6 सितंबर 2013

समाज सुधार कैसे हो?


"पहले स्वयं सुधरो, फिर दुनिया को सुधारना" एवं "क्या करें दुनिया ही ऐसी है"। वस्तुतः यह दोनो कथन विरोधाभासी है। या यह कहें कि ये दोनो कथन मायावी बहाने मात्र है। स्वयं से सुधार इसलिए नहीं हो सकता कि दुनिया में अनाचार फैला है, स्वयं के सदाचारी बनने से कार्य सिद्ध नहीं होते और दुनिया इसलिए सदाचारी नहीं बन पा रही कि लोग व्यक्तिगत रूप से सदाचारी नहीं है। व्यक्ति और समाज दोनों परस्पर सापेक्ष है। व्यक्ति के बिना समाज नहीं बन सकता और समाज के बिना व्यक्ति का चरित्र उभर नहीं सकता। ऐसी स्थिति में व्यक्तिगत सुधार के लिए सुधरे हुए समाज की अपेक्षा रहती है और समाज सुधार के लिए व्यक्ति का सुधार एक अपरिहार्य आवश्यकता है।

ऐसी परिस्थिति में सुधार की हालत यह है कि 'न नौ मन तैल होगा, न राधा नाचेगी'। तो फिर क्या हो?……

"उपदेश मत दो, स्वयं का सुधार कर लो दुनिया स्वतः सुधर जाएगी।"  हमें जब किसी उपदेशक को टोकना होता है तो प्रायः ऐसे कुटिल मुहावरों का प्रयोग करते है। इस वाक्य का भाव कुछ ऐसा निकलता है जैसे यदि सुधरना हो तो आप सुधर लें, हमें तो जो है वैसा ही रहने दें। उपदेश ऐसे प्रतीत होते है जैसे उपदेशक हमें सुधार कर, सदाचारी बनाकर हमारी सदाशयता का फायदा उठा लेना चाहता है। यदि कोई व्यक्ति अभी पूर्ण सदाचारी न बन पाया हो, फिर भी नैतिकताओ को श्रेष्ठ व आचरणीय मानता हुआ, लोगो को शिष्टाचार आदि के लिए प्रेरित क्यों नहीं कर सकता?

निसंदेह सदाचारी के कथनो का अनुकरणीय प्रभाव पडता है। लेकिन यदि कोई मनोबल की विवशता के कारण पूर्णरुपेण सदाचरण हासिल न कर पाए, उसके उपरांत भी वह सदाचार को जगत के लिए अनुकरणीय ग्रहणीय मानता हो। दुनिया में नैतिकताओं की आवश्यकता पर उसकी दृढ आस्था हो, विवशता से पालन न कर पाने का खेदज्ञ हो, नीतिमत्ता के लिए संघर्षरत हो और दृढता आते ही अपनाने की मनोकामना रखता हो, निश्चित ही उसे सदाचरण पर उपदेश देने का अधिकार है। क्योंकि ऐसे प्रयासों से नैतिकताओं का औचित्य स्थापित होते रहता है। वस्तुतः कर्तव्यनिष्ठा और नैतिक मूल्यों के प्रति आदर, आस्था और आशा  का बचे रहना नितांत ही आवश्यक है। आज भले एक साथ समग्रता से पालन में या व्यवहार में न आ जाय, यदि औचित्य बना रहा तो उसके व्यवहार में आने की सम्भावना प्रबल बनी रहेगी।

समाज से आदर्शों का विलुप्त होना, सदाचारों का खण्डित होना या नष्ट हो जाना व्यक्तिगत जीवन मूल्यों का भी विनाश है। और नैतिकताओं पर व्यक्तिगत अनास्था, सामाजिक चरित्र का पतन है.

इसलिए सुधार व्यक्तिगत और समाज, दोनो स्तर पर समानांतर और समान रूप से होना बहुत ही जरूरी है.

24 अगस्त 2013

धरती का रस



एक राजा था। एक बार वह सैर करने के लिए अपने शहर से बाहर गया। लौटते समय कठिन दोपहर हो गई तो वह किसान के खेत में विश्राम करने के लिए ठहर गया। किसान की बूढ़ी मां खेत में मौजूद थी। राजा को प्यास लगी तो उसने बुढ़िया से कहा, "बुढ़ियामाई, प्यास लगी है, थोड़ा-सा पानी दे।"

बुढ़िया ने सोचा, एक पथिक अपने घर आया है, चिलचिलाती धूप का समय है, इसे सादा पानी क्या पिलाऊंगी! यह सोचकर उसने अपने खेत में से एक गन्ना तोड़ लिया और उसे निचोड़कर एक गिलास रस निकाल कर राजा के हाथ में दे दिया। राजा गन्ने का वह मीठा और शीतल रस पीकर तृप्त हो गया। उसने बुढ़िया से पूछा, "माई! राजा तुमसे इस खेत का लगान क्या लेता है?"

बुढ़िया बोली, "इस देश का राजा बड़ा दयालु है। बहुत थोड़ा लगान लेता है। मेरे पास बीस बीघा खेत है। उसका साल में एक रुपया लेता है।"

राजा ने सोचा इतने मधुर रस की उपज वाले खेत का लगान मात्र एक रुपया ही क्यों हो! उसने मन में तय किया कि राजधानी पहुंचकर इस बारे में मंत्री से सलाह करके गन्ने के खेतों का लगान बढ़ाना चाहिए। यह विचार करते-करते उसकी आंख लग गई।

कुछ देर बाद वह उठा तो उसने बुढ़ियामाई से फिर गन्ने का रस मांगा। बुढ़िया ने फिर एक गन्ना तोड़ और उसे निचोड़ा, लेकिन इस बार बहुत कम रस निकला। मुश्किल से चौथाई गिलास भरा होगा। बुढ़िया ने दूसरा गन्ना तोड़ा। इस तरह चार-पांच गन्नों को निचोड़ा, तब जाकर गिलास भरा। राजा यह दृश्य देख रहा था। उसने किसान की बूढ़ी मां से पूछा, "बुढ़ियामाई, पहली बार तो एक गन्ने से ही पूरा गिलास भर गया था, इस बार वही गिलास भरने के लिए चार-पांच गन्ने क्यों तोड़ने पड़े, इसका क्या कारण है?"

किसान की मां बोली, " मुझे भी अचम्भा है कारण मेरी समझ में भी नहीं आ रहा। धरती का रस तो तब सूखा करता है जब राजा की नीयत में फर्क आ जाय, उसके मन में लोभ आ जाए। बैठे-बैठे इतनी ही देर में ऐसा क्या हो गया! फिर हमारे राजा तो प्रजावत्सल, न्यायी और धर्मबुद्धि वाले हैं। उनके राज्य में धरती का रस कैसे सूख सकता है!"

बुढ़िया का इतना कहना था कि राजा का चेतन और विवेक जागृत हो गया। राजधर्म तो प्रजा का पोषण करना है, शोषण करना नहीं। तत्काल लगान न बढ़ाने का निर्णय कर लिया। मन ही मन धरती से क्षमायाचना करते हुए बुढ़िया माँ को प्रणाम कर लौट चला।

लगता है "रूपये" पर  राजा की नीयत खराब हो गई……

7 अगस्त 2013

आदर्श जीवन मूल्यों को अपनाना कठिन है


प्रायः लोग कहते है सदाचरण और जीवन मूल्य श्रेयस्कर है किंतु इस मार्ग पर चलना बड़ा कठिन है। नैतिकता धारण करना दुष्कर कार्य है जबकि सच्चाई यह है कि सदाचरण जीवात्मा का मूलभूत स्वभाव है। बस, सुविधा और स्वार्थ पूर्ति के मानस के कारण ही विकार अपनी जगह बना लेते है। यदि उदाहरण के लिए देखें तो सत्यनिष्ठा एक जीवन मूल्य है। हमें सच बोलकर सदा अच्छा महसूस होता है, आत्मिक शान्ति और संतुष्टि का अनुभव होता है, पवित्रता का एहसास होता है और सच बोलना सहज भी लगता है। वहीं जब झूठ का आश्रय लेना पड़े तो मन कचोटता है, गला सूखता है, दिल बैठ सा जाता है। वह इसलिए कि झूठ हमारी सहज स्वभाविक प्रतिक्रिया नहीं होती। सच कठिन हो सकता है, पर प्रकट करते हुए बड़ा सहज महसुस होता है, और परिणाम संतोष प्रदान करता है।  लेकिन सवाल उठता है कि इन पर चलना जब हमारे जीवन का स्वभाव है तो हम इन पर चल क्यों नहीं पाते? विषम परिस्थितियां आते ही डगमगा क्यों जाते हैं? क्यों आसान लगता है अनैतिक हो जाना, क्यों निष्ठावान रहना दुष्कर लगता है? कारण साफ है, क्षणिक सुख और सुविधा की तरफ ढल पडना बहुत ही आसान होता है, जबकि दृढ मनोबल बनाए रखना,  कठिन पुरूषार्थ की मांग करता है।

जिस तरह हीरे में चमकने का प्राकृतिक स्वभाव होने के उपरांत भी वह हमें प्राकृतिक चमकदार प्राप्त नहीं होता।  हीरा स्वयं बहुत ही कठोर पदार्थ होता है। उसे चमकाने के लिए, उससे भी कठोर व तीक्ष्ण औजारों से प्रसंस्करण की आवश्यकता होती है। उसकी आभा उभारने के लिए कटाई-घिसाई का कठिन श्रम करना पडता है। दाग वाला हिस्सा काट कर दूर करना पडता है। उस पर  सुनियोजित और सप्रमाण पहलू बनाने होते है। सभी पहलुओं घिस कर चिकना करने पर ही हीरा अपनी उत्कृष्ट चमक देता है। अगर हीरे में चमक अभिप्रेत है तो उसे कठिन श्रम से गुजरना ही पडेगा। ठीक उसी प्रकार सद्गुण हमारी अंतरात्मा का स्वभाव है, अपनाने कठिन होते ही है। सदाचार हमारे जीवन के लिए हितकर है, श्रेयस्कर है। यदि जीवन को दैदिप्यमान करना है तो कठिन परिश्रम और पुरूषार्थ से गुजरना ही होगा है। यदि सुंदर चरित्र का निर्माण हमारी ज्वलंत इच्छा है तो कटाव धिसाव के कठिन दौर से गुजरना ही होगा। सुहाते तुच्छ स्वार्थ के दाग हटाने होंगे। आचार विचार के प्रत्येक पहलू को नियमबद्ध चिकना बनाना ही होगा। यदि लक्ष्य उत्कृष्ट जीवन है तो स्वभाविक है, उन मूल्यों को प्राप्त करने लिए पुरूषार्थ भी अतिशय कठिन ही होगा।

यदि हम गहनता से विचार करें तो पाएंगे कि जो व्यक्ति अपने जीवन मूल्यों पर अडिग रहता है, निडर होकर जीता है। उसका अंतस आत्मबल से और भी निखर उठता है। जो भी इन मूल्यों को अपनाता हैं, उसे कर्तव्य निष्ठा का एहसास होता है। वह निर्भय होकर अपनी बात कहता है, स्वार्थ अपूर्ती से उपजने वाला भय उसे नहीं होता क्योंकि उसे कोई स्वार्थ ही नहीं होता। वह हर पल स्वयं को सुरक्षित अनुभव करता है। द्वंद्वं से मुक्त रहकर अपना निर्णय लेता है और दुविधा मुक्त हो अपने कार्य का निस्पादन करता है। अगर आप गहराई से समझें तो यही जीवन मूल्य हमारे लिए सुदृढ़ सुरक्षा कवच की तरह काम करते हैं। परिणाम स्वरूप हमें हर परिस्थिति में डट कर सामना करने का प्रबल साहस प्राप्त होता है. हमें लोग सम्मान की दृष्टि से देखते है। जीवन मूल्यों पर डटे रहने से तुच्छ सी इच्छाए, आकांक्षाएँ, अपेक्षाएं अवश्य चुक सकती है, मगर जीवन मूल्यों पर चलकर इच्छाओं और आकांक्षाओं के क्षणिक लाभकारी सुख से लाख गुना श्रेष्ठ  सुख, शांति, संतुष्टि, प्रेम  और स्थायी आदर सहज ही प्राप्त हो जाता है। मानव जीवन के लिए वस्तुतः स्थायी सुख ही श्रेयस्कर है।

5 अगस्त 2013

आज चारों ओर झूठ कपट भ्रष्टता का माहौल है ऐसे में नैतिक व आदर्श जीवन-मूल्य अप्रासंगिक है।

यदि आज के दौर में उनकी प्रासंगिता त्वरित लाभकारी दृष्टिगोचर नहीं होती, तो फिर क्या आज उनकी कोई सार्थकता नहीं रह गयी है. क्या हमें इन मूल्यों का समूल रूप से परित्याग करके समय की आवश्यकता के अनुरूप सुविधाभोगी जीवन मूल्य अपना लेने चाहिए? आज सेवा, त्याग, उपकार, निष्ठा, नैतिकता का स्थान स्वार्थ, परिग्रह, कपट, ईर्ष्या, लोभ-लिप्सा आदि ने ले लिया और यही सफलता के उपाय बन कर रह गए है।  विचारधारा के स्वार्थमय परिवर्तन से मानवीय मूल्यों के प्रति विश्वास और आस्था में कमी आई है।

आज चारों ओर झूठ, कपट, भ्रष्टता का माहौल है, नैतिक बने रहना मूर्खता का पर्याय माना जाता है और अक्सर परिहास का कारण बनता है। आश्चर्य तो यह है नैतिक जीवन मूल्यों  की चाहत सभी को है किन्तु इन्हें जीवन में उतार नहीं पाते!! आज मूल्यों को अनुपयोगी मानते हुए भी सभी को अपने आस पास मित्र सम्बंधी तो सर्वांग नैतिक और मूल्य निष्ठ चाहिए। चाहे स्वयं से मूल्य निष्ठा निभे या न निभे!! हम कैसे भी हों किन्तु हमारे आस पास की दुनिया तो हमें शान्त और सुखद ही चाहिए। यह कैसा विरोधाभास है? कर्तव्य तो मित्र निभाए और अधिकार हम भोगें। बलिदान पडौसी दे और लाभ हमे प्राप्त हो। सभी अनजाने ही इस स्वार्थ से ग्रस्त हो जाते है। सभी अपने आस पास सुखद वातावरण चाहते है, किन्तु सुखद वातावरण का परिणाम  नहीं आता। हमें चिंतन करना पडेगा कि सुख शान्ति और प्रमोद भरा वातावरण हमें तभी प्राप्त हो सकता है जब नैतिकताओं की महानता पर हमारी स्वयं की दृढ़ आस्था हो, अविचलित धारणा हो, हमारे पुरूषार्थ का भी योगदान हो। कोई भी नैतिक आचरणों का निरादर न करे, उनकी ज्वलंत आवश्यकता प्रतिपादित करे तभी नैतिक जीवन मूल्यों की प्रासंगिकता स्थायी रह सकती है।

