tag:blogger.com,1999:blog-75460546763555885762024-03-10T13:52:58.215+05:30सुज्ञसुज्ञhttp://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.comBlogger249125tag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-16647882835971066272016-10-04T08:11:00.000+05:302016-10-04T08:18:42.440+05:30जड़मति- सम्मति<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक गाँव में एक महिला, तालाब पर पानी भरने गई। उसका पति भी स्नान और कपड़े धोने के उद्देश्य से उसके साथ था। गाँव का बुजर्ग सरपंच भी वहाँ था।<br />
<br />
पानी भरती हुई महिला का पैर फिसला और वह तालाब में जा गिरी। हाथ पैर पटकने से वह किनारे से दूर हो गई। सरपंच ने उसके पति को हांक लगायी- " अरे बचाओ उसे।" पति ने लाचारी व्यक्त की, उसे तैरना नहीं आता था। तैरना तो सरपंच भी नहीं जानता था। अब क्या हो, किन्तु सहसा सरपंच को उपाय सूझा, तालाब में भैसें तैर रही थी। सरपंच ने उसके पति से कहा, "अपनी पत्नी को हांक लगाओ कि, 'भैस की पूँछ पकड़ ले' वह डूबने से बच जाएगी और भैस के साथ बाहर भी निकल आएगी।"
उसके पति ने आवाज लगाई, "भैंस की पूँछ मत पकड़ना" सरपंच ने कुपित नज़रों से उसे देखा किन्तु तब तक महिला भैंस की पूँछ पकड़ चुकी थी।<br />
<br />
सरपंच चिल्लाया, "भैंस की पूँछ छोड़ना मत" उसके पति ने सरपंच को चुप रहने का ईशारा करते हुए पत्नी को आवाज दी, "भैंस की पूँछ मत पकड़े रखना" और सरपंच की ओर मुखातिब हो धीरे से कहा, "वह मेरी पत्नी है, उसे मैं अच्छी तरह से जानता हूँ, बड़ी तुनकमिजाजी है।आदेश तो किसी भी दशा में उसे मंजूर नहीं, जो बोलो उसके उलट ही व्यवहार करेगी"<br />
<br />
उधर, देखते ही देखते उसकी पत्नी भैंस के साथ सकुशल बाहर आ गई।<br />
<br />
सरपंच आवाक देखता ही रह गया!!</div>
सुज्ञhttp://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-41941371358651503712016-08-17T12:46:00.001+05:302017-01-31T14:01:07.627+05:30सेवा कृतज्ञता और क्षमा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक राजा था। उसने 10 खूंखार जंगली कुत्ते पाल रखे थे। जिनका इस्तेमाल वह लोगों को उनके द्वारा की गयी गलतियों पर मौत की सजा देने के लिए करता था।<br />
एक बार कुछ ऐसा हुआ कि राजा के एक पुराने मंत्री से कोई गलती हो गयी। क्रोधित होकर राजा ने उसे शिकारी कुत्तों के आगे फिकवाने का आदेश दे डाला।<br />
सजा दिए जाने से पूर्व राजा ने मंत्री से उसकी आखिरी इच्छा पूछी।<br />
“राजन ! मैंने आज्ञाकारी सेवक के रूप में आपकी 10 सालों से सेवा की है…मैं सजा पाने से पहले आपसे 10 दिनों की मोहलत चाहता हूँ।” - मंत्री ने राजा से निवेदन किया।
राजा ने उसकी बात मान ली ।<br />
दस दिन बाद राजा के सैनिक मंत्री को पकड़ कर लाते हैं और राजा का इशारा पाते ही उसे खूंखार कुत्तों के सामने फेंक देते हैं। परंतु यह क्या कुत्ते मंत्री पर टूट पड़ने की बजाए, अपनी पूँछ हिला-हिला कर मंत्री के ऊपर कूदने लगते हैं और प्यार से उसके पैर चाटने लगते हैं।<br />
राजा आश्चर्य से यह सब देख रहा था। उसने मन ही मन सोचा कि आखिर इन खूंखार कुत्तों को क्या हो गया है? वे इस तरह व्यवहार क्यों कर रहे हैं?<br />
आखिरकार राजा से रहा नहीं गया। उसने मंत्री से पूछा, "ये क्या हो रहा है, ये कुत्ते तुम्हे काटने की बजाए, तुम्हारे साथ खेल क्यों रहे हैं?"<br />
"राजन ! मैंने आपसे जो १० दिनों की मोहलत ली थी, उस अवधि का एक-एक क्षण मैंने इन बेजुबानो की सेवा में लगा दिया। मैं रोज इन कुत्तों को नहलाता ,खाना खिलाता, सुश्रुषा करता व हर तरह से उनका ध्यान रखता। ये कुत्ते खूंखार और जंगली होकर भी मेरे दस दिन की सेवा नहीं भूला पा रहे हैं। परंतु खेद है कि आप, प्रजा के पालक हो कर भी, मेरी 10 वर्षों की स्वामीभक्ति भूल गए और मेरी एक छोटी सी त्रुटि पर इतनी बड़ी सजा सुन दी!”<br />
राजा को अपनी भूल का एहसास हो चुका था, उसने तत्काल मंत्री को आज़ाद करने का आदेश दिया और आगे से ऐसी गलती ना करने की सौगंध ली।<br />
मित्रों , कई बार इस राजा की तरह हम भी किसी की बरसों की अच्छाई को उसके एक पल की बुराई के आगे भूला देते हैं। यह कहानी हमें समतावान और क्षमाशील होने की सीख देती है। ये हमें सबक देती है कि हम किसी की हज़ार अच्छाइयों को उसकी एक बुराई के सामने छोटा ना होने दें।</div>
सुज्ञhttp://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-86423530886990979542016-08-17T12:46:00.000+05:302016-10-04T08:14:23.633+05:30सेवा कृतज्ञता और क्षमा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक राजा था। उसने 10 खूंखार जंगली कुत्ते पाल रखे थे। जिनका इस्तेमाल वह लोगों को उनके द्वारा की गयी गलतियों पर मौत की सजा देने के लिए करता था।<br />
एक बार कुछ ऐसा हुआ कि राजा के एक पुराने मंत्री से कोई गलती हो गयी। क्रोधित होकर राजा ने उसे शिकारी कुत्तों के आगे फिकवाने का आदेश दे डाला।<br />
सजा दिए जाने से पूर्व राजा ने मंत्री से उसकी आखिरी इच्छा पूछी।<br />
“राजन ! मैंने आज्ञाकारी सेवक के रूप में आपकी 10 सालों से सेवा की है…मैं सजा पाने से पहले आपसे 10 दिनों की मोहलत चाहता हूँ।” - मंत्री ने राजा से निवेदन किया।
राजा ने उसकी बात मान ली ।<br />
दस दिन बाद राजा के सैनिक मंत्री को पकड़ कर लाते हैं और राजा का इशारा पाते ही उसे खूंखार कुत्तों के सामने फेंक देते हैं। परंतु यह क्या कुत्ते मंत्री पर टूट पड़ने की बजाए, अपनी पूँछ हिला-हिला कर मंत्री के ऊपर कूदने लगते हैं और प्यार से उसके पैर चाटने लगते हैं।<br />
राजा आश्चर्य से यह सब देख रहा था। उसने मन ही मन सोचा कि आखिर इन खूंखार कुत्तों को क्या हो गया है? वे इस तरह व्यवहार क्यों कर रहे हैं?<br />
आखिरकार राजा से रहा नहीं गया। उसने मंत्री से पूछा, "ये क्या हो रहा है, ये कुत्ते तुम्हे काटने की बजाए, तुम्हारे साथ खेल क्यों रहे हैं?"<br />
"राजन ! मैंने आपसे जो १० दिनों की मोहलत ली थी, उस अवधि का एक-एक क्षण मैंने इन बेजुबानो की सेवा में लगा दिया। मैं रोज इन कुत्तों को नहलाता ,खाना खिलाता, सुश्रुषा करता व हर तरह से उनका ध्यान रखता। ये कुत्ते खूंखार और जंगली होकर भी मेरे दस दिन की सेवा नहीं भूला पा रहे हैं। परंतु खेद है कि आप, प्रजा के पालक हो कर भी, मेरी 10 वर्षों की स्वामीभक्ति भूल गए और मेरी एक छोटी सी त्रुटि पर इतनी बड़ी सजा सुन दी!”<br />
राजा को अपनी भूल का एहसास हो चुका था, उसने तत्काल मंत्री को आज़ाद करने का आदेश दिया और आगे से ऐसी गलती ना करने की सौगंध ली।<br />
मित्रों , कई बार इस राजा की तरह हम भी किसी की बरसों की अच्छाई को उसके एक पल की बुराई के आगे भूला देते हैं। यह कहानी हमें समतावान और क्षमाशील होने की सीख देती है। ये हमें सबक देती है कि हम किसी की हज़ार अच्छाइयों को उसकी एक बुराई के सामने छोटा ना होने दें।</div>
सुज्ञhttp://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-67953615481527748372016-08-11T10:41:00.000+05:302016-08-11T10:41:30.300+05:30मानस-बन्धन<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
एक आदमी कहीं से गुजर रहा था, तभी उसने सड़क के किनारे बंधे हाथियों को देखा, और अचानक रुक गया। उसने देखा कि हाथियों के अगले पैर में एक रस्सी बंधी हुई है, उसे इस बात का बड़ा अचरज हुआ की हाथी जैसे विशालकाय जीव लोहे की जंजीरों की जगह बस एक छोटी सी रस्सी से बंधे हुए हैं!!! ये स्पष्ठ था कि हाथी जब चाहते तब अपने बंधन तोड़ कर कहीं भी जा सकते थे, पर किसी वजह से वो ऐसा नहीं कर रहे थे।<br />
<br />
उसने पास खड़े महावत से पूछा कि भला ये हाथी किस प्रकार इतनी शांति से खड़े हैं और भागने का प्रयास नही कर रहे हैं ? तब महावत ने कहा, ” इन हाथियों को छोटे पर से ही इन रस्सियों से बाँधा जाता है, उस समय इनके पास इतनी शक्ति नहीं होती की इस बंधन को तोड़ सकें। बार-बार प्रयास करने पर भी रस्सी ना तोड़ पाने के कारण उन्हें धीरे-धीरे यकीन होता जाता है कि वो इन रस्सियों नहीं तोड़ सकते,और बड़े होने पर भी उनका ये यकीन बना रहता है, इसलिए वो कभी इसे तोड़ने का प्रयास ही नहीं करते।”<br />
<br />
आदमी आश्चर्य में पड़ गया कि ये ताकतवर जानवर सिर्फ इसलिए अपना बंधन नहीं तोड़ सकते क्योंकि वो इस बात में यकीन करते हैं!!<br />
<br />
इन हाथियों की तरह ही हममें से कितने लोग सिर्फ पहले मिली असफलता के कारण ये मान बैठते हैं कि अब हमसे ये काम हो ही नहीं सकता और अपनी ही बनायीं हुई मानसिक जंजीरों में जकड़े-जकड़े पूरा जीवन गुजार देते हैं। <br />
<br />
याद रखिये असफलता जीवन का एक हिस्सा है,और निरंतर प्रयास करने से ही सफलता मिलती है। यदि आप भी ऐसे किसी बंधन में बंधें हैं जो आपको अपने सपने सच करने से रोक रहा है तो उसे तोड़ डालिए….. आप हाथी नहीं इंसान हैं......</div>
सुज्ञhttp://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-90187655727723959992016-07-03T07:48:00.000+05:302016-07-03T07:48:36.794+05:30कर्मानुसार फलप्राप्ति<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक बार एक राजा एक व्यक्ति के काम से खुश हुआ। उसने उस व्यक्ति को अपने पास बुलाकर कहा कि तेरी मेहनत, वफादारी व हिम्मत से मैं बहुत प्रसन्न हूँ, इसलिए मैं आज तुझे कुछ इनाम देना चाहता हूँ। फिर उसने कहा कि काम तो चाहे तुमने लगभग 500 रुपये जितना किया है पर मैं तुम्हें कुछ इससे अधिक देना चाहता हूँ। वह व्यक्ति बहुत खुश हो रहा था। और राजा ने उससे कहा, आज रात तुम मेरे व्यक्तिगत कमरे में ही गुजारना। वहाँ सब प्रकार का कीमती सामान है, तुम्हे जो चाहिए, वह उसमें से ले लेना परन्तु सुबह 7 बजे कमरा खाली कर देना।<br />
<br />
