19 अगस्त 2014

शहर बनाने के चक्कर में घर बना खण्डहर

एक सेठ जी थे, जो दिन-रात अपना काम-धँधा बढ़ाने में लगे रहते थे। उन्हें तो बस, शहर का सबसे अमीर आदमी बनना था। धीरे-धीरे पर आखिर वे नगर के सबसे धनी सेठ बन ही गए।

इस सफलता की ख़ुशी में उन्होने एक शानदार घर बनवाया। गृह प्रवेश के दिन, उन्होने एक बहुत शानदार पार्टी का आयोजन किया। जब सारे मेहमान चले गए तो वे भी अपने कमरे में सोने के लिए चले आए। थकान से चूर, जैसे ही बिस्तर पर लेटे, एक आवाज़ उन्हें सुनायी पड़ी...

"मैं तुम्हारी आत्मा हूँ, और अब मैं तुम्हारा शरीर छोड़ कर जा रही हूँ !!"

सेठ घबरा कर बोले, "अरे! तुम ऐसा नहीं कर सकती!!, तुम्हारे बिना तो मैं मर ही जाऊँगा। देखो!, मैंने वर्षों के तनतोड़-परिश्रम के बाद यह सफलता अर्जित की है। अब जाकर इस सफलता को आमोद प्रमोद से भोगने का अवसर आया है। सौ वर्ष तक टिके, ऐसा मजबूत मकान मैने बनाया है। यह करोड़ों रूपये का, सुख सुविधा से भरपूर घर, मैंने तुम्हारे लिए ही तो बनाया है!, तुम यहाँ से मत जाओ।"    

आत्मा बोली, "यह मेरा घर नहीं है, मेरा घर तो तुम्हारा शरीर था, स्वास्थ्य ही उसकी मजबूती थी, किन्तु करोड़ों कमाने के चक्कर में, तुमने इसके रख-रखाव की अवहेलना की है। मौज-शौक के कबाड़ तो भरता रहा, पर मजबूत बनाने पर किंचित भी ध्यान नहीं दिया। तुम्हारी गैर जिम्मेदारी ने इस अमूल्य तन का नाश ही कर डाला है।"

आत्मा नें स्पष्ट करते हुए कहा, "अब इसे ब्लड प्रेशर, डायबिटीज, थायरॉइड, मोटापा, कमर दर्द जैसी बीमारियों ने घेर लिया है। तुम ठीक से चल नहीं पाते, रात को तुम्हे नींद नहीं आती, तुम्हारा दिल भी कमजोर हो चुका है। तनाव के कारण, ना जाने और कितनी बीमारियों का घर बन चुका है, ये तुम्हारा शरीर!!"

"अब तुम ही बताओ, क्या तुम किसी ऐसे जर्जरित घर में रहना चाहोगे, जिसके चारो ओर कमजोर व असुरक्षित दीवारें हो, जिसका ढाँचा चरमरा गया हो, फर्नीचर को दीमक खा रही हो, प्लास्टर और रंग-रोगन उड़ चुका हो, ढंग से सफाई तक न होती हो, यहाँ वहाँ गंदगी पड़ी रहती हो। जिसकी छत टपक रही हो, जिसके खिड़की दरवाजे टूटे हों!! क्या रहना चाहोगे ऐसे घर में? नहीं रहना चाहोगे ना!! ...इसलिए मैं भी ऐसे आवास में नहीं रह सकती।"

सेठ पश्चाताप मिश्रित भय से काँप उठे!! अब तो आत्मा को रोकने का, न तो सामर्थ्य और न ही साहस सेठ में बचा था। एक गहरी निश्वास छोड़ते हुए आत्मा, सेठ जी के शरीर से निकल पड़ी... सेठ का पार्थिव बंगला पडा रहा।

मित्रों, ये कहानी आज अधिकांश लोगों की हकीकत है। सफलता अवश्य सर कीजिए, किन्तु स्वास्थ्य की बलि देकर नहीं। अन्यथा सेठ की तरह मंजिल पा लेने के बाद भी, अपनी सफलता का लुत्फ उठाने से वंचित रह जाएँगे!!
 "पहला सुख निरोगी काया"

