(ईश्वर एक खोज के तीन भाग के बाद यह उपसंहार रूप भाग-4)
ईश्वर हमारे काम नहीं करता
कस्बे में जब बात आम हो गई कि उस ईश्वर की बुकलेट का मैने गहराई से अध्यन किया है। तो लोगों ने अपनी अपनी समस्या पर चर्चा हेतू एक सभा का आयोजन किया, और मुझे व्याख्याता के रूप में आमंत्रित किया। अपनी विद्वता पर मन ही मन गर्व करते हुए, मैं सभा स्थल पर आधे घंटे पूर्व ही पहुँच गया। सभी मुझे उपस्थित देखकर प्रश्न लेकर पिल पडे। सभी प्रश्नों के पिछे भाव एक ही था, उनका स्वयं का निष्कर्म स्वार्थ। बस यही कि ‘ईश्वर हमारे काम नहीं करता’।
मैने कहा आप सभी का समाधान मैं अपने वक्तव्य में अवश्य दुंगा। समय भी हो चुका था मैने वक्तव्य प्रारम्भ किया…
आशान्वित भक्त जनों,
सबसे पहले तो मैं यह स्पष्ठ कर दूँ कि मैं स्वयं नहीं जानता कि ईश्वर क्या है। किन्तु यह अवश्य जान पाया हूँ कि निश्चित ही जैसा आपने कल्पित किया है वह ऐसा हरगिज नहीं है। ईश्वर की कल्पना करने में, आपकी मानवीय प्रकृति ने ही खेल रचा है। आपने सभी मानवीय गुण-दोष उसमें आरोपित कर दिए है। अब कल्पना तो तुम करो और खरी न उतरे तो गाली ईश्वर को?
आपने मान लिया जो वस्तुएं या बातें मानव को खुश करती है, बस वे ही बातें ईश्वर को खुश करती होगी। आप पूजा-पाठ-प्रसाद-कीर्तन-भक्ति यह मानकर अर्पित करते है कि वह खुश होगा और खुश होकर आपको बिना पुरूषार्थ के ही वांछित फल दे देगा। जब ऐसा नहीं होता तो आप रूठ जाते है और नास्तिक बन लेते है। पर इन सब बातों से उसे कोई सरोकार नहीं हैं। उसने तो सभी तरह से सशक्त, सुचारू, न्यायिक व क्रियाशील नियम लागू कर छोडे है। एक ऐसे पिता की वसीयत की तरह कि जो गुणवान सद्चरित्र पुरूषार्थी पुत्र होगा उसे उसी अनुसार लाभ मिलता रहेगा। जो अवगुणी दुश्चरित्र प्रमादी होगा उसे नुकसान भोगना होगा। दिखावा या शोर्टकट का किसी को कोई भी लाभ न होगा। प्रलोभन तो उसको चलेगा ही नहीं।
आपने मान लिया जो वस्तुएं या बातें मानव को खुश करती है, बस वे ही बातें ईश्वर को खुश करती होगी। आप पूजा-पाठ-प्रसाद-कीर्तन-भक्ति यह मानकर अर्पित करते है कि वह खुश होगा और खुश होकर आपको बिना पुरूषार्थ के ही वांछित फल दे देगा। जब ऐसा नहीं होता तो आप रूठ जाते है और नास्तिक बन लेते है। पर इन सब बातों से उसे कोई सरोकार नहीं हैं। उसने तो सभी तरह से सशक्त, सुचारू, न्यायिक व क्रियाशील नियम लागू कर छोडे है। एक ऐसे पिता की वसीयत की तरह कि जो गुणवान सद्चरित्र पुरूषार्थी पुत्र होगा उसे उसी अनुसार लाभ मिलता रहेगा। जो अवगुणी दुश्चरित्र प्रमादी होगा उसे नुकसान भोगना होगा। दिखावा या शोर्टकट का किसी को कोई भी लाभ न होगा। प्रलोभन तो उसको चलेगा ही नहीं।
निराकार की कल्पना करके भी आप लोग तो मानवीय स्वभाव से उपर उठकर, ईश्वर की समुचित अभिन्न कल्पना तक नहीं कर पाए। कभी-कभार कर्म पर विश्वास करके भी पुनः आप कह उठते है ‘जैसी उसकी इच्छा’। अरे! वह हर इच्छा से परे है, हर आवश्यक्ता से विरत, हर प्रलोभन और क्रोध से मुक्त। उसने प्रकृति के नियमों की तरह ही अच्छे बुरे के अच्छे बुरे फल प्रोग्रामिग कर छोड दिये है। सर्वांग सुनियोजित महागणित के साथ। कोई वायरस इस प्रोग्राम को जरा भी प्रभावित करनें में सक्षम नहीं। इस प्रकार ईश्वर निराकार निर्लिप्त है्।
अब आपको प्रश्न होगा कि जब वह एक सिस्टम है या निराकार निर्लिप्त है, तो उसे पूजा,कीर्तन,भक्ति और आस्था की क्या आवश्यकता? किन्तु आवश्यकता उसे नहीं हमें है, मित्रों। क्योंकि वही मात्र गुणों का स्रोत है, वही हमारे आत्मबल का स्रोत है। सभी के मानस ज्ञान गम्भीर नहीं होते, प्राथमिक आलंबन की आवश्यकता तो रहेगी ही। सुफल पाने के लिए गुण अंगीकार करने होंगे। गुण उपार्जन के लिये पुरूषार्थ की प्रेरणा चाहिए होगी। यह आत्मबल हमें आस्था से ही प्राप्त होगा। गुण अपनाने है तो सदैव उन गुणों का महिमा गान करना ही पडेगा। पूजा भक्ति अब मात्र सांकेतिक नहीं, उन गुणों को स्मरण पर जीवन में उतारने के रूप में करनी होगी। गुण अभिवर्धन में चुक न हो जाय, इसलिए नियमित ऐसी पूजा-भक्ति की आवश्यक्ता रहेगी। श्रद्धा हमें इन गुणों पर आसक्त रखेगी। और हमारे आत्मविश्वास का सींचन करती रहेगी। ईश्वर जो भी है जैसा भी है, इसी तरह हमें मनोबल, बुद्धि और विवेक प्रदान करता रहेगा। अन्ततः पुरूषार्थ तो हमें ही करना होगा। सार्थकता इसी श्रद्धा में निहित है। श्रद्धा और पुरुषार्थ ही सफलता के सोपान है।