28 अप्रैल 2011

ईश्वर हमारे काम नहीं करता…

(ईश्वर एक खोज के तीन भाग के बाद यह उपसंहार रूप भाग-4)

ईश्वर हमारे काम नहीं करता

स्बे में जब बात आम हो गई कि उस ईश्वर की बुकलेट का मैने गहराई से अध्यन किया है। तो लोगों ने अपनी अपनी समस्या पर चर्चा हेतू एक सभा का आयोजन किया, और मुझे व्याख्याता के रूप में आमंत्रित किया। अपनी विद्वता पर मन ही मन गर्व करते हुए, मैं सभा स्थल पर  आधे घंटे पूर्व ही पहुँच गया। सभी मुझे उपस्थित देखकर प्रश्न लेकर पिल पडे। सभी प्रश्नों के पिछे भाव एक ही था, उनका स्वयं का निष्कर्म स्वार्थ। बस यही कि ‘ईश्वर हमारे काम नहीं करता’।

मैने कहा आप सभी का समाधान मैं अपने वक्तव्य में अवश्य दुंगा। समय भी हो चुका था मैने वक्तव्य प्रारम्भ किया…
आशान्वित भक्त जनों,
सबसे पहले तो मैं यह स्पष्ठ कर दूँ कि मैं स्वयं नहीं जानता कि ईश्वर क्या है। किन्तु यह अवश्य जान पाया हूँ कि निश्चित ही जैसा आपने कल्पित किया है  वह ऐसा हरगिज नहीं है। ईश्वर की कल्पना करने में, आपकी मानवीय प्रकृति ने ही खेल रचा है। आपने सभी मानवीय गुण-दोष उसमें आरोपित कर दिए है। अब कल्पना तो तुम करो और खरी न उतरे तो गाली ईश्वर को?

आपने मान लिया जो वस्तुएं या बातें मानव को खुश करती है, बस वे ही बातें ईश्वर को खुश करती होगी। आप पूजा-पाठ-प्रसाद-कीर्तन-भक्ति यह मानकर अर्पित करते है कि वह खुश होगा और खुश होकर आपको बिना पुरूषार्थ के ही वांछित फल दे देगा। जब ऐसा नहीं होता तो आप रूठ जाते है और नास्तिक बन लेते है। पर इन सब बातों से उसे कोई सरोकार नहीं हैं। उसने तो सभी तरह से सशक्त, सुचारू, न्यायिक व क्रियाशील नियम लागू कर छोडे है। एक ऐसे पिता की वसीयत की तरह कि जो गुणवान सद्चरित्र पुरूषार्थी पुत्र होगा उसे उसी अनुसार लाभ मिलता रहेगा। जो अवगुणी दुश्चरित्र प्रमादी होगा उसे नुकसान भोगना होगा। दिखावा या शोर्टकट का किसी को कोई भी लाभ न होगा। प्रलोभन तो उसको चलेगा ही नहीं।

निराकार की कल्पना करके भी आप लोग तो मानवीय स्वभाव से उपर उठकर, ईश्वर की समुचित अभिन्न कल्पना तक नहीं कर पाए। कभी-कभार कर्म पर विश्वास करके भी पुनः आप कह उठते है ‘जैसी उसकी इच्छा’। अरे! वह हर इच्छा से परे है, हर आवश्यक्ता से विरत, हर प्रलोभन और क्रोध से मुक्त। उसने प्रकृति के नियमों की तरह ही अच्छे बुरे के अच्छे बुरे फल प्रोग्रामिग कर छोड दिये है। सर्वांग सुनियोजित महागणित के साथ। कोई वायरस इस प्रोग्राम को जरा भी प्रभावित करनें में सक्षम नहीं। इस प्रकार ईश्वर निराकार निर्लिप्त है्।

