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3 फ़रवरी 2015

मानस प्रभाव

प्रजा का हाल-चाल जानने के उद्देश्य से, हर माह की पहली तिथि को, नगर बाज़ार में राजा की सवारी निकलती थी। बाजार में एक दूकान पर बैठे एक व्यापारी को देखकर, आजकल राजा असहज महसूस करने लगे। उन्हें उस व्यापारी की सूरत देखते ही अप्रीति उत्पन्न होती।
राजा समझदार था, अकारण उपजते द्वेषभाव ने उसे चिंतित कर दिया। दरबार में पहुँचकर राजा ने अपने बुद्धिमंत प्रधान को यह बात बताई। प्रधान नें राजा को कारण जानकर, समाधान का भरोसा दिलाया।
दूसरे ही दिन प्रधान, उस व्यापारी की दूकान पर गया और हालचाल पूछा। व्यापारी ने बताया कि वह चन्दन की लकड़ी का व्यापारी है, आजकल इस धंधे में घोर मंदी है और बिक्री बिलकुल भी नहीं हो रही, वह परेशान है।
प्रधान ने तत्काल राजमहल में उपयोग हेतु प्रति दिन 10 किलो चन्दन पहुँचाने का आदेश दिया एवम् राजकोष से प्रतिदिन भुगतान ले जाने की सूचना कर दी।
अगले ही नगर-भ्रमण के दौरान, उस व्यापारी को देखकर राजा को स्नेह और उत्साह महसूस हुआ। राजा ने प्रसन्न मुद्रा में प्रधान की और दृष्टि घुमाई, प्रधान ने भी मुस्कराकर अभिवादन किया।
प्रधान ने एकांत में राजा को बताया कि बिक्री न होने के कारण व्यापारी के मन में बुरे विचार उठते थे। वह सोचता कि यदि यह राजा मर जाए तो मेरी बहुत सारी चन्दन की लकड़ी बिक जाए। उसके इसी बुरे चिंतन के फलस्वरूप आपको उसे देखकर घृणा उपजती थी। मैंने आपकी तरफ से प्रतिदिन लकड़ी खरीदने की व्यवस्था करके, उसके चिंतन की दिशा बदल दी। अब वह आपके दीर्घ जीवन की कामना करता है।

मन के विचारों का प्रभाव जोरदार होता है।

29 नवंबर 2012

आसक्ति की मृगतृष्णा

हमारे गांव में एक फकीर घूमा करता था, उसकी सफेद लम्बी दाढ़ी थी और हाथ में एक मोटा डण्डा रहता था। चिथड़ों में लिपटा उसका ढीला-ढाला और झुर्रियों से भरा बुढ़ापे का शरीर। कंधे पर पेबंदों से भरा झोला लिये रहता था। वह बार-बार उस गठरी को खोलता, उसमें बड़े जतन से लपेटकर रखी, रंगीन कागज की गड्डियों को निकालता, हाथ फेरता और पुनः थेले में रख देता। जिस गली से वह निकलता और जहां भी रंगीन कागज दिखता, वह बड़ी सावधानी से उसे उठा लेता, कोने सीधे करता, तह कर हाथ फेरता और उसकी गड्डी बना कर रख लेता।

फिर वह किसी दरवाजे पर बैठ जाता और कागजों को दिखाकर कहा करता, "ये मेरे प्राण हैं।" कभी कहता, "ये रुपये हैं। इनसे गांव के गिर रहे, अपने किले का पुनर्निर्माण कराऊंगा।" फिर अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरकर स्वाभिमान से कहता, "उस किले पर हमारा झंडा फहरेगा और मैं राजा बनूंगा।"

गांव के बालक उसे घेरकर खड़े हो जाते, उस पर हँसा करते। वयस्क और वृद्ध लोग भी उसकी खिल्ली उड़ाते। कहते, "पागल है, तभी तो रंगीन रद्दी कागजों से किले बनवाने की बात कर रहा है।"

मुझे अनुभूति हुई कि हम भी तो वही करते है। उस फकीर की तरह, हम भी रंग बिरंगे कागज संग्रह करने में व्यस्त है,  उनसे किले बनाने  के दिवास्वप्न में मस्त है। पागल तो हम है, जिन सुखों के पिछे बेतहासा भाग रहे है, अन्तत: वह सुख तो हमें मिलता ही नहीं। सारे ही प्रयास निर्थक स्वप्न ही साबित होते है। यह फकीर जैसे हम संसार के प्राणियों से कहता है, "तुम सब पागल हो, जो माया में लिप्त, तरह-तरह के किले बनाते हो और सत्ता के सपने देखते रहते हो, इतना ही नही, मोहासक्त तुम अपने पागलपन को बुद्धिमत्ता समझते हो"

ऐसे फकीर हर गांव- शहर में घूमते हैं, किन्तु हमने अपनी आंखों पर आसक्ति की पट्टी बांध रखी है और कान मोह मद से बंद कर लिये हैं। इसी से न हम यथार्थ को देख पाते हैं, न समझ पाते हैं। वास्तव में पागल वह नहीं, हम हैं।

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