30 अक्तूबर 2010

बुद्धु, आलसी, डरपोक, कायर, मूर्ख, कडका, जिद्दी… … …


ऐसा खोजुं मैं मित्र ब्लॉग जगत में………

  • बुद्धु    :जिसका अपमान हो और उसके मन को पता भी न चले।
  • आलसी : किसी को चोट पहूंचाने के लिये हाथ भी न उठा सके।
  • डरपोक : गाली खाकर भी मौन रहे।
  • कायर  : अपने साथ बुरा करने वाले को क्षमा कर दे।
  • मूर्ख   : कुछ भी करो, या कहो क्रोध ही न करे।
  • कडका : जलसेदार गैरजरूरी खर्च न कर सके।
  • जिद्दी  : अपने गुणों पर सिद्दत से अड़ा रहे।

क्या कहा, आज के सतयुग में ये बदमाशियाँ मिलना दुष्कर है?

चलो शर्तों को कुछ ढीला करते है, जो इन पर चल न पाये, पर बनना तो ऐसा ही चाहते है, अर्थार्त : जिनकी वैचारिक अवधारणा तो यही हो।

मित्रता की अपेक्षा से हाथ बढाया है, कृप्या टिप्पणी से अपना मत अवश्य प्रकाशित करें……
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29 अक्तूबर 2010

कैसे कैसे कसाई है जग में


  • बकरकसाई:  बकरे आदि जीवहिंसा करने वाला।
  • तकरकसाई:  खोटा माप-तोल करने वाला।
  • लकरकसाई:  वृक्ष वन आदि काटने वाला
  • कलमकसाई: लेखन से अन्य को पीडा पहूँचाने वाला।
  • क्रोधकसाई:  द्वेष, क्रोध से दूसरों को दुखित करने वाला।
  • अहंकसाई:   अहंकार से दूसरो को हेय,तुच्छ समझने वाला।
  • मायाकसाई:  ठगी व कपट से अन्याय करने वाला।
  • लोभकसाई:  स्वार्थवश लालच करने वाला।
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28 अक्तूबर 2010

श्रेष्ठ खानदान है हमारा………



खाते है जहाँ गम सभी, नहिं जहाँ पर क्लेश।
निर्मल गंगा बह रही, प्रेम की  जहाँ विशेष॥

हिं व्यसन-वृति कोई, खान-पान विवेक।
सोए-जागे समय पर, करे कमाई नेक॥

दाता जिस घर में सभी, निंदक नहिं नर-नार।
अतिथि का आदर करे, सात्विक सद्व्यवहार॥

मन गुणीजनों को करे, दुखीजन के दुख दूर।
स्वावलम्बन समृद्धि धरे, हर्षित रहे भरपूर॥
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27 अक्तूबर 2010

सोते सोते ही निकल गई सारी जिन्दगी


हाथोंहाथ तूं दुख खरीद के, सुख सारे ही खोता।
कर्ज़, फ़र्ज और मर्ज़ बहाने, जीवन बोझा ढोता।
ढोते ढोते ही निकल गई सारी जिन्दगी॥

जन्म लेते ही इस धरती पर, तुने रूदन मचाया।
आंख भी तो खुल ना पाई, भूख भूख चिल्लाया॥
खाते खाते ही निकल गई सारी जिन्दगी॥

बचपन खोया खेल कूद में, योवन पा गुर्राया।
धर्म-कर्म का मर्म न जाने, विषय-भोग मन भाया।
भोगों भोगों में निकल गई सारी जिन्दगी॥

शाम पडे रोज रे बंदे, पाप-पंक नहीँ धोता।
चिंता जब असह्य बने तो, चद्दर तान के सोता।
सोते सोते ही निकल गई सारी जिन्दगी॥

धीरे धीरे आया बुढापा, डगमग डोले काया।
सब के सब रोगों ने देखो, डेरा खूब जमाया।
रोगों रोगों में निकल गई सारी जिन्दगी॥

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26 अक्तूबर 2010

सपेरों का एक ब्लॉग-माध्यम

फिरते कितने खेलबाज, यहां झोले रंगाकार लिए।
द्वेषों के है सांप छाब में, क्रोधों की फुफकार लिए।
हाथ उनके टिपण-पात्र है, सिक्कों की झनकार लिए।
परपीड़न का मनोरंजन है, बैचेनी बदकार लिए॥

महाभयंकर नागराज अब, मानव के अनुकूल हुए।
एक नई फुफकार के खातिर, दर्शक भी व्याकुल हुए।
सम्वेदना के फ़ूल ही क्या, भाव सभी बस शूल हुए।
क्या राही क्या दुकानदार सब खेल में मशगूल हुए॥

25 अक्तूबर 2010

चीर कर कठिनाईयों को, दीप बन हम जगमगाएं.....