व्यक्ति का तो ख़ुशी का ठिकाना न रहा। वह अपने भाग्य को सराहने लगा और सोचने लगा कि सचमुच, भगवन जब देता है तो छप्पर फाड़कर ही देता है। और वह व्यक्ति रात के ठीक 9 बजे राजा के कमरे में प्रवेश किया। अनेक प्रकार की आलीशान वास्तुअों, कीमती सामान को देख कर उसकी आँखे चमक उठी।वह एक- एक चीज़ को बडे ध्यान से देखता और मन में सोच लेता कि वह यह चीज भी अपने साथ ले जाएगा, वो भी ले जाएगा और इस प्रकार उसने कई वस्तुअों को अपने साथ ले जाने की योजना बना ली। और फिर मन-ही-मन मुस्कुराते हुए सामने बिछे हुए नरम-नरम गद्दों वाले बिस्तर की ओर चल दिया। उसने सोचा कि सारा दिन बहुत काम करके वह थक गया है। तो क्यों न कुछ देर सुस्ता ही लिया जाये और उसके बाद सब सामान इकट्ठा कर सुबह होते ही सामान सहित कमरे से बाहर चला जायेगा । <br />
<br />
यह सोचकर वह उस पलंग पर जाकर चैन से लेट गया। थका हुआ तो था ही, और कुछ ही क्षणों में उसे निद्रा देवी ने घेर लिया। वह सोया रहा, सोया रहा और इतना सोया रहा कि सुबह के 7 बज गए। उसी वक्त राजा के नौकर ने आकर दरवाजा खटखटाया। वह व्यक्ति आँखे मलता हुआ हड़बड़ा कर उठ बैठा। उसने जल्दी से बिस्तरे से उठ कर दरवाजा खोला। नौकर ने कहा समय पूरा हो गया है। उस व्यक्ति ने घड़ी की तरफ देखा और कमरे से बाहर निकलते वक्त सामान तो बाँधकर नहीं रखा था सो एक टेबल लैंप को ही खींचता हुआ ले आया। और किसी से पूछने पर मालूम हुआ कि उस लैम्प की कीमत कुल 500 रुपये ही है। जितना उस व्यक्ति ने काम किया था, उसको उतनी ही प्राप्ति हो गई।<br />
<br />
जरा सोचिये सारा कमरा, कीमती सामान, आलीशान वस्तुअों से भरा उस व्यक्ति के समाने था, वह उस में से जितना चाहे उतना ले सकता था परन्तु तकदीर के बिना मनुष्य को कुछ भी प्राप्त नहीं होता। चाहे कारण कोई भी हो जैसे नींद का। परन्तु याद रखना तक़दीर भी अपने ही कर्मो से बनती है। श्रेष्ठ कर्म करने वालो की ही श्रेष्ठ तक़दीर बनती है। और निकृष्ट कर्म या खोटे कर्म करने वाले की खोटी तक़दीर। जैसे उस व्यक्ति ने 500 रुपये का काम किया था और 500 रुपये की ही उसको चीज़ मिल गई।<br />
<br />
कितनी भी दौड़ लगाले मानव!! तृष्णा तृप्ति की रिबन नहीं लांघ सकता। कर्म, भाग्य और नियति से तेज दौड़ नहीं है तेरी!!</div>
सुज्ञhttp://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-86161978665303288882016-06-22T08:54:00.000+05:302016-06-22T08:54:58.011+05:30चरित्राभ्यास<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
एक युवक प्रतिदिन संत का प्रवचन सुनता था। एक दिन जब प्रवचन समाप्त हो गया तो वह संत के समीप गया और बोला, "महाराज! मैं काफी दिनों से आपके प्रवचन सुन रहा हूं, किंतु यहां से जाने के बाद मैं अपने गृहस्थ जीवन में वैसा सदाचरण नहीं कर पाता, जैसा यहाँ से सुनकर जाता हूं। इससे सत्संग के महत्व और प्रभाव पर संदेह भी होने लगता है। बताइए, मैं क्या करूं?"<br />
<br />
संत ने युवक को बांस की एक टोकरी देते हुए उसमें पानी भरकर लाने के लिए कहा, युवक टोकरी में जल भरने में असफल रहा।<br />
<br />
संत ने यह कार्य निरंतर जारी रखने के लिए कहा, युवक प्रतिदिन टोकरी में जल भरने का प्रयास करता, किंतु सफल नहीं हो पाता। कुछ दिनों बाद संत ने उससेे पूछा, "इतने दिनों से टोकरी में लगातार जल डालने से क्या टोकरी में कोई अंतर नजर आया?"<br />
<br />
युवक बोला, "एक फर्क जरूर नजर आया है, पहले टोकरी के साथ मिट्टी जमा होती थी, अब वह साफ दिखाई देती है। कोई गंदगी नहीं दिखाई देती और इसके छेद पहले जितने बड़े नहीं रह गए, वे बहुत छोटे हो गए हैं।"<br />
<br />
तब संत ने उसे समझाया, "यदि इसी तरह उसे पानी में निरंतर डालते रहोगे, तो कुछ ही दिनों में ये बांस के तानेबाने फूलकर छिद्र बंद हो जाएंगे और तुम टोकरी में पानी भर पाओगे। इसी प्रकार जो निरंतर सत्संग करते हैं, उनका मन एक दिन अवश्य निर्मल हो जाता है, अवगुणों के छिद्र भरने लगते हैं और टोकरी में गुणों का जल भरने लगता है।"<br />
<br />
युवक ने संत से अपनी समस्या का समाधान पा लिया।<br />
<br />
निरंतर सत्संग से दुर्जन भी सज्जन हो जाते हैं क्योंकि
महापुरुषों की हितकर वाणी उनके मानसिक विकारों को दूर कर, उनमें सदविचारों का आलोक प्रसारित करने में समर्थ बनती है।<br />
<br />
करत करत अभ्यास के और जड़मति होत सुजान!!</div>सुज्ञhttp://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-70868136663540210712016-06-22T07:48:00.002+05:302016-06-23T11:49:18.058+05:30झंझट<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक संत बहुत दिनों से नदी के किनारे बैठे थे, एक दिन किसी व्यकि ने उससे पुछा, "आप नदी के किनारे बैठे-बैठे क्या कर रहे हैं?"<br />
<br />
संत ने कहा, "इस नदी का जल पूरा का पूरा बह जाए इसका इंतजार कर रहा हूँ।"<br />
<br />
व्यक्ति ने कहा, "यह कैसे हो सकता है। नदी तो बहती ही रहती है सारा पानी अगर बह भी जाए तो, आप को क्या करना?"<br />
<br />
संत ने कहा, "मुझे उस पार जाना है, सारा जल बह जाए तो मैं चल कर उस पार जा पाऊँगा।"<br />
<br />
उस व्यक्ति ने ताना मारते हुए कहा, "आप मूर्खताभरी नासमझ बात कर रहे हैं, ऐसा तो हो ही नही सकता!!"<br />
<br />
तब संत ने मुस्कराते हुए कहा, "यह काम तुम लोगों को देख कर ही सीखा है। तुम लोग हमेशा सोचते रहते हो कि जीवन मे थोड़ी बाधाएं कम हो जाएं, कुछ समस्याएँ ख़त्म हो जाय, अलाना-फलाना काम खत्म हो जाए तो सदाचरण, सेवा, साधना, सत्कार्य करेगें!"<br />
<br />
"जीवन भी तो प्रवाहमान नदी के समान है यदि जीवन मे तुम यह आशा लगाए बैठे हो, तो मैं इस नदी के पानी के पूरे बह जाने का इंतजार क्यों न करूँ..??"<br />
<br />
अभी भी समय है, तृष्णा का अंत नहीं, जीवन के संतोषकाल या उत्तरकाल की प्रतीक्षा न करो, प्रमाद न करो। बनते सदाचरण, सत्कार्य, परहित, परोपकार को समय और श्रम दो। पता नहीं जीवनघट कब रीत जाए.....</div>
सुज्ञhttp://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-58279146023887521472016-06-21T22:15:00.001+05:302016-06-23T11:50:52.851+05:30कर्म और ज्ञान<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक बार एक जंगले में आग लग गई । उसमें दो व्यक्ति फँस गए थे । उनमें से एक अँधा तथा दूसरा लंगड़ा था । दोनों बहुत डर गए ।<br />
<br />
अंधे ने आव देखा न ताव बस दौड़ना शुरू कर दिया । अंधे को यह भी ख्याल नहीं रहा की वो आग की तरफ दौड़ रहा था । लंगड़ा उसे आवाज़ देता रहा पर अंधे ने पलटकर जवाब नहीं दिया ।<br />
<br />
लंगड़ा आग को अपनी तरफ आती तो देख रहा था पर वह भाग नहीं सकता था । अंत में दोनों आग में जलकर मर गए ।<br />
<br />
अंधे ने भागने का कर्म किया था पर उसे ज्ञान नहीं था कि किस तरफ भागना है । <br />
<br />
लंगड़े को ज्ञान था की किस तरफ भागना है पर वो भागने का कर्म नहीं कर सकता था ।<br />
<br />
अगर दोनों एक साथ रहते और अँधा लंगड़े को अपने कंधे पर बिठा कर भागता तो दोनों की जान बच सकती थी । <br />
<br />
तात्पर्य:<br />
<br />
।। कर्म के बिना ज्ञान व्यर्थ है ।।<br />
।। ज्ञान के बिना कर्म व्यर्थ है ।।<br />
<br />
हतं णाणम् क्रिया हीनम्, हतं अन्नाणं ओ क्रिया।<br />
पासन्तो पुंगलो दिट्ठो, ध्यायमाणोय अंधलो ।।<br />
<br />
ज्ञानवान है किन्तु क्रिया नहीं है और क्रियावान है किन्तु ज्ञान नहीं है। तो पहला आँखों के होते पंगु (लंगड़े) के समान है। और दूसरा पैरों के रहते अंधे के समान है। <br />
<br />
सफलता के लिए ज्ञान और क्रिया दोनो आवश्यक है।</div>
सुज्ञhttp://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-49581408505386786852016-06-21T22:04:00.002+05:302016-06-23T11:50:52.821+05:30अकेलापन<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक व्यक्ति नितांत ही अकेला पड गया था। उसके स्वजन, मित्र सभी ने उसका साथ छोड दिया। तकरीबन सभी ने उसके साथ विश्वासघात किया था।अकेलेपन ने उसका जीवन, विषाद से भर दिया था।<br />
<br />
विषाद एवम् अकेलेपन के निवारण हेतू वह एक विद्वान महात्मा के पास पहुँचा। उसने अपने नीरस जीवन और अकेलेपन की पीड़ा, महात्मा के समक्ष व्यक्त की। अंत में कातर स्वर में अपने अकेलेपन को दूर करने का उपाय बताने के लिए विनंती की।<br />
<br />
महात्मा हंसते हुए बोले, "यह तो बहुत ही सरल है। आप बस मेरे समान मित्रो का सर्कल बनालो, मेरे उन मित्रों के रहते, मुझे कभी अकेलापन महसूस नही हुआ। मेरे मित्र कभी भी धोखा नही देते। मेरे वे पाँचो मित्र हमेशा साथ निभाते है।"<br />
<br />
उस व्यक्ति ने कहा, "आप बहुत ही भाग्यशाली है, आपको ऐसे सच्चे स्नेही मित्र मिले! सभी का कहाँ ऐसा सौभाग्य होता है? सभी को, आपके मित्रों समान हितैषी मित्र मिल जाए, यह जरूरी भी तो नही।"<br />
<br />
महात्मा ने मंद स्मित करते हुए कहा, अरे भाई! तुझे जानकर आश्चर्य होगा कि मेरे उन मित्रों को कोई भी व्यक्ति सरलता से मित्र बना सकता है। वे सभी के प्रेममय, समर्पितभाव से मित्र बनते है, और मनोयोग से मित्रता निभाते भी है।<br />
<br />
व्यक्ति ने बड़ी उम्मीद से प्रश्न किया, "क्या वे मेरे भी मित्र बन जाएंगे? क्या वे मेरा साथ भी निभाएंगे?"<br />
<br />
महात्मा ने कहा, "ध्यान से सुनो, जिन पाँच मित्रो की मैं बात कर रहा हूँ उनको मित्र बनाने के लिए तुम्हे भी मनोयोग से मेहनत करनी पड़ेगी, दृढ़निश्चय करना होगा। समर्पित मानस बनाना होगा, मित्रता का संकल्प लेना होगा। जब वे एक बार मित्र बन गए तो फिर सदैव के लिए साथ निभायेंगे। प्रतिक्षण सहायता को तत्पर रहेंगे।"<br />
<br />
उस व्यक्ति ने उत्साह से कहा, "तब तो आप जल्दी से मुझे उन पाँच मित्रो के नाम बताईए और वे कहाँ मिलेंगे ठिकाना बताईए। मुझे हरहाल में उनके साथ मित्रता करनी है।"<br />
