15 जुलाई 2012

शान्ति की खोज

हम क्यों लिखते है?

- ताकि पाठक हमें ज्यादा से ज्यादा पढ़ें।

 

पाठक हमें क्यों पढ़े? 

- ताकि पाठको को नवतर चिंतन दृष्टि मिले।

 

पाठको को नई चिंतन दृष्टि का क्या फायदा?

- एक निष्कर्ष युक्त सफलतापेक्षी दृष्टिकोण से अपना मार्ग चयन कर सके।

 

सही मार्ग का चयन क्यों करे?

- यदि अनुभव और मंथन युक्त दिशा निर्देश उपलब्ध हो जाय तो शान्तिमय संतोषप्रद जीवन लक्ष्य को सिद्ध कर सके।

 

कोई भी जो दार्शनिक, लेखक, वक्ता हो उनके लेख, कथा, कविता, सूचना, जानकारी या मनोरंजन सभी का एक ही चरम लक्ष्य है। अपना अनुभवजन्य ज्ञान बांटकर लोगों को खुशी, संतोष, सुख-शान्ति के प्रयास की सहज दृष्टि देना। बेशक सभी अपने अपने स्तर पर बुद्धिमान ही होते है। तब भी कोई कितना भी विद्वान हो, किन्तु सर्वाधिक सहज सफल मार्ग के दिशानिर्देश की सभी को आकांक्षा होती है।

 

यह लेखन की अघोषित जिम्मेदारी होती है। ब्लॉगिंग में लेखन खुशी हर्ष व आनन्द फैलाने के उद्देश्य से होता है और होना भी चाहिए। अधिकांश पाठक अपने रोजमर्रा के तनावों से मुक्त होने और प्रसन्नता के उपाय करने आते है। लेकिन हो क्या रहा हैं? जिनके पास दिशानिर्देश की जिम्मेदारी है वे ही दिशाहीन दृष्टिकोण रखते है। शान्ति और संतुष्टि की चाह लेकर आए लेखक-पाठक, उलट हताशा में डूब जाते है। घुटन से मुक्ति के आकांक्षी, विवादों में घिर कर विषादग्रस्त हो जाते है। अभी पिछले दिनों एक शोध से जानकारी हुई कि ब्लॉग सोशल साईट आदि लोगो में अधैर्य और हताशा को जन्म दे रहे है।

 

यह सही है कि जगत में अत्याचार, अनाचार, अन्याय का बोलबाला है किन्तु विरोध स्वरूप भी लोगों में द्वेष आक्रोश और प्रतिशोध के भाव भरना उस अन्याय का निराकरण नहीं है। आक्रोश सदाचारियों में तो दुष्कृत्यों के प्रति अरूचि घृणा आदि  पैदा कर सकते है पर अनाचारियों में किंचित भी आतंक उत्पन्न नहीं कर पाते। द्वेष, हिंसा, आक्रोश और बदला समस्या का समाधान नहीं देते, उलट हमारे मन मस्तिष्क में इन बुरे भावों के अवशेष अंकित कर ढ़ेर सारा विषाद छोड जाते है।

 

 

मैं समझता हूँ मशीनी जीवन यात्रा और प्रतिस्पर्द्धात्मक जीवन के तमाम तनाव झेलते पाठकों के मन में द्वेष, धृणा, विवाद, हिंसा, आक्रोश, प्रतिशोध, और अन्ततः विषाद पैदा करे ऐसी सामग्री से भरपूर बचा जाना चाहिए।

55 टिप्‍पणियां:

  1. मैं समझता हूँ मशीनी जीवन यात्रा और प्रतिस्पर्द्धात्मक जीवन के तमाम तनाव झेलते पाठकों के मन में द्वेष, धृणा, विवाद, हिंसा, आक्रोश, प्रतिशोध, और अन्ततः विषाद पैदा करे ऐसी सामग्री से भरपूर बचा जाना चाहिए।

    बहुत ही सच्चाई युक्त और सार्थक बात कही है आपने.
    सुन्दर लेखन के लिए आभार,सुज्ञ जी.

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  2. सही कह रहे हैं आप .सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति.बधाई . अपराध तो अपराध है और कुछ नहीं ...

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  3. यक़ीनन शोध के परिणाम सही प्रतीत होते है..... क्योंकि इन मंचों पर लेखन का जो उद्देश्य होना चाहिए वो कम ही दिखता है....

