एक संत बहुत दिनों से नदी के किनारे बैठे थे, एक दिन किसी व्यकि ने उससे पुछा, "आप नदी के किनारे बैठे-बैठे क्या कर रहे हैं?"
संत ने कहा, "इस नदी का जल पूरा का पूरा बह जाए इसका इंतजार कर रहा हूँ।"
व्यक्ति ने कहा, "यह कैसे हो सकता है। नदी तो बहती ही रहती है सारा पानी अगर बह भी जाए तो, आप को क्या करना?"
संत ने कहा, "मुझे उस पार जाना है, सारा जल बह जाए तो मैं चल कर उस पार जा पाऊँगा।"
उस व्यक्ति ने ताना मारते हुए कहा, "आप मूर्खताभरी नासमझ बात कर रहे हैं, ऐसा तो हो ही नही सकता!!"
तब संत ने मुस्कराते हुए कहा, "यह काम तुम लोगों को देख कर ही सीखा है। तुम लोग हमेशा सोचते रहते हो कि जीवन मे थोड़ी बाधाएं कम हो जाएं, कुछ समस्याएँ ख़त्म हो जाय, अलाना-फलाना काम खत्म हो जाए तो सदाचरण, सेवा, साधना, सत्कार्य करेगें!"
"जीवन भी तो प्रवाहमान नदी के समान है यदि जीवन मे तुम यह आशा लगाए बैठे हो, तो मैं इस नदी के पानी के पूरे बह जाने का इंतजार क्यों न करूँ..??"
अभी भी समय है, तृष्णा का अंत नहीं, जीवन के संतोषकाल या उत्तरकाल की प्रतीक्षा न करो, प्रमाद न करो। बनते सदाचरण, सत्कार्य, परहित, परोपकार को समय और श्रम दो। पता नहीं जीवनघट कब रीत जाए.....
संत ने कहा, "इस नदी का जल पूरा का पूरा बह जाए इसका इंतजार कर रहा हूँ।"
व्यक्ति ने कहा, "यह कैसे हो सकता है। नदी तो बहती ही रहती है सारा पानी अगर बह भी जाए तो, आप को क्या करना?"
संत ने कहा, "मुझे उस पार जाना है, सारा जल बह जाए तो मैं चल कर उस पार जा पाऊँगा।"
उस व्यक्ति ने ताना मारते हुए कहा, "आप मूर्खताभरी नासमझ बात कर रहे हैं, ऐसा तो हो ही नही सकता!!"
तब संत ने मुस्कराते हुए कहा, "यह काम तुम लोगों को देख कर ही सीखा है। तुम लोग हमेशा सोचते रहते हो कि जीवन मे थोड़ी बाधाएं कम हो जाएं, कुछ समस्याएँ ख़त्म हो जाय, अलाना-फलाना काम खत्म हो जाए तो सदाचरण, सेवा, साधना, सत्कार्य करेगें!"
"जीवन भी तो प्रवाहमान नदी के समान है यदि जीवन मे तुम यह आशा लगाए बैठे हो, तो मैं इस नदी के पानी के पूरे बह जाने का इंतजार क्यों न करूँ..??"
अभी भी समय है, तृष्णा का अंत नहीं, जीवन के संतोषकाल या उत्तरकाल की प्रतीक्षा न करो, प्रमाद न करो। बनते सदाचरण, सत्कार्य, परहित, परोपकार को समय और श्रम दो। पता नहीं जीवनघट कब रीत जाए.....
बढ़िया सीख.
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंवाह..
जवाब देंहटाएंसादर
आभार
हटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " यूरोप का नया संकट यूरोपियन संघ... " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंतृष्णा का अंत नहीं, जीवन के संतोषकाल या उत्तरकाल की प्रतीक्षा न करो, प्रमाद न करो। बनते सदाचरण, सत्कार्य, परहित, परोपकार को समय और श्रम दो। पता नहीं जीवनघट कब रीत जाए.....
जवाब देंहटाएंबहुत सही।