आज की सर्वाधिक ज्वलंत समस्या नैतिक मूल्य संकट ही हैं। वैज्ञानिक प्रगति, प्रौद्योगिक विकास, अर्थ प्रधानता के कारण, उस पर अनेक प्रश्न-चिह्न खडे हो गए। हर व्यक्ति कुंठा, अवसाद और हताशा में जीने के लिए विवश हो रहा है। इसके लिए हमें अपना चिंतन बदलना होगा, पुराने किंतु उन शाश्वत जीवन मूल्यों को जीवन में फिर से स्थापित करना होगा। आज चारों और अंधेरा घिर चुका है तो इसका अर्थ यह नहीं कि उसमें हम बस कुछ और तिमिर का योगदान करें! जीवन मूल्यों पर चलकर ही किसी भी व्यक्ति, परिवार, समाज एवं देश के चरित्र का निर्माण होता है। नैतिक मूल्य, मानव जीवन को स्थायित्व प्रदान करते हैं। आदर्श मूल्यों द्वारा ही सामाजिक सुव्यवस्था का निर्माण होता है। हमारे परम्परागत स्रोतों से निसृत, जीवन मूल्य चिरन्तन और शाश्वत हैं। इसके अवमूल्यन पर सजग रहना आवश्यक है।  नैतिक जीवन मूल्यों की उपयोगिता, काल, स्थान वातावरण से अपरिवर्तित और शाश्वत आवश्यकता है। इसकी उपादेयता निर्विवाद है। नैतिन मूल्य सर्वकालिक उत्तम और प्रासंगिक है।

3 अगस्त 2013

उच्च आदर्श और जीवन-मूल्य धर्म का ढकोसला है। मात्र श्रेष्ठतावादी अवधारणाएं है। यह सब धार्मिक ग्रंथों का अल्लम गल्लम है। सभी पुरातन रूढियाँ मात्र है।


प्रत्येक धर्म के मूल में करूणा, प्रेम, अनुकम्पा, निःस्वार्थ व्यवहार, जीवन का आदर, सह-अस्तित्व जैसे जीवन के आवश्यक मूल्य निहित हैं। दया, परोपकार, सहिष्णुता वास्तव में हमारे ही अस्तित्व को सुनिश्चित बनाए रखने के लिए हैं। चूंकि जीने की इच्छा प्राणीमात्र की सबसे बड़ी और सर्वाधिक प्रबल जिजीविषा होती है, अतः धर्म का प्रधान लक्ष्य अस्तित्व को कायम रखने का उपाय ही होता है। प्रत्येक जीवन के प्रति आदर के लिए कर्म और पुरूषार्थ ही धर्म है। यदि जीवन में मूल्यों के प्रति आस्था न होती, मात्र अपना जीवन-स्वार्थ ही सबकुछ होता, तो तब क्या संभव था कि कोई किसी दूसरे को जीवित भी रहने देता? वस्तुतः जीवन मूल्यों का आदर करना हमारा अपना ही जीवन संरक्षण है। भारतीय समाज में जीवन-मूल्यों का प्रमुख स्त्रोत धर्म रहा है और धर्म ही जीवन मूल्यों के प्रति अटल आस्था उत्पन्न करता है। प्रत्येक धर्म में कुछ नैतिक आदर्श होते हैं, धर्मोपदेशक महापुरूषों, संतो से लेकर कबीर, तुलसीदास व रहीम के नीति काव्य तक व्याप्त नीति साहित्य मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा के प्रत्यक्ष प्रयास है।

इन आदर्श जीवन मूल्यों के विरूधार्थी दुष्कर्मो को अध्यात्म-दर्शन में पाप कहा जाता है। किंतु आज चाहे कैसी भी अनैतिकता हो, उसे पाप शब्द मात्र से सम्बोधित करना, लोगों को गाली प्रतीत होता है. सदाचार से पतन को पाप संज्ञा देना उन्हें अतिश्योक्ति लगता है. यह सोच आज की हमारी सुविधाभोगी मानसिकता के कारण है। किन्तु धर्म-दर्शन ने गहन चिंतन के बाद ही इन्हें पाप कहा है। वस्तुतः हिंसा, झूठ, कपट, परस्पर वैमनस्य, लालच आदि सभी, 'स्व' और 'पर' के जीवन को, बाधित और विकृत करने वाले दुष्कृत्य ही है। जो अंततः जीवन विनाश के ही कारण बनते है। अतः दर्शन की दृष्टि से ऐसे दूषणो को पाप माना जाना उपयुक्त और उचित है। हम हज़ारों वर्ष पुरानी सभ्यता एवं संस्कृति के वाहक है। हमारी सभ्यता और संस्कृति ही हमारे उत्तम आदर्शों और उत्कृष्ट जीवन मूल्यों की परिचायक है। यदि वास्तव में हमें अपनी सभ्यता संस्कृति का गौरवगान करना है तो सर्वप्रथम ये आदर्श, परंपराएं, मूल्य, मर्यादाएँ हम प्रत्येक के जीवन का, व्यक्तित्व का अचल और अटूट हिस्सा होना चाहिए। संस्कृति का महिमामण्डन तभी सार्थक है जब हम इस संस्कृति प्रदत्त जीवन-मूल्यों पर हर हाल में अडिग स्थिर बनकर रहें।

29 जुलाई 2013

द्वैध में द्वन्द्व, एकत्व में मुक्ति

मिथिला नरेश नमि दाह-ज्वर से पीड़ित थे। उन्हें भारी कष्ट था। भांति-भांति के उपचार किये जा रहे थे। रानियॉँ अपने हाथों से बावना चंदन घिस-घिस कर लेप तैयार कर रही थीं।

जब मन किसी पीड़ा से संतप्त होता है तो व्यक्ति को कुछ भी नहीं सुहाता। एक दिन रानियां चंदन घिस रही थीं। इससे उनके हाथों के कंगन झंकृत हो रहे थे। उनकी ध्वनि बड़ी मधुर थी, किंतु राजा का कष्ट इतना बढ़ा हुआ था कि वह मधुर ध्वनि भी उन्हें अखर रही थी। उन्होंने पूछा, "यह कर्कश ध्वनि कहां से आ रही है?"

मंत्री ने जवाब दिया, "राजन, रानियॉँ चंदन विलेपन कर रही हैं। हाथों के हिलने से कंगन आपस में टकरा रहे हैं।"

रानियों ने राजा की भावना समझकर कंगन उतार दिये। मात्र, एक-एक रहने दिया।

जब आवाज बंद हो गई तो थोड़ी देर बाद राजा ने शंकित होकर पूछा, "क्या चंदन विलेपन बंद कर दिया गया है?"

मंत्री ने कहा, "नहीं महाराज, आपकी इच्छानुसार रानियों ने अपने हाथों से कंगनों को उतार दिया है। सौभाग्य के चिन्ह के रुप में एक-एक कंगन रहने दिया है। राजन, आप चिन्ता मत कीजिये, लेपन बराबर किया जा रहा है।"

इतना सुनकर अचानक राजा को बोध हुआ, "ओह, मैं कितने अज्ञान में जी रहा हूं। जहॉँ दो हैं, वहीं संघर्ष है, वहीं पीड़ा है। मैं इस द्वन्द्व में क्यों जीता रहा हूं? जीवन में यह अशांति और मन की यह भ्रांति, आत्मा के एकत्व की साधना से हटकर, पर में, दूसरे से लगाव-जुडाव के कारण ही है।"

राजा का ज्ञान-सूर्य उदित हो गया। उसने सोचा-दाह-ज्वर के उपशांत होते ही चेतना की एकत्व साधना के लिए मैं प्रयाण कर जाऊंगा।

इसके बाद अपनी भोग-शक्ति को योग-साधना में रुपान्तरित करने के लिए राजा, नये मार्ग पर चल पड़ा।

25 जुलाई 2013

इस मार्ग में मायावी पिशाच बैठा है।

दो भाई धन कमाने के लिए परदेस जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने देखा कि एक बूढ़ा दौड़ा चला आ रहा है। उसने पास आते ही कहा, "तुम लोग इस रास्ते आगे मत जाओ, इस मार्ग में मायावी भयानक पिशाच बैठा है। तुम्हें खा जाएगा। "कहते हुए विपरित दिशा में लौट चला। उन भाइयों ने सोचा कि बेचारा बूढ़ा है, किसी चीज को देखकर डर गया होगा। बूढ़े होते ही अंधविश्वासी है। मिथक रचते रहते है। हम जवान हैं, साहसी है। हम क्यों घबराएँ। यह सोचकर दोनों आगे बढ़े।

थोड़ा आगे बढ़ते ही मार्ग में उन्हें एक थैली पड़ी हुई मिली। उन्होंने थैली को खोलकर देखा। उसमें सोने की मोहरें थी। दोनों ने इधर-उधर निगाह दौड़ाई, वहाँ अन्य कोई भी नहीं था। प्रसन्न होकर बड़ा भाई बड़बड़ाया, "हमारा काम बन गया। परदेस जाने की अब जरूरत नहीं रही।" दोनों को भूख लगी थी। बड़े भाई ने छोटे भाई से कहा, 'जाओ, पास के गांव से कुछ खाना ले आओ।' छोटे भाई के जाते ही बड़े भाई के मन में विचार आया कि कुछ ही समय में यह मोहरें आधी-आधी बंट जाएंगी। क्यों न छोटे भाई को रास्ते से ही हटा दिया जाए। इधर छोटे भाई के मन में भी यही विचार कौंधा और उसने खाने में विष मिला दिया। जब वह खाने का समान लेकर लौटा तो बड़े भाई ने उस पर गोली चला दी। छोटा भाई वहीं ढेर हो गया। अब बड़े भाई ने सोचा कि पहले खाना खा लूं, फिर गड्ढा खोदकर भाई की लाश को गाड़ दूंगा। उसने ज्यों ही पहला कौर उदरस्थ किया, उसकी भी मौत हो गई।

वृद्ध की बात यथार्थ सिद्ध हुई, लालच के पिशाच ने दोनों भाईयों को खा लिया था।

जहाँ लाभ हो, वहाँ लोभ अपनी माया फैलाता है। लोभ से मदहोश बना व्यक्ति विवेक से अंधा हो जाता है। वह उचित अनुचित पर तनिक भी विचार नहीं कर पाता।

दृष्टव्य :
मधुबिंदु
आसक्ति की मृगतृष्णा
आधा किलो आटा

17 जुलाई 2013

गार्बेज ट्रक (कूडा-वाहन)

कूडा-वाहन

एक दिन एक व्यक्ति टैक्सी से एअरपोर्ट जा रहा था।  टैक्सी वाला कुछ गुनगुनाते हुए बड़े मनोयोग से गाड़ी चला रहा था कि सहसा एक दूसरी कार, पार्किंग से निकल कर तेजी से रोड पर आ गयी। टैक्सी वाले ने तेजी से ब्रेक लगाया, गाड़ी स्किड करने लगी और मात्र एक -आध इंच भर से,  सामने वाली कार से भिड़ते -भिड़ते बची।

यात्री ने सोचा कि अब टैक्सी वाला उस कार वाले को भला -बुरा कहेगा …लेकिन इसके उलट सामने वाला ही पीछे मुड़ कर उसे गलियां देने लगा।  इसपर टैक्सी वाला नाराज़ होने की बजाये उसकी तरफ हाथ हिलाते हुए मुस्कुराने लगा, और धीरे -धीरे आगे बढ़ गया। यात्री ने आश्चर्य से पूछा “ तुमने ऐसा क्यों किया ? गलती तो उस कार वाले की थी ,उसकी वजह से तुम्हारी गाडी लड़ सकती थी और हम होस्पिटलाइज भी हो सकते थे!”

“सर जी ”, टैक्सी वाला बोला, “बहुत से लोग गार्बेज ट्रक की तरह होते हैं। वे बहुत सारा गार्बेज उठाये हुए चलते हैं, फ्रस्ट्रेटेड, निराशा से भरे हुए, हर किसी से नाराज़।  और जब गार्बेज बहुत ज्यादा हो जाता है, तो वे अपना बोझ हल्का करने के लिए उसे दूसरों पर फैकने का मौका खोजने लगते हैं। किन्तु जब ऐसा कोई व्यक्ति मुझे अपना शिकार बनाने की कोशिश करता हैं, तो मैं बस यूँही मुस्कुराकर हाथ हिलाते हुए उनसे दूरी बना लेता हूँ।

ऐसे किसी भी व्यक्ति से उनका गार्बेज नहीं लेना चाहिए, अगर ले लिया तो समझो हम भी उन्ही की तरह उसे इधर उधर फेंकने में लग जायेंगे। घर में, ऑफिस में, सड़कों पर …और माहौल गन्दा कर देंगे, दूषित कर देंगे। हमें इन गार्बेज ट्रक्स को, अपना दिन खराब करने का अवसर नहीं देना चाहिए। ऐसा न हो कि हम हर सुबह किसी अफ़सोस के साथ उठें। ज़िन्दगी बहुत छोटी है, इसलिए उनसे प्यार करो जो हमारे साथ अच्छा व्यवहार करते हैं। किन्तु जो नहीं करते, उन्हें माफ़ कर दो।”

मित्रों, बहुत ही गम्भीराता से सोचने की बात है, हम सौद्देश्य ही कूडा वाहन से कूडा उफनवाते है। फिर उसे स्वीकारते है, उसे उठाए घुमते है और फिर यत्र तत्र बिखेरते चलते है।  ऐसा करने के पूर्व ही हमें, गार्बेज ट्रक की अवहेलना नहीं कर देनी चाहिए??? और सबसे बड़ी बात कि कहीं हम खुद गार्बेज ट्रक तो नहीं बन रहे ???

इस कहानी से सीख लेते हुए, हमें विषादग्रस्त व कुंठाग्रस्त लोगों को उत्प्रेरित करने से बचना चाहिए। स्वयं क्रोध कर उनसे उलझने की बजाए उन्हें माफ करने की आदत डालनी चाहिए। सहनशीलता, समता और सहिष्णुता वस्तुतः हमारे अपने व्यक्तित्व को ही स्वच्छ और शुद्ध रखने के अभिप्राय से है, न कि अपने ही गुण-गौरव अभिमान की वृद्धि के लिए। समाज में शिष्टाचार, समतायुक्त आचरण से ही प्रसार पाता है। और इसी आचरण से चारों ओर का वातावरण खुशनुमा और प्रफुल्लित बनता है।

13 जुलाई 2013

अपक्व सामग्री से ही पकवान बनता है.

एक लड़की अपनी माँ के पास आकर अपनी परेशानियों का रोना रो रही थी।

वो परीक्षा में फेल हो गई थी। सहेली से झगड़ा हो गया। मनपसंद ड्रेस प्रैस कर रही थी वो जल गई। रोते हुए बोली, "मम्मी, देखो ना, मेरी जिन्दगी के साथ सब कुछ उलटा - पुल्टा हो रहा है।"

माँ ने मुस्कराते हुए कहा, यह उदासी और रोना छोड़ो, चलो मेरे साथ रसोई में, "तुम्हें आज तुम्हारी मनपसंद दाल कचोडियां खिलाती हूँ।"

लड़की का रोना बंद हो गया और हंसते हुये बोली,"दाल कचोडियां तो मेरा प्रिय व्यंजन है। कितनी देर में बनेगी?", कन्या ने चहकते हुए पूछा।

माँ ने सबसे पहले मैदे का डिब्बा उठाया और प्यार से कहा, "ले पहले मैदा खा ले।" लड़की मुंह बनाते हुए बोली, "इसे कोई खाता है भला।" माँ ने फिर मुस्कराते हुये कहा, "तो ले सौ ग्राम दाल ही खा ले।" फिर नमक और मिर्च मसाले का डिब्बा दिखाया और कहा, "लो इसका भी स्वाद चख लो।"

"माँ!! आज तुम्हें क्या हो गया है? जो मुझे इस तरह की चीजें खाने को दे रही हो?"