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  4. शोध वालों ने तो बाकायदा सर्वे फर्वे करके पता लगाया है, हमने तो पहले ही जान लिया था ये:)

    जब लिखना अच्छा लगता है लिख लेते हैं, जिन्हें पढ़ना अच्छा लगता है उन्हें पढ़ लेते हैं| विचार विमर्श से कुछ सीखने को ही मिलता है, और सीखने की कोई उम्र नहीं होती| सुज्ञ जी, बहुत अच्छा सन्देश देती इस पोस्ट के लिए आभार|

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  5. @विरोध स्वरूप भी लोगों में द्वेष आक्रोश और प्रतिशोध के भाव भरना उस अन्याय का निराकरण नहीं है। आक्रोश सदाचारियों में तो दुष्कृत्यों के प्रति अरूचि घृणा आदि पैदा कर सकते है पर अनाचारियों में किंचित भी आतंक उत्पन्न नहीं कर पाते। द्वेष, हिंसा, आक्रोश और बदला समस्या का समाधान नहीं देते, उलट हमारे मन मस्तिष्क में इन बुरे भावों के अवशेष अंकित कर ढ़ेर सारा विषाद छोड जाते है।

    - सहमत हूँ, हम सबने देखा है कि हिंसक, आक्रोषित प्रतिक्रियावाद से या तो पाकिस्तान बनते हैं या माओवाद जैसे आतंकवाद का मार्ग बनता है। चिंतन हो, प्रेरणा हो, मार्गदर्शन हो और फिर सही पथ पर चलने का प्रयास हो। जो कोई भी यह सोचता है कि असहमत लोगों को कुचलकर विश्व में शांति लाई जा सकती है उसे अब तक के तानाशाहों के हाल पर एक दृष्टि अवश्य डालनी चाहिये। सही मार्ग आत्मावलोकन, समन्वय, प्रेम, क्षमा, धैर्य, संयम और सतत प्रयास से ही बन सकता है।

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    1. अनुराग जी, आपकी इस प्रतिक्रिया नें पोस्ट को सार्थक उत्थान अर्पण किया है. आभारी हूं.

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    2. Excellent post. Excellent comments, specially mosam ji and smart ji. Thanks.

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  6. विचारणीय पोस्ट है......
    सच है..लेखकों की अपनी एक नैतिक ज़िम्मेदारी होती है....

    आभार
    अनु

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  7. साहित्य का उद्देश्य बड़ा व्यापक है..सार्थक और प्रभावी आलेख..

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  8. @ और अन्ततः विषाद पैदा करे ऐसी सामग्री से भरपूर बचा जाना चाहिए।

    सही कहा आपने , ऐसा ही प्रयत्न करता हूँ !

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  9. अगर लिखने से पहले लेखक अपने लेखन की सार्थकता और उद्देश्य के बारे में दो बार सोच ले तो शायद ज़्यादा अच्छा बाहर निकलकर आएगा.खुद के मनोरंजन के लिए तो लिखना ठीक है पर केवल खुद के लिए नहीं.

    ...ऐसा लिखा जाय जो समाज में भी उपयोगी है.ब्लॉगिंग का लिखना थोड़ा अलग-सा होता है.यहाँ मौज-मजे का लिखना और नातेदारी-लेखन ज़्यादा होता है.कई बार हम ज़बरिया लिखते हैं,वहीँ गलत आउटपुट होता है.

