
बुढ़िया ने सोचा, एक पथिक अपने घर आया है, चिलचिलाती धूप का समय है, इसे सादा पानी क्या पिलाऊंगी! यह सोचकर उसने अपने खेत में से एक गन्ना तोड़ लिया और उसे निचोड़कर एक गिलास रस निकाल कर राजा के हाथ में दे दिया। राजा गन्ने का वह मीठा और शीतल रस पीकर तृप्त हो गया। उसने बुढ़िया से पूछा, "माई! राजा तुमसे इस खेत का लगान क्या लेता है?"
बुढ़िया बोली, "इस देश का राजा बड़ा दयालु है। बहुत थोड़ा लगान लेता है। मेरे पास बीस बीघा खेत है। उसका साल में एक रुपया लेता है।"
राजा ने सोचा इतने मधुर रस की उपज वाले खेत का लगान मात्र एक रुपया ही क्यों हो! उसने मन में तय किया कि राजधानी पहुंचकर इस बारे में मंत्री से सलाह करके गन्ने के खेतों का लगान बढ़ाना चाहिए। यह विचार करते-करते उसकी आंख लग गई।
कुछ देर बाद वह उठा तो उसने बुढ़ियामाई से फिर गन्ने का रस मांगा। बुढ़िया ने फिर एक गन्ना तोड़ और उसे निचोड़ा, लेकिन इस बार बहुत कम रस निकला। मुश्किल से चौथाई गिलास भरा होगा। बुढ़िया ने दूसरा गन्ना तोड़ा। इस तरह चार-पांच गन्नों को निचोड़ा, तब जाकर गिलास भरा। राजा यह दृश्य देख रहा था। उसने किसान की बूढ़ी मां से पूछा, "बुढ़ियामाई, पहली बार तो एक गन्ने से ही पूरा गिलास भर गया था, इस बार वही गिलास भरने के लिए चार-पांच गन्ने क्यों तोड़ने पड़े, इसका क्या कारण है?"
किसान की मां बोली, " मुझे भी अचम्भा है कारण मेरी समझ में भी नहीं आ रहा। धरती का रस तो तब सूखा करता है जब राजा की नीयत में फर्क आ जाय, उसके मन में लोभ आ जाए। बैठे-बैठे इतनी ही देर में ऐसा क्या हो गया! फिर हमारे राजा तो प्रजावत्सल, न्यायी और धर्मबुद्धि वाले हैं। उनके राज्य में धरती का रस कैसे सूख सकता है!"
बुढ़िया का इतना कहना था कि राजा का चेतन और विवेक जागृत हो गया। राजधर्म तो प्रजा का पोषण करना है, शोषण करना नहीं। तत्काल लगान न बढ़ाने का निर्णय कर लिया। मन ही मन धरती से क्षमायाचना करते हुए बुढ़िया माँ को प्रणाम कर लौट चला।