नवप्रभात |
'गंतव्य दूर तेरा'
उठ जाग रे मुसाफ़िर, अब हो गया सवेरा।
पल पलक खोल प्यारे, अब मिट गया अंधेरा॥ उठ जाग……
प्राची में पो फ़टी है, पर फडफडाए पंछी।
चह चहचहा रहे है, निशि भर यहाँ बसेरा॥ उठ जाग……
लाली लिए खडी है, उषा तुझे जगाने।
सृष्टी सज़ी क्षणिक सी, अब उठने को है डेरा॥ उठ जाग……
वे उड चले विहंग गण, निज लक्ष साधना से।
आंखों में क्यूं ये तेरी, देती है नींद घेरा॥ उठ जाग……
साथी चले गये है, तूं सो रहा अभी भी।
झट चेत चेत चेतन, प्रमाद बना लूटेरा॥ उठ जाग……
सूरज चढा है साधक, प्रतिबोध दे रहा है।
पाथेय बांध संबल, गंतव्य दूर तेरा॥ उठ जाग……
रचनाकार: अज्ञात
प्रेरणादायक..
जवाब देंहटाएंएक जीवनदर्शन छिपा है इस गीत में..
जवाब देंहटाएंभारतीय नागरिक जी, आभार!!
जवाब देंहटाएंसलिल जी
जवाब देंहटाएंभावमर्म की पहचान के लिये आभार।
बहुत अच्छा पराती। आशा का संचार करती।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा जागरण-गीत प्रस्तुत किया है आपने!
जवाब देंहटाएं"॥गंतव्य दूर तेरा॥" से रॉबर्ट्स फ़्रॉस्ट की पंक्तियाँ याद आ गयी- " Woods are lovely, dark & deep....Miles to go before I sleep."
आपको साधुवाद!
काश ये गीत सुन कर भारत की सोई हुई आत्मा जग जाये .
जवाब देंहटाएं... sundar prastuti !!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही आशा और प्रेरणा देता हुवा गीत है .... .
जवाब देंहटाएंसूरज चढा है साधक, प्रतिबोध दे रहा है।
जवाब देंहटाएंपाथेय बांध संबल, गंतव्य दूर तेरा॥ उठ जाग……
सुन्दर प्रेरक रचना। बधाई।