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  10. सबकी अपनी अपनी सोच है / अपनी समझ हैं . ब्लॉग लेखन के अपने मुद्दे हैं , सहमति और असहमति से ना तो क़ोई किसी को ख़तम कर सकता हैं और ना क़ोई रोक सकता हैं .
    शांति के लिये लोग यहाँ आते हैं , हंसी मजाक के लिये आते हैं , वो उन ब्लोग्स पर क्यूँ जाते हैं जहां उनको शांति नहीं मिलती . कविता , किस्सा कहानी और चुटकुलों के ब्लोग्स की भरमार हैं . उसके बाद पोर्न , सविता भाभी टाइप , द्विअर्थी बेलाल्बेला कररवि टाइप { ये कमेन्ट मेरी सोच हैं आक्षेप नहीं , अब देखिये खुश रखने की कोशिश में हर बार दिस्क्लैमेर देना कितना गैर जरुरी हैं पर शांति पसंद !!} ब्लॉग हैं लोग वहाँ जाते हैं और जाते रहेगे . अद्भुत हैं जो कहीं कमेन्ट नहीं देते वो वहाँ जरुर मिल जाते हैं पर ये उनकी जिन्दगी हैं .
    हम को नापसंद हैं अश्लील लेखन हम आवाज उठाते हैं , हम को ना पसंद हैं अश्लील महिला के चित्र , हम हटवाते हैं , हम को ना पसंद महिला पर कविता और चुटकुले हम टोकते हैं क्युकी अगर कमेन्ट का ऑप्शन बिना मोडरेशन खुला हैं तो हम ऐसा कर सकते हैं .
    शांति का मतलब क्या हैं , क्या परिभाषा हैं शांति की ? अहिंसा जरुरी हैं , तो ब्लॉग जगत की पोस्ट से कौन सी हिंसा हो जाती हैं या हो सकती हैं और अगर हो सकती हैं तो फिर ब्लॉग जगत में मानसिक यौन शोषण भी होता हैं , लोग { फिर दिस्क्लैमेर ये एक आम बोल चाल की भाषा का टर्म हैं } उस समय कैसे उन ब्लोग्स पर जा कर सहमति दर्ज करवा देते हैं . और यौन शोषण का अर्थ केवल स्त्री का यौन शोषण नहीं हैं पुरुष का भी होता हैं . जहां आपत्ति करनी होती हैं वहाँ वाह वाह होती हैं , जहां वाह वाह होती हैं असली अशांति और शोर वही होता हैं और उसको कम करने के लिये जब क़ोई काम करता हैं तो वो आँख में कंकर की उपाधि से नवाजा जाता हैं
    खुश और शांत रहना हैं तो जो मन में हैं उसको ब्लॉग जगत में तलाश करने जो आये हैं वो कहीं ना कहीं अपने अन्दर खुद अशांत हैं , वजह कुछ भी हो सकती हैं पारिवारिक कलह , नौकरी में परेशानी , अपने मन की जिन्दगी बाहर ना जी पाने का का दंश .
    समस्या बस इतनी हैं की हर क़ोई अशांत हो कर यहाँ नहीं आया हैं कुछ लोग यहाँ एक मकसद से आये हैं अपनी बात को कहने आये हैं जैसे आप निरामिष की बात करते हैं जो कुछ लोगो के लिये अशांति का कारण हैं पर आप को ख़ुशी देता वैसे ही मै नारी ब्लॉग के जरिये ख़ुशी पाती हूँ . जब हम खुद खुश होंगे तभी हम उसको सर्वत्र महसूस करगे . मेरे लिये नारी ब्लॉग पर सबसे ख़ुशी का दिन था जब मुझ से उम्र में बहुत बड़ी महिला ब्लोग्गर ने कहा की मेरी कही बात की स्त्री पुरुष एक दूसरे के पूरक नहीं हैं केवल पति पत्नी एक दूसरे के पूरक हैं उनको बिलकुल सही लगी और उनकी सोच को नयी दिशा मिली .http://indianwomanhasarrived.blogspot.in/2011/04/blog-post_07.html मै किसी एक महिला की सोच बदल सकी नयी दिशा दे सकी अपनी पोस्ट इस बात की ख़ुशी मै ही महसूस कर सकती हूँ पर उन सब के लिये जो इसको गलत मानेगे वो दुखी रहने का कारण बन गयी .

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    1. 1-पूर्णरूपेण सहमत हूँ कि – “सबकी अपनी अपनी सोच है / अपनी समझ हैं .” दृष्टिकोण में अन्तर होना स्वभाविक है। सहमति और असहमति का प्रकट अस्तित्व है। परन्तु हमें यह स्वीकार करना ही पडेगा कि हमारी अपनी सोच का अन्य लोगों पर प्रभाव पडता है। लोगों का मन विचार प्रभावित होता है। इसी कारण हमारा दायित्व बढ़ जाता है कि हमारी सोच बिना सोचे समझे प्रसारित न हो। सोच सार्थक व सकारात्मक तभी है जब वह समाधानकारक और सर्वकल्याणकारक हो।
      @शांति के लिये लोग यहाँ आते हैं , हंसी मजाक के लिये आते हैं……
      2-लोग हंसी मजाक के लिए भी आए तो उद्देश्य आनन्द प्रदान करना होना चाहिए जो अन्तः सुख और शान्ति पर ही समाप्त होगा। लोग, जो भी मन में आया वह अभिव्यक्त करने मात्र के लिए भी आते है। किन्तु कोई भी कार्य, कारण बिना नहीं बनता। अभिव्यक्ति की इच्छा भी इसी उद्देश्य से होती है कि जो मैं सोच रहा हूँ वह सही व तर्कसंगत है या नहीं? ब्लॉगिंग में अभिव्यक्ति और भी ज्यादा महत्वपूर्ण भी मात्र इसलिए है कि इसमें ओरों की प्रतिक्रिया प्राप्त की जा सकती है। अन्तिम लक्ष्य यहां भी शान्ति ही है। ज्ञान का लक्ष्य भी शान्ति है और मनोरंजन का उद्देश्य भी शान्ति और संतुष्टि ही है। ब्लॉगिंग – लेखन में सुख शान्ति की इच्छा अभिप्रेत है। दुनियादारी के हजारों कार्यों के बीच आनन्द अभिलाषा से ही ब्लॉग लेखन पठन की और व्यक्ति खींचा आता है।