अब आपको प्रश्न होगा कि जब वह एक सिस्टम है या निराकार निर्लिप्त है, तो उसे पूजा,कीर्तन,भक्ति और आस्था की क्या आवश्यकता? किन्तु आवश्यकता उसे नहीं हमें है, मित्रों। क्योंकि वही मात्र गुणों का स्रोत है, वही हमारे आत्मबल का स्रोत है। सभी के मानस ज्ञान गम्भीर नहीं होते, प्राथमिक आलंबन की आवश्यकता तो रहेगी ही। सुफल पाने के लिए गुण अंगीकार करने होंगे। गुण उपार्जन के लिये पुरूषार्थ की प्रेरणा चाहिए होगी। यह आत्मबल हमें आस्था से ही प्राप्त होगा। गुण अपनाने है तो सदैव उन गुणों का महिमा गान करना ही पडेगा। पूजा भक्ति अब मात्र सांकेतिक नहीं, उन गुणों को स्मरण पर जीवन में उतारने के रूप में करनी होगी। गुण अभिवर्धन में चुक न हो जाय, इसलिए नियमित ऐसी पूजा-भक्ति की आवश्यक्ता रहेगी। श्रद्धा हमें इन गुणों पर आसक्त रखेगी। और हमारे आत्मविश्वास का सींचन करती रहेगी। ईश्वर जो भी है जैसा भी है, इसी तरह हमें मनोबल, बुद्धि और विवेक प्रदान करता रहेगा। अन्ततः पुरूषार्थ तो हमें ही करना होगा। सार्थकता इसी श्रद्धा में निहित है। श्रद्धा और पुरुषार्थ ही सफलता के सोपान है।

27 अप्रैल 2011

ईश्वर को देख के करना क्या है?


(हमने देखा पिछ्ली दो कडियों में, जिसमें पहली तो ईश्वर को लेन देन का व्यापारी समझ,अटल नियम विरूद्ध मांगने का परिणाम नास्तिकता आता है। और दूसरी में जो अधिक बुरे कर्मो में रत हो उसे इतना ही अधिक डराना आवश्यक नियम महसुस होता है। अब आगे…)
(ईश्वर एक खोज-भाग…3)

ईश्वर को देख के करना क्या है?

स्बे के वाम छोर पर मजदूरों की बस्ती है, उसी के सामने एक सम्भ्रांत इलाका है बीच से सडक गुजरती है। सडक के उस पार ‘दुर्बोध दासा’ का बंगला है। दुर्बोध दासा, हर रात मजदूर को उनके हित में भाषण अवश्य देते है। बंगले के पास ही उनकी अपनी पान की दुकान है। मजदूर कॉलनी के सभी लोग उनके ग्राहक है। गरीब और रक्त की कमी से पीडित मजदूरों को दुर्बोध दासा नें  ‘कत्था खाकर मुंह लाल’ रखने के नुक्खे का आदी बना दिया है। पान में कोई ‘शोषणविरोध’ की कडक सुपारी डालते है जिसे चुभलाते जाओ खत्म ही नहीं होती। यह चुभलाना मजदूरों को भी रास आने लगा है। आभासी लालिमा प्रदान करता यह पान मजदूरों में लोकप्रिय है। दुर्बोध दासा ने पान पर ही यह बंगला खडा किया है।

आज कल उनके ग्राहकों की संख्या कम होने लगी है, रात कॉलोनी से ढोल, तांसे, मजीरे और भजन की स्वर-लहरिया आती है, उनका भाषण सुनने भी अब लोग प्रायः कम ही आते है। पान का धंधा चोपट होने के कगार पर है। दुर्बोध दासा की आजीविका खतरे में है, उन्होंने पुछ-ताछ की तो पता चला आज-कल लोग उस ‘ईश्वरीय ऑफिस’ जाने लगे है। दुर्बोध दासा को यकीन हो गया, जरूर वे सभी मजदूर वहाँ अफीम खाते है।

