्यक्ति फँस गए थे । उनमें से एक अँधा तथा दूसरा लंगड़ा था । दोनों बहुत डर गए ।

अंधे ने आव देखा न ताव बस दौड़ना शुरू कर दिया । अंधे को यह भी ख्याल नहीं रहा की वो आग की तरफ दौड़ रहा था । लंगड़ा उसे आवाज़ देता रहा पर अंधे ने पलटकर जवाब नहीं दिया ।

लंगड़ा आग को अपनी तरफ आती तो देख रहा था पर वह भाग नहीं सकता था । अंत में दोनों आग में जलकर मर गए ।

अंधे ने भागने का कर्म किया था पर उसे ज्ञान नहीं था कि किस तरफ भागना है ।

लंगड़े को ज्ञान था की किस तरफ भागना है पर वो भागने का कर्म नहीं कर सकता था ।

अगर दोनों एक साथ रहते और अँधा लंगड़े को अपने कंधे पर बिठा कर भागता तो दोनों की जान बच सकती थी ।

तात्पर्य:

।। कर्म के बिना ज्ञान व्यर्थ है ।।
।। ज्ञान के बिना कर्म व्यर्थ है ।।

हतं णाणम् क्रिया हीनम्, हतं अन्नाणं ओ क्रिया।
पासन्तो पुंगलो दिट्ठो, ध्यायमाणोय अंधलो ।।

ज्ञानवान है किन्तु क्रिया नहीं है और क्रियावान है किन्तु ज्ञान नहीं है। तो पहला आँखों के होते पंगु (लंगड़े) के समान है। और दूसरा पैरों के रहते अंधे के समान है।

सफलता के लिए ज्ञान और क्रिया दोनो आवश्यक है।

अकेलापन

एक व्यक्ति नितांत ही अकेला पड गया था। उसके स्वजन, मित्र सभी ने उसका साथ छोड दिया। तकरीबन सभी ने उसके साथ विश्वासघात किया था।अकेलेपन ने उसका जीवन, विषाद से भर दिया था।

विषाद एवम् अकेलेपन के निवारण हेतू वह एक विद्वान महात्मा के पास पहुँचा। उसने अपने नीरस जीवन और अकेलेपन की पीड़ा, महात्मा के समक्ष व्यक्त की। अंत में कातर स्वर में अपने अकेलेपन को दूर करने का उपाय बताने के लिए विनंती की।

महात्मा हंसते हुए बोले, "यह तो बहुत ही सरल है। आप बस मेरे समान मित्रो का सर्कल बनालो, मेरे उन मित्रों के रहते, मुझे कभी अकेलापन महसूस नही हुआ। मेरे मित्र कभी भी धोखा नही देते। मेरे वे पाँचो मित्र हमेशा साथ निभाते है।"

उस व्यक्ति ने कहा, "आप बहुत ही भाग्यशाली है, आपको ऐसे सच्चे स्नेही मित्र मिले! सभी का कहाँ ऐसा सौभाग्य होता है? सभी को, आपके मित्रों समान हितैषी मित्र मिल जाए, यह जरूरी भी तो नही।"

महात्मा ने मंद स्मित करते हुए कहा, अरे भाई! तुझे जानकर आश्चर्य होगा कि मेरे उन मित्रों को कोई भी व्यक्ति सरलता से मित्र बना सकता है। वे सभी के प्रेममय, समर्पितभाव से मित्र बनते है, और मनोयोग से मित्रता निभाते भी है।

व्यक्ति ने बड़ी उम्मीद से प्रश्न किया, "क्या वे मेरे भी मित्र बन जाएंगे? क्या वे मेरा साथ भी निभाएंगे?"

महात्मा ने कहा, "ध्यान से सुनो, जिन पाँच मित्रो की मैं बात कर रहा हूँ उनको मित्र बनाने के लिए तुम्हे भी मनोयोग से मेहनत करनी पड़ेगी, दृढ़निश्चय करना होगा। समर्पित मानस बनाना होगा, मित्रता का संकल्प लेना होगा। जब वे एक बार मित्र बन गए तो फिर सदैव के लिए साथ निभायेंगे। प्रतिक्षण सहायता को तत्पर रहेंगे।"

उस व्यक्ति ने उत्साह से कहा, "तब तो आप जल्दी से मुझे उन पाँच मित्रो के नाम बताईए और वे कहाँ मिलेंगे ठिकाना बताईए। मुझे हरहाल में उनके साथ मित्रता करनी है।"

महात्मा ने प्रसन्नता से उन पाँच मित्रो के नाम बताए-

प्रमाणिकता,
सादगी,
सच्चाई,
स्पष्टवादिता,
वचनबद्धता।

और कहा, "इनका ठिकाना है, अंतर्मन-वन मध्य, इन्द्रियविषय नामक झाड़ झंखाड़ के पीछे, निर्मल हृदयस्थल!!