माँ ने बड़े प्यार और शांति से जवाब दिया, "बेटा!! कचोडियां इन सभी अरूचक चीजों से ही बनती है और ये सभी वस्तुएं मिल कर, पक कर ही कचोडी को स्वादिष्ट बनाती हैं। अपक्व सामग्री के समायोजन से ही पकवान बनता है। मैं तुम्हें बताना चाह रही थी कि "जिंदगी का पकवान" भी इसी प्रकार की अप्रिय घटनाओं से परिपक्व बनता है।

फेल हो गई हो तो इसे चुनौती समझो और मेहनत करके पास हो जाओ।

सहेली से झगड़ा हो गया है तो अपना व्यवहार इतना मीठा बनाओ कि फिर कभी किसी से झगड़ा न हो।

यदि मानसिक तनाव के कारण "ड्रेस" जल गई तो सदैव ध्यान रखो कि मन की हर स्थिति परिस्थिति में अविचलित रहो।

बिगड़े मन से काम भी तो बिगड़ेंगे। कार्यकुशल बनने के लिए मन के चिंतन को विवेक-कुशल बनाना अनिवार्य है।

कच्चे अनुभवों के बूते पर ही जीवन चरित्र परिष्कृत और परिपक्व बनता है। जीवन के उतार चढाव ही संघर्ष को उर्जा प्रदान करते है। एक बुरा अनुभव आगामी कितने ही बुरे अनुभवों से बचाता है। गलतियां विवेक को सजग रखती है।  बुरे अनुभवों से मायूस होकर बैठना प्रयत्न के पहले ही हार मानने के समान है। हमेशा दूरह मार्ग ही, दुर्गम लक्ष्य का संधान करवाता है।

4 जुलाई 2013

क्रोध शमन उपचार

क्रोध मन का एक अस्वस्थ आवेग है। जीवन में अप्रिय प्रसंग, वंचनाएं, भूलें, असावधानियां, मन-वचन-काया की त्रृटियों से, जाने अनजाने में विभिन्न दुष्करण  होते रहते है। मनोकामनाएं असीम होती है, कुछेक की पूर्ति हो जाती है और अधिकांश शेष रहती है। पूर्ति न हो पाने और संतोषवृति के अभाव में क्रोधोदय की स्थितियां उत्पन्न होती है।  क्रोध एक ऐसा आवेश है जो उठकर शीघ्र चला भी जाय, किन्तु अपने पिछे परेशानियों का अम्बार लगा जाता है। क्रोध आपके स्वभाव में घृणा भाव को स्थाई बना देता है।

क्रोध एक व्यापक रोग है। यह अपने उदय और निस्तारीकरण के मध्य क्षण मात्र का भी अवकाश नहीं देता। जबकि यही वह क्षण होता है जब विवेक को त्वरित जगाए रखना बेहद जरूरी होता है। यदपि  क्षमा, सहनशीलता और सहिष्णुता ही क्रोध  नियंत्रण के श्रेष्ठ उपाय है। तथापि क्रोध को मंद करने के लिए निम्न प्रथमोपचार कारगर हो सकते है, यथा…

1- किसी की भी गलती को कल पर टाल दो!
2- स्वयं को मामले में अनुपस्थित समझो!
3- मौन धारण करो!
4- वह स्थान कुछ समय के लिए छोड दो!
5- क्रोध क्यों आ रहा है, इस बात पर स्वयं से तर्क करो!
6- क्रोध के परिणामों पर विचार करो!

क्रोध के परिणाम -


संताप - क्रोध केवल और केवल संताप ही पैदा करता है।

अविनय - क्रोध, विनम्रता की लाश लांघ कर आता है। क्रोधावेश में व्यक्ति बद से बदतरता में भी, प्रतिपक्षी से कम नहीं उतरना चाहता।

अविवेक - क्रोध सर्वप्रथम विवेक को नष्ट करता है क्योंकि विवेक ही क्रोध की राह का प्रमुख रोडा है। यहाँ तक कि क्रोधी व्यक्ति स्वयं का हित-अहित भी नहीं सोच पाता।

असहिष्णुता - क्रोध परस्पर सौहार्द को समाप्त कर देता है। यह प्रीती को नष्ट करता है और द्वेष भाव को प्रबल बना देता है। क्रोध के लगातार सेवन से स्वभाव ही असहिष्णु बन जाता है। इस प्रकार क्रोध, वैर की अविरत परम्परा का सर्जन करता है।

उद्वेग - क्रोध उद्वेग का जनक है। आवेश, आक्रोश एवं क्रोध निस्तार से स्वयं की मानसिक शान्ति भंग होती है। जिसके परिणाम स्वरूप तनाव के संग संग, मानसिक विकृतियां भी पनपती है। इस तरह क्रोध जनित उद्वेग, अशांति और तनाव सहित, कईं शारीरिक समस्याओं को भी जन्म देता है।

पश्चाताप - क्रोध सदैव पश्चाताप पर समाप्त होता है। चाहे क्रोध के पक्ष में कितने भी सुविधाजनक तर्क रखे जाय, अन्ततः क्रोध घोर अविवेक ही साबित होता है। यह अप्रिय छवि का निर्माण करता है और अविश्वसनीय व्यक्तित्व बना देता है। अधिकांश, असंयत व्यक्ति अनभिज्ञ ही रहता है कि उसकी समस्त परेशानियों का कारण उसका अपना क्रोध है। जब मूल समझ में आता है सिवा पश्चाताप के कुछ भी शेष नहीं रहता।

क्रोध के परिणामों पर चिंतन-मनन, क्रोध शमन' में कारगर उपचार है।

सम्बंधित सूत्र:-
क्रोध विकार
क्रोध कषाय
बोध कथा : समता की धोबी पछाड़
“क्रोध पर नियंत्रण” प्रोग्राम को चलाईए अपने सिस्टम पर तेज - कुछ ट्रिक और टिप्स

3 जुलाई 2013

अहंकार

एक संन्यासी एक राजा के पास पहुंचा। राजा ने उसका खूब आदर-सत्कार किया। संन्यासी कुछ दिन वहीं रूक गया। राजा ने उससे कई विषयों पर चर्चा की और अपनी जिज्ञासा सामने रखी। संन्यासी ने विस्तार से उनका उत्तर दिया। जाते समय संन्यासी ने राजा से अपने लिए उपहार मांगा। राजा ने एक पल सोचा और कहा, "जो कुछ भी खजाने में है, आप ले सकते हैं।" संन्यासी ने उत्तर दिया, "लेकिन खजाना तुम्हारी संपत्ति नहीं है, वह तो राज्य का है और तुम मात्र उसके संरक्षक हो।" राजा बोले, "महल ले लीजिए।" इस पर संन्यासी ने कहा, "यह भी तो प्रजा का है।"

राजा ने हथियार डालते हुए कहा, "तो महाराज आप ही बताएं कि ऐसा क्या है जो मेरा हो और आपको देने लायक हो?" संन्यासी ने उत्तर दिया, "हे राजा, यदि तुम सच में मुझे कुछ देना चाहते हो, तो अपना अहं दे दो। अहंकार पराजय का द्वार है। यह यश का नाश करता है। अहंकार का फल क्रोध है। अहंकार में व्यक्ति अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझता है। वह जिस किसी को अपने से सुखी-संपन्न देखता है, ईर्ष्या कर बैठता है। हम अपनी कल्पना में पूरे संसार से अलग हो जाते हैं।

"ॠजुता, मृदुता और सहिष्णुता हमें यह विचार देती है कि हम पूर्ण स्वतंत्र एक द्वीप की भांति हैं। हम न किसी से अलग हैं और न स्वतंत्र। यहां सभी एक-दूसरे पर निर्भर रहते हुए, सह-अस्तित्व और सहभागिता में जीते हैं।"

राजा संन्यासी का आशय समझ गए और उसने वचन दिया कि वह अपने भीतर से अहंकार को निकाल कर रहेगा।

"जिनकी विद्या विवाद के लिए, धन अभिमान के लिए, बुद्धि का प्रकर्ष ठगने के लिए तथा उन्नति संसार के तिरस्कार के लिए है, उनके लिए प्रकाश भी निश्चय ही अंधकार है।" -क्षेमेन्द्र

अभिमान वश मनुष्य स्वयं को बडा व दूसरे को तुच्छ समझता है। अहंकार के कारण व्यक्ति दूसरों के गुणों को सहन नहीं करता और उनकी अवहेलना करता है। किंतु दुर्भाग्य से अभिमान कभी भी स्वाभिमान को टिकने नहीं देता, जहां कहीं भी उसका अहंकार सहलाया जाता है, गिरकर उसी व्यक्ति की गुलामी में आसक्त हो जाता है। अहंकार वृति से यश पाने की चाह, मृगतृष्णा ही साबित होती है। अभिमान के प्रयोग से मनुष्य ऊँचा बनने का प्रयास तो करता है किंतु परिणाम सदैव नीचा बनने का ही आता है। निज बुद्धि का अभिमान ही, अन्यत्र ज्ञान की बातों को मस्तिष्क में प्रवेश करने नहीं देता।

अभिमानी व्यक्ति उपेक्षणीय बातों को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर, निरर्थक श्रम से अन्तत: कलह ही उत्पन्न करता हैं। ऐसे व्यक्ति को सबसे ज्यादा आनंद दूसरे के अहंकार को चोट पहुँचाने में आता है और तीव्र क्रोध अपने अहंकार पर चोट लगने से होता है।

समृद्धि का घमण्ड, ऐश्वर्य का घमण्ड, ज्ञान का घमण्ड उसी क्षेत्र के यश को नष्ट कर देता है.

अन्य सूत्र :-
दर्पोदय
ज्ञान का अभिमान
अहमकाना ज्ञान प्रदर्शन
दंभ व्यक्ति को मूढ़ बना देता है।
मानकषाय

1 जुलाई 2013

ध्येयनिष्ठा

बहुत समय पहले की बात है, एक वृद्ध सन्यासी हिमालय की पहाड़ियों में कहीं रहता था। वह बड़ा ज्ञानी था और उसकी बुद्धिमत्ता की ख्याति दूर -दूर तक फैली थी। एक दिन एक महिला उसके पास पहुंची और अपना दुखड़ा रोने लगी,  "बाबा, मेरा पति मुझसे बहुत प्रेम करता था, लेकिन वह जबसे युद्ध से लौटा है, ठीक से बात तक नहीं करता"  "युद्ध लोगों के साथ ऐसा ही करता है”,  सन्यासी बोला।

” लोग कहते हैं कि आपकी जड़ी-बूटी इंसान में फिर से प्रेम उत्पन्न कर सकती है, कृपया आप मुझे वो जड़ी-बूटी दे दीजिए", महिला ने विनती की। सन्यासी ने कुछ सोचा और फिर बोला, "देवी मैं तुम्हे वह जड़ी-बूटी ज़रूर दे देता, लेकिन उसे बनाने के लिए एक ऐसी वस्तु चाहिए जो मेरे पास नहीं है"  "आपको क्या चाहिए मुझे बताइए, मैं लेकर आउंगी!", महिला ने आग्रह किया। "मुझे बाघ की मूंछ का एक बाल चाहिए!", सन्यासी ने बताया।

अगले ही दिन महिला बाघ की तलाश में जंगल में निकल पड़ी, बहुत खोजने के बाद उसे नदी के किनारे एक बाघ दिखा, बाघ उसे देखते ही दहाड़ा, महिला सहम गयी और तेजी से वापस चली गयी। अगले कुछ दिनों तक यही हुआ, महिला हिम्मत कर के उस बाघ के पास पहुँचती और डर कर वापस चली आती। महीना बीतते-बीतते बाघ को महिला की मौजूदगी की आदत पड़ गयी, और अब वह उसे देख कर सामान्य ही रहता। अब तो महिला बाघ के निकट जाकर उसे परेशान करते कीट मक्खियों को दूर करती, सहलाती। बाघ को भी उसकी उपस्थिति रास आने लगी। उनकी मैत्री बढ़ने लगी, अब महिला बाघ को थपथपाने भी लगी। और देखते देखते एक दिन वो भी आ गया जब उसने हिम्मत दिखाते हुए बाघ की मूंछ का एक बाल भी निकाल लिया।

फिर क्या था, वह बिना देरी किये सन्यासी के पास पहुंची, और बोली, "मैं बाल ले आई बाबा!!"  "बहुत अच्छे!" और ऐसा कहते हुए सन्यासी ने बाल लेकर उसे जलती हुई अग्नी में झोंक दिया।  "अरे! ये क्या बाबा, आप नहीं जानते, इस बाल को लाने के लिए मैंने कितना कठिन श्रम किया और आपने इसे जला दिया? अब मेरी जड़ी-बूटी कैसे बनेगी?”, महिला घबराते हुए बोली।  "अब तुम्हे किसी जड़ी-बूटी की ज़रुरत नहीं है", "सन्यासी बोला। जरा सोचो, तुमने बाघ को किस तरह अपने वश में किया!, जब एक हिंसक पशु को धैर्य, मनोबल और प्रेम से जीता जा सकता है तो भला एक इंसान को नहीं ? तुमने धैर्य, सहनशीलता, ध्येय समर्पण व पुरूषार्थ से लक्ष्य सिद्ध करने का पाठ न केवल पढा, बल्कि उसे प्रायोगिक सिद्ध भी कर लिया है. बस अपने लक्ष्य के प्रति पूर्ण निष्ठा  एवं आत्मकेन्द्रित मनोबल चाहिए, यही कार्य की सफलता का मंत्र है।

'कस्तूरी कुण्डली बसे मृग ढ़ूंढे बन माहिं'  ……मानव में मनोबल की असीम शक्तियाँ छुपी होती है, जैसे ही प्रमाद हटता है और पुरूषार्थ जगता है, शक्तियाँ सक्रिय हो जाती है।

निष्ठा सूत्र :-
बांका है तो माका है
माली : सम्यक निष्ठा
शुद्ध श्रद्धा : अटल आस्था
स्वार्थ का बोझ-समर्पण की शक्ति

28 जून 2013

किसका सत्कार?