<br />
महात्मा ने प्रसन्नता से उन पाँच मित्रो के नाम बताए-<br />
<br />
प्रमाणिकता,<br />
सादगी,<br />
सच्चाई,<br />
स्पष्टवादिता,<br />
वचनबद्धता।<br />
<br />
और कहा, "इनका ठिकाना है, अंतर्मन-वन मध्य, इन्द्रियविषय नामक झाड़ झंखाड़ के पीछे, निर्मल हृदयस्थल!!<br />
<br />
उनसे शीघ्र साक्षात्कार कर और उन्हें अपना मित्र बना, तेरा अकेलापन काफूर हो जाएगा!!"<br />
<br />
उस व्यक्ति को अपनी समस्या का समाधान सहज ही मिल गया</div>
सुज्ञhttp://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-58278148909509653852016-04-16T09:19:00.001+05:302016-06-22T08:59:12.638+05:30स्वाधीन दृष्टी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक जौहरी के निधन के बाद उसका परिवार संकट में पड़ गया। खाने के भी लाले पड़ गए।<br />
एक दिन उसकी पत्नी ने अपने बेटे को नीलम का एक हार देकर कहा- "बेटा, इसे अपने चाचा की दुकान पर ले जाओ। कहना इसे बेचकर कुछ रुपये दे दो।" <br />
बेटा वह हार लेकर चाचा जी के पास गया।चाचा ने हार को अच्छी तरह से देख परखकर कहा- "बेटा, मां से कहना कि अभी बाजार बहुत मंदा है। थोड़ा रुककर बेचना, अच्छे दाम मिलेंगे।" उसे थोड़े से रुपये देकर कहा कि तुम कल से दुकान पर आकर बैठना। <br />
अगले दिन से वह लड़का रोज दुकान पर जाने लगा और वहां हीरों की परख का काम सीखने लगा। एक दिन वह बड़ा पारखी बन गया। लोग दूर दूर से अपने हीरे की परख कराने आने लगे। एक दिन उसके चाचा ने कहा, बेटा अपनी मां से वह हार लेकर आना और कहना कि अब बाजार बहुत तेज है, उसके अच्छे दाम मिल जाएंगे। मां से हार लेकर उसने परखा तो पाया कि वह तो नकली है। वह उसे घर पर ही छोड़ कर दुकान लौट आया।<br />
चाचा ने पूछा, हार नहीं लाए? उसने कहा, वह तो नकली था। तब चाचा ने कहा, जब तुम पहली बार हार लेकर आये थे, तब मैं उसे नकली बता देता तो तुम सोचते कि आज हम पर बुरा वक्त आया तो चाचा हमारी चीज को भी नकली बताने लगे। आज जब तुम्हें खुद ज्ञान हो गया तो पता चल गया कि हार सचमुच नकली है। <br />
सच यह है कि सम्यक् ज्ञान के अभाव में इस संसार में हम जो भी सोचते, देखते और जानते हैं, सब मिथ्या है।</div>
सुज्ञhttp://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-51839848584658708262016-04-15T16:01:00.000+05:302016-06-23T11:50:52.844+05:30स्वर्ण बेड़ी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बहुत समय पहले की बात है , एक राजा को उपहार में किसी ने बाज के दो बच्चे भेंट किये । वे बड़ी ही अच्छी नस्ल के थे , और राजा ने कभी इससे पहले इतने शानदार बाज नहीं देखे थे।
राजा ने उनकी देखभाल के लिए एक अनुभवी आदमी को नियुक्त कर दिया । जब कुछ महीने बीत गए तो राजा ने बाजों को देखने का मन बनाया , और उस जगह पहुँच गए जहाँ उन्हें पाला जा रहा था । राजा ने...देखा कि दोनों बाज काफी बड़े हो चुके थे और अब पहले से भी शानदार लग रहे हैं ।<br />
<br />
राजा ने बाजों की देखभाल कर रहे आदमी से कहा, ” मैं इनकी उड़ान देखना चाहता हूँ , तुम इन्हे उड़ने का इशारा करो । “आदमी ने ऐसा ही किया । इशारा मिलते ही दोनों बाज उड़ान भरने लगे , पर जहाँ एक बाज आसमान की ऊंचाइयों को छू रहा था , वहीँ दूसरा , कुछ ऊपर जाकर वापस उसी डाल पर आकर बैठ गया, जिस से वो उड़ा था ।
ये देख , राजा को कुछ अजीब लगा “क्या बात है जहाँ एक बाज इतनी अच्छी उड़ान भर रहा है वहीँ ये दूसरा बाज उड़ना ही नहीं चाह रहा ?”, राजा ने सवाल किया। "जी हुजूर , इस बाज के साथ शुरू से यही समस्या है , वो इस डाल को छोड़ता ही नहीं।”
राजा को दोनों ही बाज प्रिय थे , और वो दुसरे बाज को भी उसी तरह उड़ना देखना चाहते थे। अगले दिन पूरे राज्य में ऐलान करा दिया गया कि जो व्यक्ति इस बाज को ऊँचा उड़ाने में कामयाब होगा उसे ढेरों इनाम दिया जाएगा।<br />
<br />
फिर क्या था , एक से एक विद्वान् आये और बाज को उड़ाने का प्रयास करने लगे , पर हफ़्तों बीत जाने के बाद भी बाज का वही हाल था, वो थोडा सा उड़ता और वापस डाल पर आकर बैठ जाता।
फिर एक दिन कुछ अनोखा हुआ , राजा ने देखा कि उसके दोनों बाज आसमान में उड़ रहे हैं। उन्हें अपनी आँखों पर यकिन नहीं हुआ और उन्होंने तुरंत उस व्यक्ति का पता लगाने को कहा जिसने ये कारनामा कर दिखाया था। वह व्यक्ति एक किसान था । <br />
<br />
अगले दिन वह दरबार में हाजिर हुआ । उसे इनाम में स्वर्ण मुद्राएं भेंट करने के बाद राजा ने कहा ,” मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ , बस तुम इतना बताओ कि जो काम बड़े-बड़े विद्वा्न नहीं कर पाये वो तुमने कैसे कर दिखाया । “मालिक ! मैं तो एक साधारण सा किसान हूँ , मैं ज्ञान की ज्यादा बातें नहीं जानता , मैंने तो बस वो डाल काट दी जिस पर बैठने का आदि हो चुका था, और जब वो डाल ही नहीं रही तो वो भी अपने साथी के साथ ऊपर उड़ने लगा।“ <br />
<br />
दोस्तों, हम सभी ऊँचा उड़ने के लिए ही बने हैं। लेकिन कई बार हम जो कर रहे होते है उसके इतने आदि हो जाते हैं कि अपनी ऊँची उड़ान भरने की, कुछ बड़ा करने की काबिलियत को भूल जाते हैं । यदि आप भी सालों से किसी ऐसे ही काम में लगे हैं जो आपके सही पोटेंशियल के मुताबिक नहीं है तो एक बार ज़रूर सोचिये कि कहीं आपको भी उस डाल को काटने की ज़रुरत तो नहीं जिस पर आप बैठे हुए हैं !!</div>
सुज्ञhttp://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-51401859588250000322016-04-15T15:41:00.001+05:302016-06-23T11:50:52.836+05:30नकटा दर्शन<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक कामचोर भंडारी के कारण राजकोष में बड़ी भारी चोरी हो गई। राजा ने उस भंडारी को तलब किया,और ठीक से जिम्मेदारी न निभाने का कारण पूछा। भंडारी ने उछ्रंखलता से जवाब दिया, "चारों और चोरी बेईमानी फैली है मैं क्या करूँ, मैं तो ईमानदार हूँ।" <br />
<br />
राजा ने उसका नाक कटवा कर उसे छुट्टी दे दी। शर्म के मारे वह नकटा किसी दूसरे राज्य में चला गया। लोगों के उपहास से बचने के लिए खुद को साधु बताने लगा। वह चौरे चौबारे प्रवचन देता- "नाक ही अहंकार का मूल है, यह हमारी दृष्टि और ईश्वर के बीच व्यवधान है। ईश्वर के दर्शन में सबसे बड़ी बाधा नाक होती है। इसे हटाए बिना ईश्वर के दर्शन नहीं होते। मैंने वह अवरोध हटा लिया है, मैं ईश्वर के साक्षात दर्शन कर सकता हूँ"<br />
<br />
कथनी और करनी की गज़ब एकरूपता देख, लोगों पर उसके प्रवचन का जोरदार प्रभाव पड़ने लगा। लोग तो बस ईश्वर के दर्शन करना चाहते थे, उससे आग्रह करते कि, "भैया हमें भी भगवान् के दर्श करा दो।" वह भक्तों को नाक कटवा आने की सलाह देता। नाक कटवा कर आने वाले चेलों के कान में मंत्र फूंकता, "देखो अब सभी से कहना कि मुझे ईश्वर दिखने लगे है। मैंने तो नकटा न कहलाने के लिए, यही किया था। अगर तुमने कहा कि मुझे तो ईश्वर नहीं दिखते तो लोग नकटा नकटा कहकर तुम्हारा मजाक उडाएंगे,तुम्हारा तिरस्कार करेंगे। इसलिए अब तुम्हारी भलाई इसी में है कि 'नकटा दर्शन' के सिद्धान्त का प्रचार-प्रसार करो और अपने समुदाय की वृद्धि करो। हमारे 'ईश दर्श सम्प्रदाय' में रहकर उपहास मुक्त जीवन यापन कर सकोगे, और इस तरह तुम नकटे होकर भी सम्मान के सहभागी बने रहोगे" <br />
<br />
बहुत ही अल्प समय में यह सम्प्रदाय बढ़ने लगा। एक बार नकटे हो जाने के बाद इस सम्प्रदाय में बने रहना और इसके भेद को अक्षुण्ण रखना प्राथमिकता हो गई........</div>
सुज्ञhttp://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-51028917282872208992015-12-28T16:50:00.001+05:302016-06-23T11:50:52.828+05:30पाप का गुरू<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक पंडितजी कई वर्षों तक काशी में शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद गांव लौटे. पूरे गांव में शोहरत हुई कि काशी से शिक्षित होकर आए हैं और धर्म से जुड़े किसी भी पहेली को सुलझा सकते हैं.<br />
<br />
शोहरत सुनकर एक किसान उनके पास आया और उसने पूछ लिया-, पंडितजी आप हमें यह बताइए कि पाप का गुरु कौन है?<br />
<br />
प्रश्न सुन कर पंडितजी चकरा गए. उन्होंने धर्म व आध्यात्मिक गुरु तो सुने थे, लेकिन पाप का भी गुरु होता है, यह उनकी समझ और ज्ञान के बाहर था.<br />
<br />
पंडितजी को लगा कि उनका अध्ययन अभी अधूरा रह गया है. वह फिर काशी लौटे. अनेक गुरुओं से मिले लेकिन उन्हें किसान के सवाल का जवाब नहीं मिला.<br />
<br />
अचानक एक दिन उनकी मुलाकात एक गणिका (वेश्या) से हो गई. उसने पंडितजी से परेशानी का कारण पूछा, तो उन्होंने अपनी समस्या बता दी.<br />
<br />
गणिका बोली- पंडित जी! इसका उत्तर है तो बहुत सरल है, लेकिन उत्तर पाने के लिए आपको कुछ दिन मेरे समीप रहना होगा.<br />
<br />
पंडितजी इस ज्ञान के लिए ही तो भटक रहे थे. वह तुरंत तैयार हो गए. गणिका ने अपने पास ही उनके रहने की अलग से व्यवस्था कर दी.<br />
<br />
पंडितजी किसी के हाथ का बना खाना नहीं खाते थे. अपने नियम-आचार और धर्म परंपरा के कट्टर अनुयायी थे.<br />
<br />
गणिका के घर में रहकर अपने हाथ से खाना बनाते खाते कुछ दिन तो बड़े आराम से बीते, लेकिन सवाल का जवाब अभी नहीं मिला. वह उत्तर की प्रतीक्षा में रहे.<br />
<br />
एक दिन गणिका बोली- पंडित जी! आपको भोजन पकाने में बड़ी तकलीफ होती है. यहां देखने वाला तो और कोई है नहीं. आप कहें तो नहा-धोकर मैं आपके लिए भोजन तैयार कर दिया करूं.<br />
<br />
पंडितजी को राजी करने के लिए उसने लालच दिया- यदि आप मुझे इस सेवा का मौका दें, तो मैं दक्षिणा में पांच स्वर्ण मुद्राएं भी प्रतिदिन आपको दूंगी.<br />
<br />
