"समाज"
‘पशूनां समजः, मनुष्याणां समाजः’
पशुओं का समूह ‘समज’ होता है और मनुष्यों का समूह ‘समाज’।
अर्थार्त, पशुओं के संगठन, झुंड कहलाते है, जबकि इन्सानो के संगठन ही समाज कहलाते है।
भेद यह है कि पशुओं के पास भाषा या वाणी नहीं होती। और मनुष्य भाषा और वाणी से समृद्ध होता है।
जहाँ भाषा और वाणी होती है,वहाँ बुद्धि और विवेक होता है। जहाँ बुद्धि और विवेक होता है वहीं ‘चिंतन’ होता हैं।
आज मनुष्यों ने भाषा,वाणी,बुद्धि,विवेक और चिंतन होते हुए भी समाज को तार तार कर उसे झुंड (भीड) बना दिया हैं।
रहन-सहन में उच्चतम विकास साधते हुए भी मानव मानसिकता से पशुतुल्य होता जा रहा है।भीड में रहते हुए भी सामुहिकता तज कर, स्वार्थपूर्ण एकांतप्रिय और व्यक्तिगत होना पसंद कर रहा है।
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बिलकुल सही चिंता जताई है आपने. विकास के नाम पर लोग दिन ब दिन अलग थलग होते जा रहे है.
जवाब देंहटाएंसामूहिकता की समरसता का सुख अलग ही होता है.....इससे दूर हो रहे हैं... विचारणीय
जवाब देंहटाएंसविनय असहमत सुज्ञ जी.
जवाब देंहटाएंअपने इर्द-गिर्द एक बार फिर नजर दौड़ाएं.
यह जरूर माना जा सकता है कि उपरी और सरसरी तौर पर देखने से ऐसा ही लगता है, जैसा आपने लिखा है, किन्तु अगर ऐसा है तो वह सतह पर है. मेरे निवेदन पर एक बार प्रयास करें मानवता, सामाजिकता की न जाने कितनी मिसालें आपके दिख जाएंगी, उसके बाद आने वाली आपकी पोस्ट की प्रतीक्षा रहेगी.
राहुल जी,
जवाब देंहटाएंप्रस्तुत चिंतन में मानव की सामुहिकता (समाज)पर चिंता जतायी गई है।
आपकी असहमति अपार हर्ष दे रही है कि मानवता और सामाजिकता पर सकारात्मक सोच कायम है,उम्मीदें है।
और जो इस विचार से सहमत हो चिंता प्रकट कर रहे है,उनकी भी मनोभावना तो सामुहिकता समरसता रूपी समाज के अस्तित्व के पक्ष में है।
बुद्धि और विवेक में क्या अन्तर है... रामचरितमानस में एक चौपाई भी है.. बुद्धि और विवेक के बारे में..
जवाब देंहटाएंprabudh-jano ke tippani pe aapki prati-tippani ka
जवाब देंहटाएंintzar rahega......
pranam.
भारतीय नागरिक जी,
जवाब देंहटाएं'बुद्धि' जिसका उपयोग उचित अनुचित जानने में किया जाता है। जो सोच और विचारों का मंथन मात्र है, बुद्धि द्वारा ज्ञात उचित अनुचित में से उचित का चुनाव 'विवेक'कहलाता है।
संजय झा जी,
इस प्रतिउत्तर से कदाचित न्याय कर पाया होऊं।
सब तरह के लोग हैं समाज में , कुछ पशुवत , कुछ मित्रवत ।
जवाब देंहटाएंMain aapse Sahmat hun. 'Budhhi' aur 'vivek' ke baare men Apke vichar pasand aaye.
जवाब देंहटाएं'Divya' ji ne bhi sahi likha hai ki Dona hi trah ke log hai yahaan par.
Jo achhe log hai vo prerit karte hain, umeed jagaten hain.
बहुत सुन्दर चिंतन..वास्तव में कई मायनों में तो पशु आचरण से भी निम्न हो चुके हैं..
जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी!
जवाब देंहटाएंसमाज की प्रवृत्ति का सही चित्रण!!
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जवाब देंहटाएंमित्र सुज्ञ जी,
पशु होना वैसे तो कोई गुनाह नहीं किन्तु बुद्धि और भाषा होने के बावजूद भी पशुवत रहना गुनाह है. समाज की अवधारणा सभ्यता की प्राथमिक शर्त है. मैंने कभी संसार में पशु के न होने पर चिंतन किया था तो यह प्राप्त हुआ. यह कविता रात्रिकालीन है. इस कारण स्यात 'चिंतन' में 'तमस' तत्व की संभावना अधिक हो सकती है.
............ पशु .............
यदि पशु न होता
तो पशुता न होती ...
...
जवाब देंहटाएंपशुता न होती तो मन शांत होता...
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जवाब देंहटाएंमन शांत होता, क्या रति भाव होता?
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जवाब देंहटाएंरति भाव से ही तो सृष्टि बनी है
रति भाव में भी तो पशुता छिपी है
है पशुता ही मनुष्य को मनुष्य बनाती
वरना मनुष्य देव की योनि पाता
अमैथुन कहाता, अहिंसक कहाता
तब सृष्टि की कल्पना भी न होती
संसार संसार होने न पाता
होता यहाँ भी शून्य केवल
अतः पशु से ही संसार संभव।
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आज मनुष्यों ने भाषा,वाणी,बुद्धि,विवेक और चिंतन होते हुए भी समाज को तार तार कर उसे झुंड (भीड) बना दिया हैं। सिर्फ़ पैसो के लिये आज मनुष्या जानवर बन गया हे, ओर दुसरो का खुन पी रहा हे
जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी बहुत ही सार्थक चिंतन......... समाज की बदलती दशा को बहुत ही अच्छी तरह से आप ने दिखाया है. सच आदमी दिन प्रति दिन असामाजिक होता जा रहा है जो चिंता का विषय है.
जवाब देंहटाएंSarthak chintan
जवाब देंहटाएंsamaj humse hai jaisa dekho vaisa paoge
achchha bhi bura bhi
सार्थक चिंतन !
जवाब देंहटाएंआज मनुष्यों ने भाषा,वाणी,बुद्धि,विवेक और चिंतन होते हुए भी समाज को तार तार कर उसे झुंड (भीड) बना दिया हैं।
जवाब देंहटाएंसटीक और सार्थक चिंतन ..
बड़े अच्छे लेख प्रस्तुत कर रहे हैं सुज्ञ जी ।
जवाब देंहटाएंsugy ji, shubhkamna. jai sri Ram
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