29 अगस्त 2011

पर्यावरण का अहिंसा से सीधा सम्बंध




पर्यावरण आज विश्व की गम्भीर समस्या हो गई है। प्रकृति को बचाना अब हमारी ज्वलंत प्राथमिकता है। लेकिन प्राकृतिक सन्तुलन को विकृत करने में स्वयं मानव का ही हाथ है। पर्यावरण और प्रदूषण मानव की पैदा की हुई समस्या है। प्रारम्भ में पृथ्वी घने वनों से भरी थी। लेकिन जनसंख्या वृद्धि और मनुष्य के सुविधाभोगी मानस ने, बसाहट,खेती-बाडी आदि के लिए वनों की कटाई शुरू की। औद्योगिकीकरण के दौर में मानव नें पर्यावरण को पूरी तरह अनदेखा कर दिया। जीवों के आश्रय स्थल उजाड़ दिए गये। न केवल वन सम्पदा और जैव सम्पदा का विनाश किया, बल्कि मानव नें जल और वायु को भी प्रदूषित कर दिया। कभी ईंधन के नाम पर तो कभी इमारतों के नाम पर। कभी खेती के नाम पर तो कभी जनसुविधा के नाम पर, मानव प्राकृतिक संसाधनो का विनाशक दोहन करता रहा।

वन सम्पदा में पशु-पक्षी आदि, प्राकृतिक सन्तुलन के अभिन्न अंग होते है। प्रकृति की एक समग्र जैव व्यवस्था होती है। उसमें मानव का स्वार्थपूर्ण दखल पूरी व्यवस्था को विचलित कर देता है। मनुष्य को कोई अधिकार नहीं प्रकृति की उस व्यवस्था को अपने स्वाद, सुविधा और सुन्दरता के लिए खण्डित कर दे। अप्राकृतिक रूप से जब इस कड़ी को खण्डित करने का दुष्कर्म होता है, प्रकृति में विनाशक विकृति उत्पन्न होती है जो अन्ततः स्वयं मानव अस्तित्व के लिए ही चुनौति बन खड़ी हो जाती है। जीव-जन्तु हमारी ही भांति इस प्रकृति के आयोजन-नियोजन का अटूट हिस्सा होते है। वे पूरे सिस्टम को आधार प्रदान करते है। प्रकृति पर केवल मानव का मालिकाना हक़ नहीं है। मानव को समस्त प्रकृति के संरक्षण की शर्तों के साथ ही अतिरिक्त उपयोग बुद्धि मिली है। मानव पर, प्रकृति के नियंत्रित उपयोगार्थ विधानों का आरोपण किया गया है, जिसे हम धर्मोपदेश के नाम से जानते है। वे शर्तें और विधान, यह सुनिश्चित करते है कि सुख सभी को समान रूप से उपलब्ध रहे।

इसीलिए विश्व के सभी धर्मों के प्रणेता व महापुरूष, हिंसा, क्रूरता, जीवों को अकारण कष्ट व पीड़ा देने को गुनाह कहते है। वे प्रकृति के संसाधनों के मर्यादित उपभोग की सलाह देते है। अपरिग्रह का उपदेश देते है। मन वचन काया से संयमित,अनुशासित रहने की प्रेरणा देते है। इसी भावना से वे प्राणी मात्र में अपनी आत्मा सम झलक देखते/दिखलाते है। जब वे कण कण में भगवान होने की बात करते है,तो अहिंसा का ही आशय होता है । सभी को सुख प्रदान करने के उद्देश्य से ही वे यह सूत्र देते है कि ‘आत्मा सो परमात्मा’ या हर जीव में परमात्मा का अंश होता है। यह भी कहा जाता है कि सभी को ईश्वर नें पैदा किया अतः सभी जीव ईश्वर की सन्तान है। इसीलिए जीव-जन्तु, पशु-पक्षियों के साथ दया, करूणा का व्यवहार करनें की शिक्षा दी जाती है। सारी बुराईयां किसी न किसी के लिए पीड़ादायक हिंसा बनती है। अतः सभी सद्गुणों को अहिंसा में समाहित किया जा सकता है। यही धर्म है। यही प्रकृति का धर्म है। यही सुनियोजित जीवन का विधान है। अर्थात्, अहिंसा पर्यावरण का संरक्षण विधान है।