16 अगस्त 2014

परोपकार

एक बार एक लड़का अपने स्कूल फीस के बंदोवस्त के लिए घरों के द्वार द्वार जाकर कुछ सामान बेचा करता था।

एक दिन उसका कोई सामान नहीं बिका और उसे बड़े जोर से भूख भी लग रही थी। उसने तय किया कि अब वह जिस भी दरवाजे पर जायेगा, उससे खाना मांग लेगा।

पहला दरवाजा खटखटाते ही एक लड़की ने दरवाजा खोला, जिसे देखकर वह घबरा गया और बजाय खाना माँगने के, उसने पानी का एक
गिलास माँगा....

लड़की ने भांप लिया था कि वह क्षुधा संतप्त है, वह एक बड़ा गिलास दूध का ले आई. लड़के ने धीरे-धीरे दूध पी लिया...

"कितने पैसे दूं?" - लड़के ने पूछा।
"पैसे किस बात के?" - लड़की ने प्रतिप्रश्न करते कहा, "माँ ने मुझे सिखाया है कि जब भी किसी पर उपकार करो तो उसके पैसे नहीं लेने चाहिए."

"तो फिर मैं आपको दिल से धन्यवाद देता हूँ."

जैसे ही उस लड़के ने वह घर छोड़ा, उसे न केवल शारीरिक तौर पर शक्ति मिल चुकी थी , बल्कि उसका ईश्वर और मनुष्य पर भरोसा और भी बढ़ गया था।

वर्षों बाद वह लड़की गंभीर रूप से बीमार पड़
गयी। लोकल डॉक्टर ने उसे शहर के बड़े अस्पताल में इलाज के लिए भेज दिया।

विशेषज्ञ डॉक्टर होवार्ड केल्ली को मरीज देखने के लिए बुलाया गया. जैसे ही उसने लड़की के कस्बे का नाम सुना, उसकी आँखों में चमक आ गयी।

वह एकदम सीट से उठा और उस लड़की के कमरे में गया। उसने उस लड़की को देखा, एकदम पहचान लिया और तय कर लिया कि वह उसकी जान बचाने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा देगा। उसकी मेहनत और लग्न रंग लायी और उस लड़की कि जान बच गयी।

डॉक्टर ने अस्पताल के ऑफिस में जा कर उस
लड़की के इलाज का बिल लिया और उस बिल के कोने में एक नोट लिखा और उसे उस लड़की के पास भिजवा दिया।

लड़की बिल का लिफाफा देखकर परेशान हो उठी उसे मालूम था कि वह बीमारी से तो वह उभर गयी है किन्तु बिल की भारी राशि उसकी जान ही ले लेगी। फिर भी उसने हिम्मत बटोर कर बिल देखा, उसकी नज़र बिल के कोने में हस्तलिखित टिपण्णी पर गयी...

वहाँ लिखा था, "एक गिलास भर दूध द्वारा इस बिल का भुगतान किया जा चुका है." नीचे उस डॉक्टर, होवार्ड केल्ली के हस्ताक्षर थे।

आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता के मारे उस लड़की की आँखों से आंसू टपक पड़े। उसने ऊपर की और दोनों हाथ उठा कर कहा, " हे भगवान..! आपका बहुत-बहुत धन्यवाद!!"