उनके खबरियों से उन्हे सूचना मिली कि मैं ही उस कार्यालय का दलाल हूँ। दो-चार लोगों के मामले निपटाने के लिये मुझे वहां आते जाते देख लिया होगा। दुर्बोध दासा गुस्से से लाल झंडे सम बने,  मेरे पास आए और ‘ईश्वर का चमचा’, ‘ईश्वर का दलाल’, ‘अफीम का धंधेबाज़’ नारे की लय में न जाने क्या क्या सुनाने लगे। मैने उन्हें पानी पिला पिला कर…… शान्त किया और आने का कारण पूछा।

वे लगभग उफनते से बोले- देख बे आँखो वाले अंधे, ‘ईश्वर विश्वर कुछ नहीं होता, क्यों लोगों को झांसा दे रहा है तूं? और इस धर्म-अफ़ीम का गुलाम बना रहा है। मैने सफाई देते कहा –मैने किसी को भी प्रेरित नहीं किया सदस्य बनने के लिये, लोग स्वतः जाते होंगे। दुर्बोध दासा बीच में बात काटते हुए फिर उबले- ‘ कौन होते हो तुम उन्हें यथास्थितिवाद में धकेलने वाले?, यह हमारा काम है पर दूसरे तरीके से। तुम्हे मालूम नहीं, तुम लोग जिस ईश्वर को अन्नदाता कहते हो, उसका वैचारिक अस्तित्व ही हमारे जैसे लाखों लोगों के पेट पर लात मारता है। जानते हो जो पान की दुकान लोगों के होठों पर लाली लाती थी, आज बंद होने के कगार पर है। मुझे बोलने का अवसर दिए बिना ही छूटते ही प्रश्न किया- क्या तुमने ईश्वर को देखा है?

मैने कहा -दुर्बोध जी! मैं ईश्वर का प्रचार नहीं कर रहा, ईश्वर है या नहीं इस बात से न तो हमें या न ईश्वर को कोई फर्क पडता है। लेकिन जो बडी वाली नियमावली मैं लेकर आया था, और जिसका मैंने अध्यन किया है, उसमें ईश्वर ने भी अपने होने न होने की चर्चा को कोई महत्व नहीं दिया है। इसमें तो सभी अटल प्राकृतिक नियम है। और जीवन को सरल, सहज, शान्त, सन्तोषमय बनाने के तरीके मात्र है। सच्चा आनंद पाने का अन्तिम उपाय है। लोग अगर श्रद्धा के सहारे स्वयं में आत्मबल का उत्थान करते है तो आपको क्या एतराज है। चलो आप लोग ईश्वर को मत मानो पर जो उसनें गुणवान बननें के उपदेश और उपाय बताएं हैं उस पर चलने में क्या आपत्ति है? उसके निर्देशानुसार सार्थक कंट्रोल में जीवन जीनें से क्या एतराज है। आत्मसंयम को अफीम संज्ञा क्यों देते हो।

दुर्बोध दासा अपने गर्भित स्वार्थ से उँचा उठकर न सोच पाया। मनमौज और स्वार्थ के खुमार में झुंझलाता, हवा को गालियाँ देता चलता बना।

26 अप्रैल 2011

ईश्वर डराता है।


(ईश्वर एक खोज-भाग-2)

ईश्वर डराता है

जनाब नादान साहब को पता चला कि मैं ईश्वर की ऑफ़िस से बडा वाला प्रोस्पेक्टर ले आया हूँ। जिज्ञासावश वे भी चले आए। आते ही कहने लगे, 'मैं भी उस कार्यालय का सदस्य बना हूँ', लेकिन यार ‘ईश्वर डराता बहुत है’ मुझे फिर आश्चर्य हुआ, भई मेरे पास की बुकलेट में तो ऐसा कुछ नहीं है। वह तो दयालु है, भला डरायेगा क्यों। नादान साहब फट पडे, बोले ‘वही तो’…बात बात पे डराता है, क्यो?…मुझे भी समझ नहीं आ रहा। यह देख लो किताब। आपने तो वह बडी वाली उसके कायदे कानून की बुक पढ़ी है, आप ही बताएं। और अमां यार आप ईश्वर की फ़्रेचाईजी क्यों नहीं ले लेते। मैने टालते हुए कि इस फ़्रेचाईजी पर बाद में चर्चा करेंगे, पहले चलो कार्यालय चलते है, आपकी वह पुस्तिका साथ ले लो, उसी ऑफ़िसर से पूछेंगे, इस समस्या का कारण।