एक कंजूस सेठ थे। धर्म सभा में आखरी पंक्ति में बैठते थे। कोई उनकी ओर ध्यान भी नहीं देता था। एक दिन अचानक उन्होंने भारी दान की घोषणा कर दी। सब लोगों ने उन्हें आगे की पंक्ति में ले जाकर बैठाया, आदर सत्कार किया।
धनसंचय यदि लक्ष्य है,यश मिलना अति दूर।
यश - कामी को चाहिए,  त्याग  शक्ति  भरपूर ॥

सेठ ने कहा - "यह सत्कार मेरा नहीं, पैसे का हो रहा है।"

तभी गुरू बोले,- "पैसा तो तुम्हारे पास तब भी था, जब तुम पीछे बैठते थे और तुम्हें कोई पूछता नहीं था। आज तुम्हारा आदर इसलिये हो रहा है क्योंकि तुमने पैसे को छोड़ा है , दान किया है। तुम्हारे त्याग का सत्कार हो रहा है।"

अहंकार के भी अजीब स्वरूप होते है।

कभी हम वस्तुस्थिति का बहुत ही संकीर्ण और सतही अर्थ निकाल लेते है। दान अगर प्रकट हो जाय तो हमें दिखावा लगता है लेकिन प्रकटीकरण अन्य के लिए प्रोत्साहन का सम्बल बनता है इस यथार्थ को हम दरकिनार कर देते है, दिखावे और आडम्बर द्वारा श्रेय लेने की महत्वाकांक्षा निश्चित ही सराहनीय नहीं है किन्तु उसी में बसे त्याग और त्याग के प्रोत्साहन  प्रेरणा भाव की अवहेलना भी नहीं की जा सकती।

आसक्ति का त्याग निश्चित ही सराहनीय है।

सम्बन्धित सूत्र…
त्याग शक्ति
प्रोत्साहन हेतू दान का महिमा वर्धन

26 जून 2013

सहिष्णुता

यह एक भ्रामक धारणा है कि भड़ास या क्रोध निस्तारण से तनाव मुक्ति मिलती है। उलट, क्रोध तो तनाव के अन्तहीन चक्र को जन्म देता है। क्योंकि भड़ास निकालने, आवेश अभिव्यक्त करने या क्रोध को मुक्त करने से प्रतिक्रियात्मक द्वेष ही पैदा होता है और द्वेष से तो वैर की परम्परा का ही सर्जन होता है। इस तरह प्रतिशोध की प्रतिपूर्ति के लिए व्यक्ति निरन्तर तनाव में रहता है। क्रोध का ईलाज आवेशों को मंद करके, क्रोध के शमन या दमन में ही है। क्षमा ही परमानेंट क्योर है। क्योंकि क्षमा ही वह शस्त्र है जो वैर के दुष्चक्र को खण्डित करता है। क्षमा के बाद किसी तरह के तनाव-बोझ को नहीं झेलना पड़ता। अर्थात् सहिष्णुता ही तनाव मुक्ति का उपाय है।

अहिंसा पर आम सोच बहुत ही सतही होती है। लोग गांधी के चिंतन, 'दूसरा गाल सामने करने' का परिहास करते है। वस्तुतः दूसरा गाल सामने करने का अभिप्राय है, धैर्यपूर्वक सहनशीलता से कोई ऐसा व्यवहार करना जिससे बदले की परम्परा प्रारम्भ होने से पहले ही थम जाय। ईट का जवाब पत्थर से देना तो तात्कालिक सरल और सहज है, किंतु निराकरण तो तब है जब हिंसा-प्रतिहिंसा की श्रंखला बनने से पूर्व ही तोड दी जाय। कईं लोगों के मानस में हिंसा और अहिंसा की अजीब अवधारणा होती है, वे सभी से हर हाल में अपने साथ तो अहिंसक व्यवहार की अपेक्षा रखते है, दूसरे किसी आक्रोशी को सहनशीलता का पाठ पढा लेते है, दूसरे लोगों के धैर्य सहित शिष्टाचार की भूरि भूरि प्रशंसा भी करते है। किन्तु अपने साथ पेश आती, जरा सी प्रतिकूलता का प्रतिक्रियात्मक हिंसा से ही जवाब देना उचित मानते है। सभी से सहिष्णु व्यवहार तो चाहते है, किन्तु अन्याय अत्याचार का जबाब तो त्वरित प्रतिहिंसा से ही देना उपयुक्त मानते है। हिंसा की प्रतिक्रिया हिंसा से न हो तो उसे कायरता मान बैठते है। अधैर्य से, सहिष्णुता एक ओर फैक कर, अतिशीघ्र क्रोध के अधीन हो जाते है और प्रतिहिंसा का दामन थाम लेते है। जबकि सबसे ज्यादा, उसी पल-परिस्थिति में क्षमा की आवश्यकता होती है। स्वार्थी सुध-बुध का आलम यह है कि यदि कोई उन्हें धैर्य की सलाह देकर, सहिष्णु बनने का आग्रह करे और अहिंसा अपनाने को प्रेरित करे तो उस सद्वचन में भी लोगों को आक्रमक वैचारिक हिंसा नजर आती है। ऐसे ही लोगों को क्षमा सदैव कायरता प्रतीत होती है। व प्रतिक्रियात्मक हिंसा ही उन्हें प्रथम व अन्तिम उपाय समझ आता है। यह सोच, प्रतिशोध शृंखला को जीर्ण शीर्ण नहीं होने देती और शान्ति का मनोरथ कभी भी पूर्ण नहीं हो पाता।

क्रोध प्रेरित द्वेष के साथ साथ, कभी-कभी ईर्ष्या जनित द्वेष भी पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों के  कारण बनते है। राग की भाँति द्वेष भी अंधा होता है। राग हमको प्रेमपात्र के अवगुणों की ओर से अंधा कर देता है और द्वेष, अप्रिय पात्र के गुणों की ओर से। इसलिए प्रतिहिंसा न तो अन्याय अत्याचार रोकने का साधन है न प्रतिशोध और द्वेष के निवारण का समुचित उपाय। प्रत्येक सदाचरण कठिन ही होता है, अहिंसा और क्षमा भी कठिन राजमार्ग है, किसी भी परिस्थिति में समतावान व धैर्यवान ही इस महामार्ग पर चल पाते है। 'मन की शान्ति' तो निश्चित ही क्षमावान-सहिष्णु लोगों को ही प्राप्त होती है और वे ही इसके अधिकारी भी है।

सम्बंधित अन्य सूत्र…
  1. क्रोध विकार
  2. क्रोध कषाय
  3. सद्भाव
  4. क्षमा-सूत्र
  5. बोध कथा : समता की धोबी पछाड़
  6. समता
  7. बोध कथा : सहन-शक्ति
  8. क्षमा, क्षांति

20 जून 2013

वर्जनाओं के निहितार्थ

एक राजा को पागलपन की हद तक आम खाने का शौक था। इस शौक की अतिशय आसक्ति के कारण उन्हे, पाचन विकार की दुर्लभ व्याधि हो गई। वैद्य ने राजा को यह कहते हुए, आम खाने की सख्त मनाई कर दी कि "आम आपके जीवन के लिए विष समान है।" राजा का मनोवांछित आम, उसकी जिन्दगी का शत्रु बन गया।

एक बार राजा और मंत्री वन भ्रमण के लिए गए। काफी घूम लेने के बाद, गर्मी और थकान से चूर राजा को एक छायादार स्थान दिखा तो राजा ने वहां आराम के लिए लेटने की तैयारी की। मंत्री ने देखा, यह तो आम्रकुंज है, यहां राजा के लिए ठहरना, या बैठना उचित नहीं। मंत्री ने राजा से कहा, "महाराज! उठिए, यह स्थान भयकारी और जीवनहारी है, अन्यत्र चलिए।"  इस पर राजा का जवाब था, " मंत्री जी! वैद्यों ने आम खाने की मनाई की है, छाया में बैठने से कौनसा नुकसान होने वाला है? आप भी बैठिए।" मंत्री बैठ गया। राजा जब आमों को लालसा भरी दृष्टि से देखने लगा तो मंत्री ने फिर निवेदन किया, "महाराज! आमों की ओर मत देखिए।" राजा ने तनिक नाराजगी से कहा,  "आम की छाया में मत बैठो, आम की ओर मत देखो, यह भी कोई बात हुई? निषेध तो मात्र खाने का है"  कहते हुए पास पडे आम को हाथ में लेकर सूंघने लगा। मंत्री ने कहा, "अन्नदाता!  आम को न छूए, कृपया इसे मत सूंघिए, अनर्थ हो जाएगा। चलिए उठिए, कहीं ओर चलते है"

"क्या समझदार होकर अतार्किक सी बात कर रहे हो, छूने, सूंघने से आम पेट में नहीं चला जाएगा।" कहते हुए राजा आम से खेलने लगे। खेल खेल में ही राजा नें आम का बीट तोड़ा और उसे चखने लगे। मंत्री भयभीत होते हुए बोला, "महाराज! यह क्या कर रहे है?" अपने में ही मग्न राजा बोला, "अरे थोड़ा चख ही तो रहा हूँ। थोड़ा तो विष भी दवा का काम करता है" लेकिन राजा संयम न रख सका और पूरा आम चूस लिया। खाते ही पेट के रसायनों में विकार हुआ और विषबाधा हो गई। धरापति वहीं धराशायी हो गया।

वर्जनाएँ, अनाचार व अनैतिकताओं से जीवन को बचाकर, मूल्यों को स्वस्थ रखने के उद्देश्य से होती है। इसीलिए वर्जनाओं का जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। जहां वर्जनाओं का अभाव होता है वहां अपराधों का सद्भाव होता है। देखिए…

एक चोर के हाथ हत्या हो गई। उसे फांसी की सजा सुनाई गई। अन्तिम इच्छा के रूप में उसने माता से मिलने की गुजारिश की। माता को बुलाया गया। वह अपना मुंह माता के कान के पास ले गया और अपने दांत माता के कान में गडा दिए। माता चित्कार कर उठी। वहां उपस्थित लोगों ने उसे बहुत ही धिक्कारा- अरे अधम! इस माँ ने तुझे जन्म दिया। तेरे पिता तो तेरे जन्म से पहले ही सिधार चुके थे, इस माँ ने बडे कष्टोँ से तुझे पाला-पोसा। उस माता को तूने अपने अन्त समय में ऐसा दर्दनाक कष्ट दिया? धिक्कार है तुझे।"

"इसने मुझे जन्म अवश्य दिया, इस नाते यह मेरी जननी है। किन्तु माता तो वह होती है जो जीवन का निर्माण करती है। संस्कार देकर संतति के जीवन का कल्याण सुनिश्चित करती है। जब मैं बचपन में दूसरे बच्चों के पैन पैन्सिल चुरा के घर ले आता तो मुझे टोकती नहीं, उलट प्रसन्न होती। मैं बेधडक छोटी छोटी चोरियाँ करता, उसने कभी अंकुश नहीं लगाया, मेरी चोरी की आदतो को सदैव मुक समर्थन दिया। मेरा हौसला बढता गया। मैं बडी बडी चोरियां करता गया और अन्तः चौर्य वृत्ति को ही अपना व्यवसाय बना लिया। माँ ने कभी किसी वर्जना से मेरा परिचय नहीं करवाया, परिणाम स्वरूप मैं किसी भी कार्य को अनुचित नहीं मानता था। मुझसे यह हत्या भी चोरी में बाधा उपस्थित होने के कारण हुई और उसी कारण आज मेरा जीवन समाप्त होने जा रहा है। मेरे पास समय होता तो माँ से इस गलती के लिए कान पकडवाता, पर अब अपनी व्यथा प्रकट करने के लिए कान काटने का ही उपाय सूझा।"

वर्जनाएँ, नैतिक चरित्र  और उसी के चलते जीवन की सुरक्षा के लिए होती है। ये सुरक्षित, शान्तियुक्त, संतोषप्रद जीवन के लिए, नियमबद्ध अनुशासन का काम करती है। वर्जनाएँ वस्तुतः जीवन में विकार एवं उससे उत्पन्न तनावों को दूर रख जीवन को सहज शान्तिप्रद बनाए रखने के सदप्रयोजन से ही होती है।

लोग वर्जनाओं को मानसिक कुंठा का कारण मानते है। जबकि वास्तविकता तो यह है कि वर्जनाओं का आदर कर, स्वानुशासन से पालन करने वाले कभी कुंठा का शिकार नहीं होते। वह इसलिए कि  वे वर्जनाओं का उल्लंघन न करने की प्रतिबद्धता पर डटे रहते है। ऐसी दृढ निष्ठा, मजबूत मनोबल का परिणाम होती है, दृढ मनोबल कभी कुंठा का शिकार नहीं होता। जबकि दुविधा और विवशता ही प्रायः कुंठा को जन्म देती है। जो लोग बिना दूर दृष्टि के सीधे ही वर्जनाओं के प्रतिकार का मानस रखते है,  क्षणिक तृष्णाओं  के वश होकर, स्वछंदता से  जोखिम उठाने को तो तत्पर हो जाते है, लेकिन दूसरी तरफ अनैतिक व्यक्तित्व के प्रकट होने से भयभीत भी रहते है। इस तरह वे ही अक्सर द्वंद्वं में  दुविधाग्रस्त हो जाते है। दुविधा, विवशता और निर्णय निर्बलता के फलस्वरूप ही मानसिक कुंठा पनपती है। दृढ-प्रतिज्ञ को आत्मसंयम से कोई परेशानी नहीं होती।

अन्य सूत्र………
मन बिगाडे हार है और मन सुधारे जीत
जिजीविषा और विजिगीषा
दुर्गम पथ सदाचार
जीवन की सार्थकता
कटी पतंग
सोचविहारी और जडसुधारी का अलाव

18 जून 2013

बांका है तो माका है

बात प्रसिद्ध भक्त कवि नरसिंह मेहता के जीवन की है। भक्त नरसिंह मेहता निर्धन थे, भक्त अकसर होते ही निर्धन है। बस उन्हें निर्धनता का किंचित भी मलाल नहीं होता। नरसिंह मेहता भी अकिंचन थे। लेकिन विरोधाभास यह कि उनमें दानशीलता का भी गुण था। वे किसी याचक को कभी निराश नहीं करते। सौभाग्य से उनकी पारिवारिक और दानशीलता की जरूरतें किसी न किसी संयोग से पूर्ण हो जाया करती थी।

भक्तिरस से लोगों के तनाव व विषाद दूर करना, उन्हें अत्यधिक प्रिय था। इसी उद्देश्य से वे आस पास के गाँव नगरों में लगते मेलों में अक्सर जाया करते थे। वहाँ भी वे हर याचक को संतुष्ट करने का प्रयत्न करते। मेलों मे उनकी दानशीलता की ख्याति दूर दूर तक फैली थी।

एक बार की बात है कि वे किसी अपरिचित नगर के मेले में गए और उनके आने की जानकारी लोगों को हो गई। याचक कुछ अधिक ही आए. नरसिंह के पास धन नहीं था। उन्होने शीघ्र ही उस नगर के साहुकार से ऋण लाकर वहाँ जरूरतमंदों में बांटने लगे। यह दृश्य नरसिंह मेहता के ही गाँव का एक व्यक्ति देख रहा था, वह आश्चर्य चकित था कि दान के लिए इतना धन नरसिंह के पास कहाँ से आया।नरसिंह मेहता से पूछने पर ज्ञात हुआ कि भक्तराज ने स्थानीय साहूकार से ऋण प्राप्त किया है। वह व्यक्ति सोच में पड गया, इस अन्जान नगर में, अन्जान व्यक्ति को ऋण देने वाला कौन साहुकार मिल गया? उस व्यक्ति ने नरसिंह मेहता से पूछा, साहुकार तो बिना अमानत या गिरवी रखे कर्ज नहीं देते, आपने क्या गिरवी रखा?" नरसिंह मेहता ने जवाब दिया, "मूछ का एक बाल गिरवी रखकर ऋण लाया हूँ।"