हमारे दिल की अनुकम्पा, करुणा और वात्सल्य भी एक नेटवर्क की तरह समाज में प्रसरित होता है।

"परोपकार किसी न किसी स्वरूप में आप तक अवश्य लौटता है।"

15 अगस्त 2014

अनर्थक बोझ

फेसबुक पर एक सुन्दर दृष्टान्त पढ़ने में आया……

एक मनोवैज्ञानिक श्रोताओं को स्ट्रेस मैनेजमेंट समझा रही थी।  बात करते करते उसने पानी का ग्लास उठाया और सवालिया निगाह कमरे में मौजूद लोगों पे घुमाई.. लोग समझे फिर वही पुराना "आधा भरा या आधा खाली" वाला सवाल आएगा!! मगर प्रश्न हुआ, "इस ग्लास का वजन क्या होगा??" किसी ने कहा 50 ग्राम, किसी ने कहा 80.. ज्यादा से ज्यादा 100 ग्राम।

"दरअसल ग्लास का असली भार ज्यादा ध्यान देने लायक नहीं है",  वक्ता ने समझाया, "असली मुद्दा है कि आप इस वजन को कितनी देर उठाए रहते हैं। अगर एक दो मिनट की बात है तो कोई समस्या नहीं, किन्तु घंटे भर में मेरे हाथ में दर्द होने लगेगा। अगर मैं यही वजन दिन भर उठाये रखूँ तो शायद मेरा हाथ सुन्न पड़ जायेगा। किसी भी अवधि में ग्लास का वजन नहीं बदलता, मगर जितनी देर मैं इसे उठाये रखूँ .. मेरे लिए कठिनाई उतनी ही बढ़ जाएगी.."

"जीवन की परेशानियाँ, जीवन के तनाव भी ऐसे ही हैं.. एक दो मिनट की चिंता से अन्तर नहीं पड़ता। लेकिन जैसे जैसे आप ज्यादा देर तक उसे ढोते रहते हैं, आपकी परेशानी बढती जाती है.. अगर दिन भर लगा दें तो सर दर्द हो जाए और ज्यादा लगाया तो और कुछ करने लायक ही नहीं रहते आप.."

"उम्मीद है ग्लास नीचे रखना याद रखेंगे आप!! ... "

यह दृष्टांत केवल तनाव या परेशानियों के बोझ को उतारने के लिए ही नहीं, मोह आसक्ति, आलोचना, कटुवचन, सामान्य से शौक, मामूली लगती बुरी आदतें, अनावश्यक उपभोग, चारित्रिक कमियाँ सभी के लिए यह आदर्श दृष्टांत है........

  • कुछ समय के लिए मोह सुहाता है किन्तु इसे हर समय उठाए रहना अति दुष्कर व दुष्परिणामी बन जाता है।
  • कुछ समय के लिए शौक सुहाता है किन्तु जब ये लत बन जाता है इसका बोझ असहनीय बन जाता है।
  • कुछ समय के लिए मामूली सी बुरी आदतें मनरंजन करती है किन्तु वे जब स्वभाव का हिस्सा बन जाती है, व्यक्तित्व बैठ जाता है।
  • कुछ समय के लिए गैरजरूरी उपभोग आनन्द देता है पर उसका भार हमेशा के लिए ढोया नहीं जा सकता।
  • कुछ समय तक किसी की आलोचना हमारी चतुरता का सुख दे जाती है पर हर समय आलोचना निन्दक स्वभाव सम बोझ बन जाती है।
  • उसी तरह कुछ चारित्रिक कमियाँ जीवन में कुछ समय के लिए सहज सामान्य प्रतीत होती है, यदि लगातार बनी रहे तो चरित्र को ही तोड़ के रख देती है।
इन सभी विकारों का हमारे जीवन में आ जाना सहज है किन्तु इन विकारों के बोझ को ढ़ोते जाना चरित्र को धराशायी कर देता है। इसलिए यह भार असहनीय बने इतना अवसर नहीं देना है।