हम पहुँचे ऑफ़िस, नादान साहब को सदस्य बनाने वाले ऑफ़िसर ड्यूटी पर थे। मैने शिकायती लहजे में कहा- जनाबे-आली, आपने नादान साहब को यह कौनसी बुकलेट थमा दी जो हर समय डरे सहमें रहते है, और तो और भय की प्रतिक्रिया में उल्टा उनका स्वभाव आक्रमक होने लगा है।

ऑफ़िसर माज़रा समझ गया, उसने ईशारा कर मुझे अन्दर के कमरे में बुलाया। शायद वह नादान साहब के समक्ष बात नहीं करना चाह रहा था। ऑफ़िसर ने मुझसे कहा- देखिए, साहब, सभी को पाप करने से पहले डरना ही चाहिए। और ईश्वर का यह अटल नियम है कि पापों से डरो, पापों का परिणाम बुरा है, बुराई के कुफल बताना जरूरी है। जो आप जानते ही होंगे। हम यहां कुछ नहीं कर सकते। हम तो आदमी देखकर, उसकी मानसिकता परख कर उसी अनुरूप बुकलेट देते है। जो लोग पहले से ही घोर पापों में सलग्न हो उन्हे यही सदस्यता दी जाती है, और हर पाप पर तेज खौफ दर्शाया जाता है। आपके यह मित्र नादान साहब, जब यहाँ सदस्य बनने तशरीफ लाए तो सहज ही दोनो कान पकड तौबा तौबा का तकिया कलाम पढे जा रहे थे। हम समझ गये, बंदा अच्छे-बुरे का भेद नहीं जानता, और सदस्य भी मात्र इसलिये बन रहा है कि कुछ भी किये धरे बिना, मात्र सदस्यता के आधार पर सुख-चैन मिल जाए। जनाब यह क्या 'त्याग' अर्पण करेगा, ईश्वर को? नादान खुद दुष्कृत्यों का त्याग नहीं कर पाया। और बुराईयों में गले तक डूबा है। आपका मित्र यह न भूले कि ईश्वर नें भी अन्याय करने का त्याग ले रखा है। ऐसे लोगों को खौफ से ही नियम-अनुशासन में ढाला जा सकता है। यह खौफजदा बुकलेट उनके लिये समुचित योग्य है। आप महरबानी कर उसके मन से खौफ दूर न करें, अन्यथा अनर्थ हो जायेगा। अब उसके समक्ष तो उस बुकलेट को ही सर्वदा अन्तिम सच बताएँ। ऑफ़िसर गिडगिडाने लगा। मैने भी स्थिति को समझा और चुप-चाप बाहर चला आया।

जनाब नादान साहब को यह समझाते हुए, हम घर की ओर चल दिए कि यह सही बुकलेट है,फाईनल!! ईश्वर ने नया एडिशन छापना बंद कर दिया है। इसलिये जनाब नादान साहब आप क्यों चिंता करते है, यह डर सीधे-सरल लोगों के लिए कतई नहीं है, और फिर आप ही कहिए बुरे लोगों को डराना कोई गुनाह थोडे ही हैं? अगर हम सीधे हो जाएँ तो यकिन मानो, ईश्वर करूणानिधान ही है। सर्वांग न्यायी है।

नादान साहब उसी हालात में अपने 'घर' छोडकर, अपने स्टडी-रूम में, मैं पुनः बडी बुकलेट पढ़नें में व्यस्त हो गया…

बादमें सुना कि नादान साहब ने एक रेश्मी कपडे में उस बुकलेट को जकड के बांध, उँची ताक पर सज़ा के रख दिया है, अब भी कभी उसे खोलने की आवश्यकता पडती है तो उनकी घिग्घी बंध जाती है।

25 अप्रैल 2011

ईश्वर रिश्वत लेते है?