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    2. @हम को नापसंद हैं अश्लील लेखन हम आवाज उठाते हैं , हम को ना पसंद हैं अश्लील महिला के चित्र , हम हटवाते हैं
      3-यह सवाल मात्र आपकी ही पसंद ना पसंद का नहीं, आप किसी सार्थक बात पर यदि आवाज उठाती है तो उस विषय पर लोगों को अपने साथ पाएंगी। सामान्यतया लोग जनकल्याण के मुद्दे का सदैव समर्थन ही करते है। किन्तु ऐसे समर्थन को अपनी व्यक्तिगत सोच का समर्थन नहीं मान लेना चाहिए। आपकी पसंद है, किन्तु प्रत्येक पसंद, प्रत्येक विचार पर सहमति ही मिले यह आवश्यक नहीं है। एक मुद्दे पर विचार-साम्य हो सकता है तो दूसरी बात पर विचार-विरोध। किन्तु इस सामान्य व्यवहार को यह मान लेना कि इस बात का मेरा विरोध किया तो जनकल्याण के उस मुद्दे के भी तुम तो विरोधी हो। मेरे तरीके की मेरी बात नहीं मानी तो तुम सभी तरह से विरोधी ही हो। यह येन केन अपने तरीके को ही सही प्रमाणीत करने की जबरदस्ती होती है। इस व्यवहार का ‘सभी की अपनी अपनी सोच’ के नियम से मेल नहीं बैठता।

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    3. @अहिंसा जरुरी हैं , तो ब्लॉग जगत की पोस्ट से कौन सी हिंसा हो जाती हैं या हो सकती हैं और अगर हो सकती हैं तो फिर ब्लॉग जगत में मानसिक यौन शोषण भी होता हैं ,
      4-ब्लॉगजगत की पोस्ट विचारों का प्रसार ही तो होती है, ऐसे विचार गुणात्मक स्वरूप में वृद्धि पाते है। द्वेष घृणा हिंसकता अधैर्य आदि मन के भाव है और विचारों के द्वारा ही मन में स्थान पाते है। जैसे मजाक करने पर किसी को क्रोध आता है तब कैसे कह सकते है मजाक से कैसे क्रोध आ सकता है। बुरा चिंतन हमारी मानसिकता बनाता है, और मानसिकता का सहज ही व्यवहार में आना स्वभाविक है।
      बिलकुल ब्लॉगजगत में मानसिक यौन शोषण भी होता हैं। चित्र जिसे हटवाया गया, वह मानसिक यौन शोषण का ही उदाहरण था जिस पर हम जागृत रहे। सरे राह दृष्टि यौन शोषण होता है। इसीलिए तो कहते है समस्त बुरे विचार पहले मन में ही घर करते है। इसीलिए इस मन को बुरे चिंतन से बचाना चाहिए, और क्रोध, अहंकार, द्वेष, आक्रोश, प्रतिशोध और हिंसा को वाणी और विचारों में स्थान नहीं देना चाहिए।

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    4. हमारी अपनी सोच का अन्य लोगों पर प्रभाव पडता है। लोगों का मन विचार प्रभावित होता है।

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      बिलकुल यही जानते हुए जो लोग ये मानते हैं की उनके विचार दूसरो को सोचने पर अपनी सोच बदलने पर मजबूर कर सकते वही इस मीडियम को पूरी और सही तरह इस्तमाल कर सकते हैं और कर रहे हैं . बात सही और गलत की नहीं हैं , बात सकारत्मक और नकारात्मक की भी नहीं हैं बात हैं की अगर हमारी सोच से परिवर्तन आ सकता हैं , वो परिवर्तन जो हम चाहते हैं , जो हम समझते हैं की सबकी भलाई ला सकता हैं , जो हमारी नज़र में दूरगामी अच्छे परिणाम दे सकता हैं उस सोच को क़ोई कुछ भी कहे हमे बांटना चाहिये क्युकी परिवर्तन वही लाते हैं जो परिवार से ऊपर होते हैं जिनके लिये विश्व एक परिवार होता हैं

      अहिंसा के पुजारी गाँधी जी की मै प्रशंसक हूँ इसलिये नहीं क्युकी वो अहिंसा के पुजारी थे बल्कि इसलिये क्युकी उन्होने अपने परिवार से ऊपर अपने बच्चो से ऊपर क़ाबलियत को रखा अपने बेटो स्कोलर शिप ना दिलवा कर दुसरे को दिलवाई लेकिन वही जब राजनीती में उन्होने नेहरु को चुना तो परिवारवाद को बढ़ावा दे ही दिया . कहीं ना कहीं एक बड़े मकसद के लिये उलझी उनकी द्रष्टि दूरगामी परिणाम देख ही नहीं पायी अपने चुनाव के

      अब अपने परिवार की से ऊपर दूसरे को रखना अगर मुझे उनका प्रशंसक बनाता हैं तो वही मन में सवाल लाता हैं
      गाँधी जी अहिंसा के पुजारी थे पर अपनी पत्नी पर कितनी मानसिक हिंसा उन्होनी की ये बहुत सी किताबो में मैने पढ़ा हैं
      किसी को मल उठाने के मजबूर करना या दूसरी स्त्री के साथ रह कर अपनी शुचिता कायम रखने के एक्सपेरिमेंट को करना अपनी पत्नी के प्रति हिंसा ही थी
      अपने बच्चो पर उनकी शिक्षा पर ध्यान उन्होने क्यूँ नहीं दिया जो नेहरु के पिता और नेहरु ने दिया क्या ये अपने कर्तव्य में कमी नहीं थी