39 टिप्‍पणियां:

  1. sahi kah rahe hain aap sugya ji.paryavaran ko manushay ne apne swarth ke liye samay samay par ujada hai aur aaj usi ka dush parinam vah bhugat raha hai.sarthak post.paryavaran ka ahinsa se seedha sambandh jodne ke liye aapki prastuti sarahniy hai.

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  2. अक्षरश: सही कहा है आपने इस आलेख में ..बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

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  3. शुभ विचार ...........इश्वर आपकी ये ईक्षा पूरी करे ! आमीन !!

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  4. yahi sanskaar to diye gaye the .... per ab hum samjhaye ja rahe hain .... aapne bahut bariki se sab kaha hai

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  5. गहन विश्‍लेषण किया है आपने ...बहुत सही कहा है ... आभार ।

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  6. अहिंसा पर्यावरण का संरक्षण विधान है।

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  7. इस पोस्ट को पढ़ कर एक न्यूज याद आ गई
    ये वाली न्यूज
    http://www.patrika.com/news.aspx?id=631408

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  8. और ये भी
    http://thatshindi.oneindia.in/news/2010/04/21/1271818787.html

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  9. SATEEK BAT KAHI HAI AAPNE -सद्गुणों को अहिंसा में समाहित किया जा सकता है। यही धर्म है। यही प्रकृति का धर्म है। यही सुनियोजित जीवन का विधान है। अहिंसा पर्यावरण का संरक्षण विधान है।

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  10. बहुत बहुत आभार गौरव जी,

    वे दोनों ही खबरें मेरे तर्क को बखुबी पुष्ट करती है।

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  11. मनुष्यों की निरन्तर बढती आबादी पृथ्वी के पर्यावरण का पूर्णतः विनाश कर चुकने के बाद अब तो चन्द्रमा तक पर अपने बसेरे बना लेने हेतु प्रयासरत दिखाई दे रही है और हम समझ सकते हैं कि जब भी ऐसा होगा तब चन्द्रमा पर भी यही विनाश लीला शायद प्रारम्भ हो जावेगी ।

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  12. भारत में क्या होगा, यह सोचकर चिन्तित हूं जहां आदमी कीड़े से भी गयी गुजरी जिन्दगी बसर करता है... पर्यावरण तभी ठीक होगा जब यहां जनसंख्या पर रोक लगेगी अन्यथा यहां आदमी आदमी को ही खाया करेगा..

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  13. नाश तो पूरी पृकृति का हो ही रहा है| इसकी कीमत मानव को जब पता चलेगी तब तक बहुत देर हो चुकी होगी| अभी कुछ माह पूर्व राजस्थान के ही रणथम्बोर का जंगल देखने का मौका मिला| एक असली जंगल क्या होता है, यह पहली बार देखा| एक घना जंगल, अहाँ जानवरों के लिए कोई सीमा नही है| ऐसे नज़ारे अब विरले ही दीखते हैं|

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  14. हमें केवल मानवतावादी विचार को त्‍याग कर अब सृष्टि कं संरक्षण वाले विचारों को स्‍थान देना होगा।

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  15. सही कहा अजित जी,

    हमें अब समस्त सृष्टि पृथ्वी, अग्नी(उर्ज़ा), हलन-चलन करते जीव,स्थूल वनस्पति, वायु और जल तक अहिंसक बन्धुत्व भाव स्थापित करने की आवश्यकता है। जब बन्धुत्व युक्त संरक्षण भाव समस्त सृष्टि तक विस्तृत होगा तो 'मानव बंधुत्व' अपने चरम लक्ष्य को स्वतः प्राप्त कर लेगा।

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  16. Arre haan...Aap ka Blog bahut hi sundar hai...behtariin shaliin sajawat...man bhavan.