स्वर्णमुद्रा का नाम सुनकर पंडितजी विचारने लगे. पका-पकाया भोजन और साथ में सोने के सिक्के भी! अर्थात दोनों हाथों में लड्डू हैं.<br />
<br />
पंडितजी ने अपना नियम-व्रत, आचार-विचार धर्म सब कुछ भूल गए. उन्होंने कहा- तुम्हारी जैसी इच्छा. बस विशेष ध्यान रखना कि मेरे कमरे में आते-जाते तुम्हें कोई नहीं देखे.<br />
<br />
पहले ही दिन कई प्रकार के पकवान बनाकर उसने पंडितजी के सामने परोस दिया. पर ज्यों ही पंडितजी ने खाना चाहा, उसने सामने से परोसी हुई थाली खींच ली.<br />
इस पर पंडित जी क्रुद्ध हो गए और बोले, यह क्या मजाक है?<br />
<br />
गणिका ने कहा, यह मजाक नहीं है पंडित जी, यह तो आपके प्रश्न का उत्तर है.<br />
यहां आने से पहले आप भोजन तो दूर, किसी के हाथ का पानी भी नहीं पीते थे,मगर स्वर्ण मुद्राओं के लोभ में आपने मेरे हाथ का बना खाना भी स्वीकार कर लिया.<br />
<br />
यह लोभ ही पाप का गुरु है.<br />
<br />
इस तरह प्रेस्टिट्यूट गणिका ने अपने चरित्र के अनुरूप करणी द्वारा "ईमानदारी" के स्वधोषित पंडितजी को सत्तालोभ, परदोषदर्शन पाखण्डलोभ का प्रत्यक्ष बोध दिया।<br />
<br />
ईमानी पंडित आज भी बिना नहाई धोई गणिका के हाथ की बाईट खाता है, गणिका के घर की खिड़की से धूर्तोपदेश देता है। गणिका की खिड़की पर टकटकी लगाए गाँव का किसान आज भी अपने प्रश्न के उत्तर की प्रतीक्षा में है!!!</div>
सुज्ञhttp://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-75734525199904740082015-10-24T12:51:00.000+05:302016-06-23T11:50:52.859+05:30अतुष्ट……असंतुष्ट<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक राजा का जन्मदिन था।<br />
प्रातः जब वह नगर भ्रमण को निकला, तो उसने निश्चय किया कि वह मार्ग में मिलने वाले पहले व्यक्ति को पूरी तरह खुश व संतुष्ट करेगा।<br />
सामने से आता हुआ एक भिखारी दिखा। भिखारी ने राजा सें भीख मांगी, तो राजा ने भिखारी की तरफ एक तांबे का सिक्का उछाल दिया।<br />
सिक्का भिखारी के हाथ से छूट कर नाली में जा गिरा।<br />
भिखारी नाली में हाथ डाल तांबे का सिक्का ढूंढ़ने लगा।<br />
राजा ने उसे बुला कर दूसरा तांबे का सिक्का दिया.<br />
भिखारी ने प्रसन्न होकर वह सिक्का अपनी जेब में रख लिया और वापस जाकर नाली में गिरा सिक्का ढूंढ़ने लगा।<br />
राजा को लगा कि भिखारी बहुत दरिद्र है, उसने भिखारी को पुनः बुलाया और उसे एक चांदी का सिक्का दिया।<br />
भिखारी ने राजा की जय जयकार करते हुए चांदी का सिक्का रख लिया और पुनः दौड़कर नाली में गिरे तांबे वाले सिक्के को ढूंढ़ने लगा।<br />
राजा ने फिर से उसे बुलाया और इस बार भिखारी को एक सोने की मोहर दी।<br />
भिखारी खुशी सें झूम उठा किन्तु शीघ्र ही भाग कर, वह अपना हाथ नाली की तरफ बढ़ाने लगा।<br />
राजा को बहुत ही बुरा लगा। उसके इस व्यवहार पर गुस्सा आया किन्तु सहसा उसे
अपना संकल्प स्मरण हो आया। उसे आज पहले मिलने वाले व्यक्ति को पूर्ण खुश
एवं संतुष्ट करना है।<br />
उसने भिखारी को निकट बुलाया और कहा कि "मैं तुम्हें अपना आधा राज-पाट देता हूँ, अब तो खुश व संतुष्ट हो जा मेरे बंधू !!!"<br />
भिखारी बोला, "खुश और संतुष्ट तो मैं तभी हो सकूंगा जब नाली में गिरा वह तांबे का सिक्का भी मुझे मिल जायेगा!!"<br />
मानव मन की तृष्णाओं का कोई अंत नहीं होता! <br />
तुच्छ सी वस्तु में भी आसक्त व्यक्ति, बड़ी वस्तु पाकर भी तुष्ट संतुष्ट
नहीं होता। यहाँ तक कि वह तुच्छ वस्तु मिल भी जाए, उसका संतुष्ट होना
दुष्कर है।<br /> तृष्णा ऐसी आग है जिसमें कितने भी सुख डाल दो, तृप्त होने वाली नहीं।<br /> ___________________________<br />
भारत की दो बड़ी समस्याएँ भी इसी तृष्णाग्नि का शिकार है। वे किसी भी उपाय
से तुष्ट संतुष्ट होने वाली नहीं। यह "सर्वे भवन्तु सुखिनः" संस्कृति का
सुखभक्षण करती ही रहेगी।</div>
सुज्ञhttp://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-2974754841505998152015-05-25T18:11:00.001+05:302015-05-26T11:34:24.071+05:30ईमानदारी की अपेक्षा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
गाँव में एक पशुपालक रहता था जो दूध से दही और मक्खन बना, बेचकर रोजी चलाता था। हमेशा की तरह आज भी उसकी पत्नी ने मक्खन तैयार करके दिया, और वह उसे बेचने के लिए अपने गाँव से शहर की तरफ निकल पड़ा। मक्खन गोल पिंड़ी के आकार में होता था और प्रत्येक पिंड़ी का वज़न एक किलो था। शहर मे किसान ने उस मक्खन को हमेशा की तरह अपने रोज के दुकानदार को बेच दिया। बदले में दुकानदार से चायपत्ती, चीनी, तेल, साबुन, मसाले व दालें वगैरहा खरीदकर वापस अपने गाँव चला गया।<br />
<br />
किसान के जाने के बाद, दुकानदार को मक्खन फ्रिज़र मे रखते हुए सहसा खयाल आया कि क्यूँ ना आज एक पिंड़ी का वज़न कर ही लिया जाए। वज़न करने पर पिंड़ी सिर्फ 900 ग्राम उतरी। हैरत और संदेह से उसने सारी पिंडियाँ तोल डाली। प्रत्येक पिंड़ी 900-900 ग्राम ही थी। व्यापारी छले जाने के विषाद से भर उठा।<br />
<br />
अगले हफ्ते किसान हमेशा की तरह मक्खन लेकर जैसे ही दुकानदार की दहलीज़ पर चढ़ा। दुकानदार आक्रोश में चिल्लाते हुए, किसान से कहा, कि वह दफा हो जाए, उसे किसी बे-ईमान और धोखेबाज़ व्यक्ति से व्यापार नहीं करना!! एक किलो बताकर, 900 ग्राम मक्खन थामानेवाले धूर्त की वह शक्ल भी देखना नही चाहता।<br />
<br />
किसान ने अनुनय विनय की। बड़ी ही विनम्रता से दुकानदार से कहा "मेरे भाई मैं धूर्त नहीं हूं। मुझ पर संदेह न करो, हम गरीब अवश्य है किन्तु ठग नहीं। हमारे पास एक पुरानी सी तुला है, तोलने के लिए बाट (वज़न) खरीदने की हमारी हैसियत नहीं, इसलिए जो एक किलो चीनी आपसे तुलवाकर ले जाता हूँ, उसी पैकेट को तराज़ू के एक पलड़े मे रखकर, दूसरे पलड़े मे भारोभार मक्खन तोल लेता हूँ।<br />
<br />
दुनिया से ईमानदारी चाहने से पहले, हमें अपने गिरेबान में झांक कर अवश्य देख लेना चाहिए कि हम स्वयं दुनिया के साथ कितने ईमानदार है। अक्सर स्वयं की बेईमानी तो हमें चतुरता लगती है, या बौद्धिक चालाकी लगती है, किन्तु जब दुनिया से वही पलटकर हमारे सामने आए, तो हमारा क्रोध और आक्रोश नियंत्रण में ही नहीं रहता।<br />
<br />
यदि हम चाहते है जगत में ईमानदारी का प्रचलन हो, तो सर्वप्रथम हमें दृढता और निष्ठापूर्वक ईमानदार रहना होगा।</div>
सुज्ञhttp://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-56666750420785703292015-05-14T19:07:00.000+05:302015-05-14T19:07:19.381+05:30नियंत्रण<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक युवा तीरंदाज खुद को सबसे बड़ा धनुर्धर मानने लगा। जहां भी जाता, लोगों को मुकाबले की चुनौती देता और हराकर उनका खूब मजाक उड़ाता।<br />
<br />
एक बार उसने एक ज़ेन गुरु को चुनौती दी। उन्होंने पहले तो उसे समझाना चाहा, लेकिन जब वह अड़ा रहा तो उन्होंने चुनौती स्वीकार कर ली। युवक ने पहले प्रयास में ही दूर रखे लक्ष्य के बीचोंबीच निशाना लगाया और लक्ष्य पर लगे पहले तीर को ही भेद डाला। इसके बाद वह दंभपूर्ण स्वर में बोला-'क्या आप इससे बेहतर कर सकते हैं?'<br />
<br />
ज़ेन गुरु तनिक मुस्कराए और बोले-'मेरे पीछे आओ।' वे दोनों एक खाई के पास पहुंचे। युवक ने देखा कि दो पहाड़ियों के बीच लकड़ी का एक कामचलाऊ पुल बना था और वह उससे उसी पर जाने के लिए कह रहे थे। ज़ेन गुरु पुल के बीचोंबीच पहुंचे और उन्होंने अपने धनुष पर तीर चढ़ाते हुए दूर एक पेड़ के तने पर सटीक निशाना लगाया। इसके बाद उन्होंने युवक से कहा-'अब तुम भी निशाना लगाकर अपनी दक्षता सिद्ध करो।'<br />
<br />
युवक डरते हुए डगमगाते कदमों के साथ पुल के बीच में पहुंचा और निशाना लगाया। लेकिन तीर लक्ष्य के आस-पास भी नहीं पहुंचा। युवक निराश हो गया और उसने हार स्वीकार कर ली। तब ज़ेन गुरु ने उसे समझाया-'वत्स, तुमने तीर-धनुष पर तो नियंत्रण पा लिया है, पर तुम्हारा उस मन पर अब भी नियंत्रण नहीं है जो किसी भी परिस्थिति में लक्ष्य भेदने के लिए जरूरी है।<br />
<br />
जब तक सीखने की जिज्ञासा है, तब तक ज्ञान में वृद्धि होती है। लेकिन अहंकार आते ही पतन आरंभ हो जाता है।' युवक ने उनसे क्षमा मांगी और सदा सीखने व अपनी झमता पर घमंड न करने की सौगंध ली।</div>
सुज्ञhttp://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-23806696761474035722015-04-16T12:37:00.000+05:302015-04-16T12:37:13.801+05:30फिसलन<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक नगर मे रहने वाले एक पंडित जी की ख्याति दूर-दूर तक थी। पास ही के गाँव
मे स्थित मंदिर के पुजारी का आकस्मिक निधन होने की वजह से, उन्हें वहाँ का
पुजारी नियुक्त किया गया था।<br />
एक बार वे अपने गंतव्य की और जाने के लिए बस मे चढ़े, उन्होंने कंडक्टर को किराए के रुपये दिए और सीट पर जाकर बैठ गए।<br />
<br />
कंडक्टर ने जब किराया काटकर उन्हे रुपये वापस दिए तो पंडित जी ने पाया की कंडक्टर ने दस रुपये ज्यादा दे दिए है<span class="text_exposed_show">। पंडित जी ने सोचा कि थोड़ी देर बाद कंडक्टर को रुपये वापस कर दूँगा।<br />
कुछ देर बाद मन मे विचार आया की बेवजह दस रुपये जैसी मामूली रकम को लेकर
परेशान हो रहे है, आखिर ये बस कंपनी वाले भी तो लाखों कमाते है, बेहतर है इन
रूपयो को भगवान की भेंट समझकर अपने पास ही रख लिया जाए। वह इनका सदुपयोग ही
करेंगे।<br /> </span><br />
<span class="text_exposed_show">मन मे चल रहे विचार के बीच उनका गंतव्य स्थल आ गया बस से उतरते
ही उनके कदम अचानक ठिठके, उन्होंने जेब मे हाथ डाला और दस का नोट निकाल कर
कंडक्टर को देते हुए कहा, "भाई तुमने मुझे किराया काटने के बाद भी दस
रुपये ज्यादा दे दिए थे।"<br /> </span><br />