वह व्यक्ति सोच में पड गया, उसे पता था नरसिंह झूठ नहीं बोलते, फिर ऐसा कौनसा मूर्ख साहूकार है जो मूंछ के एक बाल की एवज में कर्ज दे दे!! यह तो अच्छा है। नरसिंह मेहता से उसका पता लेकर वह भी पहुंच गया साहूकार की पेढी पर। "सेठजी मुझे दस हजार का ॠण चाहिए", व्यक्ति बोला। "ठीक है, लेकिन अमानत क्या रख रहे हो?" साहूकार बोला। व्यक्ति छूटते ही बोला, "मूंछ का बाल"। "ठीक है लाओ, जरा देख भाल कर मूल्यांकन कर लुं"। उस व्यक्ति नें अपनी मूंछ से एक बाल खींच कर देते हुए कहा, "यह लो सेठ जी"। साहूकार नें बाल लेकर उसे ठीक से उपट पलट कर बडी बारीकी से देखा और कहा, "बाल तो बांका है, वक्र है" त्वरित ही व्यक्ति बोला, "कोई बात नहीं टेड़ा है तो उसे फैक दो" और दूसरा बाल तोड़ कर थमा दिया। साहूकार ने उसे भी वक्र बताया, फिर तीसरा भी। वह व्यक्ति चौथा खींचने जा ही रहा था कि साहूकार बोला, "मैं आपको ॠण नहीं दे सकता।"

"ऐसा कैसे", व्यक्ति जरा नाराजगी जताते हुए बोला, "आपने नरसिंह मेहता को मूंछ के बाल की एवज में कर्ज दिया है, फिर मुझे क्यों मना कर रहे हो?" साहूकार ने आंखे तरेरते हुए कहा, देख भाई! नरसिंह मेहता को भी मैने पूछा था कि अमानत क्या रखते हो। उनके पास अमानत रखने के लिए कुछ भी नहीं था, सो उन्होने गिरवी के लिए मूंछ के बाल का आग्रह किया। मैने उनके मूंछ के बाल की भी परीक्षा इसी तरह की थी। जब मैने उन्हे कहा कि यह बाल तो बांका है, नरसिंह मेहता ने जवाब दिया कि 'बांका है तो माका है' अर्थात् वक्र है तो मेरा है, आप बस रखिए और ॠण दीजिए। मैने तत्काल भुगतान कर दिया। किन्तु आप तो एक एक कर बाल नोच कर देते रहे और टेड़ा कहते ही फिकवाते रहे। इस तरह तो आप अपनी पूरी मूंछ ही नोच लेते पर धरोहर लायक बाल नहीं मिलता। 

सेठ बोले यह बाल की परीक्षा नहीं, साहूकारी (निष्ठा) की परीक्षा थी, कर्ज वापस करने की निष्ठा का मूल्यांकन था। नरसिंह मेहता के ध्येय में हर बाल बेशकीमती था, प्रथम बाल को इज्जत देने का कारण निष्ठा थी। वह कर्ज लौटाने की जिम्मेदारी का  दृढ़ निश्चय था, देनदारी के प्रति ईमान-भाव ही उस तुच्छ से बाल को महत्त्व दे रहा था। बाल बांका हो या सीधा, उन्हें गिरवी से पुन: छुडाने की प्रतिबद्धता थी। अतः ॠण भरपायी के प्रति निश्चिंत होकर मैने कर्ज दिया। मूंछ का बाल तो सांकेतिक अमानत था, वस्तुतः मैने भरोसा ही अमानत रखा था।

ईमान व निष्ठा की परख के लिए साहूकार के पास विलक्षण दृष्टि थी!! इन्सान को परखने की यह विवेक दृष्टि आ जाय तो कैसा भी धूर्त हमें ठग नहीं सकता।

17 जून 2013

स्वार्थ भरा संशय

एक अमीर व्यक्ति था। उसने समुद्र में तफरी के लिए एक नाव बनवाई। छुट्टी के दिन वह नाव लेकर समुद्र की सैर के लिए निकल पडा। अभी मध्य समुद्र तक पहुँचा ही था कि अचानक जोरदार तुफान आया। उसकी नाव थपेडों से क्षतिग्रस्त हो, डूबने लगी, जीवन रक्षा के लिए वह लाईफ जेकेट पहन समुद्र में कुद पडा।

जब तूफान थमा तो उसने अपने आपको एक द्वीप के निकट पाया। वह तैरता हुआ उस टापू पर पहुँच गया। वह एक निर्जन टापू था, चारो और समुद्र के अलावा कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। उसने सोचा कि मैने अपनी पूरी जिदंगी किसी का, कभी भी बुरा नहीं किया, फिर मेरे ही साथ ऐसा क्युं हुआ..?

एक क्षण सोचता, यदि ईश्वर है तो उसने मुझे कैसी विपदा में डाल दिया, दूसरे ही क्षण विचार करता कि तूफान में डूबने से तो बच ही गया हूँ। वह वहाँ पर उगे झाड-पत्ते-मूल आदि खाकर समय बिताने लगा। भयावह वीरान अटवी में एक मिनट भी, भारी पहाड सम प्रतीत हो रही थी। उसके धीरज का बाँध टूटने लगा। ज्यों ज्यों समय व्यतीत होता, उसकी रही सही आस्था भी बिखरने लगी। उसका संदेह पक्का होने लगा कि इस दुनिया में ईश्वर जैसा कुछ है ही नहीं!

निराश हो वह सोचने लगा कि अब तो पूरी जिंदगी इसी तरह ही, इस बियावान टापु पर बितानी होगी। यहाँ आश्रय के लिए क्यों न एक झोपडी बना लुं..? उसने सूखी डालियों टहनियों और पत्तो से एक छोटी सी झोपडी बनाई। झोपडी को निहारते हुए प्रसन्न हुआ कि अब खुले में नहीं सोना पडेगा, निश्चिंत होकर झोपडी में चैन से सो सकुंगा।

अभी रात हुई ही थी कि अचानक मौसम बदला, अम्बर गरजने लगा, बिजलियाँ कड‌कने लगी। सहसा एक बिजली झोपडी पर आ गिरी और आग से झोपडी धधकनें लगी। अपने श्रम से बने, अंतिम आसरे को नष्ट होता देखकर वह आदमी पूरी तरह टूट गया। वह आसमान की तरफ देखकर ईश्वर को कोसने लगा, "तूं भगवान नही , राक्षस है। रहमान कहलाता है किन्तु तेरे दिल में रहम जैसा कुछ भी नहीं। तूं समदृष्टि नहीं, क्रूर है।"

सर पर हाथ धरे हताश होकर संताप कर रहा था कि अचानक एक नाव टापू किनारे आ लगी। नाव से उतरकर दो व्यक्ति बाहर आये और कहने लगे, "हम तुम्हे बचाने आये है, यहां जलती हुई आग देखी तो हमें लगा कोई इस निर्जन टापु पर मुसीबत में है और मदद के लिए संकेत दे रहा है। यदि तुम आग न लगाते तो हमे पता नही चलता कि टापु पर कोई मुसीबत में है!

ओह! वह मेरी झोपडी थी। उस व्यक्ति की आँखो से अश्रु धार बहने लगी। हे ईश्वर! यदि झोपडी न जलती तो यह सहायता मुझे न मिलती। वह कृतज्ञता से द्रवित हो उठा। मैं सदैव स्वार्थपूर्ती की अवधारणा में ही तेरा अस्तित्व मानता रहा। अब पता चला तूं अकिंचन, निर्विकार, निस्पृह होकर, निष्काम कर्तव्य करता है। कौन तुझे क्या कहता है या क्या समझता है, तुझे कोई मतलब नहीं। मेरा संशय भी मात्र मेरा स्वार्थ था। मैने सदैव यही माना कि मात्र मुझ पर कृपा दिखाए तभी मानुं कि ईश्वर है, पर तुझे कहाँ पडी है अपने आप को मनवाने की। स्वयं के अस्तित्व को प्रमाणीत करने की कामना भी तूं तो परे है।

13 जून 2013

बहिर्मुखी दृष्टि

किसी गाँव में एक बुढ़िया रात के अँधेरे में अपनी झोपडी के बहार कुछ खोज रही थी। तभी गाँव के ही एक व्यक्ति की नजर उस पर पड़ी , "अम्मा! इतनी रात में रोड लाइट के नीचे क्या ढूंढ रही हो ?", व्यक्ति ने पूछा। "कुछ नहीं! मेरी सूई गुम हो गयी है, बस वही खोज रही हूँ।", बुढ़िया ने उत्तर दिया।

फिर क्या था, वो व्यक्ति भी महिला की मदद में जुट गया और सूई खोजने लगा। कुछ देर में और भी लोग इस खोज अभियान में शामिल हो गए और देखते- देखते लगभग पूरा गाँव ही इकठ्ठा होकर, सूई की खोज में लग गया। सभी बड़े ध्यान से सूई ढूँढने में लगे हुए थे कि तभी किसी ने बुढ़िया से पूछा ,"अरे अम्मा ! ज़रा ये तो बताओ कि सूई गिरी कहाँ थी?"

"बेटा , सूई तो झोपड़ी के अन्दर गिरी थी।", बुढ़िया ने ज़वाब दिया। ये सुनते ही सभी बड़े क्रोधित हो गए। भीड़ में से किसी ने ऊँची आवाज में कहा, "कमाल करती हो अम्मा ,हम इतनी देर से सूई यहाँ ढूंढ रहे हैं जबकि सूई अन्दर झोपड़े में गिरी थी, आखिर सूई वहां खोजने की बजाए, यहाँ बाहर क्यों खोज रही हो ?" बुढ़िया बोली, " झोपडी में तो धुप्प अंधेरा था, यहाँ रोड लाइट का उजाला जो है, इसलिए।”

मित्रों, हमारी दशा भी इस बुढिया के समान है। हमारे चित्त की शान्ति, मन का आनन्द तो हमारे हृदय में ही कहीं खो गया है, उसे भीतर आत्म-अवलोकन के द्वारा खोजने का प्रयास होना चाहिए। वह श्रम तो हम करते नहीं, क्योंकि वहाँ सहजता से कुछ भी नजर नहीं आता, बस बाहर की भौतिक चकाचौंध में हमें सुख और आनन्द मिल जाने का भ्रम लगा रहता है। शायद ऐसा इसलिए है कि अन्तर में झांकना बडा कठिन कार्य है, वहां तो हमें अंधकार प्रतीत होता है, और चकाचौंध में सुख खोजना बडा सहज ही सुविधाजनक लगता है। किन्तु यथार्थ तो यह है कि आनन्द जहां गुम हुआ है उसे मात्र वहीं से ही पुनः प्राप्त किया जा सकता है।

आनन्द अन्तर्मन में ही छुपा होता है। बाहरी संयोगों का सुख, केवल और केवल मृगतृष्णा है। यदि हृदय प्रफुल्लित नहीं तो कोई भी बाहरी सुख-सुविधा हमें प्रसन्न करने में समर्थ नहीं। और यदि मन प्रसन्न है, संतुष्ट है तो कोई भी दुविधा हमें दुखी नहीं कर सकती।

9 जून 2013

बडा हुआ तो क्या हुआ......

एक शेर अपनी शेरनी और दो शावकों के साथ वन मे रहता था। शिकार मारकर घर लेकर आता और सभी मिलकर उस शिकार को खाते। एक बार शेर को पूरा दिन कोई शिकार नही मिला, वह वापस अपनी गुफा के लिए शाम को लौट रहा था तो उसे रास्ते मे एक गीदड का छोटा सा बच्चा दिखा। इतने छोटे बच्चे को देखकर शेर को दया आ गई। उसे मारने के बजाए वह अपने दांतो से हल्के पकड कर गुफा मे ले आया। गुफा मे पहुँचा तो शेरनी को बहुत तेज भूख लग रही थी, किन्तु उसे भी इस छोटे से बच्चे पर दया आ गई और शेरनी ने उसे अपने ही पास रख लिया। अपने दोनों बच्चो के साथ उसे भी पालने लगी। तीनों बच्चे साथ साथ खेलते कूदते बड़े होने लगे। शेर के बच्चो को ये नही पता था की हमारे साथ यह बच्चा गीदड है। वे उसे भी अपने जैसा शेर ही समझने लगे। गीदड का बच्चा शेर के बच्चो से उम्र मे बड़ा था, वह भी स्वयं को शेर और दोनो का बडा भाई समझने लगा। दोनों बच्चे उसका बहुत आदर किया करते थे।

एक दिन जब तीनों जंगल मे घूम रहे तो तो अचानक उन्हें सामने एक हाथी आया। शेर के बच्चे हाथी को देखकर गरज कर उस पर कूदने को ही थे कि एकाएक गीदड बोला, "यह हाथी है हम शेरो का कट्टर दुश्मन इससे उलझना ठीक नही है, चलो यहाँ से भाग चलते है" यह कहते हुए गीदड अपनी दुम दबाकर भागा। शेर के बच्चे भी उसके आदेश के कारण एक दूसरे का मुँह देखते हुए उसके पीछे चल दिए। घर पहुँचकर दोनों ने हँसते हुए अपने बड़े भाई की कायरता की कहानी माँ और पिता को बताई, की हाथी को देखकर बड़े भय्या तो ऐसे भागे जैसे आसमान सर पर गिरा हो और ठहाका मारने लगे। दूसरे ने हँसी मे शामिल होते हुए कहा यह तमाशा तो हमने पहली बार देखा है शेर और शेरनी मुस्कराने लगे गीदड को बहुत बुरा लगा की सभी उसकी हँसी उड़ा रहे है। क्रोध से उसकी आँखें लाल हो गई और वह उफनते हुए दोनों शेर के बच्चों को कहा, "तुम दोनों अपने बड़े भाई की हँसी उड़ा रहे हो तुम अपने आप को समझते क्या हो?"

शेरनी ने जब देखा की बात लड़ाई पर आ गई है तो गीदड को एक और ले जाकर समझाने लगी बेटे ये तुम्हारे छोटे भाई है। इनपर इस तरह क्रोध करना ठीक नही है। गीदड बोला, "वीरता और समझदारी में मै इनसे क्या कम हूँ जो ये मेरी हँसी उड़ा रहे है" गीदड अपने को शेर समझकर बोले जा रहा था। आखिर मे शेरनी ने सोचा की इसे असली बात बतानी ही पड़ेगी, वर्ना ये बेचारा फालतू मे ही मारा जाएगा। उसने गीदड को बोला, "मैं जानती हूँ बेटा तुम वीर हो, सुंदर हो, समझदार भी हो लेकिन तुम जिस कुल मे जन्मे हो, उससे हाथी नही मारे जाते है। तुम गीदड हो। हमने तुम पर दया कर अपने बच्चे की तरह पाला। इसके पहले की तुम्हारी हकीकत उन्हें पता चले यहाँ से भाग जाओ नही तो ये तुम्हें दो मिनट भी जिंदा नही छोड़ेंगे।" यह सुनकर गीदड बहुत डर गया और उसी समय शेरनी से विदा लेकर वहाँ से भाग गया ॥

स्वभाव का अपना महत्व है। विचारधारा अपना प्रभाव दिखाती ही है। स्वभाव की अपनी नियति नियत है।

7 जून 2013

नम्रशीलता

जीवन के आखिरी क्षणों में एक साधु ने अपने शिष्यों को पास बुलाया। जब सब उनके पास आ गए, तब उन्होंने अपना पोपला मुंह पूरा खोल दिया और बोले-"देखो, मेरे मुंह में कितने दांत बच गए हैं?" शिष्य एक स्वर में बोल उठे -"महाराज आपका तो एक भी दांत शेष नहीं बचा।" साधु बोले-"देखो, मेरी जीभ तो बची हुई है।" सबने उत्तर दिया-"हां, आपकी जीभ अवश्य बची हुई है।" इस पर सबने कहा-"पर यह हुआ कैसे?" मेरे जन्म के समय जीभ थी और आज मैं यह चोला छोड़ रहा हूं तो भी यह जीभ बची हुई है। ये दांत पीछे पैदा हुए, ये जीभ से पहले कैसे विदा हो गए? इसका क्या कारण है, कभी सोचा?"

