7 मार्च 2015

क्षणजीवी

किसी समय एक व्यापारी माल की बहुत सारी बैलगाड़ियां भर कर साथियों के साथ दुसरे देश में जा रहा था। उसने रास्ते में खर्चे के लिए फुटकर सिक्कों का बोरा एक खच्चर पर लाद रखा था। जंगल में चलते हुए फुटकर सिक्कों का वह बोरा किसी तरह से फट गया और उसमे से बहुत से सिक्के निकल कर बाहर गिर गए।

इसका पता चलने पर उस व्यपारी ने अपनी सभी बैलगाड़ियों को रोक दिया और वो सिक्के इक्कठे करने लगा। साथ के रक्षकों ने उस व्यापारी से कहा “क्यों कौड़ियों के बदले अपने करोड़ों के माल को खतरे में डाल रहे हो ? यहाँ इस खतरनाक जंगल में डाकू व चोरो का बड़ा आतंक है, अत: बैलगाड़ियों को शीघ्र आगे बढ़ने दो। रक्षकों की उचित सलाह को अस्वीकार करते हुए उस व्यपारी ने कहा, “भविष्य का लाभ तो संदिग्ध है, ऐसी दशा में जो कुछ उपलब्ध है उसको छोड़ना उचित नहीं” और वह उन फुटकर सिक्कों को इक्कठा करने में जुट गया।

साथ के अन्य लोग और रक्षक उस व्यापारी के माल से भरी बैलगाड़ियों को वहीँ छोड़, आगे बढ़ गए। व्यापारी सिक्कों को इक्कठा करता रह गया और बाकि सभी साथी उस जंगल से चले गये। उस व्यापारी के साथ रक्षकों को न देखकर, डाकुओं ने उस पर हमला कर दिया और उसका सारा माल लूट लिया।

उस व्यापारी की तरह जो मनुष्य तुच्छ सांसारिक सुखों में आसक्त होकर मोक्ष प्राप्ति के सारे उपाय छोड़ देते हैं वे संसार में अनंतकाल तक भ्रमण करते हुए वैसे ही दुखी होते हैं जैसे कौड़ियों के लोभ में, करोड़ों की संपत्ति लुटा देने वाला वह व्यापारी।

जो अच्छे कर्म के अच्छे प्रतिफल के बारे में शंकित रहते है और येन केन उपलब्ध कैसे भी कर्मों से मजा उठाने की विचारधारा में ही जीते है, उनकी दशा इस व्यापारी के सम होती है। वे शाश्वत सुख के अस्तित्व से संदेहग्रस्त होकर क्षणिक सुख के प्रलोभन में मदहोश हो जाते है

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