<span class="text_exposed_show">कंडक्टर मुस्कराते हुए बोला, "क्या आप ही गाँव के मंदिर के नए पुजारी है?"<br />
पंडित जी के हामी भरने पर कंडक्टर बोला, "मेरे मन मे कई दिनों से आपके
प्रवचन सुनने की इच्छा थी, आपको बस मे देखा तो ख्याल आया कि चलो देखते है कि
मैं अगर ज्यादा पैसे दूँ तो आप क्या करते हो! अब मुझे विश्वास हो गया कि आपके
प्रवचन जैसा ही आपका आचरण है। जिससे सभी को सीख लेनी चाहिए" बोलते हुए, कंडक्टर ने गाड़ी आगे बढ़ा दी।<br /> </span><br />
<span class="text_exposed_show">पंडित जी बस से उतरकर पसीना पसीना थे। उन्होंने हाथ जोड़कर भगवान का आभार व्यक्त किया, "प्रभु तेरा लाख लाख शुक्र है जो तूने मुझे बचा लिया, मैने तो दस
रुपये के लालच मे तेरी शिक्षाओ की बोली लगा दी थी। पर तूने सही समय पर मुझे सम्हलने का अवसर दे दिया।" </span><br />
<br />
<span class="text_exposed_show">कभी कभी हम भी तुच्छ से प्रलोभन में, अपने जीवन भर की चरित्र पूंजी दांव पर लगा देते है। </span></div>
सुज्ञhttp://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-85126519313619788992015-03-16T15:53:00.001+05:302015-03-16T15:53:21.063+05:30दुष्परिणाम<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक बार शीत ऋतु में राजा श्रेणिक अपनी पत्नी चेलना के साथ भगवान महावीर के दर्शन कर वापस महल की तरफ लौट रहे थे। रास्ते में एक नदी के किनारे उन्होंने एक मुनि को ध्यान में लीन देख। उन्हें देख कर रानी ने सोचा, धन्य हैं ये मुनि जो इतनी भयंकर सर्दी में भी निर्वस्त्र ध्यान कर रहे हैं। मुझे तो इतने कम्बल ओढने के बाद भी ठण्ड के मारे कंपकंपी छुट रही है।<br />
<br />
ऐसा चिन्तन करते हुए, रानी श्रद्धा पूर्वक उन्हें प्रणाम कर राजा के साथ अपने महल लौट आयी। रानी के मन में उन मुनि की बात घर कर गई, जब भी उनको भयंकर ठण्ड का अनुभव होता, श्रद्धा से उनका मन मुनि के प्रति नतमस्तक हो जाता। रात्रि में रानी अपने कक्ष में बहुत से कम्बल अच्छे से ओढ कर सो रही थी, नींद में उनका एक हाथ कम्बल से बाहर चला गया, जब उनकी आँख खुली तो उन्होंने देखा की उनका हाथ ठण्ड के मारे अकड़ सा गया है, उन्हे मुनि का स्मरण हो आया, सम्वेदना से वह सहज ही बोल पडी, "उनका क्या हाल हो रहा होगा"।<br />
<br />
राजा श्रेणिक जो पास में सो रहे थे, महारानी के ये शब्द कानों में पडे। उन्होंने सोचा, हो न हो, महारानी किसी अन्य व्यक्ति से प्रेम सम्बन्ध है और अभी यह उसी के बारे में सोच रही है। इस स्थिति से उन्हें बहुत क्रोध आया। वे सोचने लगे की स्त्री जाति का कोई भरोसा नहीं, अगर मेरी पटरानी ही ऐसी है तो बाकि रानियों का क्या हाल होगा? इनके सतीत्व पर विश्वास नहीं किया जा सकता।<br />
<br />
प्रातः काल क्रोधावेश में राजा जैसे ही कक्ष से बाहर आए, उन्हें सामने से आता महामंत्री अभयकुमार दिखाई दिया। उन्होने महामंत्री को आज्ञा दी कि तुम अंत:पुर को रानियों समेत जला कर भस्म कर दो। कहते हुए महाराज वहां से चले गए। अभयकुमार बुद्धिमान व्यक्ति था, वह जानता था कि क्रोध विवेक का नाश कर देता है। क्रोधावेश में किए गए कार्य पर बाद में पछताना भी पड़ सकता है्। अतः उन्होंने महल के पास स्थित गजशाला को खाली करवा कर, उसमे आग लगवा दी। जिससे कोई अनर्थ भी न हो और महाराज की आज्ञा का उल्लंघन भी न हो।<br />
<br />
आज्ञा देकर महाराज उपवन में घुमने चले गए, लेकिन उनके मन को शांति नहीं मिल रही थी। अपने मन के विषाद एवं प्रश्नों का हल जानने वे भगवान महावीर के पास पंहुचे। भगवान को वंदन कर उन्होंने पूछा की “भगवन ! वैशाली गणराज्य के राजा चेटक की पुत्री के एक पति है या अनेक पति”
तब महावीर बोले “ राजन ! चेटक की एक क्या सातों ही पुत्रियों के एक ही पति है। तुम्हारे अंत:पुर की सभी रानियाँ पवित्र पतिव्रता धर्म का पालन करने वाली है।”
श्रेणिक को किंकर्तव्यविमूढ़ देख कर महावीर बोले, “ राजन ! कल तुमने अपनी पत्नी चेलना के साथ नदी के तट पर एक मुनि के दर्शन किये थे?”, "हाँ प्रभु ! किये थे" श्रेणिक बोले।
तब महावीर ने रात में हुई घटना को बताते हुए कहा “जिसे तुम अपनी रानी का किसी पुरुष के लिए स्नेह समझ रहे थे वो तो असल में उन मुनि की सहनशीलता के लिए सम्वेदना का अनुभव था”
इतना सुनते ही श्रेणिक के पावों तले ज़मीन खिसक गई। वे उलटे पाँव भागते हुए वापस अपने महल पंहुचे, परन्तु महल की तरफ से उठती हुई लपटों को देख कर उनका दिल बैठ गया।<br />
<br />
वे मन ही मन अपने आप को कोस रहे थे। यह तो घोर अनर्थ हो गया ! स्त्री हत्या वो भी निरपराध की ! महापाप हो गया। तभी राजा को सामने से आता हुआ अभयकुमार दिखाई दिया। राजा ने क्रुद्ध होकर उससे कहा “ अभय ! आज तेरी बुद्धि को क्या हो गया था। जल्दबाजी में भयंकर गलत कार्य किया। मैने निरपराध अबलाओं का अग्निदाह करवा दिया। जा मेरी नज़रों से दूर हो जा।"
यह सुनते ही अभयकुमार को मानो मन मांगी मुराद मिल गई । अभयकुमार तो कब से संसार त्याग कर दीक्षित होना चाहता था, परन्तु राजा श्रेणिक उसे नहीं छोड़ रहे थे, आज राजा की आज्ञा मिलते ही वो तुरंत वहां से निकल कर भगवान महावीर की शरण में पंहुच गया।
इधर जब राजा को अपने महल पंहुच कर सच्चाई का पता चला तो मन ही मन उन्हें अभय की सूझ बुझ तथा विवेक पर गर्व महसूस हुआ। साथ ही अपनी मुर्खता, वहम तथा उतावलेपन पर उन्हें बहुत लज्जा आयी। उन्होंने मन में सोचा “मेरे वहम तथा अविवेक से कितनी बड़ी दुर्घटना घट जाती, निश्चित ही क्रोध आँख वाले को भी अँधा बना देता है।"
</div>
सुज्ञhttp://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-88741064117959681282015-03-14T15:31:00.000+05:302015-03-14T15:56:57.587+05:30सीमाएँ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक कुएं में मेंढकों का एक समूह रहता था। समूह क्या उनका पूरा संसार ही था। एक समय की बात है जोरदार वर्षा के कारण कुआं पानी से लबालब भर गया। एक क्षमतावान मेंढक ने अपने पूरे सामर्थ्य से छलांग लगाई, परिणामस्वरूप वह कुएं से बाहर था। भीतर के मेंढक स्वयं को कुएं के सुरक्षा घेरे में सुरक्षित रखने में सफल रहे। एक जिज्ञासु बुद्धिमान मेंढक ने अपने मुखिया से प्रश्न किया, "चाचा, क्या दुनिया इतनी ही है जो हमें दिखाई देती है?"<br />
मुखिया ने जवाब दिया, "हां, ये संसार इतना ही है जो हमें दिखायी देता है। अन्य विद्वानों से भी मैने यही जाना है, मैने अपने उम्र भर के अनुभव से भी इसे प्रमाणित किया है।"<br />
"चाचा, दुनिया इससे बडी क्यों नहीं हो सकती?", युवा मेंढक ने फिर प्रश्न किया। चाचा ने मुस्काते हुए कहा, "उपर देख! क्या दिखाई देता है? आसमान? कितना बडा है आसमान?"<br />
"वह तो हमारे कुएं के बराबर ही है, युवा ने जवाब दिया।<br />
"फिर बताओ जो आसमान हमें साफ साफ सीमांत तक दिखायी देता है तो दुनिया उससे बडी कैसे हो सकती है?"<br />
युवा के लगातार प्रश्नों से परेशान होकर बूढे मुखिया ने कहा, "जो सामने है उस पर विश्वास करना चाहिए, व्यर्थ की कल्पनाएं नहीं गढ़नी चाहिए।" युवा मैंढक भी बुद्धिमान था और जिज्ञासु भी। उसने अनुमान व्यक्त किया, "चाचा हो सकता है हमारे पास ही एक और कुंआ हो, उसका भी अपना आकाश हो? कभी कभी में निकट से हल्की सी आवाजें सुनता हूं।"<br />
"हो सकता है, किन्तु वह सब जानना असंभव है अतः इन फालतू की बातों में सर खपाना व्यर्थ काम है। तुम्हारे पास छोटा सा जीवन है, यह हमारा संसार भी पूरी तरह नहीं देख पाए हो, अतः खाओ पिओ और मौज करो।"<br />
<br />
कुएं से बाहर गए मेंढक ने विराट संसार प्रत्यक्ष देखा, उसने रमणीय वन, विशाल सरोवर व असीम सागर देखे, आहार की प्रचूरता और स्वछंद असीमित भ्रमण देखा था। वह उसी समय अपने कुएं की मुंडेर पर था। उसने अपने मित्रों की सीमित सोच को सुना। वह यथार्थ बताना चाहता था। किन्तु उसकी आवाज खुले में फैल जाती थी और कुएं के मेंढको तक नहीं पहूंच पा रही थी। कुएं के भीतर की आवाजे, ध्वनि विस्तरण के कारण स्पष्ट सुनायी दे रही थी। एक बार तो उसने सोचा, कुएं में छलांग लगा कर, उन्हे यथार्थ बता दूं , उनके कल्याण का मार्ग बता दूं। किन्तु नीचे गिरने में नुक्सान ही नुक्सान था, या तो वह जान से जाता या फिर पुनः सीमाओं में कैद हो जाता। इसीकारण यथार्थ कभी पुनः कुए में नहीं पहूंचता, कभी पहूंच भी जाए तो उसपर विश्वास नहीं किया जाता।<br />
<br />
ठीक उसी तरह हमारा ज्ञान कुएं जैसा क्षुद्र और हमारा अहंकार कुएं की गहराई जैसा विशाल है। जिसका ज्ञान कुएं समान सीमित और अन्धकार में डूबा हो, वह अनजाने अनन्त को कैसे समझ सकेगा? अहंकार सदा अज्ञान में ही होता है। अहंकार हटाकर अज्ञानता की सीमाओं से आगे की सोच प्रारम्भ हो तो अनंतता के समक्ष कुएं की क्षुद्रता स्वयं भंग हो जाती है। किन्तु अनंतता के दर्शन तभी संभव हैं जब कुएं की देखी भाली सीमाओं का आग्रह टूटे। जो विचार अपने को किसी आग्रह की चारदीवारी में बांध लेता है, वह कभी सत्य पा नहीं सकता। </div>
सुज्ञhttp://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-34560522704764784882015-03-12T19:12:00.000+05:302015-03-12T19:12:16.769+05:30भाव परिणाम<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक बार जब राजा श्रेणिक भगवान महावीर के दर्शनार्थ जा रहे थे तो रास्ते में उन्हें एक मुनि घोर तपस्या में लीन दिखाई दिए। कायोत्सर्ग की अवस्था में सूर्य की ओर मुख करके वो पर्वत के सामान स्थिर अपने ध्यान में लीन थे। राजा श्रेणिक ने उनको वंदन किया तथा प्रभु महावीर की देशना सुनने चल दिये। वितराग वानी का श्रवण करने के पश्चात राजा श्रेणिक ने पुछा “भगवन ! आज आते समय रस्ते में एक महान तेजस्वी मुनि के दर्शन हुए, उन ध्यान में लीन मुनि की तपस्या कितनी महान होगी, हे भगवन, वे मुनि किस उत्तम गति को प्राप्त होंगे?”