(ईश्वर एक खोज- भाग-1)

ईश्वर रिश्वत लेते है

अबोध शाह आते ही कहने लगे- “ईश्वर रिश्वत लेते है”  मुझे आश्चर्य हुआ, ईश्वर और रिश्वत? अबोध शाह ने विस्तार से बताया- अपने कस्बे के मध्य जो ईश्वरीय कार्यालय है, वहां मैं अपने आवश्यक कार्य के लिये गया था। वहाँ के ऑफिसर ने बताया इस काम के लिये माल तो देना ही पडेगा ‘हमारे उपरी ईश्वर को बडा हिस्सा पहुँचाना होता है’। मुझे विश्वास नहीं हुआ और उन्हें साथ लेकर हम पहुँच गये कार्यालय।

मैने वहां कार्यरत ऑफिसर से पूछ-ताछ प्रारंभ की,- ‘साहब’ आज तक किसी ने ईश्वर को देखा नहीं, फिर आपने उसके एवज में रिश्वत कैसे ग्रहण की? ऑफिसर नें उलटा प्रश्न दागा- क्या ईश्वर ने आपसे शिकायत की् है? कि उन्हें हिस्सा नहीं पहुँचा? मेरे पास जवाब नहीं था, मैं बगलें झाकते हुए इधर उधर देखने लगा, कार्यालय में चारों और सूचना पटल लगे थे। इन पर ईश्वर के कायदे कानून नियम संक्षिप्त में लिखे थे। उपर ही पंच-लाईन की तरह बडे अक्षरों में लिखा था-“ईश्वर परम दयालु कृपालु है”

मैने जरा दृढ बनते हुए पुनः प्रश्न किया, जब वह परम दयालु है, हमें खुश रखना उसका कर्तव्य है। तो अपना फर्ज़ निभाने की रिश्वत कैसे ले सकता है? ‘देखिये’, ऑफिसर बोला- आप जरा समझदार है सो आपको विस्तार से बताता हूँ पुछो जरा अपने इस मित्र से कि वह काम क्या करवाने आया था? नियम विरुद्ध काम ईश्वर के कर्तव्य नहीं होते। जब काम नियम विरुद्ध करवाने होते है तो रिश्वत तो लगेगी ही। ईश्वर लेता है या नहीं यह बाद की बात, किन्तु नियम विरुद्ध जाकर हमें आप लोगों के दिल को तसल्ली देनी श्रम साध्य कार्य है। इस रिश्वत को आप तो बस तसल्ली का सर्विस चार्ज ही समझो।
यह लो बुक-लेट इस में ईश्वर के सभी नियम कायदे कानून विस्तार से लिखे हुए है। सभी अटल है, साफ़ साफ़ लिखा है।अर्थात् बदले नहीं जा सकते, स्वयं ईश्वर भी नहीं बदल सकते। आपके डेढ़ सयाने मित्र अबोध शाह ने पता है क्या अर्जी लगाई थी? ‘अपने स्वजनों की सलामती के लिये’ जबकि नियम अटल है, मृत्यु शास्वत सत्य है, आज तक जो संसार में आया उसे मरना ही है, युगों युगों के इतिहास में एक भी अमर व्यक्ति बता दो तो हम मान लेंगे ईश्वर के नियम परिवर्तनशील है। फिर भला इसके स्वजन सदैव सलामत कैसे रह सकते है? या तो आप लोग यह नियमावली भली भांति समझ लो और नियमानुसार चलो, कोई रिश्वत की जरूरत नहीं, यह चेतावनी भी इस बुकलेट में स्पष्ठ लिखी हुई है। ईश्वर के आकार-प्रकार पर सर खपाने की जगह उसके बनाए नियमों का ईमानदारी से पालन करो, यही उसका प्रधान निर्देश है।