॥लक्ष्य॥

लक्ष्य है उँचा हमारा, हम विजय के गीत गाएँ।
चीर कर कठिनाईयों को, दीप बन हम जगमगाएं॥

तेज सूरज सा लिए हम, ,शुभ्रता शशि सी लिए हम।
पवन सा गति वेग लेकर, चरण यह आगे बढाएँ॥

हम न रूकना जानते है, हम न झुकना जानते है।
हो प्रबल संकल्प ऐसा, आपदाएँ सर झुकाएँ॥

हम अभय निर्मल निरामय, हैं अटल जैसे हिमालय।
हर कठिन जीवन घडी में फ़ूल बन हम मुस्कराएँ॥

हे प्रभु पा धर्म तेरा, हो गया अब नव सवेरा।
प्राण का भी अर्ध्य देकर, मृत्यु से अमरत्व पाएँ॥
 -रचनाकार: अज्ञात
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23 अक्तूबर 2010

अप्रमाद, गंतव्य दूर तेरा…

नवप्रभात
'गंतव्य दूर तेरा'

उठ जाग रे मुसाफ़िर, अब हो गया सवेरा। 

पल पलक खोल प्यारे, अब मिट गया अंधेरा॥ उठ जाग…… 

 

प्राची में पो फ़टी है, पर फडफडाए पंछी। 

चह चहचहा रहे है, निशि भर यहाँ बसेरा॥ उठ जाग…… 

 

लाली लिए खडी है, उषा तुझे जगाने। 

सृष्टी सज़ी क्षणिक सी, अब उठने को है डेरा॥ उठ जाग…… 

 

वे उड चले विहंग गण, निज लक्ष साधना से। 

आंखों में क्यूं ये तेरी, देती है नींद घेरा॥ उठ जाग…… 

 

साथी चले गये है, तूं सो रहा अभी भी। 

झट चेत चेत चेतन, प्रमाद बना लूटेरा॥ उठ जाग…… 

 

सूरज चढा है साधक, प्रतिबोध दे रहा है। 

पाथेय बांध संबल, गंतव्य दूर तेरा॥ उठ जाग…… 


रचनाकार: अज्ञात

21 अक्तूबर 2010

मकान तो बन गया, चलो उसे घर बनाएं


घर

प्रेम और विश्वास ही घर की नींव है।
स्वावलम्बन ही घर के स्तम्भ है।
अनुशासन व मर्यादा ही घर की बाड़ है।
समर्पण घर की सुरक्षा दीवारें है।
परस्पर सम्मान ही घर की छत है।
अप्रमाद ही घर का आंगन है।
सद्चरित्र ही घर का आराधना कक्ष है।
सेवा सहयोग ही घर के गलियारे है।
प्रोत्साहन ही घर की सीढ़ियां है।
विनय विवेक घर के झरोखे है।
प्रमुदित सत्कार ही घर का मुख्यद्वार है।
सुव्यवस्था ही घर की शोभा है।
कार्यकुशलता ही घर की सज्जा है।
संतुष्ट नारी ही घर की लक्ष्मी है।
जिम्मेदार पुरुष ही घर का छत्र है।
समाधान ही घर का सुख है।
आतिथ्य ही घर का वैभव है।
हित-मित वार्ता ही घर का रंजन है।
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20 अक्तूबर 2010

अनित्य सजगता, नश्वर बोध


        
एक धनवान व्यक्ति था, बडा विलासी था। हर समय उसके मन में भोग विलास सुरा-सुंदरी के विचार ही छाए रहते थे। वह खुद भी इन विचारों से त्रस्त था, पर आदत से लाचार, वे विचार उसे छोड ही नहीं रहे थे।

एक दिन आचानक किसी संत से उसका सम्पर्क हुआ। वह संत से उक्त अशुभ विचारों से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना करने लगा। संत ने कहा अच्छा, अपना हाथ दिखाओं, हाथ देखकर संत भी चिंता में पड गये। संत बोले बुरे विचारों से मैं तुम्हारा पिंड तो छुडा देता, पर तुम्हारे पास समय बहुत ही कम है। आज से ठीक एक माह बाद तुम्हारी मृत्यु निश्चित है, इतने कम समय में तुम्हे कुत्सित विचारों से निजात कैसे दिला सकता हूं। और फ़िर तुम्हें भी तो तुम्हारी तैयारियां करनी होगी।

वह व्यक्ति चिंता में डूब गया। अब क्या होगा, चलो समय रहते यह मालूम तो हुआ कि मेरे पास समय कम है। वह घर और व्यवसाय को व्यवस्थित व नियोजीत करने में लग गया। परलोक के लिये पुण्य अर्जन की योजनाएं बनाने लगा, कि कदाचित परलोक हो तो पुण्य काम लगेगा। वह सभी से अच्छा व्यवहार करने लगा।

जब एक दिन शेष रहा तो उसने विचार किया, चलो एक बार संत के दर्शन कर लें। संत ने देखते ही कहा 'बडे शान्त नजर आ रहे हो, जबकि मात्र एक दिन शेष है'। अच्छा बताओ क्या इस अवधि में कोई सुरा-सुंदरी की योजना बनी क्या ? व्यक्ति का उत्तर था, महाराज जब मृत्यु समक्ष हो तो विलास कैसा? संत हंस दिये। और कहा वत्स अशुभ चिंतन से दूर रहने का मात्र एक ही उपाय है “मृत्यु निश्चित है यह चिंतन सदैव सम्मुख रखना चाहिए,और उसी ध्येय से प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करना चाहिए”।