शिष्यों ने उत्तर दिया-"हमें मालूम नहीं। महाराज, आप ही बतलाइए।" उस समय मृदु आवाज में संत ने समझाया- "यही रहस्य बताने के लिए मैंने तुम सबको इस बेला में बुलाया है। इस जीभ में माधुर्य था, मृदुता थी और खुद भी कोमल थी, इसलिए वह आज भी मेरे पास है, परंतु मेरे दांतों में शुरू से ही कठोरता थी, इसलिए वे पीछे आकर भी पहले खत्म हो गए। इसलिए दीर्घजीवी होना चाहते हो, तो कठोरता छोड़ो और विनम्रता सीखो।" एक शिष्य ने गुरू से इसका कोई दूसरा उदाहरण बताने को कहा। संत ने कहा-"क्या तुमने बेंत या बांस नहीं देखा है। आंधी भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती, जबकि तनकर खड़े रहने वाले पेड़ धराशायी हो जाते हैं।" उनकी बात सुनकर शिष्यों को समझ में आ गया कि विनम्रता से काम बन जाता है।

नमे सो आम्बा-आमली, नमे से दाड़म दाख।

एरण्ड बेचारा क्या नमे, जिसकी ओछी शाख॥

3 जून 2013

क्षमा, क्षांति

क्षमा आत्मा का नैसर्गिक गुण है. यह आत्मा का स्वभाव है. जब हम विकारों से ग्रस्त हो जाते है तो स्वभाव से विभाव में चले जाते है. यह विभाव क्रोध, भय, द्वेष, एवं घृणा के विकार रूप में प्रकट होते है. जब इन विकारों को परास्त किया जाता है तो हमारी आत्मा में क्षमा का शांत झरना बहने लगता है.

क्रोध से क्रोध ही प्रज्वल्लित होता है. क्षमा के स्वभाव को आवृत करने वाले क्रोध को, पहले जीतना आवश्यक है. अक्रोध से क्रोध जीता जाता है. क्योंकि क्रोध का अभाव ही क्षमा है. अतः क्रोध को धैर्य एवं विवेक से उपशांत करके, क्षमा के स्वधर्म को प्राप्त करना चाहिए. बडा व्यक्ति या बडे दिल वाला कौन कहलाता है? वह जो सहन करना जानता है, जो क्षमा करना जानता है. क्षांति जो आत्मा का प्रथम और प्रधान धर्म है. क्षमा के लिए ”क्षांति” शब्द अधिक उपयुक्त है. क्षांति शब्द में क्षमा सहित सहिष्णुता, धैर्य, और तितिक्षा अंतर्निहित है.

क्षमा में लेश मात्र भी कायरता नहीं है. सहिष्णुता, समता, सहनशीलता, मैत्रीभाव व उदारता जैसे सामर्थ्य युक्त गुण, पुरूषार्थ हीन या अधैर्यवान लोगों में उत्पन्न नहीं हो सकते. निश्चित ही इन गुणों को पाने में अक्षम लोग ही प्रायः क्षमा को कायरता बताने का प्रयास करते है. यह अधीरों का, कठिन पुरूषार्थ से बचने का उपक्रम होता है. जबकि क्षमा व्यक्तित्व में तेजस्विता उत्पन्न करता है. वस्तुतः आत्मा के मूल स्वभाव क्षमा पर छाये हुए क्रोध के आवरण को अनावृत करने के लिए, दृढ पुरूषार्थ, वीरता, निर्भयता, साहस, उदारता और दृढ मनोबल चाहिए, इसीलिए “क्षमा वीरस्य भूषणम्” कहा जाता है.

दान करने के लिए धन खर्चना पडता है, तप करने के लिए काया को कष्ट देना पडता है, ज्ञान पाने के लिए बुद्धि को कसना पडता है. किंतु क्षमा करने के लिए न धन-खर्च, न काय-कष्ट, न बुद्धि-श्रम लगता है. फिर भी क्षमा जैसे कठिन पुरूषार्थ युक्त गुण का आरोहण हो जाता है.

क्षमा ही दुखों से मुक्ति का द्वार है. क्षमा मन की कुंठित गांठों को खोलती है. और दया, सहिष्णुता, उदारता, संयम व संतोष की प्रवृतियों को विकसित करती है.

क्षमापना से निम्न गुणों की प्राप्ति होती है-

1. चित्त में आह्लाद - मन वचन काय के योग से किए गए अपराधों की क्षमा माँगने से मन और आत्मा का बोझ हल्का हो जाता है. क्योंकि क्षमायाचना करना उदात्त भाव है. क्षमायाचक अपराध बोध से मुक्त हो जाता है परिणाम स्वरूप उसका चित्त प्रफुल्ल हो जाता है.

2. मैत्रीभाव ‌- क्षमापना में चित्त की निर्मलता ही आधारभूत है. क्षमायाचना से वैरभाव समाप्त होकर मैत्री भाव का उदय होता है. “आत्मवत् सर्वभूतेषु” का सद्भाव ही मैत्रीभाव की आधारभूमि है.

3. भावविशुद्धि – क्षमापना से विपरित भाव- क्रोध,वैर, कटुता, ईर्ष्या आदि समाप्त होते है और शुद्ध भाव सहिष्णुता, तितिक्षा, आत्मसंतोष, उदारता, करूणा, स्नेह, दया आदि उद्भूत होते है. क्रोध का वैकारिक विभाव हटते ही क्षमा का शुद्ध भाव अस्तित्व में आ जाता है.

4. निर्भयता – क्रोध, बैर, ईर्ष्या और प्रतिशोध में जीते हुए व्यक्ति भयग्रस्त ही रहता है. किंतु क्रोध निग्रह के बाद सहिष्णुता और क्षमाशीलता से व्यक्ति निर्भय हो जाता है. स्वयं तो अभय होता ही है साथ ही अपने सम्पर्क में आने वाले समस्त सत्व भूत प्राणियों और लोगों को अभय प्रदान करता है.

5. द्विपक्षीय शुभ आत्म परिणाम – क्रोध शमन और क्षमाभाव के संधान से द्विपक्षीय शुभ आत्मपरिणाम होते है. क्षमा से सामने वाला व्यक्ति भी निर्वेरता प्राप्त कर मैत्रीभाव का अनुभव करता है. प्रतिक्रिया में स्वयं भी क्षमा प्रदान कर हल्का महसुस करते हुए निर्भय महसुस करता है. क्षमायाचक साहसपूर्वक क्षमा करके अपने हृदय में निर्मलता, निश्चिंतता, निर्भयता और सहृदयता अनुभव करता है. अतः क्षमा करने वाले और प्राप्त करने वाले दोनो पक्षों को सौहार्द युक्त शांति का भाव स्थापित होता है.

क्षमाभाव मानवता के लिए वरदान है. जगत में शांति सौहार्द सहिष्णुता सहनशीलता और समता को प्रसारित करने का अमोघ उपाय है.

29 मई 2013

नाथ अभिमान

एक घर के मुखिया को यह अभिमान हो गया कि उसके बिना उसके परिवार का काम नहीं चल सकता। उसकी छोटी सी दुकान थी। उससे जो आय होती थी, उसी से उसके परिवार का गुजारा चलता था। चूंकि कमाने वाला वह अकेला ही था इसलिए उसे लगता था कि उसके बगैर कुछ नहीं हो सकता। वह लोगों के सामने डींग हांका करता था।

एक दिन वह एक संत के सत्संग में पहुंचा। संत कह रहे थे, "दुनिया में किसी के बिना किसी का काम नहीं रुकता। यह अभिमान व्यर्थ है कि मेरे बिना परिवार या समाज ठहर जाएगा। सभी को अपने भाग्य के अनुसार प्राप्त होता है।" सत्संग समाप्त होने के बाद मुखिया ने संत से कहा, "मैं दिन भर कमाकर जो पैसे लाता हूं उसी से मेरे घर का खर्च चलता है। मेरे बिना तो मेरे परिवार के लोग भूखे मर जाएंगे।" संत बोले, "यह तुम्हारा भ्रम है। हर कोई अपने भाग्य का खाता है।" इस पर मुखिया ने कहा, "आप इसे प्रमाणित करके दिखाइए।" संत ने कहा, "ठीक है। तुम बिना किसी को बताए घर से एक महीने के लिए गायब हो जाओ।" उसने ऐसा ही किया। संत ने यह बात फैला दी कि उसे बाघ ने अपना भोजन बना लिया है।

मुखिया के परिवार वाले कई दिनों तक शोक संतप्त रहे। गांव वाले आखिरकार उनकी मदद के लिए सामने आए। एक सेठ ने उसके बड़े लड़के को अपने यहां नौकरी दे दी। गांव वालों ने मिलकर लड़की की शादी कर दी। एक व्यक्ति छोटे बेटे की पढ़ाई का खर्च देने को तैयार हो गया।

एक महीने बाद मुखिया छिपता-छिपाता रात के वक्त अपने घर आया। घर वालों ने भूत समझकर दरवाजा नहीं खोला। जब वह बहुत गिड़गिड़ाया और उसने सारी बातें बताईं तो उसकी पत्नी ने दरवाजे के भीतर से ही उत्तर दिया, 'हमें तुम्हारी जरूरत नहीं है। अब हम पहले से ज्यादा सुखी हैं।' उस व्यक्ति का सारा अभिमान चूर-चूर हो गया।

संसार किसी के लिए भी नही रुकता!! यहाँ सभी के बिना काम चल सकता है संसार सदा से चला आ रहा है और चलता रहेगा।   जगत को चलाने की हाम भरने वाले बडे बडे सम्राट, मिट्टी हो गए, जगत उनके बिना भी चला है। इसलिए अपने बल का, अपने धन का, अपने कार्यों का, अपने ज्ञान का गर्व व्यर्थ है।

28 मई 2013

धुंध में उगता अहिंसा का सूरज

हत्या न करना, न सताना, दुख न देना अहिंसा का एक रूप है। यह अहिंसा की पूर्णता नहीं. उसका आचारात्मक पक्ष है। विचारात्मक अहिंसा इससे अधिक महत्वपूर्ण है। विचारों में उतर कर ही अहिंसा या हिंसा को सक्रिय होने का अवसर मिलता है. वैचारिक हिंसा अधिक भयावह है। उसके परिणाम अधिक घातक हैं. विचारों की शक्ति का थाह पाना बहुत मुश्किल है. जिन लोगों ने इसमें थोड़ा भी अवगाहन किया है, वे विचार चिकित्सा नाम से नई चिकित्सा विधि का प्रयोग कर रहे हैं। इस विधि में हिंसा, भय और निराशा जैसे नकारात्मक विचारों की कोई मूल्यवत्ता नहीं है। अहिंसा एकमात्र पॉजिटिव थिंकिंग पर खड़ी है. पॉजिटिव थिंकिंग एक अनेकांत की उर्वरा में ही पैदा हो सकती है। अनेकांत दृष्टि के बिना विश्व-शांति की कल्पना ही नहीं हो सकती।

शांति का दूसरा बड़ा कारण है- त्याग की चेतना के विकास का प्रशिक्षण. भोगवादी वृत्ति से हिंसा को प्रोत्साहन मिलता है। यदि व्यक्ति को शांति से जीना है तो उसे त्याग की महिमा को स्वीकार करना होगा, त्याग की चेतना का विकास करना होगा। हमारे पूज्य गुरुदेव आचार्य भिक्षु ने सब प्रकार के उपचारों से ऊपर उठकर साफ शब्दों में कहा- ‘त्याग धर्म है; भोग धर्म नहीं है. संयम धर्म है; असंयम धर्म नहीं है.’ यह वैचारिक आस्था व्यक्ति में अहिंसा की लौ प्रज्जवलित कर सकती है। बात विश्व-शांति की हो और विचारों में घोर अशांति व्याप्त हो तो शांति किस दरवाजे से भीतर प्रवेश करेगी? एक ओर शांति पर चर्चा, दूसरी ओर घोर प्रलयंकारी अणु अस्त्रों का निर्माण, क्या यह विसंगति नहीं है? ऐसी विसंगतियां तभी टूट सकेंगी, जब अणु अस्त्रों के प्रयोग पर नियंत्रण हो जाएगा। जिस प्रकार पानी मथने से घी नहीं मिलता, वैसे ही हिंसा से शांति नहीं होती। शांति के सारे रहस्य अहिंसा के पास हैं। अहिंसा से बढ़कर कोई शास्त्र नहीं है, शस्त्र भी नहीं है।
- ‘कुहासे में उगता सूरज’ से आचार्य तुलसी 

25 मई 2013

मूल्यांकन

पिछले दिनों फेस-बुक पर एक बोध-कथा पढ़ने  में आई, आप भी रसास्वादन कीजिए…

एक हीरा व्यापारी था जो हीरे का बहुत बड़ा विशेषज्ञ माना जाता था। किन्तु किसी गंभीर बीमारी के चलते अल्प आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी।  वह अपने पीछे पत्नी और एक बेटा छोड़ गया। जब बेटा बड़ा हुआ तो उसकी माँ ने कहा, "बेटा , मरने से पहले तुम्हारे पिताजी ये पत्थर छोड़ गए थे, तुम इसे लेकर बाज़ार जाओ और इसकी कीमत का पता लगाओ। लेकिन स्मरण रहे कि तुम्हे केवल कीमत पता करनी है, इसे बेचना नहीं है।"

युवक पत्थर लेकर निकला, सबसे पहले उसे नई बन रही इमारत में काम करता मजदूर मिला। युवक ने मजदूर से पूछा, "काका इस पत्थर का क्या दोगे?"  मजदूर ने कहा, "बेटा ऐसे पत्थर तो रोज ढोता हूँ, मेरे यह किस काम का? इसका कुछ भी मूल्य नहीं, क्यों यह टुकडा लिए घुम रहे हो।" युवक आगे बढ गया। सामने ही एक सब्जी बेचने वाली महिला मिली।  "अम्मा, तुम इस पत्थर के बदले मुझे क्या दे सकती हो ?", युवक ने पूछा। "यदि मुझे देना ही है तो दो गाजरों के बदले ये दे दो,  तौलने के काम आएगा।" - सब्जी वाली बोली।

युवक आगे बढ़ गया। आगे वह एक दुकानदार के पास गया और उससे पत्थर की कीमत जानना चाहा। दुकानदार बोला,  "इसके बदले मैं अधिक से अधिक 500 रूपये दे सकता हूँ, देना हो तो दो नहीं तो आगे बढ़ जाओ।"  युवक इस बार एक सुनार के पास गया, सुनार ने पत्थर के बदले 20 हज़ार देने की बात की। फिर वह हीरे की एक प्रतिष्ठित दुकान पर गया वहां उसे पत्थर के बदले 1 लाख रूपये का प्रस्ताव मिला। और अंत में युवक शहर के सबसे बड़े हीरा विशेषज्ञ के पास पहुंचा और बोला, "श्रीमान, कृपया इस पत्थर की कीमत बताने का कष्ट करें।" विशेषज्ञ ने ध्यान से पत्थर का निरीक्षण किया और आश्चर्य से युवक की तरफ देखते हुए बोला, "यह तो एक अमूल्य हीरा है। करोड़ों रूपये देकर भी ऐसा हीरा मिलना मुश्किल है।"

