गोपालदास जी के एक पुत्र और एक पुत्री थे। उन्हे अपने पुत्र के विवाह के लिये संस्कारशील पुत्रवधु की तलाश थी। किसी मित्र ने सुझाया कि पास के गांव में ही स्वरूपदास जी के एक सुन्दर सुशील कन्या है।
गोपालदास जी किसी कार्य के बहाने स्वरूपदास जी के घर पहूंच गये, कन्या स्वरूपवान थी देखते ही उन्हे पुत्रवधु के रूप में पसन्द आ गई। गोपालदास जी ने रिश्ते की बात चलाई जिसे स्वरूपदास जी ने सहर्ष स्वीकार किया। स्वरूपदास जी की पत्नी ने मिष्ठान भोजन आदि से आवभगत की।
संयोगवश स्वरूपदास जी की पत्नी के लिये उसी दिन एक नवसहर सोने का हार बनकर आया था। समधन ने बडे उत्साह से समधी को दिखाया, हार वास्तव में मोहक और सुन्दर था। गोपालदास जी ने जी भरकर उस हार की तारीफ की। तत्पश्चात कुछ देर बातो का दौर चला और फ़िर गोपालदास जी ने लौटने के लिये विदा लेकर अपने घर के लिये चल दिये।
सँयोग से चार दिन बाद ही स्वरूपदास जी की पत्नी को किसी समारोह में जाने की योजना बनी, और उन्हे वही हार पहनना था। उन्होने ड्रॉअर का कोना कोना छान मारा, पर हार नहीं मिला। सोचने लगी आखिर हार गया तो गया कहाँ? उसी क्षण स्वरूपदास जी की पत्नी के मन एक विचार कौँधा, कुछ निश्चय करते हुए स्वरूपदास जी को बताया कि हार तो गोपालदास जी चोरी कर गये है।
स्वरूपदास जी ने कहा भागवान! ठीक से देख, घर में ही कहीं होगा, समधी ऐसी हरक़त नहीं कर सकते। उसने कहा मैने सब जगह देख लिया है और मुझे पूरा यकीन है हार गोपाल जी ही ले गये है, हार देखते ही उनकी आंखे फ़टी रह गई थी। वे बडा घूर कर देख रहे थे, निश्चित ही हार तो समधी जी ही लेकर गये है।आप गोपाल जी के यहां जाईए और पूछ देखिए हार वहां से ही मिलेगा।
बडी ना-नुकर के बाद पत्नी की जिद्द के आगे स्वरूप जी को झुकना पडा और बडे भारी मन से वे गोपाल जी के घर पहूंचे। आचानक स्वरूप जी को घर आया देखकर गोपाल जी शंकित हो उठे कि क्या बात हो गई?
स्वरूपजी दुविधा में कि आखिर समधी से कैसे पूछा जाय? इधर उधर की बात करते हुए, साहस जुटा कर बोले- आप जिस दिन हमारे घर आए थे, उसी दिन घर एक हार आया था, वह मिल नहीं रहा।
कुछ क्षण के लिये गोपाल जी स्तब्ध हो गए, जरा विचार में पडे, और बोले अरे हाँ, ‘वह हार तो मैं लेकर आया था’, मुझे अपनी पुत्री के लिये ऐसा ही हार बनवाना था, अतः सुनार को सेम्पल दिखाने के लिये, मैं ही ले आया था। वह हार तो अब सुनार के यहां है। आप तीन दिन रुकिये और हार ले जाईए।
किन्तु असलियत में तो हार के बारे में पूछते ही गोपाल जी को आभास हो गया कि हो न हो समधन ने चोरी का इल्जाम लगाया है। उसी समय सुनार के यहां जाकर, देखे गये हार की डिज़ाइन के आधार पर सुनार को बिलकुल वैसा ही हार, मात्र दो दिन में तैयार करने का आदेश दे आए। तीसरे दिन सुनार के यहाँ से हार लाकर स्वरूप जी को सौपते हुए कहा, लिजिये सम्हालिये अपना हार।
घर आकर स्वरूप जी ने हार श्रीमति को सौपते हुए हक़िक़त बता दी। पत्नी ने कहा- मैं न कहती थी, हार गोपाल जी चोरी कर् गए है, बाकि सब तो बहाने मात्र है, भला कोई बिना बताए सोने का हार लेकर जाता है ? समधी सही व्यक्ति नहीं है, आप आज ही समाचार कर दिजिये कि यह रिश्ता नहीं हो सकता।
स्वरूप जी नें फ़ोन पर गोपाल जी को सूचना दे दी, गोपाल जी को आभास था ऐसा ही होना है वे कुछ न बोले। ।
सप्ताह बाद स्वरूप जी की पत्नी साफ सफ़ाई कर रही थी, उन्होने पूरा ड्रॉअर ही बाहर निकाला तो पिछे के भाग में से हार मिला, निश्चित करने के लिये कि यह पहला वाला हार है, दूसरा हार ढूढा तो वह भी था। दो हार थे। वह सोचने लगी, अरे यह तो भारी हुआ, समधी जी नें इल्जाम से बचने के लिये बिलकुल वैसा ही दूसरा हार बनवा कर दिया है।
तत्काल उसने स्वरूप जी को वस्तुस्थिति बताई और कहा, समधी जी तो बहुत उंचे खानदानी है। ऐसे समधी को खोना तो रत्न खोने के समान है। आप पुनः जाईए, उन्हें हार वापस लौटा कर और समझा बुझा कर रिश्ता पुनः जोड कर आईए। ऐसा रिश्ता बार बार नहीं मिलता।