12 अगस्त 2014

वैचारिक क्षमता

एक राजमहल के द्वार पर एक वृद्ध भिखारी आया। द्वारपाल से उसने कहा, ‘भीतर जाकर राजा से कहो कि तुम्हारा भाई मिलने आया है।’ द्वारपाल ने समझा कि शायद कोई दूर के रिश्ते में राजा का भाई हो। सूचना मिलने पर राजा ने भिखारी को भीतर बुलाकर अपने पास बैठा लिया। उसने राजा से पूछा, ‘कहिए बड़े भाई! आपके क्या हालचाल हैं?’ राजा ने मुस्कराकर कहा, ‘मैं तो आनंद में हूं। आप कैसे हैं?’ भिखारी बोला,  ‘मैं जरा संकट में हूं। जिस महल में रहता हूं, वह पुराना और जर्जर हो गया है। कभी भी टूटकर गिर सकता है। मेरे बत्तीस नौकर थे, वे भी एक एक कर चले गए। पांचों रानियां भी वृद्ध हो गईं। यह सुनकर राजा ने भिखारी को सौ रुपए देने का आदेश दिया। भिखारी ने सौ रुपए कम बताए, तो राजा ने कहा, ‘इस बार राज्य में सूखा पड़ा है।’

तब भिखारी बोला, ‘मेरे साथ सात समंदर पार चलिए। वहां सोने की खदानें हैं। मेरे पैर पड़ते ही समुद्र सूख जाएगा। मेरे पैरों की शक्ति तो आप देख ही चुके हैं।’ अब राजा ने भिखारी को एक हजार रुपए देने का आदेश दिया। भिखारी के जाने के बाद राजा बोला, ‘भिखारी बुद्धिमान था। भाग्य के दो पहलू होते हैं राजा व रंक। इस नाते उसने मुझे भाई कहा। जर्जर महल से आशय उसके वृद्ध शरीर से था, बत्तीस नौकर दांत और पांच रानियां पंचेंद्रीय हैं। समुद्र के बहाने उसने मुझे उलाहना दिया कि, राजमहल में उसके पैर रखते ही मेरा खजाना सूख गया, इसलिए मैं उसे सौ रुपए दे रहा हूं। उसकी बुद्धिमानी देखकर मैंने उसे हजार रुपए दिए और कल मैं उसे अपना सलाहकार नियुक्त करूंगा।’

कई बार अति सामान्य लगने वाले लोग भीतर से बहुत गहन गम्भीर और कुशल होते हैं, इसलिए व्यक्ति की परख उसके बाह्य रहन-सहन से नहीं, बल्कि वैचारिक क्षमता और चातुर्य भरे आचरण से करनी चाहिए।


9 अगस्त 2014

जीवन संघर्ष

क्यों लगता जीवन भार सखे, सहले सब दुख प्रहार सखे।
जीत जीत मत हार सखे, करले निष्फल हर वार सखे॥

माना कि दुर्भागी तुम सा, इस अवनीतल पर एक नहीं।
दुख संकट तुझ पर है सारे, और संग सहारा टेक नहीं।
सभी अहित चाहते तेरा, और कोई ईरादा नेक नहीं।
बस सांसों में साहस भर ले, तू इधर उधर अब देख नहीं।

है सभी पिरोए तेरे ही, कांटों कुसुमों के हार सखे॥
जीत जीत मत हार सखे, करले निष्फल हर वार सखे॥

निश्चय जो हो खुशियों का, क्या दुख दे पाए कोई तुझे?
तेरी अपनी मुस्कान प्रिये, तेरे ही अधरों पर तो सजे।
तेरे ही तानों बानों में, उलझे संकल्प विकल्प अरे!!
ईंधन जब झोके अग्नी में, फिर तू ही बता कैसे वो बुझे?

मत देख पराए दोषों को, तू अपनी ओर निहार सखे॥
जीत जीत मत हार सखे, करले निष्फल हर वार सखे॥

कमियाँ खोज खोज मेरी, करता पग पग पर अपमान।
फजियत का मौक़ा ना चुके, यों रोज बिगाडे मेरे काम।
वह मजे लूटता है मेरे, बस देख देख मुझको परेशान।
श्रेय कामना मेरी अपनी, फिसलती कर से रेत समान।

छोड़ कोसना ओरों को, निज दोष छिद्र परिहार सखे॥
जीत जीत मत हार सखे, करले निष्फल हर वार सखे॥