मित्रों!! अमूल्य ज्ञान के साथ भी ऐसा ही है। न समझने वाले, या पहले से ही मिथ्याज्ञान से भरे व्यक्ति के लिए उत्तम ज्ञान का मूल्य कौडी भर का भी नहीं। उलट वह उपहास करता है कि आप बेकार सी वस्तु लिए क्यों घुम रहे है।वस्तुतः मनुष्य अपनी अपनी अक्ल अनुसार, उस का दुरूयोग, प्रयोग या उपयोग करता है। कईं बार तो उस ज्ञान को मामूली से तुच्छ कामो में लगा देता हैं। यदि हम गहराई से सोचें तो स्पष्ट होता है कि हीरे की परख कुशल जौहरी ही कर सकता है। निश्चित ही ज्ञान वहीं जाकर अपना पूरा मूल्य पाता है जहाँ विवेक और परख सम्यक रूप से मौजूद हो। 

13 मई 2013

अपना अपना महत्त्व

एक समुराई जिसे उसके शौर्य ,निष्ठा और साहस के लिए जाना जाता था , एक जेन सन्यासी से सलाह लेने पहुंचा।  जब सन्यासी ने ध्यान पूर्ण कर लिया तब समुराई ने उससे पूछा , “ मैं इतना हीन क्यों महसूस करता हूँ ? मैंने कितनी ही लड़ाइयाँ जीती हैं , कितने ही असहाय लोगों की मदद की है। पर जब मैं और लोगों को देखता हूँ तो लगता है कि मैं उनके सामने कुछ नहीं हूँ , मेरे जीवन का कोई महत्त्व ही नहीं है।”

“रुको ; जब मैं पहले से एकत्रित हुए लोगों के प्रश्नों का उत्तर दे लूँगा तब तुमसे बात करूँगा।” , सन्यासी ने जवाब दिया।

समुराई इंतज़ार करता रहा , शाम ढलने लगी और धीरे -धीरे सभी लोग वापस चले गए। “ क्या अब आपके पास मेरे लिए समय है ?” , समुराई ने सन्यासी से पूछा।  सन्यासी ने इशारे से उसे अपने पीछे आने को कहा , चाँद की रौशनी में सबकुछ बड़ा शांत और सौम्य था, सारा वातावरण बड़ा ही मोहक प्रतीत हो रहा था। “ तुम चाँद को देख रहे हो, वो कितना खूबसूरत है ! वो सारी रात इसी तरह चमकता रहेगा, हमें शीतलता पहुंचाएगा, लेकिन कल सुबह फिर सूरज निकल जायेगा, और सूरज की रौशनी तो कहीं अधिक तेज होती है, उसी की वजह से हम दिन में खूबसूरत पेड़ों , पहाड़ों और पूरी प्रकृति को साफ़ –साफ़ देख पाते हैं, मैं तो कहूँगा कि चाँद की कोई ज़रुरत ही नहीं है….उसका अस्तित्व ही बेकार है !!”

 “अरे ! ये आप क्या कह रहे हैं, ऐसा बिलकुल नहीं है ”- समुराई बोला, “ चाँद और सूरज बिलकुल अलग -अलग हैं, दोनों की अपनी-अपनी उपयोगिता है, आप इस तरह दोनों की तुलना नहीं कर सकते ”,  समुराई बोला। "तो इसका मतलब तुम्हे अपनी समस्या का हल पता है. हर इंसान दूसरे से अलग होता है, हर किसी की अपनी -अपनी खूबियाँ होती हैं, और वो अपने -अपने तरीके से इस दुनिया को लाभ पहुंचाता है; बस यही प्रमुख है बाकि सब गौण है",  सन्यासी ने अपनी बात पूरी की।

मित्रों! हमें भी स्वयं के अवदान को कम अंकित कर दूसरों से तुलना नहीं करनी चाहिए, प्रायः हम अपने गुणों को कम और दूसरों के गुणों को अधिक आंकते हैं, यदि औरों में भी विशेष गुणवत्ता है तो हमारे अन्दर भी कई गुण मौजूद हैं।

11 मई 2013

दंभी लेखक

किसी लेखक का वैराग्य विषयक ग्रंथ पढकर, एक राजा को संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न हुआ. ग्रंथ में व्यक्त, मिमांसा युक्त वैराग्य विचारों से प्रभावित हो राजा ने सोचा, ऐसे उत्तम चिंतक ग्रंथकर्ता का जीवन विराग से ओत प्रोत होगा. उसे प्रत्यक्ष देखने की अभिलाषा से राजा नें उसके गांव जाकर मिलने का निश्चिय किया.

गांव पहुँच कर, बहुत खोजने पर लेखक का घर मिला. घर में घुसते ही राजा ने तीन बच्चों के साथ ममत्व भरी क्रिडा करते व पत्नि के साथ प्रेमालाप करते लेखक को देखा. राजा को बडा आश्चर्य हुआ. निराश हो सोचने लगा –“कैसा दंभी व्यक्ति निकला?” राजा को आया देखकर, लेखक ने उनका सत्कार किया. राजा ने अपने आने का अभिप्राय लेखक को समझाया. लेखक ने राजा से शांत होने की प्रार्थना की और उचित आतिथ्य निभाया.

भोजन से निवृत होकर, लेखक व राजा नगर-भ्रमण के लिए निकल पडे. बाज़ार से गुजरते हुए उनकी नजर एक तलवार बनाने वाले की दुकान पर पडी. राजा को दुकान पर ले जाकर, लेखक नें दुकानदार से सर्वश्रेष्ठ तलवार दिखाने को कहा. कारीगर ने तेज धार तलवार दिखाते हुए कहा- “यह हमारा सर्वश्रेष्ट निर्माण है. जो एक ही वार में दो टुकडे करने का सामर्थ्य रखती है.” राजा के साथ खडे, तलवार देखते हुए लेखक ने मिस्त्री से कहा, “ भाई इतनी शक्तिशाली तलवार बनाते हो, इसे लेकर तुम स्वयं युद्ध के मैदान में शत्रुओं पर टूट क्यों नहीं पडते?” हँसते हुए मिस्त्री ने कहा – “ हमारा कार्य तलवारें गढना है; युद्ध करने का काम तो यौद्धाओं का है.

लेखक ने राजा से कहा- “ राजन् , सुना आपने?, "ठीक उसी प्रकार, मेरा कर्म लेखन का है, मूल्यवान विचार गढने का है. वैराग्य के साहस भरे मार्ग पर चलने का काम तो, आप जैसे शूरवीरों का है." महाराज, आपके दरबार में भी वीर-रस के महान् कवि होंगे, किंतु जब भी युद्ध छिडता है,क्या वे वीर-रस के कवि, जोश से अग्रिम मोर्चे पर लडने निकल पडते है? वे सभी वीर रस में शौर्य व युद्ध कौशल का बखान करते है, पर सभी वीरता पूर्वक युद्ध में कूद नहीं पडते, सभी के द्वारा सैन्य कर्म न होने के उपरांत भी, आपकी राज-सभा में उन सभी को सर्वोच्छ सम्मान हासिल है. पता है क्यों? वह इसलिए कि आपके योद्धाओं में वे अपूर्व साहस भरते है, जोश भरते है. शौर्य पोषक के रूप में उनका विशिष्ट स्थान हमेशा महत्वपूर्ण बना रहता है.

कथनी करनी का समरूप होना जरूरी है, किंतु इस सिद्धांत को सतही सोच से नहीं देखा जाना चाहिए. यहाँ अपेक्षा भेद से सम्यक सोच जरूरी है, कथनी रूप स्वर्ग की अभिलाषा रखने की पैरवी करते उपदेशक को, स्वर्ग जाने के  करनी करने के बाद ही उपदेश की कथनी करने का कहा जाय तो, उसके चले जाने के बाद भला मार्ग कौन दर्शाएगा? वस्तुतः कथनी करनी में विरोधाभास वह कहलाता है, जब वक्ता या लेखक जो भी विचार प्रस्तुत करता है, उन विचारों पर उसकी खुद की आस्था ही न हो.  लेकिन किन्ही कारणो से लेखक, वक्ता, चिंतक  का उस विचार पर चलने में सामर्थ्य व शक्ति की विवशताएँ हो, किंतु फिर भी उस विचार पर उसकी दृढ आस्था हो तो यह कथनी और करनी का अंतर नहीं है. कथनी कर के वे प्रेरक भी इतने ही सम्मानीय है, जितना कोई समर्थ उस मार्ग पर 'चल' कर सम्माननीय माना जाता है.

श्रेष्ठ विचार, श्रेष्ठ कर्मों के बीज होते है. वे बीज श्रेष्ठ कर्म उत्पादन के पोषण से भरे होते है. और निश्चित ही फलदायी होते है. उत्तम विचारों का प्रसार सदैव प्रेरणादायी ही होता है. भले यह प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर न हो, किंतु विचारों का संचरण, परिवर्तन लाने में सक्षम होता है. इसलिए चिंतकों के अवदान को जरा सा भी कम करके नहीं आंका जा सकता. वे विचार ही यथार्थ में श्रेष्ठ कर्मों के प्रस्तावक, आधार और स्थापक होते है.

10 मई 2013

लोभ

व्यक्तित्व के शत्रु शृंखला के पिछ्ले आलेखों में हमने पढा "क्रोध", "मान" और "माया" अब प्रस्तुत है अंतिम चौथा शत्रु- “लोभ”

मोह वश दृव्यादि पर मूर्च्छा, ममत्व एवं तृष्णा अर्थात् असंतोष रूप मन के परिणाम को 'लोभ' कहते है. लालच, प्रलोभन, तृष्णा, लालसा, असंयम के साथ ही अनियंत्रित एषणा, अभिलाषा, कामना, इच्छा आदि लोभ के ही स्वरूप है. परिग्रह, संग्रहवृत्ति, अदम्य आकांक्षा, कर्पणता, प्रतिस्पर्धा, प्रमाद आदि लोभ के ही भाव है. धन-दृव्य व भौतिक पदार्थों सहित, कामनाओं की प्रप्ति के लिए असंतुष्‍ट रहना लोभवृत्ति है। 'लोभ' की दुर्भावना से मनुष्‍य में हमेशा और अधिक पाने की चाहत बनी रहती है।

लोभ वश उनके जीवन के समस्‍त, कार्य, समय, प्रयास, चिन्‍तन, शक्ति और संघर्ष केवल स्‍वयं के हित साधने में ही लगे रहते है. इस तरह लोभ, स्वार्थ को महाबली बना देता है.

आईए देखते है महापुरूषों के सद्वचनों में लोभ का स्वरूप..........

“लोभो व्यसन-मंदिरम्.” (योग-सार) – लोभ अनिष्ट प्रवृतियों का मूल स्थान है.
“लोभ मूलानि पापानि.” (उपदेश माला) – लोभ पाप का मूल है.
“अध्यात्मविदो मूर्च्छाम् परिग्रह वर्णयन्ति निश्चयतः .” (प्रशम-रति) मूर्च्छा भाव (लोभ वृति) ही निश्चय में परिग्रह है ऐसा अध्यात्मविद् कहते है.
“त्याग यह नहीं कि मोटे और खुरदरे वस्त्र पहन लिए जायें और सूखी रोटी खायी जाये, त्याग तो यह है कि अपनी इच्छा अभिलाषा और तृष्णा को जीता जाये।“ - सुफियान सौरी
“अभिलाषा सब दुखों का मूल है।“ - बुद्ध
“विचित्र बात है कि सुख की अभिलाषा मेरे दुःख का एक अंश है।“ - खलील जिब्रान
"जरा रूप को, आशा धैर्य को, मृत्यु प्राण को, क्रोध श्री को, काम लज्जा को हरता है पर अभिमान सब को हरता है।" - विदुर नीति
"क्रोध को क्षमा से, विरोध को अनुरोध से, घृणा को दया से, द्वेष को प्रेम से और हिंसा को अहिंसा की भावना से जीतो।"  - दयानंद सरस्वती

लोभ धैर्य को खा जाता है और व्यक्ति का आगत विपत्तियों पर ध्यान नहीं जाता. यह ईमान का शत्रु है और व्यक्ति को नैतिक बने रहने नहीं देता. लोभ सभी दुष्कर्मों का आश्रय है. यह मनुष्य को सारे बुरे कार्यों में प्रवृत रखता है.

लोभ को अकिंचन भाव अर्थात् अनासक्त भाव से ही जीता जा सकता है.

लोभ को शांत करने का एक मात्र उपाय है “संतोष”

दृष्टांत :  आधा किलो आटा
             मधुबिंदु
             आसक्ति की मृगतृष्णा
दृष्टव्य :  जिजीविषा और विजिगीषा
              निष्फल है बेकार है
              शृंगार करो ना !!

"क्षांति से क्रोध को जीतें, मृदुता से अभिमान को जीतें, सरलता से माया को जीतें और संतोष से लोभ को जीतें।" (दशवैकालिक)
चरित्र (व्यक्तित्व) के कषाय रूप चार शत्रुओं (क्रोध,मान,माया,लोभ) की शृंखला सम्पन्न

9 मई 2013

माया

पिछ्ले आलेखों में पढा "क्रोध" और "मान" पर, अब प्रस्तुत है- "माया"-

मोह वश मन, वचन, काया की कुटिलता द्वारा प्रवंचना अर्थात् कपट, धूर्तता, धोखा व ठगी रूप मन के परिणामों को माया कहते है. माया व्यक्ति का वह प्रस्तुतिकरण है जिसमें व्यक्ति तथ्यों को छद्म प्रकार से रखता है. कुटिलता, प्रवंचना, चालाकी, चापलूसी, वक्रता, छल कपट आदि माया के ही रूप है. साधारण बोलचाल में हम इसे बे-ईमानी कहते है. अपने विचार अपनी वाणी अपने वर्तन के प्रति ईमानदार न रहना माया है. माया का अर्थ प्रचलित धन सम्पत्ति नहीं है, धन सम्पत्ति को यह उपमा धन में माने जाते छद्म, झूठे सुख के कारण मिली है.