स्वरूप जी पुनः दुविधा में फंस गये। सफलता में उन्हें भी संदेह था पर सोचा कोशीश तो की ही चाहिए। ऐसे विवेकवान समधी से पुनः सम्बंध जोडने का एक प्रयास उन्हे भी उचित प्रतीत हो रहा था।
स्वरूप जी, गोपाल जी के यहां पहूँचे। गोपाल जी समझ गये कि शायद अब पुराना हार मिल चुका होगा।
स्वरूप जी ने क्षमायाचना करते हुए हार सौपा और अनुनय करने लगे कि जल्दबाजी में हमारा निर्णय गलत था। आप हमारी भूलों को क्षमा कर दिजिए, और उस सम्बंध को पुनः कायम कीजिए।
गोपाल जी नें कहा, देखिए स्वरूप जी यह रिश्ता तो अब हो नहीं सकता, आपके घर में शक्की और जल्दबाजी के संस्कार है जो इस रिश्ते के कारण मेरे भी घर के संस्कारो को प्रभावित कर सकते है।
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लेकिन मैं आपको निराश नहीं करूंगा। मैं अपनी बेटी का रिश्ता आपके बेटे के लिये देता हूँ। मेरी बेटी में वो संस्कार है जो आपके परिवार को निश्चित ही सुधार देने में सक्षम है। मुझे अपने संस्कारो पर ऐसा भरोसा है। और यह इसलिए कि जहाँ पहले रिश्ते में दो घर बिगडने की सम्भावनाएं थी, वहां यह नया रिश्ता दोनो घर सुधारने में सक्षम होगा।
स्वरूप जी की आंखे ऐसा हितैषी सम्बन्धी पाकर छल छला आई।
स्वरूप जी की आंखे ऐसा हितैषी सम्बन्धी पाकर छल छला आई।
सुंदर बोधात्मक लघुकथा.....
जवाब देंहटाएंसुज्ञजी वाह, मनोरंजन के साथ ही समाधानकारक बढिया बोधकथा प्रस्तुत की है आपने.
जवाब देंहटाएंकथा पहले सुनी थी, लेकिन यहां आपने सुबोध ढंग से प्रस्तुत की है.
जवाब देंहटाएंवाह सुज्ञ जी। कहानी का अंत न सिर्र्फ़ शिक्षा देता है बल्कि द्रविर कर गया। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
जवाब देंहटाएंराजभाषा हिन्दी
विचार
ऐसी घटनाओं से जीवन में वास्ता पड़ चुका है सुज्ञ भाई ! एक मित्र, किसी की बात पर विश्वास कर अपनी दूरी बना बैठे ....लगभग २० साल उन्होंने अपनी सोंच के कारण दूरी बनाए रखी इस बीच मैंने उन्हें कभी सफाई नहीं दी !
जवाब देंहटाएंअंततः अपनी पुत्री के विवाह अवसर पर वे झिझकते हुए कार्ड देने घर आये उनका सारा शक खत्म हो गया मगर इस मध्य लम्बे २० साल हमारे बच्चे एक दूसरे से न मिल पाए !
शक्की आदमी, दूसरे व्यक्ति में भी वही सब महसूस करने लगता है और शक के दौरान उसे विपक्षी का हर कदम अपने ही खिलाफ लगता है ! बहुत बढ़िया बोध कथा के लिए आभार !
बहुत अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबोध कराती कथा..
जवाब देंहटाएंbahut sunder lghukatha
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mere blog par
"jharna"
मार्गदर्शक कथा के लिए आभार
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी लघुकथा ...सन्देश देती हुई
जवाब देंहटाएंवाह...अद्भुत लघुकथा है...बहुत रोचक और प्रेरक...
जवाब देंहटाएंआपकी लेखन शैली ने आदि से अंत तक अबंधे रखा..
नीरज
बेहद रोचक और प्रेरणादायी कहानी …………बहुत प्रभावशाली लेखन।
जवाब देंहटाएंशक का कोई इलाज नहीं होता है | अच्छी कहानी |
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी सीख देती कहानी ...... कभी कभी जल्दबाजी में लिये गये निर्णय सही नहीं होते . गोपाल दास जी की इस महानता को सलाम.
जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी! कहानी का पूर्वार्द्ध बहुत पुराना और सहज लग रहा था, किंतु जैसे ही उत्तरार्द्ध को पढ़ा, अवाक रह गया...शायद जल्दबाज़ी में लिया गया निर्णय था,जिसपर अभी तक शर्मिंदा हूँ!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर और सहेजकर रखने योग्य कथा!
end बहुत बढ़िया.
जवाब देंहटाएंatyant sunder chitran kiya hai
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