महावीर बोले “यदि वे अभी, इसी क्षण मरण करें तो सातवीं नर्क में जाएँगे “<br />
<br />
राजा श्रेणिक चकित होकर बोले “ इतने महान तपस्वी, इतनी उग्र साधना और सांतवी नर्क, ये कैसे संभव है भगवन ?”
महावीर बोले “ यदि वह इस समय मृत्यु को प्राप्त करे तो वो छठी नर्क में जाएँगे”
श्रेणिक बोले “ यह कैसे, एक क्षण में सातवीं से छठी नर्क ?”
“हाँ राजन ! अभी उनके पाँचवी नर्क के कर्म बंधन हो रहे हें”
श्रेणिक को बहुत आश्चर्य हुआ, वह कौतुहलवश पूछने लगा “ प्रभु ! अब ..”
“अब उसके कर्म चौथी नर्क के योग्य हें”
इस प्रकार श्रेणिक पूछता रहा और महावीर उत्तर देते रहे तथा कुछ ही क्षणों में वो तीसरी, दूसरी तथा पहली नर्क को पार कर ऊपर की ओर तीव्र गति से बढ़ने लगे। महावीर बोले “श्रेणिक! अब वह साधक देवभूमि तक पंहुच गया है”
एक ओर जहाँ साधक का अन्दर ही अन्दर आरोहण चालू था तो दूसरी तरफ श्रेणिक के प्रश्न तथा प्रभु के उत्तर। “श्रेणिक ! अब वह सौधर्म देवलोक से भी आगे निकल गया है तथा सर्वार्थ सिद्धि की तरफ बढ़ रहा है”
प्रभु का वाक्य पूरा होते होते देव दुंदुभी बज उठी और देवी देवता पृथ्वी पे जहाँ वो साधक था वहां पुष्प वर्षा करने लगे।
महावीर बोले “उस साधक को केवल ज्ञान प्राप्त हो गया है”<br />
<br />
श्रेणिक ने पुछा "भगवन ! जो साधक कुछ क्षण पहले सातवीं नर्क ये योग्य था, उसे केवल ज्ञान प्राप्त हो गया? यह कैसा रहस्य है"
तब महावीर बोले “ जब तुमने सबसे पहले ये प्रश्न पुछा तब वो साधक बाहर से भले ही साधना में लीन दिखाई दे रहा था पर अपने अंतर्मन में वह एक भयंकर युद्ध लड़ रहा था|
वह साधक कोई और नहीं बल्कि राजा प्रसन्नचन्द्र थे जिन्होंने अपना राज्य अपने पुत्र को सुपुर्द कर दीक्षा ग्रहण कर ली थी। आज जब वह ध्यान में लीन थे तब उनके कानों में दो सैनिकों के शब्द पड़े, "देखो एक तरफ ये राजा अपने राज्य को अनुभवहीन पुत्र को देकर यहाँ ध्यान में लीन है और दूसरी तरफ पड़ोसी राजा ने नए राजा की अनुभवहीनता का फायदा उठा कर राज्य पर आक्रमण कर दिया है। उसकी सेना ने राज्य को चारों तरफ से घेर लिया है, सेनाएं आगे बढ़ रहीं हैं और कुछ ही समय में इस राजा प्रसन्नचन्द्र का पुत्र या तो भाग जाएगा या वहीँ समाप्त हो जाएगा।"<br />
<br />
इतना सुनते ही प्रसन्नचन्द्र का मन विचलित हो गया, वो वैराग्य के मार्ग से भटक कर राग द्वेष के रास्ते पे चला पड़ा। वह मन ही मन पड़ोसी राज्य की सेना के साथ युद्ध लड़ने चला गया और उसकी सेना से भयंकर युद्ध करने लग। जब तुमने मुझसे उसकी गति के बारे में पुछा तब वह तीव्र क्रोध में भर कर महाहिंसा में अनुरक्त था। नहाया हुआ महाकाल की तरह भयंकर युद्ध कर रहा था, वो अपने वीतराग के मार्ग से पूरी तरह हट चुका था| इसीलिए वो उस समय सातवीं नर्क के योग्य था।
उसके मन के युद्ध में एक समय ऐसा आया जब उसके सारे शस्त्र समाप्त हो गए परन्तु एक शत्रु अभी भी सामने बचा था, तो राजा ने अपने मुकुट से ही उस पर वार करने का निश्चय किया। मुकुट लेने के लिए जैसे ही हाथ अपने सर पर ले गया, वहां मुकुट नहीं बल्कि संयम युक्त मुण्डित सर था। वीतराग चरित्र के लिए लुन्चित सर था, हाथ स्पर्श करते ही उसके मन की धारा ने पलटा खाया। वह सोचने लगा कौनसा पुत्र, कैसा राज्य और कौन शत्रु ? मैंने तो समस्त सांसारिकता का त्याग करके, अहिंसा-धर्म अंगीकार किया है। मैं कैसा कायर जरा से संयोग से विचलित हो संयम मार्ग से भटकने लगा। वे दुष्चिन्तन के पश्चाताप से भर उठे। आत्मग्लानी के ताप से विचारों के बुरे कर्म को जलाने लगे। अब बाहर के शत्रु से युद्ध करने के स्थान पर वे अपने अन्दर के शत्रु से युद्ध करने लगे। जैसे जैसे वे अपने अन्दर का कलुष धो रहे थे, वैसे वैसे उनके अन्तरमन का तम नष्ट होता जा रहा था। वे नर्क से स्वर्ग और अंततः साधना की परम सिद्धि के द्वार तक पंहुच गए।"<br />
<br />
यह सुन कर श्रेणिक मन में सोचने लगे “मन कितना विचित्र है ! संकल्प कितने बलवान होते हें! विचार जब अधोमुखी हों तो सातवीं नर्क तक ले जाते हैं और जब उर्ध्वमुखी हों तो मुक्ति का द्वार खोल देते है।
</div>
सुज्ञhttp://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-66000507488464820462015-03-12T17:11:00.000+05:302015-03-12T17:39:32.295+05:30मांस का मूल्य<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiu_C42NHQKrTkWL9cKX3aeH4zUd7yxfpISKgo3hYtBHOtknERfir1HW2qu4RJKmJ9kpdiK0rIsa8Ca2Ppwbzcj1Cx_Nuz9t43Uq1yBMBQ9qzUqfzdZdL_VI3heXxtUQr-CSdOW5uU6sg/s1600/bcorn.gif" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiu_C42NHQKrTkWL9cKX3aeH4zUd7yxfpISKgo3hYtBHOtknERfir1HW2qu4RJKmJ9kpdiK0rIsa8Ca2Ppwbzcj1Cx_Nuz9t43Uq1yBMBQ9qzUqfzdZdL_VI3heXxtUQr-CSdOW5uU6sg/s1600/bcorn.gif" /></a></div>
मगध के सम्राट् श्रेणिक ने एक बार अपनी राज्य-सभा में पूछा कि - "देश की खाद्य समस्या को सुलझाने के लिए सबसे सस्ती वस्तु क्या है?"<br />
<br />
मंत्रि-परिषद् तथा अन्य सदस्य सोच में पड़ गये। चावल, गेहूं, आदि पदार्थ तो बहुत श्रम बाद मिलते हैं और वह भी तब, जबकि प्रकृति का प्रकोप न हो। ऐसी हालत में अन्न तो सस्ता हो नहीं सकता। शिकार का शौक पालने वाले एक अधिकारी ने सोचा कि मांस ही ऐसी चीज है, जिसे बिना कुछ खर्च किये प्राप्त किया जा सकता है।<br />
<br />
उसने मुस्कराते हुए कहा, "राजन्! सबसे सस्ता खाद्य पदार्थ तो मांस है। इसे पाने में पैसा नहीं लगता और पौष्टिक वस्तु खाने को मिल जाती है।"<br />
<br />
सबने इसका समर्थन किया, लेकिन मगध का प्रधान मंत्री अभय कुमार चुप रहा।<br />
<br />
श्रेणिक ने उससे कहा, "तुम चुप क्यों हो? बोलो, तुम्हारा इस बारे में क्या मत है?"<br />
<br />
प्रधान मंत्री ने कहा, "यह कथन कि मांस सबसे सस्ता है, एकदम गलत है। मैं अपने विचार आपके समक्ष कल रखूंगा।"<br />
<br />
रात होने पर प्रधानमंत्री सीधे उस सामन्त के महल पर पहुंचे, जिसने सबसे पहले अपना प्रस्ताव रखा था। अभय ने द्वार खटखटाया।<br />
<br />
सामन्त ने द्वार खोला। इतनी रात गये प्रधान मंत्री को देखकर वह घबरा गया। उनका स्वागत करते हुए उसने आने का कारण पूछा।<br />
<br />
प्रधान मंत्री ने कहा,- "संध्या को महाराज श्रेणिक बीमार हो गए हैं। उनकी हालत खराब है। राजवैद्य ने उपाय बताया है कि किसी बड़े आदमी के हृदय का दो तोला मांस मिल जाय तो राजा के प्राण बच सकते हैं। आप महाराज के विश्ववास-पात्र सामन्त हैं। इसलिए मैं आपके पास आपके हृदय का दो तोला मांस लेने आया हूं। इसके लिए आप जो भी मूल्य लेना चाहें, ले सकते हैं। कहें तो लाख स्वर्ण मुद्राएं दे सकता हूं।"<br />
<br />
यह सुनते ही सामान्त के चेहरे का रंग फीका पड़ गया। वह सोचने लगा कि जब जीवन ही नहीं रहेगा, तब लाख स्वर्ण मुद्राएं भी किस काम आएगी!<br />
<br />
उसने प्रधान मंत्री के पैर पकड़ कर माफी चाही और अपनी तिजौरी से एक लाख स्वर्ण मुद्राएं देकर कहा कि इस धन से वह किसी और सामन्त के हृदय का मांस खरीद लें।<br />
<br />
मुद्राएं लेकर प्रधानमंत्री बारी-बारी से सभी सामन्तों के द्वार पर पहुंचे और सबसे राजा के लिए हृदय का दो तोला मांस मांगा, लेकिन कोई भी राजी न हुआ। सबने अपने बचाव के लिए प्रधानमंत्री को एक लाख, दो लाख और किसी ने पांच लाख स्वर्ण मुद्राएं दे दी। इस प्रकार एक करोड़ से ऊपर स्वर्ण मुद्राओं का संग्रह कर प्रधान मंत्री सवेरा होने से पहले अपने महल पहुंच गए और समय पर राजसभा में प्रधान मंत्री ने राजा के समक्ष एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएं रख दीं।<br />
<br />
श्रेणिक ने पूछा, "ये मुद्राएं किसलिए हैं?"<br />
<br />
प्रधानमंत्री ने सारा हाल कह सुनाया और बो्ले,- " दो तोला मांस खरीदने के लिए इतनी धनराशी इक्कट्ठी हो गई किन्तु फिर भी दो तोला मांस नहीं मिला। अपनी जान बचाने के लिए सामन्तों ने ये मुद्राएं दी हैं। अब आप सोच सकते हैं कि मांस कितना सस्ता है?"<br />
<br />
जीवन का मूल्य अनन्त है। हम यह न भूलें कि जिस तरह हमें अपनी जान प्यारी होती है, उसी तरह सबको अपनी जान प्यारी होती है।<br />
<a href="http://niraamish.blogspot.in/2012/08/blog-post.html" target="_blank">निरामिष पर</a><br />