माया वश व्यक्ति सत्य का भी प्रस्तुतिकरण इस प्रकार करता है जिससे उसका स्वार्थ सिद्ध हो. माया ऐसा कपट है जो सर्वप्रथम ईमान अथवा निष्ठा को काट देता है. मायावी व्यक्ति कितना भी सत्य समर्थक रहे या सत्य ही प्रस्तुत करे अंततः अविश्वसनीय ही रहता है. तथ्यों को तोडना मरोडना, झासा देकर विश्वसनीय निरूपित करना, कपट है. वह भी माया है जिसमें लाभ दर्शा कर दूसरों के लिए हानी का मार्ग प्रशस्त किया जाता है. दूसरों को भरोसे में रखकर जिम्मेदारी से मुख मोडना भी माया है. हमारे व्यक्तित्व की नैतिक निष्ठा को समाप्त प्रायः करने वाला दुर्गुण 'माया' ही है..
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आईए देखते है महापुरूषों के कथनो में माया का यथार्थ..........
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“माया दुर्गति-कारणम्” – (विवेकविलास) - माया दुर्गति का कारण है..
“मायाशिखी प्रचूरदोषकरः क्षणेन्.” – (सुभाषित रत्न संदोह) - माया ऐसी शिखा है को क्षण मात्र में अनेक पाप उत्पन्न कर देती है..
“मायावशेन मनुजो जन-निंदनीयः.” – (सुभाषित रत्न संदोह) -कपटवश मनुष्य जन जन में निंदनीय बनता है..
"यदि तुम मुक्ति चाहते हो तो विषयों को विष के समान समझ कर त्याग दो और क्षमा, ऋजुता (सरलता), दया और पवित्रता इनको अमृत की तरह पी जाओ।" - चाणक्यनीति - अध्याय 9
"आदर्श, अनुशासन, मर्यादा, परिश्रम, ईमानदारी तथा उच्च मानवीय मूल्यों के बिना किसी का जीवन महान नहीं बन सकता है।" - स्वामी विवेकानंद.
"बुद्धिमत्ता की पुस्तक में ईमानदारी पहला अध्याय है।" - थॉमस जैफर्सन
"कोई व्यक्ति सच्चाई, ईमानदारी तथा लोक-हितकारिता के राजपथ पर दृढ़तापूर्वक रहे तो उसे कोई भी बुराई क्षति नहीं पहुंचा सकती।" - हरिभाऊ उपाध्याय
"ईमानदारी, खरा आदमी, भलेमानस-यह तीन उपाधि यदि आपको अपने अन्तस्तल से मिलती है तो समझ लीजिए कि आपने जीवन फल प्राप्त कर लिया, स्वर्ग का राज्य अपनी मुट्ठी में ले लिया।" - अज्ञात
"सच्चाई, ईमानदारी, सज्जनता और सौजन्य जैसे गुणों के बिना कोई मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं हो सकता।" - अज्ञात
"अपने सकारात्मक विचारों को ईमानदारी और बिना थके हुए कार्यों में लगाए और आपको सफलता के लिए प्रयास नहीं करना पड़ेगा, अपितु अपरिमित सफलता आपके कदमों में होंगी।" - अज्ञात
"बुद्धि के साथ सरलता, नम्रता तथा विनय के योग से ही सच्चा चरित्र बनता है।" - अज्ञात
"मनुष्य की प्रतिष्ठा ईमानदारी पर ही निर्भर है।" - अज्ञात

वक्रता प्रेम और विश्वास की घातक है. कपट, बे-ईमानी, अर्थात् माया, शील और चरित्र (व्यक्तित्व) का नाश कर देती है. माया करके हमें प्रतीत होता है कि हमने बौद्धिक चातुर्य का प्रदर्शन कर लिया. सौ में से नब्बे बार व्यक्ति मात्र समझदार दिखने के लिए, बेमतलब मायाचार करता है. किंतु इस चातुर्य के खेल में हमारा व्यक्तित्व संदिग्ध बन जाता है. माया एक तरह से बुद्धि को लगा कुटिलता का नशा है.

कपट, अविद्या (अज्ञान) का जनक है. और अपयश का घर. माया हृदय में गडा हुआ वह शल्य है जो निष्ठावान बनने नहीं देता.

माया को आर्जव अर्थात् ऋजुता (सरल भाव) से जीता जा सकता है.

माया को शांत करने का एक मात्र उपाय है ‘सरलता’

दृष्टांत :   मायवी ज्ञान
             सच का भ्रम

दृष्टव्य : नीर क्षीर विवेक
            जीवन का लक्ष्य  
            दृष्टिकोण समन्वय

7 मई 2013

मान


पिछले अध्याय में आपने व्यक्तित्व के शत्रुओं मे से प्रथम शत्रु "क्रोध" पर पढा. प्रस्तुत है दूसरा शत्रु "मान"......

मोह वश रिद्धि, सिद्धि, समृद्धि, सुख और जाति आदि पर अहम् बुद्धि रूप मन के परिणाम को "मान" कहते है. मद, अहंकार, घमण्ड, गारव, दर्प, ईगो और ममत्व(मैं) आदि ‘मान’ के ही स्वरूप है. कुल, जाति, बल, रूप, तप, ज्ञान, विद्या, कौशल, लाभ, और ऐश्वर्य पर व्यक्ति 'मान' (मद) करता है.

मान वश मनुष्य स्वयं को बडा व दूसरे को तुच्छ समझता है. अहंकार के कारण व्यक्ति दूसरों के गुणों को सहन नहीं करता और उनकी अवहेलना करता है. घमण्ड से ही ‘मैं’ पर घनघोर आसक्ति पैदा होती है. यही दर्प, ईर्ष्या का उत्पादक है. गारव के गुरुतर बोझ से भारी मन, अपने मान की रक्षा के लिए गिर जाता है. प्रशंसा, अभिमान के लिए ताजा चारा है. जहां कहीं भी व्यक्ति का अहंकार सहलाया जाता है गिरकर उसी व्यक्ति की गुलामी को विवश हो जाता है. अभिमान स्वाभिमान को भी टिकने नहीं देता. अहंकार वृति से यश पाने की चाह, मृगतृष्णा ही साबित होती है. दूसरे की लाईन छोटी करने का मत्सर भाव इसी से पैदा होता है.

आईए देखते है महापुरूषों के कथनों में मान (अहंकार) का स्वरूप....

"अहंकारो हि लोकानाम् नाशाय न वृद्ध्ये."   (तत्वामृत) – अहंकार से केवल लोगों का विनाश होता है, विकास नहीं होता.
"अभिमांकृतं कर्म नैतत् फल्वदुक्यते."   (महाभारत पर्व-12) – अहंकार युक्त किया गया कार्य कभी शुभ फलद्रुप नहीं हो सकता.
"मा करू धन जन यौवन गर्वम्".  (शंकराचार्य) – धन-सम्पत्ति, स्वजन और यौवन का गर्व मत करो. क्योंकि यह सब पुण्य प्रताप से ही प्राप्त होता है और पुण्य समाप्त होते ही खत्म हो जाता है.
"लुप्यते मानतः पुंसां विवेकामललोचनाम्."  (शुभचंद्राचार्य) –  अहंकार से मनुष्य के विवेक रूप निर्मल नेत्र नष्ट हो जाते है.
"चरित्र एक वृक्ष है और मान एक छाया। हम हमेशा छाया की सोचते हैं; लेकिन असलियत तो वृक्ष ही है।"    -अब्राहम लिंकन
"बुराई नौका में छिद्र के समान है। वह छोटी हो या बड़ी, एक दिन नौका को डूबो देती है।"    -कालिदास
"समस्त महान ग़लतियों की तह में अभिमान ही होता है।"    -रस्किन
"जिसे होश है वह कभी घमंड नहीं करता।"    -शेख सादी
"जिसे खुद का अभिमान नहीं, रूप का अभिमान नहीं, लाभ का अभिमान नहीं, ज्ञान का अभिमान नहीं, जो सर्व प्रकार के अभिमान को छोड़ चुका है, वही संत है।"    -महावीर स्वामी
"जिस त्‍याग से अभिमान उत्‍पन्‍न होता है, वह त्‍याग नहीं, त्‍याग से शांति मिलनी चाहिए, अंतत: अभिमान का त्‍याग ही सच्‍चा त्‍याग है।"    -विनोबा भावे
"ज्यों-ज्यों अभिमान कम होता है, कीर्ति बढ़ती है।"   -यंग
"अभिमान करना अज्ञानी का लक्षण है।"    (सूत्रकृतांग)
"जिनकी विद्या विवाद के लिए, धन अभिमान के लिए, बुद्धि का प्रकर्ष ठगने के लिए तथा उन्नति संसार के तिरस्कार के लिए है, उनके लिए प्रकाश भी निश्चय ही अंधकार है।"    -क्षेमेन्द्र

विचित्रता तो यह है कि अभिमान से मनुष्य ऊँचा बनना चाहता है किंतु परिणाम सदैव नीचा बनने का आता है. निज बुद्धि का अभिमान ही, शास्त्रों की, सन्तों की बातों को अन्त: करण में टिकने नहीं देता. 'मान' भी विवेक को भगा देता है और व्यक्ति को शील सदाचार से गिरा देता है. अभिमान से अंधा बना व्यक्ति अपने अभिमान को बनाए रखने के लिए दूसरों का अपमान पर अपमान किए जाता है और उसे कुछ भी गलत करने का भान नहीं रहता. यह भूल जाता है कि प्रतिपक्ष भी अपने मान को बचाने में पूर्ण संघर्ष करेगा. आत्मचिंतन के अभाव में मान को जानना तो दूर पहचाना तक नहीं जाता. वह कभी स्वाभिमान की ओट में तो कभी बुद्धिमत्ता की ओट में छुप जाता है. मान सभी विकारों में सबसे अधिक प्रभावशाली व दुर्जेय है.

मान को मार्दव अर्थात् मृदुता व कोमल वृति से जीता जा सकता है.


अहंकार को शांत करने का एक मात्र उपाय है 'विनम्रता'.

दृष्टांत:   दर्पोदय
             अहम् सहलाना
दृष्टव्य:  मन का स्वस्थ पोषण
             विनम्रता
             नम्रता
             दुर्गम पथ सदाचार
             मुक्तक

5 मई 2013

क्रोध

पिछ्ली पोस्ट में हमने पढा 'व्यक्तित्व के शत्रु' चार कषाय है यथा- "क्रोध, मान, माया, लोभ". अब समझने का प्रयास करते है प्रथम शत्रु "क्रोध" को......

'मोह' वश उत्पन्न, मन के आवेशमय परिणाम को 'क्रोध' कहते है. क्रोध मानव मन का अनुबंध युक्त स्वभाविक भाव है. मनोज्ञ प्रतिकूलता ही क्रोध का कारण बनती है. अतृप्त इच्छाएँ क्रोध के लिए अनुकूल वातावरण का सर्जन करती है. क्रोधवश मनुष्य किसी की भी बात सहन नहीं करता. प्रतिशोध के बाद ही शांत होने का अभिनय करता है किंतु दुखद यह कि यह चक्र किसी सुख पर समाप्त नहीं होता.

क्रोध कृत्य अकृत्य के विवेक को हर लेता है और तत्काल उसका प्रतिपक्षी अविवेक आकर मनुष्य को अकार्य में प्रवृत कर देता है. कोई कितना भी विवेकशील और सदैव स्वयं को संतुलित व्यक्त करने वाला हो, क्रोध के जरा से आगमन के साथ ही विवेक साथ छोड देता है और व्यक्ति असंतुलित हो जाता हैं। क्रोध सर्वप्रथम अपने स्वामी को जलाता है और बाद में दूसरे को. यह केवल भ्रम है कि क्रोध बहादुरी प्रकट करने में समर्थ है, अन्याय के विरूद्ध दृढ रहने के लिए लेश मात्र भी क्रोध की आवश्यकता नहीं है. क्रोध के मूल में मात्र दूसरों के अहित का भाव है, और यह भाव अपने ही हृदय को प्रतिशोध से संचित कर बोझा भरे रखने के समान है. उत्कृष्ट चरित्र की चाह रखने वालों के लिए क्रोध पूर्णतः त्याज्य है.

आईए देखते है महापुरूषों के कथनो में 'क्रोध' का यथार्थ.........

“क्रोधो हि शत्रुः प्रथमो नराणाम” (माघ कवि) – मनुष्य का प्रथम शत्रु क्रोध है.
“वैरानुषंगजनकः क्रोध” (प्रशम रति) - क्रोध वैर परम्परा उत्पन्न करने वाला है.
“क्रोधः शमसुखर्गला” (योग शास्त्र) –क्रोध सुख शांति में बाधक है.
“अपकारिणि चेत कोपः कोपे कोपः कथं न ते” (पाराशर संहिता) - हमारा अपकार करनेवाले पर क्रोध उत्पन्न होता है फिर हमारा अपकार करने वाले इस क्रोध पर क्रोध क्यों नहीं आता?
“क्रोध और असहिष्णुता सही समझ के दुश्मन हैं.” - महात्मा गाँधी
“क्रोध एक तरह का पागलपन है.” - होरेस
“क्रोध मूर्खों के ह्रदय में ही बसता है.” - अल्बर्ट आइन्स्टाइन
“क्रोध वह तेज़ाब है जो किसी भी चीज जिसपर वह डाला जाये ,से ज्यादा उस पात्र को अधिक हानि पहुंचा सकता है जिसमे वह रखा है.” - मार्क ट्वेन
“क्रोध को पाले रखना गर्म कोयले को किसी और पर फेंकने की नीयत से पकडे रहने के सामान है; इसमें आप ही जलते हैं.” - महात्‍मा बुद्ध
“मूर्ख मनुष्य क्रोध को जोर-शोर से प्रकट करता है, किंतु बुद्धिमान शांति से उसे वश में करता है।” - बाइबिल
“जब क्रोध आए तो उसके परिणाम पर विचार करो।” - कन्फ्यूशियस
“जो मनुष्य क्रोधी पर क्रोध नहीं करता और क्षमा करता है वह अपनी और क्रोध करनेवाले की महासंकट से रक्षा करता है।” - वेदव्यास
“क्रोध में मनुष्य अपने मन की बात नहीं कहता, वह केवल दूसरों का दिल दुखाना चाहता है।” - प्रेमचंद
“जिस तरह उबलते हुए पानी में हम अपना, प्रतिबिम्‍ब नहीं देख सकते उसी तरह क्रोध की अवस्‍था में यह नहीं समझ पाते कि हमारी भलाई किस बात में है।” - महात्‍मा बुद्ध

क्रोध को आश्रय देना, प्रतिशोध लेने की इच्छा रखना अनेक कष्टों का आधार है. जो व्यक्ति इस बुराई को पालते रहते है वे जीवन के सुख और आनंद से वंचित रह जाते है. वे दूसरों के साथ मेल-जोल, प्रेम-प्रतिष्ठा एवं आत्म-संतोष से कोसों दूर रह जाते है. परिणाम स्वरूप वे अनिष्ट संघर्षों और तनावों के आरोह अवरोह में ही जीवन का आनंद मानने लगते है. उसी को कर्म और उसी को पुरूषार्थ मानने के भ्रम में जीवन बिता देते है.

क्रोध को शांति व क्षमा से ही जीता जा सकता है. क्षमा मात्र प्रतिपक्षी के लिए ही नहीं है, स्वयं के हृदय को तनावों और दुर्भावों से क्षमा करके मुक्त करना है. बातों को तुल देने से बचाने के लिए उन बातों को भूला देना खुद पर क्षमा है. आवेश की पद्चाप सुनाई देते ही, क्रोध प्रेरक विचार को क्षमा कर देना, शांति का उपाय है. सम्भावित समस्याओं और कलह के विस्तार को रोकने का उद्यम भी क्षमा है. किसी के दुर्वचन कहने पर क्रोध न करना क्षमा कहलाता है। हमारे भीतर अगर करुणा और क्षमा का झरना निरंतर बहता रहे तो क्रोध की चिंगारी उठते ही शीतलता से शांत हो जाएगी. क्षमाशील भाव को दृढ बनाए बिना अक्रोध की अवस्था पाना दुष्कर है.

क्रोध को शांत करने का एक मात्र उपाय क्षमा ही है.

दृष्टांत : समता
दृष्टव्य : क्रोध
            “क्रोध पर नियंत्रण” 
            क्रोध गठरिया 
            जिजीविषा और विजिगीषा
अगली कडी...... "मान" (अहंकार) 

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