      क़ोई भी निर्णय जब लिया जाता हैं तब सही ही होता हैं लेकिन वो सही था या नहीं ये उसके दूरगामी परिणाम बताते हैं और वो दूरगामी परिणाम केवल उस वर्तमान में ही दिखते हैं जो आज भविष्य हैं इस लिये निर्णय ले सकने की क्षमता जरुरी हैं अपनी बात कह सकना जरुरी हैं

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    5. 5- न ‘निरामिष’ का ध्येय किसी के लिए अशान्ति का कारण है, न ‘नारी’ हित को सकारात्मक प्रस्तुत करने से अशान्ति उत्पन्न हो सकती है। समस्या तब आती है जब हम स्वयं ही इन लोक-कल्याणकारी उद्देश्यों से भटक जाते है। समस्या तब खड़ी होती है जब हम अपनी व्यक्तिगत सोच (जैसा कि आपने कहा सभी की आपनी अपनी सोच होती है) को मुख्य उद्देश्यों का अतिक्रमण करने देते है। उद्देश्य सर्वजनहिताय है तो दृष्टि और सोच हमारे अकेले की कैसे चलेगी? जब लोग तानाशाही तरीके से अपने दृष्टिकोण अपनी सोच को ही गर्म लावे की तरह फैला देना चाहते है। अशान्ति का जन्म तब होता है।

      निरामिष पर भी लोग अशान्त बनकर आते है, वस्तुतः वे अपने प्रतिकूल व्याख्या पाकर अशान्त होते है। ऐसी दशा में पूरी सहानुभूति और सहनशीलता के साथ उनकी अशान्ति ही हरने का प्रयास होता है, वहाँ आदेश ठोक बजा कर नहीं, तर्कसंगत कारण प्रस्तुत कर समाधान दिए जाते है। कभी कभी लोग अपने दृष्टिकोण का परास्त होना बर्दास्त नहीं कर पाते और उसे व्यक्तिगत हार मान कर आहत, अशान्त होते है। ऐसी अशान्ति को भी उनके स्वभाव के भरोसे न छोडकर, दूर करने के प्रयास होते है। यदि ऐसा न किया जाय तो यह विरोधाभास ही होगा कि अहिंसा और शान्ति की बात करने वाले, वाणी के व्यवहार में हिंसक अशान्त हो जाते है।

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    6. @बिलकुल यही जानते हुए जो लोग ये मानते हैं की उनके विचार दूसरो को सोचने पर अपनी सोच बदलने पर मजबूर कर सकते वही इस मीडियम को पूरी और सही तरह इस्तमाल कर सकते हैं और कर रहे हैं .

      सोच बदलने पर ‘मजबूर’ नहीं, वे सहर्ष विशिष्ट सोच का स्वागत करे तभी सार्थक है। मजबूरी में लिया गया निर्णय पुनः अनुकूल स्थिति आने वापस बदल सकता है।

      @बात सही और गलत की नहीं हैं , बात सकारत्मक और नकारात्मक की भी नहीं हैं बात हैं की अगर हमारी सोच से परिवर्तन आ सकता हैं , वो परिवर्तन जो हम चाहते हैं , जो हम समझते हैं की सबकी भलाई ला सकता हैं

      सही और गलत का विचार न किया गया तो हमारे चाहे परिणाम तो कदाचित आ जाएंगे किन्तु वे भलाईकारक होंगे यह अनिश्चित ही रहेगा। परिणाम स्वरूप उनका दूरगामी असर संदेहास्पद ही होगा।

      गांधी को समझने के सभी के अलग अलग दृष्टिकोण हो सकते है तथापि महज गांधी के अन्य अतिचारों के कारण ‘अहिंसा’ को कट्घरे में खडा नहीं किया जा सकता। इस तरह हम अहिंसा की व्याख्या करने जाय तो गांधी के प्रत्येक व्यवहार को हिंसक ठहराया जा सकता है। जैसे आपने परिवार से उपर उठने को प्रशंसनीय और आगे जाकर परिवार के सदस्यों के साथ हिंसा का व्यवहार कहा। सारी समस्या हमारी सोच की है। जैसे हम बडी सहजता से कह देते है “सुधारना है तो पहले अपने परिवार में सुधारो” या “दूसरों को सुधारने मत निकलो” तत्काल यह भी कह देते है “अपने पराए में भेद न करो” और फिर “अपनो के लिए तो सभी करते है पराए को अपना मानो तब कोई बात है” किसी एक सिद्धांत पर अटल रहना जरूरी है। सटीक समाधान के लिए फिर चाहे अहिंसा की बात हो या सामान्य जीवन व्यवहार या भेदभाव, हमें दुविधाओं से बाहर आना पडेगा। और प्रधान लक्ष्य के लिए व्यक्तिगत अहम् को विलोपित करना होगा।