उनसे शीघ्र साक्षात्कार कर और उन्हें अपना मित्र बना, तेरा अकेलापन काफूर हो जाएगा!!"

उस व्यक्ति को अपनी समस्या का समाधान सहज ही मिल गया

16 अप्रैल 2016

स्वाधीन दृष्टी

एक जौहरी के निधन के बाद उसका परिवार संकट में पड़ गया। खाने के भी लाले पड़ गए।
एक दिन उसकी पत्नी ने अपने बेटे को नीलम का एक हार देकर कहा- "बेटा, इसे अपने चाचा की दुकान पर ले जाओ। कहना इसे बेचकर कुछ रुपये दे दो।"
बेटा वह हार लेकर चाचा जी के पास गया।चाचा ने हार को अच्छी तरह से देख परखकर कहा- "बेटा, मां से कहना कि अभी बाजार बहुत मंदा है। थोड़ा रुककर बेचना, अच्छे दाम मिलेंगे।" उसे थोड़े से रुपये देकर कहा कि तुम कल से दुकान पर आकर बैठना।
अगले दिन से वह लड़का रोज दुकान पर जाने लगा और वहां हीरों की परख का काम सीखने लगा। एक दिन वह बड़ा पारखी बन गया। लोग दूर दूर से अपने हीरे की परख कराने आने लगे। एक दिन उसके चाचा ने कहा, बेटा अपनी मां से वह हार लेकर आना और कहना कि अब बाजार बहुत तेज है, उसके अच्छे दाम मिल जाएंगे। मां से हार लेकर उसने परखा तो पाया कि वह तो नकली है। वह उसे घर पर ही छोड़ कर दुकान लौट आया।
चाचा ने पूछा, हार नहीं लाए? उसने कहा, वह तो नकली था। तब चाचा ने कहा, जब तुम पहली बार हार लेकर आये थे, तब मैं उसे नकली बता देता तो तुम सोचते कि आज हम पर बुरा वक्त आया तो चाचा हमारी चीज को भी नकली बताने लगे। आज जब तुम्हें खुद ज्ञान हो गया तो पता चल गया कि हार सचमुच नकली है।
सच यह है कि सम्यक् ज्ञान के अभाव में इस संसार में हम जो भी सोचते, देखते और जानते हैं, सब मिथ्या है।

15 अप्रैल 2016

स्वर्ण बेड़ी

बहुत समय पहले की बात है , एक राजा को उपहार में किसी ने बाज के दो बच्चे भेंट किये । वे बड़ी ही अच्छी नस्ल के थे , और राजा ने कभी इससे पहले इतने शानदार बाज नहीं देखे थे। राजा ने उनकी देखभाल के लिए एक अनुभवी आदमी को नियुक्त कर दिया । जब कुछ महीने बीत गए तो राजा ने बाजों को देखने का मन बनाया , और उस जगह पहुँच गए जहाँ उन्हें पाला जा रहा था । राजा ने...देखा कि दोनों बाज काफी बड़े हो चुके थे और अब पहले से भी शानदार लग रहे हैं ।