मैं जान गया, ऑफ़िसर एक स्पष्ठ वक्ता है। उसे यह ट्रेनिंग मिली है कि सभी को उनके पेट की क्षमता के आधार पर ही भोजन दिया जाय। मुझे अच्छा फंडा लगा।
मेरी जिज्ञासा बलवती हो गई कि मुझे इस बुकलेट का अध्यन करना चाहिए, जैसे जैसे समझुंगा आपसे शेयर करूँगा…

12 अप्रैल 2011

पश्चाताप

(आज प्रस्तुत है मेरे पसंदीदा कवि ‘भृंग’ की एक रचना)


आसक्ति परिणाम

जग के जंजाल बीच, कूद पड़ा आंख मींच, 

सपनों को सींच सींच, बे-लगाम हो गया। 

जोश में तो होश भूल, खुशियों के झूले झूल, 

समय के प्रतिकूल, बे-नकाब हो गया। 

 

सुन के रसीली राग, खेलने लगा हूँ फाग, 

बात बात में हूँ आग, मैं अलाम हो गया। 

इन्द्रियों के वशीभूत, कैसे होऊं फलीभूत, 

करमों की करतूत, मैं गुलाम हो गया। 

 

आँख साख झूठी देवे, कान किये हथलेवे, 

मुख निरा मुसकावे, कटि वाम हो गया। 

सांस फूलने लगा है, डील झूलने लगा है, 

बात भूलने लगा है, पांव जाम हो गया। 

 

प्रभु तेरे द्वार पर, खड़ा एक पांव पर, 

जैसे तैसे पार कर, तेरे नाम हो गया। 

इन्द्रियों के वशीभूत, “भृंग” कैसे फलीभूत, 

कैसी करतूत, तन तामजाम हो गया॥ 


-कवि भंवरलाल ‘भृंग’

5 अप्रैल 2011

आत्मश्रद्धा से भर जाऊँ, प्रभुवर ऐसी भक्ति दो।

(चारों और फ़ैली आशा, निराशा, विषाद, श्रद्धा-अश्रद्धा के बीच एक जीवट भरी अभिव्यक्ति)


आत्मश्रद्धा से भर जाऊँ, प्रभुवर ऐसी भक्ति दो।
समभावों से कष्ट सहूँ बस, मुझ में ऐसी शक्ति दो॥

कईं जन्मों के कृतकर्म ही, आज उदय में आये है।
कष्टो का कुछ पार नहीं, मुझ पर सारे मंडराए है।
डिगे न मन मेरा समता से, चरणो में अनुरक्ति दो।
समभावों से कष्ट सहूँ बस, मुझ में ऐसी शक्ति दो॥

कायिक दर्द भले बढ जाय, किन्तु मुझ में क्षोभ न हो।
रोम रोम पीड़ित हो मेरा, किंचित मन विक्षोभ न हो।
दीन-भाव नहीं आवे मन में, ऐसी शुभ अभिव्यक्ति दो।
समभावों से कष्ट सहूँ बस, मुझ में ऐसी शक्ति दो॥


दुरूह वेदना भले सताए, जीवट अपना ना छोडूँ।
जीवन की अन्तिम सांसो तक, अपनी समता ना छोडूँ।
रोने से ना कष्ट मिटे, यह पावन चिंतन शक्ति दो।
समभावों से कष्ट सहूँ बस, मुझ में ऐसी शक्ति दो॥


अर्चना चावजी की मधुर आवाज में सुनें यह प्रार्थना…





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