(<a href="http://niramish-vegetarian.blogspot.in/2012/08/price-versus-cost-of-meat.html" target="_blank"><b>Price Versus Cost of Meat</b></a> - English translation of this article is available at <a href="http://niramish-vegetarian.blogspot.in/2012/08/price-versus-cost-of-meat.html" target="_blank">Niramish English</a>)</div>
सुज्ञhttp://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-91471368877063490502015-03-10T17:35:00.000+05:302015-03-10T17:35:46.392+05:30परिमार्जन ऋजुता<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
किसी समय वाणिज्य नामक शहर में आनंद नामक व्यापारी रहता था। वह अपार धन संपदा का स्वामी था तथा राजा भी उसका सम्मान करता था|
एक बार उस शहर में भगवान महावीर स्वामी पधारे। आनंद भी उनके प्रवचन को सुनने पहुंचा। भगवान के प्रवचन को सुनकर उसने श्रावक धर्म स्वीकार कर लिया।<br />
<br />
चौदह वर्ष तक श्रावक धर्म का पालन करने के पश्चात, उसने सारे सांसारिक कार्यों से विरक्त होने का निश्चय किया। उसने अपने पुत्रों को अपने व्यापार तथा परिवार की ज़िम्मेदारी सुपुर्द करते हुए कहा, "अब उसके धर्मध्यान में किसी तरह का व्यवधान न डाला जाए।" इस प्रकार वो अपना शेष जीवन धर्मध्यान में व्यतीत करने लगा।<br />
<br />
धर्म का आचरण करते हुए उसे 'अवधिज्ञान' की प्राप्ति हो गई।
कुछ समय पश्चात् वहाँ, भगवान महावीर का पुन: पधारना हुआ। जब उनके शिष्य गौतम स्वामी गोचरी के लिए शहर में भ्रमण कर रहे थे, उन्होंने आनंद के गिरते हुए स्वास्थ्य एवं उसके 'अवधिज्ञान' प्राप्ति के बारे में सुना तो उनसे मिलने का निश्चय किया। स्वयं
गौतम स्वामी को अपने घर आया देख आनंद बड़ा प्रसन्न हुआ। उन्होने विवशता में बिस्तर पर लेटे लेटे ही गौतमस्वामी का वंदन किया। चर्चा के मध्य आनंद ने अपने अवधिज्ञान उपार्जन के बारे में गौतम स्वामी को बताते हुए कहा कि वह बारहवे देवलोक तक देख सकता है्।<br />
<br />
अवधिज्ञान का विस्तार जान गौतमस्वामी को संशय हुआ। गौतम स्वामी बोले, गृहस्थ को अवधिज्ञान होना तो संभव है, किन्तु वह इतनी दूर तक नहीं देख सकता। तुम्हारा यह कहना असत्य संभाषण है। तुम्हें सत्य व्रत को खण्डित करने के लिए, अर्थात् असत्य बोलने के लिए प्रायश्चित लेना चाहिए।
यह सुनकर आनंद अचम्भित हो गए, वे जानते थे, वे सत्य बोल रहे हैं। उन्होने भगवान महावीर के प्रधान गणधर गौतम स्वामी से निवेदन किया, “हे भगवन ! क्या सत्य बोलने पर भी प्रायश्चित किया जाना आवश्यक है?”<br />
<br />
यह सुनते ही गौतम स्वामी त्वरित सचेत हुए। अपना संदेह दूर करने के लिए वे प्रभु महावीर स्वामी के समीप पंहुचे और अपने व आनंद के सम्वाद का वृतांत कह सुनाया। तब महावीर स्वामी बोले, "गौतम!! आनंद सत्य कह रहा हैं। आप जैसा ज्ञानी व्यक्ति, ऐसी भूल कैसे कर सकता है?" यह सुनते ही गौतम स्वामी उलटे पैर वापस आनंद के पास पंहुचे तथा अपनी भूल के लिए क्षमा मांगी। साथ ही कहा, "प्रायश्चित का भागी मैं हूँ आनन्द!!" आनंद को योग्य समाधान से संतोष उपजा।<br />
<br />
उसे धर्म-मूल्यों के संरक्षण का साक्षात अनुभव हुआ, भगवान के प्रथम गणधर स्वयं गौतम स्वामी जैसे महाज्ञानी, महात्मा भी भूल होने पर एक साधारण गृहस्थ से भी क्षमायाचना करने में नहीं हिचकिचाते, अपने ज्ञान का उनको किंचित भी अहंकार नहीं था। उसने सोचा, ऐसा धर्म तथा ऐसे ज्ञानी की संगति मिलने से वह धन्य हो गया।<br />
आर्जव, ऋजुता या सरलता ही आपके चरित्र को विमल करती है। ये गुण-साधना, चरित्र व व्रतों का परिमार्जन कर, उन्हे परिशुद्ध करते रहते है।</div>
सुज्ञhttp://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-13661558860843296112015-03-08T20:40:00.000+05:302015-03-09T12:40:47.165+05:30अधूरप<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
भादो की काली अंधियारी रात में घने काले बादल गरज गरज कर बरस रहे थे, चारों ओर अंधकार छाया था और अत्यंत तीव्र बारिश हो रही थी, बिजलियाँ रह रह कर कौंध रही थ। महाराज श्रेणिक और महारानी चेलना अपने झरोखे से वर्षा का आनंद ले रहे थे। तभी रात्रि के गहन अंधकार को चीरते हुए, दूर एक बिजली चमकी, राजा व रानी ने बिजली की रौशनी में देखा की एक वृद्ध व्यक्ति, बारिश में उफनती नदी के तट से लकड़ियाँ बीन रहा है।<br />
<br />
उस वृद्ध का श्रम देख दोनों चिंतित हो गए। हमारे राज्य में ऐसा भी कोई दरिद्र है जो दिन भर के कठिन परिश्रम के उपरांत भी दो वक्त की रोटी का जुगाड नहीं कर पा रहा, तभी तो इतनी भीषण वर्षा में, अपने प्राणों की परवाह न करते हुए, ये वृद्ध लकड़ियाँ इक्कठी कर रहा है। सम्पन्न मगध राज्य में इतनी दरिद्रत? ऐसी बारिश व अंधेरे में तो जानवर भी बाहर नहीं निकलते और यहाँ तो आदमी को अपने पेट की आग बुझाने के लिए मौत से खेलना पड़ता हैै!! सोचकर राजा का हृदय दुखी हो गया, उन्हे उस वृद्ध पर दया आ गई। राजा श्रेणीक ने तुरंत अपने सेवकों को बुलाकर निर्देश दिया कि जाओ और नदी पर जो वृद्ध व्यक्ति लकड़ियाँ इक्कठी कर रहा है, उसका पता लगाओ और प्रातःकाल उसे राज दरबार में उपस्थित करो। वृद्ध की दरिद्रता के बारे में सोच सोच कर राजा को रात भर नींद नहीं आई, तूफानी बारिश में ठंड से काँपता वह वृद्ध काय शरीर बार बार स्मृति को झंझोड़ रहा था।<br />
<br />
प्रात: सेवकों ने एक व्यक्ति को महल में पेश करते हुए राजा से कहा, “महाराज यही वह व्यक्ति है जो कल रात नदी से बह आई लकड़ियाँ इक्कठी कर रहा था।”
राजा ने उस व्यक्ति का अवलोकन किया। शरीर पर बेशकीमती रेश्मी वस्त्र, कानों में मणि जड़ित कुंडल तथा हाथों में हीरों की अंगूठियाँ देख, राजा को लगा कि सेवक गलती से किसी अन्य व्यक्ति को पकड़ लाए हैं। उसने सेवकों को क्रोध में कहा “ये किन्हें पकड़ कर लाए हो, तुम लोगों से कुछ भूल हुई है”
सेवक बोले “ नहीं महाराज! यही वो व्यक्ति है जो कल रात बारिश में नदी के किनारे पर लकड़ियाँ इक्कठी कर रहा था, हमसे कोई भूल नहीं हुई है|”
राजा ने आश्चर्यचकित होकर उस व्यक्ति से उसका परिचय पुछा।<br />
<br />
वह व्यक्ति बोला “ महाराज ! मैं आपके ही राज्य का एक व्यापारी हूँ, मुझे लोग "मम्मण सेठ" के नाम से जानते हैं।”
राजा बोले “आप दिखने में तो समृद्ध व सुखी लगते हैं, फिर इतनी बारिश में नदी के किनारे जाकर अपने प्राणों को दांव पे लगाने की क्या ज़रूरत थी।”
इस पर मम्मण सेठ बोला “महाराज! दिखने में तो मैं बड़ा ही सम्पन्न व सुखी हूँ पर मेरे मन की पीड़ा को बस मैं ही जनता हूं। मैं एक बहुत बड़े अभाव से ग्रस्त हूँ, जिसकी पूर्ती के लिए मैंने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया है, ये सुन्दर वस्त्र एवं आभूषण तो मात्र, कहीं आने जाने के लिए रखे हैं, अन्यथा मेरे पास तो कुछ भी नहीं है। सब कुछ लगाकर भी मेरी कमी पूरी नहीं हो रही है। इसी कारण में रात्री श्रम से नदी पर लकड़ियाँ इक्कठी करने में लगा रहता हूं। जब तक वह अभाव, वह कमी पूरी नहीं हो जाती, मुझे कठोर परिश्रम करते रहना होगा”
राजा बोले, “ऐसी कौनसी कमी है आपको? मुझे बताइए, हो सकता है मैं आपकी कुछ सहायता कर सकूँ।”<br />
<br />
सेठ बोला “महाराज मेरे पास एक परम सुन्दर बैल है, उसी की जोड़ी का दूसरा बैल मुझे चाहिए। इसीलिए ये कठोर परिश्रम कर रहा हूँ।”
राजा बोले “ अगर इतनी सी बड़ी बात ह तो आप हमारी वृषभशाला में जाइये और जो भी बैल पसंद आए ले जाइये “
सेठ बोला “ महाराज! आपकी इस कृपा के लिए धन्यवाद, किन्तु मेरे बैल की जोड़ी का एक भी बैल आपकी वृषभशाला में नहीं है।”
यह सुनकर महाराज सोच में पड़ गए कि ऐसा कैसा बैल है जिसकी जोड़ का कोई बैल हमारी विशाल वृषभशाला में भी नहीं है। राजा बोले “ऐसा कैसा बैल है आपके पास, उसे लेकर आइये, हम उस अद्वितीय बैल को देखना चाहेंगे।”
सेठ बोला “महाराज ! मेरा बैल यहाँ नहीं आ सकता, उसे देखने के लिए तो आपको मेरा घर ही पवित्र करना पड़ेगा”<br />
<br />
राजा की उत्सुकता और बढ़ गई। उन्होंने अपने मंत्री अभयकुमार से मंत्रणा कर, अगले दिन ही सेठ के घर जाना निश्चित किया। जब रानी ने राजदरबार में घटा पूरा वृत्तांत सुना तो वह भी उत्सुक हुई और साथ चलने के लिए तत्पर हुई। अगले दिन महाराज श्रेणिक अपने मंत्री अभयकुमार तथा पत्नी चेलना के साथ सेठ के घर पहूँचे। मम्मण सेठ ने महाराज का यथायोग्य स्वागत किया। उत्सु्क राजा ने कहा “सेठ ! सीधे ही अपनी गौशाला में ले चलो, हमें केवल तुम्हारा बैल देखना है।” तब सेठ ने कहा कि उसका बैल गौशाला में नहीं बल्कि घर में है। राजा ने मन ही मन सोचा, कैसा मूर्ख है ये सेठ जो बैल को घर में रखता है।<br />