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  17. नीरज जी,

    ब्लॉग प्रशंसा के लिए बहुत बहुत आभार!!

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  18. पर्यावरण में अहिंसा का सन्दर्भ बहुत अच्छा लगा। एक नया दृष्टिकोण मिला आज। आभार।

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  19. मानव मस्तिष्क की कार्यप्रणाली विचित्र है, और उसका नियंत्रक भी !... सन '८० फरवरी में मैं अपने चार अन्य पारिवारिक सदस्यों के साथ गुवाहाटी पहुँच गया...ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे बसे होने से बहुत मच्छर थे वहाँ... एक दिन पत्र लिख रहा था तो एक मच्छर हाथ पर बैठ गया... और जैसा आम होता है, मेरा बांया हाथ उठ गया उसे मारने के लिए... किन्तु उस क्षण एक विचार मन में कौंधा, "एक 'वैज्ञानिक' होते हुए भी मैं मच्छर को क्यूँ मारता था, जबकि अपने तत्कालीन ४० + वर्ष की आयु तक मुझे मलेरिया कभी नहीं हुआ था! वो बेचारा तो 'पापी पेट' की खातिर थोडा सा रक्त पीता था!" यह सोच मेरा बांया हाथ नीचे अगया और मैंने उस से कहा "जितना पीना है पीले! मैं हाथ नहीं हिलाऊंगा, नहीं तो तू डर के उड़ जाएगा"... आश्चर्य हुआ जब वो आराम से अब आगे बढ़ ऊँगली पर पहुँच मेरी कलम को धक्का सा मारने लगा! जब मैंने हाथ से कलम नहीं छोड़ा तो अंगूठे के ऊपर पहुँच गया और एक स्थान चुन लगा खून पीने! मैंने सोचा था वो दो चार बूँद खों पी उड़ जाएगा,,, किन्तु जैसे मुफ्त की शराब काजी को भी हलाल होती है वो टंकी फुल करने लगा :) काफी समय निकल गया... फिर एक बार देखा की वो नीचे मेज़ पर उतर चूका था और आगे ऐसे बढ़ रहा था जैसे कोई शराबी चलता है :)

    मैंने सोचा था मेरा निमंत्रण केवल उस मच्छर के लिए था,,, किन्तु उसके बाद जो भी मच्छर आता उसी अंदाज़ से पीता था जैसे वो मेरा अतिथि था (और, 'अतिथि देवो भव'!)...

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  20. सुंदर विश्लेषण ...पूरी तरह सहमत हूँ.....

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  21. वाह,पर्यावरण तो मेरा प्रिय विषय है.
    सुन्दर लिखा है आपने.

    जैसे ही आसमान पे देखा हिलाले-ईद.
    दुनिया ख़ुशी से झूम उठी है,मनाले ईद.
    ईद मुबारक
    कुँवर कुसुमेश

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  22. 'अहिंसा' सिनेमा में भी होती है... मनोज बाजपाई को एक बार कहते सुना था टीवी के किसी कार्यक्रम में,,, कि 'शोले' (अथवा किसी अन्य फिल्म में?) उन्होंने 'अमिताभ बच्चन' अर्थात 'वीरू' को मरते देखा तो उनके मन में ऐसा प्रभाव पड़ा कि वो मानने को तैयार नहीं थे कि वे अमिताभ बच्चन हो सकते हैं जब उन्हें किसी और फिल्म में भी कालांतर में देखा :)

    'हिन्दू' मान्यतानुसार परमेश्वर शून्य काल और स्थान से सम्बंधित है - अकेला,,, और साकार ब्रह्माण्ड उनके मन में ही है, परन्तु क्यूंकि वो अनंत परमज्ञानी हैं, सर्वगुण संपन्न हैं, वो सक्षम हैं अनादि काल से अनंत काल तक 'योग माया' द्वारा रचित सृष्टि के विभिन्न रूपों के माध्यम से अनुभूति कर पाना, अनादि और अनंत काल से दृष्टा भाव से जैसे वो करते आ रहे हैं - वैसे ही जैसे उनके अस्थायी रूपों को भी - थोड़े से काल तक ही भले ही - नाटक देख पाना प्रतीत होता है और 'द्वैतवाद' के कारण, अज्ञानता वश, दुःख - सुख कि अनुभूति करते रहते हैं ...