राजा ने बाजों की देखभाल कर रहे आदमी से कहा, ” मैं इनकी उड़ान देखना चाहता हूँ , तुम इन्हे उड़ने का इशारा करो । “आदमी ने ऐसा ही किया । इशारा मिलते ही दोनों बाज उड़ान भरने लगे , पर जहाँ एक बाज आसमान की ऊंचाइयों को छू रहा था , वहीँ दूसरा , कुछ ऊपर जाकर वापस उसी डाल पर आकर बैठ गया, जिस से वो उड़ा था । ये देख , राजा को कुछ अजीब लगा “क्या बात है जहाँ एक बाज इतनी अच्छी उड़ान भर रहा है वहीँ ये दूसरा बाज उड़ना ही नहीं चाह रहा ?”, राजा ने सवाल किया। "जी हुजूर , इस बाज के साथ शुरू से यही समस्या है , वो इस डाल को छोड़ता ही नहीं।” राजा को दोनों ही बाज प्रिय थे , और वो दुसरे बाज को भी उसी तरह उड़ना देखना चाहते थे। अगले दिन पूरे राज्य में ऐलान करा दिया गया कि जो व्यक्ति इस बाज को ऊँचा उड़ाने में कामयाब होगा उसे ढेरों इनाम दिया जाएगा।

फिर क्या था , एक से एक विद्वान् आये और बाज को उड़ाने का प्रयास करने लगे , पर हफ़्तों बीत जाने के बाद भी बाज का वही हाल था, वो थोडा सा उड़ता और वापस डाल पर आकर बैठ जाता। फिर एक दिन कुछ अनोखा हुआ , राजा ने देखा कि उसके दोनों बाज आसमान में उड़ रहे हैं। उन्हें अपनी आँखों पर यकिन नहीं हुआ और उन्होंने तुरंत उस व्यक्ति का पता लगाने को कहा जिसने ये कारनामा कर दिखाया था। वह व्यक्ति एक किसान था ।

अगले दिन वह दरबार में हाजिर हुआ । उसे इनाम में स्वर्ण मुद्राएं भेंट करने के बाद राजा ने कहा ,” मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ , बस तुम इतना बताओ कि जो काम बड़े-बड़े विद्वा्न नहीं कर पाये वो तुमने कैसे कर दिखाया । “मालिक ! मैं तो एक साधारण सा किसान हूँ , मैं ज्ञान की ज्यादा बातें नहीं जानता , मैंने तो बस वो डाल काट दी जिस पर बैठने का आदि हो चुका था, और जब वो डाल ही नहीं रही तो वो भी अपने साथी के साथ ऊपर उड़ने लगा।“

दोस्तों, हम सभी ऊँचा उड़ने के लिए ही बने हैं। लेकिन कई बार हम जो कर रहे होते है उसके इतने आदि हो जाते हैं कि अपनी ऊँची उड़ान भरने की, कुछ बड़ा करने की काबिलियत को भूल जाते हैं । यदि आप भी सालों से किसी ऐसे ही काम में लगे हैं जो आपके सही पोटेंशियल के मुताबिक नहीं है तो एक बार ज़रूर सोचिये कि कहीं आपको भी उस डाल को काटने की ज़रुरत तो नहीं जिस पर आप बैठे हुए हैं !!

नकटा दर्शन

एक कामचोर भंडारी के कारण राजकोष में बड़ी भारी चोरी हो गई। राजा ने उस भंडारी को तलब किया,और ठीक से जिम्मेदारी न निभाने का कारण पूछा। भंडारी ने उछ्रंखलता से जवाब दिया, "चारों और चोरी बेईमानी फैली है मैं क्या करूँ, मैं तो ईमानदार हूँ।"

राजा ने उसका नाक कटवा कर उसे छुट्टी दे दी। शर्म के मारे वह नकटा किसी दूसरे राज्य में चला गया। लोगों के उपहास से बचने के लिए खुद को साधु बताने लगा। वह चौरे चौबारे प्रवचन देता- "नाक ही अहंकार का मूल है, यह हमारी दृष्टि और ईश्वर के बीच व्यवधान है। ईश्वर के दर्शन में सबसे बड़ी बाधा नाक होती है। इसे हटाए बिना ईश्वर के दर्शन नहीं होते। मैंने वह अवरोध हटा लिया है, मैं ईश्वर के साक्षात दर्शन कर सकता हूँ"