7 अगस्त 2014

पाखण्डोदय

एक कामचोर भंडारी के कारण राजकोष में बड़ी भारी चोरी हो गई। राजा ने उस भंडारी को तलब किया,और ठीक से जिम्मेदारी न निभाने का कारण पूछा। भंडारी ने उछ्रंखलता से जवाब दिया, "चारों और चोरी बेईमानी फैली है मैं क्या करूँ, मैं तो ईमानदार हूँ।"

राजा ने उसका नाक कटवा कर उसे छुट्टी दे दी। शर्म के मारे वह नकटा किसी दूसरे राज्य में चला गया। लोगों के उपहास से बचने के लिए खुद को साधु बताने लगा। वह चौरे चौबारे प्रवचन देता- "नाक ही अहंकार का मूल है, यह हमारी दृष्टि और ईश्वर के बीच व्यवधान है। ईश्वर के दर्शन में सबसे बड़ी बाधा नाक होती है। इसे हटाए बिना ईश्वर के दर्शन नहीं होते। मैंने वह अवरोध हटा लिया है, मैं ईश्वर के साक्षात दर्शन कर सकता हूँ"

कथनी और करनी की गज़ब एकरूपता देख, लोगों पर उसके प्रवचन का जोरदार प्रभाव पड़ने लगा। लोग तो बस ईश्वर के दर्शन करना चाहते थे, उससे आग्रह करते कि, "भैया हमें भी भगवान् के दर्श करा दो।" वह भक्तों को नाक कटवा आने की सलाह देता। नाक कटवा कर आने वाले चेलों के कान में मंत्र फूंकता, "देखो अब सभी से कहना कि मुझे ईश्वर दिखने लगे है। मैंने तो नकटा न कहलाने के लिए, यही किया था। अगर तुमने कहा कि मुझे तो ईश्वर नहीं दिखते तो लोग नकटा नकटा कहकर तुम्हारा मजाक उडाएंगे,तुम्हारा तिरस्कार करेंगे। इसलिए अब तुम्हारी भलाई इसी में है कि 'नकटा दर्शन' के सिद्धान्त का प्रचार-प्रसार करो और अपने समुदाय की वृद्धि करो। हमारे 'ईश दर्श सम्प्रदाय' में रहकर उपहास मुक्त जीवन यापन कर सकोगे, और इस तरह तुम नकटे होकर भी सम्मान के सहभागी बने रहोगे"

बहुत ही अल्प समय में यह सम्प्रदाय बढ़ने लगा। एक बार नकटे हो जाने के बाद इस सम्प्रदाय में बने रहना और इसके भेद को अक्षुण्ण रखना विवशता हो गई........

5 अगस्त 2014

परोपकार उलट कर स्व-उपकार बनता है।

एक बार पचास लोगों का ग्रुप किसी सेमीनार में हिस्सा ले रहा था। सेमीनार शुरू हुए अभी कुछ ही मिनट बीते थे कि- स्पीकर अचानक ही रुका और सभी पार्टिसिपेंट्स को गुब्बारे देते हुए बोला , ”आप सभी को गुब्बारे पर इस मार्कर से अपना नाम लिखना है।” सभी ने ऐसा ही किया।

अब गुब्बारों को एक दुसरे कमरे में रख दिया गया। स्पीकर ने अब सभी को एक साथ कमरे में जाकर पांच मिनट के अंदर अपना नाम वाला गुब्बारा ढूंढने के लिए कहा। सारे पार्टिसिपेंट्स तेजी से रूम में घुसे और पागलों की तरह अपना नाम वाला गुब्बारा ढूंढने लगे। पर इस अफरा-तफरी में किसी को भी अपने नाम वाला गुब्बारा नहीं मिल पा रहा था… 5 पांच मिनट बाद सभी को बाहर बुला लिया गया।

स्पीकर बोला , ” अरे! क्या हुआ , आप सभी खाली हाथ क्यों हैं ? क्या किसी को अपने नाम वाला गुब्बारा नहीं मिला ?” "नहीं ! हमने बहुत ढूंढा पर हमेशा किसी और के नाम का ही गुब्बारा हाथ आया”, एक पार्टिसिपेंट कुछ मायूस होते हुए बोला।