    इस 'कृष्णलीला' को इसी कारण योगियों ने स्थित्प्रग्य हो (मुनि समान?) देखने का सुझाव दिया (वैसे ही जैसे 'हम' उनके प्रतिबिम्ब समान कोई फिल्म देखते हैं, चुप चाप अँधेरे हौल में, हाथ पर हाथ धर बैठ)...

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  23. आपके विचारों से सहमत होता हूँ और हमेशा कुछ सीखकर ही जाता हूँ..

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  24. पर्यावरण यानी जिससे हम चारों ओर से ढ़के हैं की रक्षा हमारा धर्म है और अहिंसा ही इसे सुरक्षित रख सकती है; अहिंसा यानी हरेक के प्रति प्रेम भाव!

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  25. मनोज जी,

    चार शब्दों में आपने आलेख का सार ही प्रस्तुत कर दिया।

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  26. From a population standpoint, insects rule our planet. Scientists have gotten around to naming almost 900,000 different species of insects, but some experts suggest that there may be as many as 30 million more species that haven't yet been christened [source: Smithsonian]. These same scientists estimate that about 10 quintillion--that's 10 with 18 zeroes behind it--insects are alive on Earth at this very minute...

    See link:
    http://curiosity.discovery.com/topic/importance-of-biodiversity/10-most-important-insects.htm#mkcpgn=fbapl1

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  27. क्षमा प्रार्थी हूँ हंसराज जी, मेरी टिप्पणी छूट गयी थी!!!

    पर्यावरण की बात करें तो, तो यद्यपि 'हम' मानव को राजा मानते हैं, किन्तु क्या यह धारणा सही है?????
    नीचे दिए लिंक से उद्घृत लाइनें दे रहा हूँ जो सहायता करे हमारी सोच को सही दिशा दिखाने में...

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  28. वैज्ञानिकों का मानना है कि केवल मानव ही है जो अपना निर्धारित कार्य नहीं जानता, जबकि पृथ्वी पर अन्य 'निम्न श्रेणी के प्राणी' अपना निर्धारित कार्य किये जा रहे हैं यदि प्राकृतिक शक्तियां सामान्य हों,,, जैसे लैक्टो बैसिलस सामान्यतया दूध का दही बना देगा, यदि बहुत ठण्ड न हो... किन्तु मानव ही ऐसा जीव है (वर्तमान में, या सत युग को छोड़ अन्य युगों में?) जिसको यह पता ही नहीं है कि वो यहाँ, पृथ्वी में, क्यूँ आया हुआ है? / किसके लिए आया हुआ है, आदि आदि ????!!!! जबकि हमारा इतिहास बताता है कि प्राचीन विदेशी सैलानियों ने भारत कि यह विशेषता दर्शाई कि यहाँ आम आदमी भी ऐसे विषय पर चर्चा करता था...

    गीता में यद्यपि हमारे पूर्वज कह गए कि उसका कार्य केवल निराकार ब्रह्म और उसके साकार रूपों को जानना है, न कि निज स्वार्थ पूर्ती करना, पश्चिम की नक़ल कर :(

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  29. जे सी जोशी जी,

    सही कह रहे है आप, मानव प्रकृति के प्रति न केवल अपने कर्तव्य से च्यूत हुआ। बल्कि उसका अंधाधुंध अपव्यय भी किया।

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  30. जब में स्कूल में ही था तो केरल के अग्रहारम सरीखे मकानों में १० + वर्ष रहने के पश्चात पिताजी को बड़ी कोठी मिल गयी... वहाँ पीछे आउट हाउसेस थे और एक बड़ा मैदान भी था... गर्मियों की छुट्टियों में दोस्तों से दूर आ खेलने के लिए साथी नहीं रह गए थे, जिस कारण पीछे खड़े खड़े देखा कि गिलहरियाँ खाने की तालाश में डर डर के घूम रही थीं - खतरा होने पर पेड़ पर चढ़ जाती थीं...