<br />
सेठ तीनों को लेकर अपने मकान के तहखाने में गया, आगे बढ़कर जैसे ही एक कक्ष का पर्दा हटाया की चारों और रंग बिरंगा प्रकाश फ़ैल गया। सामने हीरे, मोती तथा रत्नों से जड़ित एक सोने के बैल की मूर्ति थी। जिसकी चमक चारों और आभा फैला रही थी। बैल की आँखों में अत्यंत दुर्लभ मणियाँ थीं। सिंग तथा पूँछ पर नीलम और पन्ने जड़े थे। राजा, रानी एवं मंत्री उस बैल को देखकर आवाक रह गए। उन्होंने ऐसा दुर्लभ बैल आजतक नहीं देखा था।
राजा को चकित देखकर सेठ बोला “महाराज ! कई वर्षों पहले मैंने अपने व्यापार से कमाए धन को एक स्थान पर सुरक्षित रखने के लिए यह बैल बनवाया था, परन्तु उस समय मुझे भी नहीं मालूम था की यह इतना सुन्दर बन जाएगा। मैं दिन रात बस इसी के बारे में सोचता रहता। एक दिन मेरे मन से प्रेरणा हुई कि अगर ऐसा ही दूसरा बैल होता तो इसकी जोड़ी कितनी सुन्दर होती, दोनों साथ में खड़े होते तो इनका सौंदर्य तथा वैभव अद्भुत होता!! बस फिर क्या था, मैंने ऐसा ही एक और बैल बनाने की ठानी, परन्तु मेरे पास इतना धन अब शेष नहीं बचा था कि इस अजोड़ की जोड़ का एक और बैल बनाया जा सके। धन इक्कठा करने के लिए मैंने व्यापार में जोरदार परिश्रम करना प्रारम्भ किया, अपने सभी खर्चों को कम कर दिया, रुखी सुखी खाता, फटे पुराने कपड़े पहनता, किसी तरह के सुख-वैभव का नहीं उपभोग करता, परन्तु फिर भी उतना धन इक्कठा नहीं हो पाया। अपनी इस आकांक्षा को पूरण करने के लिए अब में दिन भर व्यापार करता हूँ तथा रात में नदी से लकड़ियाँ लाकर बेचता हूँ ताकि अधिक से अधिक धन इक्कठा हो पाए। यह कहते हुए, व्यापारी तीनों को एक दुसरे कक्ष में ले गया।
कक्ष का पर्दा जैसे ही हटा, वहां भी पहले के समान एक हीरे, मोतियों से जड़ा सोने का सुन्दर बैल था।<br />
<br />
उसे दिखा कर सेठ बोला “ महाराज ! ये उसकी जोड़ी का बैल है। ये लगभग पूरा बन चुका है, केवल दाहिने सिंग का कुछ हिस्सा बनाना बाकि है, बस उसी के लिए मैं रोज़ नदी पे जाता हूँ।”
राजा, रानी तथा मंत्री आश्चर्य से चकित होकर उस सेठ की बातों को सुन रहे थे। अंत में राजा ने कहा, “सेठ ! आप सत्य कहते थे, ऐसा बैल तो मेरी वृषभशाला में हो ही नहीं सकता। इतना कहकर वे वापस अपने महल लौटने लगे। मन ही मन राजा को कभी सेठ के उन बैलों पर विस्मय होता, तो कभी सेठ की बैल बुद्धि पे तरस आता, जिसके कारण वो अपनी अपार धन सम्पदा का सुख भोगने तथा दान पुण्य करने के बजाय, बैल बनाने में लगा है। जो उसके लोभ को और बढाने के अतिरिक्त, किसी काम में नहीं आने वाला।<br />
<br />
राजा ने रानी से कहा "देवी ! क्या आप लोभ में अंधे इस सेठ की गरीबी मिटा सकती है?" रानी बोली " लोभ तथा ममत्व में डूबे इस सेठ के एक क्या, अनंत जोड़ियाँ भी बन जाए, तब भी एक जोड़ी तो बाकि रह ही जाएगी। ऐसे व्यक्ति की कोई सहायता नहीं कर सकता।लोभ और तृष्णा का कहीं भी अंत नहीं है।</div>
सुज्ञhttp://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-39323155924788134362015-03-07T02:29:00.000+05:302015-03-12T16:42:02.781+05:30क्षणजीवी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
किसी समय एक व्यापारी माल की बहुत सारी बैलगाड़ियां भर कर साथियों के साथ दुसरे देश में जा रहा था। उसने रास्ते में खर्चे के लिए फुटकर सिक्कों का बोरा एक खच्चर पर लाद रखा था। जंगल में चलते हुए फुटकर सिक्कों का वह बोरा किसी तरह से फट गया और उसमे से बहुत से सिक्के निकल कर बाहर गिर गए।<br />
<br />
इसका पता चलने पर उस व्यपारी ने अपनी सभी बैलगाड़ियों को रोक दिया और वो सिक्के इक्कठे करने लगा। साथ के रक्षकों ने उस व्यापारी से कहा “क्यों कौड़ियों के बदले अपने करोड़ों के माल को खतरे में डाल रहे हो ? यहाँ इस खतरनाक जंगल में डाकू व चोरो का बड़ा आतंक है, अत: बैलगाड़ियों को शीघ्र आगे बढ़ने दो। रक्षकों की उचित सलाह को अस्वीकार करते हुए उस व्यपारी ने कहा, “भविष्य का लाभ तो संदिग्ध है, ऐसी दशा में जो कुछ उपलब्ध है उसको छोड़ना उचित नहीं” और वह उन फुटकर सिक्कों को इक्कठा करने में जुट गया।<br />
<br />
साथ के अन्य लोग और रक्षक उस व्यापारी के माल से भरी बैलगाड़ियों को वहीँ छोड़, आगे बढ़ गए। व्यापारी सिक्कों को इक्कठा करता रह गया और बाकि सभी साथी उस जंगल से चले गये। उस व्यापारी के साथ रक्षकों को न देखकर, डाकुओं ने उस पर हमला कर दिया और उसका सारा माल लूट लिया।<br />
<br />
उस व्यापारी की तरह जो मनुष्य तुच्छ सांसारिक सुखों में आसक्त होकर मोक्ष प्राप्ति के सारे उपाय छोड़ देते हैं वे संसार में अनंतकाल तक भ्रमण करते हुए वैसे ही दुखी होते हैं जैसे कौड़ियों के लोभ में, करोड़ों की संपत्ति लुटा देने वाला वह व्यापारी।<br />
<br />
जो अच्छे कर्म के अच्छे प्रतिफल के बारे में शंकित रहते है और येन केन उपलब्ध कैसे भी कर्मों से मजा उठाने की विचारधारा में ही जीते है, उनकी दशा इस व्यापारी के सम होती है। वे शाश्वत सुख के अस्तित्व से संदेहग्रस्त होकर क्षणिक सुख के प्रलोभन में मदहोश हो जाते है</div>
सुज्ञhttp://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7546054676355588576.post-71131046475609419232015-03-01T03:20:00.000+05:302015-03-06T22:15:26.029+05:30सदुपयोग<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
पुराने समय की बात है, छोटे से गाँव में एक किसान रहता था। वह रोज़ भोर में उठकर दूर झरने से स्वच्छ पानी लाया करता था। इस काम के लिए वह अपने साथ दो बड़े घड़े ले जाता था, जिन्हें एक लाठी से कावड़ की तरह कंधे के दोनों ओर लटका लेता था।<br />
<br />
उनमे से एक घड़ा तो सही था किन्तु दूसरा कहीं से फूटा हुआ था। इसी वजह से रोज़ घर पहुँचते -पहुचते आधा हो जाता था। किसान घर डेढ़ घड़ा पानी ही ले जा पाता था। ऐसा दो वर्षों तक चलता रहा।<br />
<br />
साबूत घड़े को बड़ा घमंड था कि वह अखंड है और पूरा पानी घर पहुंचता है, उसमें कोई कमी नहीं है। वहीँ दूसरी तरफ फूटा घड़ा इस पर शर्मिंदा रहता कि वह आधा पानी ही घर पंहुचा पाता था। उसे ग्लानि होती कि उसके कारण किसान की मेहनत बेकार चली जाती है। फूटा घड़ा यह सोच कर परेशान रहने लगा। उससे रहा नहीं गया और एक दिन उसने किसान से कहा ,“मैं खुद पर शर्मिंदा हूँ और आपसे क्षमा मांगना चाहता हूँ”<br />
<br />
“क्यों ?", किसान ने पूछा , “ तुम किस बात से शर्मिंदा हो ?”<br />
<br />
“शायद आप नहीं जानते पर मैं एक जगह से फूटा हुआ हूँ , और पिछले दो सालों से आधा ही पानी पहुंचा पाया हूँ, मुझमें यह बहुत बड़ी कमी है, और इसकारण आपकी मेहनत बर्बाद होती रही है”, फूटे घड़े ने दुखी स्वर में कहा।<br />
<br />
किसान को घड़े की बात सुनकर दुःख हुआ और वह बोला, “कोई बात नहीं, मैं चाहता हूँ कि आज तुम लौटते समय रास्ते में पड़ने वाले सुन्दर फूलों को देखो”<br />
<br />
घड़े ने वैसा ही किया, वह रास्ते भर सुन्दर फूलों को देखता आया , खिले हुए फूलों को देखकर उसकी उदासी कुछ दूर हुई मगर घर पहुँचते – पहुँचते फिर वह आधा खाली हो चुका था, वह मायूस हो, पुनः किसान से अफसोस व्यक्त करने लगा।<br />
<br />
किसान ने कहा,”शायद तुमने ध्यान नहीं दिया, रास्ते के एक किनारे ही हरियाली व फूल खिले थे। वे फूल केवल तुम्हारी तरफ के किनारे थे। साबूत घड़े की तरफ के किनारे एक भी फूल नहीं था। ऐसा इसलिए था क्योंकि मैं हमेशा से तुम्हारे अन्दर की कमी को जानता था, मैंने उस कमी का सदुपयोग किया और तुम्हारी तरफ के किनारे भाँती भाँती के फूलों के बीज बिखेर दिए। तुम रोज़ थोडा-थोडा कर उन्हें सींचते रहे और इस तरह तुम्हारे छिद्र से होते स्राव ने रास्ते को खूबसूरत बना दिया। तुम्ही सोचो अगर तुम्हारे में यह छिद्र न होता तो तुम कभी सिंचाई न कर पाते और यह मार्ग इतना मनोरम न बनता।”<br />
<br />
फूटा घड़ा अपनी कमी का भी सदुपयोग होते देख आत्मविश्वास से भर उठा।<br />
<br />
मित्रों सभी सम्पूर्ण नहीं होते। कोई न कोई कमी हम सभी में होती है। ये कमियां ही हमें अनोखा बनाती हैं। यदि हम किसी कमी पर आत्मग्लानि महसूस करने की जगह उस कमी के भी सदुपयोग का मार्ग निकाल लें तो जीवन किसी भी दशा में मूल्यवान हो जाता है।</div>
सुज्ञhttp://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.com4