फिरते कितने खेलबाज, यहां झोले रंगाकार लिए।
द्वेषों के है सांप छाब में, क्रोधों की फुफकार लिए।
हाथ उनके टिपण-पात्र है, सिक्कों की झनकार लिए।
परपीड़न का मनोरंजन है, बैचेनी बदकार लिए॥
महाभयंकर नागराज अब, मानव के अनुकूल हुए।
एक नई फुफकार के खातिर, दर्शक भी व्याकुल हुए।
सम्वेदना के फ़ूल ही क्या, भाव सभी बस शूल हुए।
क्या राही क्या दुकानदार सब खेल में मशगूल हुए॥
द्वेषों के है सांप छाब में, क्रोधों की फुफकार लिए।
हाथ उनके टिपण-पात्र है, सिक्कों की झनकार लिए।
परपीड़न का मनोरंजन है, बैचेनी बदकार लिए॥
महाभयंकर नागराज अब, मानव के अनुकूल हुए।
एक नई फुफकार के खातिर, दर्शक भी व्याकुल हुए।
सम्वेदना के फ़ूल ही क्या, भाव सभी बस शूल हुए।
क्या राही क्या दुकानदार सब खेल में मशगूल हुए॥
अति उत्तम ,
जवाब देंहटाएंसही नब्ज पकड़ी है आप ने
आप को इस रचना के लिए बधाई
wonderful
जवाब देंहटाएंand very true
ग़ज़ब की अभिव्यक्ति। काफ़ी विचारोत्तेजक। आभार।
जवाब देंहटाएं(फ़ुल=फूल)
आपकी टिप्पणी बॉक्स में कुछ सम्स्या है। क्या लिखता हूं दिखता नहीं ठीक से)
समकालीन डोगरी साहित्य के प्रथम महत्वपूर्ण हस्ताक्षर : श्री नरेन्द्र खजुरिया
अभिषेक जी,
जवाब देंहटाएंरचना जी,
आभार आपका आपने भाव को सही पकडा।
मनोज जी,
आभार इस सुंदर टिप्पणी के लिये।
सुधार के लिये आभार,टिप्पणी बॉक्स तो ठीक काम कर रहा है।
यह सच्चाई है यहाँ की ...हर चेहरा सपेरे का है ! चेहरे पहचानने आने चाहिए....
जवाब देंहटाएंआपको हार्दिक शुभकामनायें !
सुज्ञ जी कविता भी पढ़ी और चित्र भी देखा । जबरदस्त हैं। यहां ब्लाग जगत में भी कुछ ऐसा ही लग रहा है कि सपने अपने ब्लाग के पिटारे में एक एक सांप रख लिया है। जो कहने को तो शायद दंत विहीन है,पर जब सपेरे का मन होता है उसके दांत वापस लगा देता है और वह उसकी बीन पर जहर उगलने लगता है। चित्र में एक सपेरा साधु का भेष धरे अपनी एक टांग के बल पर सांप को उत्तेजित करने का प्रयत्न कर रहा है, हालांकि वह जानता है कि सांप दंत विहीन है इसलिए कुछ नहीं करेगा। लेकिन अगर वह दंत विहीन न हो तो शायद उससे भागते भी नहीं बने। पीछे खड़ी भीड़ भी बस मजा लेने के मूड में है लेकिन नहीं जानती कि अगर सांप पिटारे से निकला तो सबको भागना ही पड़ेगा।
जवाब देंहटाएंब्लाग जगत पर जिस तरह से आजकल ब्लागर अपना खेल दिखा रहे हैं वह भी कुछ इसी तरह का चित्र उपस्िथत कर रहा है।
सुज्ञ जी,
जवाब देंहटाएं‘परपीडन का मनोरंजन है’
यहाँ 'Stop cruelty against animals' के उद्घोष की याद दिलाती है यह पंक्ति।
‘महाभयंकर नागराज अब, मानव के अनुकूल हुए।’
यहाँ तो राष्ट्रकवि दिनकर जी की वे पंक्तियाँ याद आ गयीं कि- "रे अश्वसेन! तेरी वंशज...."