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    7. किसी एक सिद्धांत पर अटल रहना जरूरी है।

      yahii baat mae khud nirantar kehtii hun aur apnae sidhanto par atal rehtii iskae baad koi ashant rahey , dukhi rahey , mujhae koi farak nahin padtaa kyuki

      har vyakti apnae karm apni niyati apnae saath laekar duniyaa mae aataa haen aur phir usii rastae chaltaa haen aur apne karm sae us niyati ko khoj hi laetaa haen

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    8. @ apnae sidhanto par atal rehtii

      क्या आपको नहीं लगता कि यह प्रतिपल बदलते कथन-भाव आप ही के है?
      “सुधारना है तो पहले अपने परिवार में सुधारो” या “दूसरों को सुधारने मत निकलो” तत्काल यह भी कह देते है “अपने पराए में भेद न करो” और फिर “अपनो के लिए तो सभी करते है पराए को अपना मानो तब कोई बात है”

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    9. “सुधारना है तो पहले अपने परिवार में सुधारो”
      “दूसरों को सुधारने मत निकलो”
      “अपने पराए में भेद न करो”
      “अपनो के लिए तो सभी करते है पराए को अपना मानो तब कोई बात है”

      charo kathno kae mul mae ek siddhant haen haen

      jab sudhaar ki baat ho to apnae sae shuru ho , jab niyam ki baat ho to apne sae shuru ho

      aur bhedh bhaav naa ho

      kathan kisko kehaa jaa rhaaa haen us par nirbhar haen
      siddanth kewal aur kewal apnae par nirbhar haen

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    10. तो आपके कथन व्यक्ति को देखकर परिवर्तित होते रहते है, सामने कौन है उस पर निर्भर करते है फिर भी आपके सिद्धांत एकबंध रहते है। कथन आपके सिद्धांतो पर निर्भर नहीं है।

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    11. kathan kathan ko daekh kar swaym shado kae aakar praakar sae banjaatae haen apne mul sidhaant par


      sidhaant ko bhi agar shabdo ke kisi ko samjhaana ho to whaan bhi usii prakaar sae shabdo kaa badlaav hogaa


      aur baat kyaa kewal mujh tak hi simit rahegi aapkae kathno mae yaa aap ke siddhant kae anurup vishal rup laegae durgaami natijo ko dhyaan me rakhate huae

      हटाएं
  11. सदाचारियों की अगर,हो विवाद से भेंट |
    करे बेवजह बहस या, खुद को रखे समेट |
    खुद को रखे समेट, ध्यान में प्रभु के रम जाए |
    सहे सुने सौ बात, एक ना किन्तु सुनाये |
    रविकर पथ यह नीक, किन्तु सामाजिक जीवन |
    ईर्ष्या द्वेष प्रपंच, घेरता है सज्जन मन ||

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    1. खुद को रखे समेट, प्रेम-प्रभु में रम जाए |

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    2. दम्भ अब प्रचंड़ हुए, धधक रहा प्रतिशोध।
      ममता ही निर्मम हुई, सज्जनता गतिरोध॥

      सज्जनता गतिरोध, द्वेष बस बना है भूषण।
      कृति में छाया कोप, सोच में बढ़ा प्रदूषण॥

      सुज्ञ मन व्याकूल, धरा अब धीरज खोए।
      सुख से रहे है खेल, स्वपथ में शूल जो बोए॥

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    3. वाह! सुज्ञ जी.
      सुज्ञ रविकर हुए या रविकर सुज्ञ.
      दोनों को प्रणाम.

      हटाएं
    4. राकेश जी, आभार आपका
      स्वजन प्रेरणा आधारस्तम्भ सम!!

      हटाएं
  12. मैं समझता हूँ मशीनी जीवन यात्रा और प्रतिस्पर्द्धात्मक जीवन के तमाम तनाव झेलते पाठकों के मन में द्वेष, धृणा, विवाद, हिंसा, आक्रोश, प्रतिशोध, और अन्ततः विषाद पैदा करे ऐसी सामग्री से भरपूर बचा जाना चाहिए।
    बिल्‍कुल सही कहा आपने ... सार्थकता लिए सशक्‍त लेखन ...आभार

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  13. हम लिखते हैं ... ताकि कोई तो राह हमसे भी जुड़े .... सारी नदियाँ नहीं गंगा मिले