18 अक्तूबर 2010

संगत की रंगत

सद् भावना के रंग, बैठें जो पूर्वाग्रही संग।
संगत की रंगत तो, अनिच्छा ही लगनी हैं॥

जा बैठे उद्यान में तो, महक आये फ़ूलों की।
कामीनी की सेज़ बस, कामेच्छा ही जगनी है॥

काजल की कोठरी में, कैसा भी सयाना घुसे।
काली सी एक रेख, निश्चित ही लगनी है॥

कहे कवि 'सुज्ञ'राज, इतना तो कर विचार।
कायर के संग शूर की, महेच्छा भी भगनी है॥ 

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16 अक्तूबर 2010

नम्रता

भवन्ति नम्रास्तरवः फ़लोदगमैर्नवाम्बुभिर्भूमिविलम्बिनो घना:।
अनुद्धता  सत्पुरुषा: समृद्धिभिः  स्वभाव एवैष परोपकारिणम्॥

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- जैसे फ़ल लगने पर वृक्ष नम्र हो जाते है,जल से भरे मेघ भूमि की ओर झुक जाते है, उसी प्रकार सत्पुरुष  समृद्धि पाकर नम्र हो जाते है, परोपकारियों का स्वभाव ही ऐसा होता है।
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8 अक्तूबर 2010

मैं गुणपूजक हूं।


           जब मैने अपना उपनाम ‘सुज्ञ’ चुना तो इतना गहन चिंतन किया कि इससे मेरा सम्पूर्ण व्यक्तिव ही प्रकट हो जाय। ‘सुज्ञ’= सच्चा ज्ञान जो सुगमता से आत्मसात कर ले  ‘सुविज्ञ’ नहिं जिससे विशेष ज्ञान होने का गर्व ध्वनित होकर पुष्ठ होता हो।
मैं सभी दर्शनों का विद्यार्थी हूं, सभी दर्शनों का गुणाभिलाषी हूं, वस्तूतः मैं गुणपूजक हूं।

           मै धार्मिक सत्य वचनो का अनुकरण अवश्य करता हूं, महापुरूष मेरे आदर्श है। करोडों वर्षों के विचार मंथन व उत्पन्न ज्ञान- गाम्भीर्य से जो तत्व-रहस्य उनका उपदेश होता है। उन शुद्ध विचारों का मैं समर्थन करता हूं।
           सुज्ञ को किसी धर्मसम्प्रदाय परंपरा में खण्ड खण्ड कर देखना असम्भव है। मैने कभी किसी नाम संज्ञा के धर्म को नहिं माना। पर जहां से सार ग्रहण करता हूं, उस दर्शन की एक विशेष शब्दावली है, जो उसकी पहचान स्थापित कर देती है। इस दर्शन में ऐसी जाति या धर्म-वाचक संज्ञा है ही नहिं, शास्त्रों में इस धर्म के लिये ‘मग्गं’ (मार्ग) शब्द ही आया है। और मार्गानुसरण कोई भी कर सकता है।
           इसके सुक्षम अहिंसा अभिगम ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया, और अहिंसा ही इसका प्रमुख लक्षण है यही लक्षण इसे मुखारित कर जाता है। जैसे जैसे लोग कहते है इतनी सुक्षम अहिंसा सम्भव नहिं, सम्भावनाएं तलाशते हुए मैं, अहिंसा के प्रति और भी आस्थावान होता जाता हूं।
          इसीलिये मानव उपयोग में क्रूरताजन्य पदार्थों, जिसके बिना आनंद से कार्य हो सकता है, मै विरोध करता हूं। 
अतःबिना किसी लागलपेट के, किसी पूर्वाग्रह के मै कह सकता हूं, मैं सम्यग्दर्शनवान हूं। मैं इस सम्यग विचारधारा पर पूर्णरूप से श्रद्धावान हूं, अन्ततः मै सम्यग्दृष्टि हूं।

          किताबें तो अपने आप में जड है, सर पर उठा घुमने से वह ज्ञान देने में समर्थ नहिं। उसमें उल्लेखित ज्ञान ही सत्य स्वरूप है, और ज्ञान चेतन का लक्षण है। और धर्म आत्मा का स्वभाव। इसलिये जब भी मेरे सम्मुख कोई ज्ञान-शास्त्र आये, मैं मेरे विवेक को छलनी और बुद्दि को सूप बना देता हूं, ‘सार सार को गेहि रहे थोथा देय उडाय’। यह विवेक परिक्षण विधि भी ‘सम्यग्दृष्टि’ की ही देन है। इसलिये मुझे यह चिंता कहीं नहिं रही कि, क्या सही लिखा है, क्या गलत। परिक्षण परिमाण जो हमारे पास है। इसीलिये मैने हींट-लाईन चुनी नीर-क्षीर विवेक।

(यह स्पष्ठिकरण है मेरी विचारधाराओं का, ताकि मेरे मित्र अनभिज्ञ या संशय-युक्त न रहे। ---सुज्ञ)

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