‘सम्वेदना के फ़ूल ही क्या, भाव सभी बस शूल हुए।’
यह चित्र यथार्थपरक है...बधाई!
सुज्ञ जी, इस सबसे इतर, कुछ जगहों पर मुद्रण-दोष रह गये हैं। यथा-
‘फ़ूफ़कार’
‘फ़ुफ़्कार’
‘फ़िरते’
‘कितने’
‘छाब’
‘नईं’
‘फ़ूल’
‘परपीडन’
‘मशगूल’ आदि।
________________________________
यदि आप अनुमति दें, तो इस संदर्भ में ‘शुद्ध भाषा-लेखन’ पर एक आलेख अपने ब्लॉग पर लिखूँ।
एक बात और... यदि हम-आप एक-दूसरे की सिर्फ़ प्रशंसा ही करते रहे एवं ग़लतियों पर ध्यानाकर्षण नहीं कराया,तो फिर कुछ सीखने को कहाँ मिलेगा... हमे आपसे और आपको दूसरों से? है कि नहीं..?
नाग नागिनों और उस्तादों का टिपियाना शुरू हो चुका है -अंत में बताईयेगा कितने सांप कितने नाग कितनी नागिनियाँ और कितने उस्ताद यहाँ नमूदार हुए और कितनी केंचुले बदली गयीं !
जवाब देंहटाएंसीधे हो सुज्ञ ....और मेरी पोस्ट का इस्तेमाल अपने केवल अपनी इस पोस्ट को प्रोमोट करने के लिए किया ..यह आचारानुकूल नहीं भाई ! आगे से ध्यान रखियेगा !
ऊपर मेरे उद्धरण में " रे अश्वसेन, तेरे वंशज..." पढ़ा जाय ‘तेरी’ नहीं। धन्यवाद!
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएंप्रभावशाली प्रस्तुति।
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वाह बहुत बढ़िया रचना .....
जवाब देंहटाएंपरपीडन का मनोरंजन है, बैचेनी बदकार लिए॥
जवाब देंहटाएं---------------------------------------
कमाल की सोच..... हर शब्द विचारणीय है....
हंसराज जी! आप सुज्ञ हैं!! इसलिए आपने जो लाइनें लिखी हैं, उनपर मेरा साधुवाद स्वीकार करें... रही बात बिटविन द लाइंस पढने की तो वो तो हमें पढना ही नहीं आता!
जवाब देंहटाएंसही कहा जगत में सभी बस परपीड़ा से अपना मनोरंजन ही कर रहे है |
जवाब देंहटाएंवाह! सुज्ञ जी, क्या खूब जोरदार रचना है!
जवाब देंहटाएंउम्दा प्रस्तुति!
बहुत जानदार!
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंहम तो ब्लॉगिंग को ज़हरमोहरा मानते आये थे,
हाँ, अब लगता है कि, आप ही सही हो.. मैं गलत था ।
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जवाब देंहटाएंजब मजमा लगता है तो सभी आ खड़े होते है.
मनोरंजन करना दबे-छिपे रूप में ही सही हमारे स्वभाव में ही है.
क्या राहगीर क्या दुकानदार,
क्या टिप्पणीकर्ता क्या पोस्ट-मास्टर,
क्या विचारक क्या विचार से रंक,
....... सब के सब ईर्ष्या-द्वेष वाले 'सपेरे के खेल' में नज़रें गढ़ाए दिखते हैं.
.
ब्लागजगत की हकीकत को ब्याँ करती रचना........
जवाब देंहटाएंहर चेहरे पर नकाब दर नकाब दर नकाब...
bahot achchi lagi.
जवाब देंहटाएंयह रचना इंसान की फितरत को बता रही है ....यह केवल ब्लॉग जगत की बात नहीं समस्त जग की बात है ..
जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी, आप तो पहुँचे हुए कवि हैं। शुभकामनायें!
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