“कोई बात नहीं , आप लोग एक बार फिर कमरे में जाइये , पर इस बार जिसे जो भी गुब्बारा मिले उसे अपने हाथ में ले और उस व्यक्ति का नाम पुकारे जिसका नाम उसपर लिखा हुआ है।“, स्पीकर ने निर्दश दिया।

एक बार फिर सभी पार्टिसिपेंट्स कमरे में गए, पर इस बार सब शांत थे , और - कमरे में किसी तरह की अफरा- तफरी नहीं मची हुई थी। सभी ने एक दुसरे को उनके नाम के गुब्बारे दिए और तीन मिनट में ही बाहर निकले आये।

स्पीकर ने गम्भीर होते हुए कहा ,” बिलकुल यही चीज हमारे जीवन में भी हो रही है। हर कोई अपने लिए ही जी रहा है , उसे इससे कोई मतलब नहीं कि वह किस तरह औरों की मदद कर सकता है , वह तो बस पागलों की तरह अपनी ही खुशियां ढूंढ रहा है , पर बहुत ढूंढने के बाद भी उसे कुछ नहीं मिलता।

मित्रों हमारा सुख दूसरों के सुख के साथ प्रतिबद्ध है। स्वार्थी मानसिकता त्याग कर दूसरों को अर्पण की गई खुशियाँ हमारी ही ख़ुशी का द्वार होती है। जब हम औरों को उनकी खुशियां देने की प्रवृति बना लेंगे, हमारी खुशियाँ हमें खोजती चली आएगी।

31 जुलाई 2014

रोटी का रहस्य


एक धनी परिवार की कन्या तारा का विवाह , एक सुयोग्य परिवार मे होता है , लड़का पढ़ा लिखा और अति सुन्दर लेकिन बेरोजगार था। परिवार की आर्थिक स्थति बहुत ही अच्छी थी जिसके कारण उसके माता -पिता उसे किसी भी कार्य करने के लिये नहीं कहते थे और कहते थे कि बेटा जिगर , तू हमारी इकलौती संतान है ,तेरे लिये तो हमने खूब सारा धन दौलत जोड़ दिया है और हम कमा रहे है, तू तो बस मजे ले । इस बात को सुनकर तारा बेहद चिंतित रहती मगर किसी से अपनी मन की व्यथा कह नहीं पाती ।

एक दिन एक महात्मा जो छ:माह मे फेरी लगाते थे उस घर पर पहुँच गये और बोले । माई एक रोटी की आस है तारा रोटी ले कर महात्मा फ़क़ीर को देने चल पड़ी ,सास भी दरबाजे पर ही खडी थी । महात्मा ने लड़की से कहा बेटी रोटी ताजा है या वासी तारा ने जबाब दिया कि महाराज रोटी बासी है। सास बही खडी सुन रही थी और उसने कहा हरामखोर, तुझे ताजी रोटी भी बासी दिखाई पड़ रही है । महात्मा चुप चाप घर से मुख मोड़ कर चल पड़ा और तारा से बोल़ा कि बेटी मे उस दिन वापस आऊंगा जब रोटी ताजा होगी । समय व्यतीत होता गया और तारा के पति को कुछ समय बाद रोजगार मिल गया। अब तारा बहुत खुश रहने लगी ।

कुछ दिन बाद महात्मा जी वापस फेरी लगाने आये और तारा के ससुराल जाकर रोटी मांगने लगे, महात्मा के लिये तारा रोटी लाती है । महात्मा जी का फिर बही सबाल था, बेटी रोटी ताजा है या बासी तारा ने जबाब दिया की महात्मा जी रोटी एक दम ताजी है,महात्मा ने रोटी ले ली और लड़की को खुशी से बहुत आशीर्वाद दिया। सास दरबाजे पर खडी सुन रही थी और बोली की हरामखोर, उस दिन तो रोटी बासी थी और आज ताजा वाह ! बहुत बढ़िया !