कथनी और करनी की गज़ब एकरूपता देख, लोगों पर उसके प्रवचन का जोरदार प्रभाव पड़ने लगा। लोग तो बस ईश्वर के दर्शन करना चाहते थे, उससे आग्रह करते कि, "भैया हमें भी भगवान् के दर्श करा दो।" वह भक्तों को नाक कटवा आने की सलाह देता। नाक कटवा कर आने वाले चेलों के कान में मंत्र फूंकता, "देखो अब सभी से कहना कि मुझे ईश्वर दिखने लगे है। मैंने तो नकटा न कहलाने के लिए, यही किया था। अगर तुमने कहा कि मुझे तो ईश्वर नहीं दिखते तो लोग नकटा नकटा कहकर तुम्हारा मजाक उडाएंगे,तुम्हारा तिरस्कार करेंगे। इसलिए अब तुम्हारी भलाई इसी में है कि 'नकटा दर्शन' के सिद्धान्त का प्रचार-प्रसार करो और अपने समुदाय की वृद्धि करो। हमारे 'ईश दर्श सम्प्रदाय' में रहकर उपहास मुक्त जीवन यापन कर सकोगे, और इस तरह तुम नकटे होकर भी सम्मान के सहभागी बने रहोगे"

बहुत ही अल्प समय में यह सम्प्रदाय बढ़ने लगा। एक बार नकटे हो जाने के बाद इस सम्प्रदाय में बने रहना और इसके भेद को अक्षुण्ण रखना प्राथमिकता हो गई........

28 दिसंबर 2015

पाप का गुरू

एक पंडितजी कई वर्षों तक काशी में शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद गांव लौटे. पूरे गांव में शोहरत हुई कि काशी से शिक्षित होकर आए हैं और धर्म से जुड़े किसी भी पहेली को सुलझा सकते हैं.

शोहरत सुनकर एक किसान उनके पास आया और उसने पूछ लिया-, पंडितजी आप हमें यह बताइए कि पाप का गुरु कौन है?

प्रश्न सुन कर पंडितजी चकरा गए. उन्होंने धर्म व आध्यात्मिक गुरु तो सुने थे, लेकिन पाप का भी गुरु होता है, यह उनकी समझ और ज्ञान के बाहर था.

पंडितजी को लगा कि उनका अध्ययन अभी अधूरा रह गया है. वह फिर काशी लौटे. अनेक गुरुओं से मिले लेकिन उन्हें किसान के सवाल का जवाब नहीं मिला.

अचानक एक दिन उनकी मुलाकात एक गणिका (वेश्या) से हो गई. उसने पंडितजी से परेशानी का कारण पूछा, तो उन्होंने अपनी समस्या बता दी.

गणिका बोली- पंडित जी! इसका उत्तर है तो बहुत सरल है, लेकिन उत्तर पाने के लिए आपको कुछ दिन मेरे समीप रहना होगा.

पंडितजी इस ज्ञान के लिए ही तो भटक रहे थे. वह तुरंत तैयार हो गए. गणिका ने अपने पास ही उनके रहने की अलग से व्यवस्था कर दी.

पंडितजी किसी के हाथ का बना खाना नहीं खाते थे. अपने नियम-आचार और धर्म परंपरा के कट्टर अनुयायी थे.

गणिका के घर में रहकर अपने हाथ से खाना बनाते खाते कुछ दिन तो बड़े आराम से बीते, लेकिन सवाल का जवाब अभी नहीं मिला. वह उत्तर की प्रतीक्षा में रहे.

एक दिन गणिका बोली- पंडित जी! आपको भोजन पकाने में बड़ी तकलीफ होती है. यहां देखने वाला तो और कोई है नहीं. आप कहें तो नहा-धोकर मैं आपके लिए भोजन तैयार कर दिया करूं.

पंडितजी को राजी करने के लिए उसने लालच दिया- यदि आप मुझे इस सेवा का मौका दें, तो मैं दक्षिणा में पांच स्वर्ण मुद्राएं भी प्रतिदिन आपको दूंगी.

स्वर्णमुद्रा का नाम सुनकर पंडितजी विचारने लगे. पका-पकाया भोजन और साथ में सोने के सिक्के भी! अर्थात दोनों हाथों में लड्डू हैं.

पंडितजी ने अपना नियम-व्रत, आचार-विचार धर्म सब कुछ भूल गए. उन्होंने कहा- तुम्हारी जैसी इच्छा. बस विशेष ध्यान रखना कि मेरे कमरे में आते-जाते तुम्हें कोई नहीं देखे.

पहले ही दिन कई प्रकार के पकवान बनाकर उसने पंडितजी के सामने परोस दिया. पर ज्यों ही पंडितजी ने खाना चाहा, उसने सामने से परोसी हुई थाली खींच ली.
इस पर पंडित जी क्रुद्ध हो गए और बोले, यह क्या मजाक है?