    मेरे मन में उनसे दोस्ती करने का विचार आया, उनका मनुष्य से, कम से कम मुझसे, भय हटाने का... मैं डबल रोटी लाया और घास में बैठ उसके छोटे छोटे टुकडे कर उनकी ओर फेंकने लगा स्वयं शांत बैठ, बिना हिले डुले... गिलहरी डर के आती और टुकड़ा ले भाग जाती... मैं धीरे धीरे दूरी कम करता गया, यहाँ तक कि अपने हाथ में एक टुकड़ा रख उसे घास में रख दिया, पंजा खुला आकाश की ओर...

    वो निकट आ पहले मेरी चारों उँगलियों को एक एक कर सूंघी,,, और फिर पंजे के बाजू में आ अगले दो में से केवल एक पैर रख डरते डरते रोटी का टुकड़ा उठा जल्दी से चली गयी... किन्तु दूसरी बार उसने दोनों पैर रखे और रोटी मुंह में उठा निर्भय हो चली गयी :)

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  31. प्रेरणादायक आलेख, धन्यवाद!

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  32. पर्यावरण का हिंसा ही बहुत गहरा सम्बन्ध है. हमारे हिंसक और घातक कृत्य जब प्रकृति से सहन नहीं होते, तब प्रकृति संतुलन कायम करने के लिए अपना रौद्र रूप दिखाती है जिसका खामियाजा सभी को भुगतना पड़ता है.

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  33. दर्पण में यदि किसी भी व्यक्ति को अपना चेहरा भद्दा लगे (जैसे 'जादुई शीशे' में, उसकी बनावट के कारण) और क्रोधित हो शीशे को तोड़ दे / अथवा अपनी तस्वीर फाड़ दे तो क्या वह व्यक्ति (अर्थात आत्मा जो अमृत / अमर है) भी टूट / फट कर टुकड़े टुकड़े हो जायेगा ???

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  34. सारी बुराइयाँ किसी न किसी के लिए पीड़ादायक हिंसा बनती है. अतः सभी सद्गुणों को अहिंसा में समाहित किया जा सकता है... यही धर्म है... यही प्रकृति का धर्म है और यही सुनियोजित जीवन का विधान है. अर्थात्, अहिंसा पर्यावरण का संरक्षण विधान है.
    @ आपके पास आकर नैतिक खुराक मिलती है. आज का सत्संग 'प्रकृति धर्म' को पर्यावरण से जोड़ रहा है.... आपके सूत्रों से कई धार्मिक जटिलताएँ सहजता से सुलझ जाती हैं. ... आप ब्लॉगजगत के ऋषि हो गये हैं. ..."ऋषि हंसराज सुज्ञ" ........ आपके नाम के आगे ऋषि नाम सुशोभित भी होता है.

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  35. कथा बेहद पसंद आई ..इसके पीछे छिपे उद्देश्य को भी समझ लिया है!

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  36. सुज्ञ जी आपकी जितनी तारीफ की जाये कम है...बड़े ही ख़ूबसूरत ढंग से जो आप दर्शन के इतने गहन विषयों को हम तक पंहुचा रहे हैं वो काबिले तारीफ है...जिसमे जैनदर्शन के प्राण तत्व अनेकांत-स्यादवाद एवं सप्तनय का वर्णन तो कमाल है...हार्दिक साधुवाद

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  37. आपका स्वागत है, अंकुर जी,

    इस प्रोत्साह के लिए आभार, आप स्वयं दर्शन शास्त्र के विद्यार्थी रहे है। आपकी तारीफ वास्तविक सम्बल है।

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