संत रुके और बोले अरी पगली ! तू क्या जाने, तू तो अज्ञानी है, तेरी बहू वास्तव मे बहुत होशियार है जब मे पहले आया था तो इसने रोटी को बासी बताया था क्योकि यह तुम्हारे जोड़े और कमाये धन से गुजारा कर रहे थे जो इनके लिये बासी था । मगर अब तेरा बेटा रोजगार पर लग गया है और अपनी कमाई का ताजा धन लाता है इसलिये तेरी बहू ने पहले बासी और अब ताजी रोटी बताई । माँ बाप का जुड़ा धन किसी ओखे- झोके के लिये होता है जो बासी होता है , काम तो अपने द्वारा कमाये ताजा धन से ही चलता है । सास महात्मा के पैरों मे गिर पड़ी और उसको ताजी - बासी का ज्ञान व अपनी बहू पर गर्व हुआ इसलिये मानव को हमेशा जुडे धन पर आश्रित नहीं रहना चाहिये वल्कि सदैव ताजे धन की ओर ललायित रहना चाहिये ,अगर हम जुडे धन पर ही आश्रित रहेंगे तो वो भी एक दिन खत्म हो जायेगा इसलिये हमे ताजा धन की आस करके सदैव प्रगति पथ पर निरंतर प्रवाह करना चाहिये ।

26 जुलाई 2014

मातृ-भक्ति की शक्ति


किसी समय चीन देश में होलीन नाम का एक नौजवान रहता था। वह अपनी मां का परमभक्त था। बूढ़ी मां की सेवा-चाकरी बड़े भक्ति-भाव से किया करता था। मां को किस समय, किस चीज की जरुरत पड़ेगी, इसका वह पूरा ख्याल रखता था।

एक बार हो-लीन के घर में एक चोर घुसा। जिस कमरे में हो-लीन सोचा था, उस कमरे में चोर के घुसते ही हो-लीन की नीद खुल गई। लेकिन चोर ताकतवर था। उसने हो-लीन को एक खम्बे से कसकर बांध दिया।

पास ही के कमरे में मां सोई थी। इस सारे झमेले में कहीं मां की नींद न खुल जाय, इस ख्याल से हो-लीन चुप ही रहा।

चोर ने उस कमरे में पड़ी एक पेटी खोली औरवह उसमें में सामान निकालने लगा। उसने हो-लीन का रेशमी कोट निकाला और एक चादर बिछाकर उस पर रख दिया। इस तरह वह एक के बाद एक सामान निकालता और रखता गया। हो-लीन सबकुछ चुपचाप देखता रहा।

इस बीच चोर ने पेटी में से ताम्बे काएक तसला बाहर निकला। उसे देखकर हो-लीन का गला भर आया और उसने कहा, "भाईसाहब, मेहरबानी करके यह तसला यहीं रहने दीजिये। मुझे सुबह ही अपनी मां के लिए पतला दलिया बनाना होगा और मां को देना होगा। तसला न रहा तो बूढ़ी मां को दलिए के बिना रह जाना पड़ेगा।

यह सुनते ही चोर के हाथ से तसला छूट गया। उसने भर्राई हुई आवाज में कहा, "मेरे प्यारे मित्र, तसला ही नही, बल्कि तेरा सारा सामान मैं यहीं छोड़े जा रहा हूं। तेरे जैसे मातृ-भक्त के घर से मैं तनिक-सी भी कोई चीज ले जाऊंगा तो मेरा सत्यानाश हो जायगा। तेरे घर की कोई चीज मुझे हजम नहीं होगी।"

यों कहकर और हो-लीन को बन्धन से मुक्त करके वह चोर धीमे पैरों वहां से चला गया।

सम्वेदनाएं प्रत्येक आत्मा को छूती अवश्य है, कुछ मूढ़ और जड उसकी आवाज को अनसुना कर दे्ते है तो कुछ को छू जाती है।

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