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  14. हे भगवान ! ये पोस्ट आप ने मेरी पोस्ट के पहले लिखा है मैंने देखा नहीं था उम्मीद है की आप ने मेरी अभी की पोस्ट को ( यदि देखा हो तो ) इसके प्रतिउत्तर में नहीं समझा होगा |
    द्वेष ,पूर्वाग्रह ,हिंसा और बदला जैसे चीजो का समर्थन तो मै भी नहीं करती हूं लेकिन जैसा आप ने बाद में कह है की सभी का अपना नजरिया होता है जो मेरे लिए किसी को सबक सीखना उसकी गलती बताना हो उसे सुधारने का एक तरीका हो वो किसी अन्य को बदला लगे , जैसा की मैंने अभी की पोस्ट पर लिखा है की मै खुद की रक्षा के लिए किये गये हमले को मै हिंसा नहीं मानती हूं किन्तु किसी गाँधीवादी के लिए ये भी हिंसा हो सकती है , इसलिए सभी का अपना अपना नजरिया है | शांति कभी भी किसी पर अत्याचार और किसी एक पक्ष के चुपचाप सहने की कीमत पर नहीं होना चाहिए कई बार देखा है अत्याचार सहने वाला विरोध करता है तो कहा जाता है की ये शांति भंग कर रहा है आज तक तो सब कुछ ठीक था | ये सच है हम एक जैसा नहीं सोच सकते है सभी जहा खड़े है जिस परिस्थिति में है वो उस स्थिति के हिसाब से व्यवहार करते है |

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    1. आपकी यह पोस्ट मैने पहले नहीं देखी थी। किन्तु उसमें ऐसा कुछ नहीं जिसे इस पोस्ट की प्रतिक्रिया स्वरूप कहा जाय। वैसे भी वहाँ वे ही विचार प्रस्तुत हुए है जिन्हें आप यत्र तत्र टिप्पणियों द्वारा व्यक्त करती रही है। साथ ही यह स्पष्ट कर दूँ कि दृष्टि प्रतिदृष्टि की पोस्ट में कोई बुराई नहीं मानता, बस उसे विचारों के खण्डन या मण्डन की तरह होना चाहिए। प्रहार प्रतिप्रहार की तरह नहीं।

      मैं भी प्रतिरक्षा या स्वबचाव का विरोध नहीं करता। हिंसा के विरोध का हमारा दृष्टिकोण सर्वथा भिन्न है। हमें हिसा के सर्वसामान्य प्रसार से एतराज है। लोगों के स्वभाव में हिंसा घुल जाने का भय है। अहिंसक मूल्यों के पतन की आशंका है।

      तीन चार जगह टिप्पणी द्वारा जब आप सर्वसामान्य ब्यान की तरह समस्त नारी जगत से आहवान करती है कि उसके हिंसक बनने का समय आ चुका है तो जगत में हिंसा व्याप्त होने की पदचाप सुनाई देती है, मेरा यह कथन नारी-शक्ति से भयक्रांत होकर नहीं बल्कि इस मामूली से उदघोष में जगत का विनाश दृष्टिगोचर होता है और एक अनुकंपा की हुक सी उठती है।

      जब नारी को ममता, कोमलता, सम्वेदनशीलता को सर्वसामान्य रूप से त्याग देने की प्रेरणा दी जाती है तो लगता है प्रकृती से ही विद्रोह का डंका बजाया जा रहा है। ये गुण नारी की कमजोरियां किंचित भी नहीं, इन्ही गुणों पर संसार टिका हुआ है। एक ममतामयी समाताधारी क्षमाशील नारी को बेतहासा सम्मान और कीर्ती मिलती है। किसी बुरे से बुरे व्यक्ति की हिम्मत ही नहीं होती कि ऐसी भद्र नारी को अपमानित कर सके।

      युवतियों का स्वबचाव में सबल और शक्तिवान होना जरूरी है किन्तु उन्हें हिंसा के लिए प्रेरित करना कोई आवश्यक नहीं। हिंसा उनके व्यक्तित्व में सम्मलित हो गई तो स्वबचाव या पर-प्रताड़न शोषण में अन्तर सचेतन न रहा तो? पुरूषों के लिए भी कहां साहस और दुस्साहस में सम्भल कर विवेक रह पाता है।

      इसलिए मेरा स्पष्ट मानना है सबल बनाओ, पर धैर्यवान भी। शौर्यवान बनाओ, पर क्षमाशील भी। स्वतंत्र निर्णय बनाओ पर समतावान भी।

      दुर्गा काली से तो आवश्यक्ता पडने पर ही शक्ति का आहवान किया जाता था किन्तु सर्वकालिक तो लक्ष्मी सरस्वति अन्नपूर्णा को ही स्थायी आसन दिया जाता है।

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    2. आपका अपना दृष्टिकोण है, यह चर्चा आपको किसी भी तरह सहमत बनाने के प्रयोजन से नहीं है। हमारा प्रयास मात्र इतना है कि हमारी बात सभी कोण से स्पष्ट हो जाय,यही प्रयास है।

