20 सितंबर 2010

छलती है मैत्री

यत्न करें असीम, कहां निभ पाती है मैत्री।
अपेक्षाएं है अनंत, बडी नादां होती है मैत्री।

निश्छल नेह मिले कहां, मात्र दंभ पे चलती है मैत्री।
दमन के चलते है दांव, छल को ही छलती है मैत्री।

मित्रता आयेगी काम, अपेक्षाओं पे चलती है मैत्री।
जब भी पडते है काम, स्वार्थी बन लेती है मैत्री।
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3 सितंबर 2010

घाघ कलुषित हृदय, क्रूरता संग सहभोज सहवास करने लगे है।

हमारे हृदय और अंतरमन इतने घाघ व नासूर बन चुके है कि सदाचरण आसानी से स्वीकार नहीं होता। न हमें रूचता है न पचता है। बडे सतर्क रहते है कि सदाचार-संस्कार अपना कर कहीं हम  बुद्दु, सरल, भोले न मान लिये जाय। चतुरता का आलम यह कि हम, 'यह सब तो बडी बडी ज्ञान की बातें', 'बाबाओं के प्रवचन', 'सत्संग' आदि शब्दों से मखौल उडाकर अपनी विद्वता बचाने का प्रयास करते है।

इन आदतों से हमारे हृदय इतने कलुषित हो गये है कि सुविधाभोग़ी पूर्वाग्रहरत हम क्रूरता के संग सहभोज सहवास करने लगे है। निर्दयता को चातुर्य कहकर आदर की नज़र से देखते है। भला ऐसे कठोर हृदय में सुकोमलता आये भी तो कैसे?

माया, छल, कपट व असत्य को हम दुर्गुण नहीं, आज के युग की आवश्यकता मान भुनाते है। आवेश,धूर्तता और प्रतिशोध ही आसान विकल्प नजर आते है।

अच्छे सदविचारों को स्वभाव में सम्मलित करना या अंगीकार करना बहुत ही कठिन होता है,क्योंकि जन्मों के या बरसों के सुविधाभोगी कुआचार हमारे व्यवहार में जडें जमायें होते है, वे आसानी से दूर नहीं हो जाते।

सदाचरण बस आध्यात्मिक बातें है, किताबी उपदेश भर है, पालन मुश्किल है,या कलयुग व जमाने के नाम पर सदाचरण को सिरे से खारिज नहीं किया जाना चाहिए। पालन कितना ही दुष्कर हो, सदविचारों पर किया गया क्षणिक चिन्तन भी कभी व्यर्थ नहीं जाता।

यदि सदाचरण को 'अच्छा' मानने की प्रवृति मात्र भी हमारी मानसिकता में बनी रहे,  हमारी आशाओं की जीत है। दया के,करूणा के,अनुकंपा के और क्षमा के भावों को उत्तम जानना, उत्तम मानना व उत्तम कहना भी नितांत ही आवश्यक है। हमारे कोमल मनोभावों को हिंसा व क्रूरता से दूर रखना, प्रथम व प्रधान आवश्यकता है, कुछ देर से या शनै शनै ही सही हृदय की शुभ मानसिकता, अंततः क्रियान्वन में उतरती ही है।

निरंतर हृदय को निष्ठुरता से मुक्त रख, उसमें सद्विचारों को आवास देना नितांत ही जरूरी है।

2 सितंबर 2010

क्षमा-सूत्र

 
  • प्रतिशोध लेने का आनंद मात्र एक दिन का होता है, जबकि क्षमा करने का गौरव सदा बना रहता है।
  • सच्ची क्षमा समस्त ग्रंथियों को विदीर्ण करने का सामर्थ्य रखती है।
  • हर परिस्थिति में स्वयं को संयोजित संतुलित रखना भी क्षमा ही है।
  • क्षमा देने व क्षमा प्राप्त करने का सामर्थ्य उसी में है जो आत्म निरिक्षण कर सकता है
  • क्षमापना आत्म शुद्धि का प्रवाहमान अनुष्ठान है, सौम्यता, विनयसरलता, नम्रता शुद्ध आत्म में स्थापित होती है।

1 सितंबर 2010

तीन की करामत!!

तीन निकल वापस नहिं लौटते
  •  बंदूक से गोली
  •  मुहं से बोली
  •  तन से प्राण
तीन सदा स्मरण रहे
  •  कर्ज़
  •  फ़र्ज़
  •  मर्ज़
तीनों का सम्मान करें
  • माता
  • पिता
  • गुरू
तीन को कभी छोटा न समझो
  • कर्ज़
  • शत्रु
  • बीमारी
तीन को कोई चुरा नहिं सकता
  • ज्ञान
  • कौशल
  • अक्ल

तीनों को वश में रखें
  •  मन
  •  काम
  •  क्रोध
तीन प्रतिक्षा नहिं करते
  •  समय
  • ग्राहक
  • मौत
तीन जीवन उपचार
  •  कम खाना
  •  गम खाना
  •  नम जाना

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