गणिका ने कहा, यह मजाक नहीं है पंडित जी, यह तो आपके प्रश्न का उत्तर है.
यहां आने से पहले आप भोजन तो दूर, किसी के हाथ का पानी भी नहीं पीते थे,मगर स्वर्ण मुद्राओं के लोभ में आपने मेरे हाथ का बना खाना भी स्वीकार कर लिया.

यह लोभ ही पाप का गुरु है.

इस तरह प्रेस्टिट्यूट गणिका ने अपने चरित्र के अनुरूप करणी द्वारा "ईमानदारी" के स्वधोषित पंडितजी को सत्तालोभ, परदोषदर्शन पाखण्डलोभ का प्रत्यक्ष बोध दिया।

ईमानी पंडित आज भी बिना नहाई धोई गणिका के हाथ की बाईट खाता है, गणिका के घर की खिड़की से धूर्तोपदेश देता है। गणिका की खिड़की पर टकटकी लगाए गाँव का किसान आज भी अपने प्रश्न के उत्तर की प्रतीक्षा में है!!!

24 अक्टूबर 2015

अतुष्ट……असंतुष्ट

एक राजा का जन्मदिन था।
प्रातः जब वह नगर भ्रमण को निकला, तो उसने निश्चय किया कि वह मार्ग में मिलने वाले पहले व्यक्ति को पूरी तरह खुश व संतुष्ट करेगा।
सामने से आता हुआ एक भिखारी दिखा। भिखारी ने राजा सें भीख मांगी, तो राजा ने भिखारी की तरफ एक तांबे का सिक्का उछाल दिया।
सिक्का भिखारी के हाथ से छूट कर नाली में जा गिरा।
भिखारी नाली में हाथ डाल तांबे का सिक्का ढूंढ़ने लगा।
राजा ने उसे बुला कर दूसरा तांबे का सिक्का दिया.
भिखारी ने प्रसन्न होकर वह सिक्का अपनी जेब में रख लिया और वापस जाकर नाली में गिरा सिक्का ढूंढ़ने लगा।
राजा को लगा कि भिखारी बहुत दरिद्र है, उसने भिखारी को पुनः बुलाया और उसे एक चांदी का सिक्का दिया।
भिखारी ने राजा की जय जयकार करते हुए चांदी का सिक्का रख लिया और पुनः दौड़कर नाली में गिरे तांबे वाले सिक्के को ढूंढ़ने लगा।
राजा ने फिर से उसे बुलाया और इस बार भिखारी को एक सोने की मोहर दी।
भिखारी खुशी सें झूम उठा किन्तु शीघ्र ही भाग कर, वह अपना हाथ नाली की तरफ बढ़ाने लगा।
राजा को बहुत ही बुरा लगा। उसके इस व्यवहार पर गुस्सा आया किन्तु सहसा उसे अपना संकल्प स्मरण हो आया। उसे आज पहले मिलने वाले व्यक्ति को पूर्ण खुश एवं संतुष्ट करना है।
उसने भिखारी को निकट बुलाया और कहा कि "मैं तुम्हें अपना आधा राज-पाट देता हूँ, अब तो खुश व संतुष्ट हो जा मेरे बंधू !!!"
भिखारी बोला, "खुश और संतुष्ट तो मैं तभी हो सकूंगा जब नाली में गिरा वह तांबे का सिक्का भी मुझे मिल जायेगा!!"
मानव मन की तृष्णाओं का कोई अंत नहीं होता!
तुच्छ सी वस्तु में भी आसक्त व्यक्ति, बड़ी वस्तु पाकर भी तुष्ट संतुष्ट नहीं होता। यहाँ तक कि वह तुच्छ वस्तु मिल भी जाए, उसका संतुष्ट होना दुष्कर है।
तृष्णा ऐसी आग है जिसमें कितने भी सुख डाल दो, तृप्त होने वाली नहीं।
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भारत की दो बड़ी समस्याएँ भी इसी तृष्णाग्नि का शिकार है। वे किसी भी उपाय से तुष्ट संतुष्ट होने वाली नहीं। यह "सर्वे भवन्तु सुखिनः" संस्कृति का सुखभक्षण करती ही रहेगी।

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