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    3. @ लोगों के स्वभाव में हिंसा घुल जाने का भय है।
      लोग या नारी क्योकि पुरुषो में तो पहले से ही मौजूद है, भय नारी के ही वैसे हो जाने से है , सहमत हूं | भय होना भी चाहिए और सोचिये की पुरुष का वो रूप कितना भयानक है जिसके समान नारी के हो जाने भर से भय लग रहा है |

      @तीन चार जगह टिप्पणी द्वारा जब आप सर्वसामान्य ब्यान की तरह समस्त नारी जगत से आहवान करती है कि उसके हिंसक बनने का समय आ चुका है तो जगत में हिंसा व्याप्त होने की पदचाप सुनाई देती है |
      मैंने अपने पोस्ट में भी साफ लिखा है मात्र आत्म रक्षा के लिए हमला कीजिये कही भी ये नहीं लिखा की रास्ते में पकड़ हर किसी को हर बात पर पिटना शुरू कर दो ( वहा भी लिखा है जब भगाने का विकल्प ना हो तो ) और टिप्पणी में भी इसी सन्दर्भ में कहा है की अब कोमला बन कर ऐसी घटनाओ को सहने की जगह ऐसा करने वालो को पिटना बुरा नहीं है , बात आत्म रक्षा की है फिर भी मै इसे हिंसा ही कह रही हूं क्या इसके बाद भी आप को लगता है की मै हिंसा को बढ़ाने के बात कर रही हूं |
      @ जब नारी को ममता, कोमलता, सम्वेदनशीलता को सर्वसामान्य रूप से त्याग देने की प्रेरणा दी जाती है तो लगता है प्रकृती से ही विद्रोह का डंका बजाया जा रहा है। ये गुण नारी की कमजोरियां किंचित भी नहीं, |
      बिल्कुल भी नहीं मैंने कहा है की संकट काल में जरुरत पड़ने पर ऐसा करे | यदि सभी माँ अपने दुश्चरित पुत्रो को बचाव करती रही ममता में, तो वो समाज को क्या देंगी ममता त्याग पर पुत्र को कड़ा दंड दे उसे सुधारे , कोमलता के नाम पर किसी को शोषण का शिकार ना बने क्या ये आवाह्न गलत है मुझे कही से भी नहीं लगता है |
      @ किसी बुरे से बुरे व्यक्ति की हिम्मत ही नहीं होती कि ऐसी भद्र नारी को अपमानित कर सके।
      रामायण से ले कर महाभारत तक और वर्तमान में भी ऐसी घटनाए भरे पड़े है भद्र नारियो को विभिन्न रूपों में अपमानित करने से , अभद्र पुरुष हर नारी का अपमान करता है उसे फर्क नहीं पड़ता है की नारी कौन और कैसी है |
      @युवतियों का स्वबचाव में सबल और शक्तिवान होना जरूरी है किन्तु उन्हें हिंसा के लिए प्रेरित करना कोई आवश्यक नहीं।
      हर जगह सिर्फ आत्म रक्षा की बात की है और वो भी इस कांड के कारण मुझे कुछ भी गलत नहीं लगता है |
      @दुर्गा काली से तो आवश्यक्ता पडने पर ही शक्ति का आहवान किया जाता था किन्तु सर्वकालिक तो लक्ष्मी सरस्वति अन्नपूर्णा को ही स्थायी आसन दिया जाता है।
      मै नहीं मानती शक्ति के उपासको की कमी नहीं है |

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    4. आपके सारे कथन निहित भावों से सहमत नहीं, सर्वसामान्य ब्यान और और आत्मरक्षार्थ प्रेरणा में अन्तर होता है, मैने आपकी टिप्पणियों कहा आपने अपनी अन्तिम पोस्ट को आधार बनाया। सभी कथनो को सिलसिलेवार प्रस्तुत करने पर प्रतिक्रिया लम्बी हो जाने की समस्या है। वैसे भी इस का कोई लाभ नहीं।

      @लोग या नारी क्योकि ,पुरुषो में तो पहले से ही मौजूद है, भय नारी के ही वैसे हो जाने से है , सहमत हूं | भय होना भी चाहिए और सोचिये की पुरुष का वो रूप कितना भयानक है जिसके समान नारी के हो जाने भर से भय लग रहा है |
      1-मैनें कहा लोगों में हिंसा व्याप्त होने का भय, आपने कहा नारी के हिंसक बनने का भय, क्यों?
      2- "हिंसा पुरुषो में तो पहले से ही मौजूद है" यह फिर से जनरल स्टेटमेंट, क्या यह प्रमाणीत सत्य है?
      3- "भय होना भी चाहिए" से आपका आशय क्या है? (क्योंकि मेरे कथन में तो 'लोगों'में हिंसा की अराजकता फैल जाने का भय व्यक्त किया गया था)

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  15. @ सज्जन दुर्जन सभी को एक समान पुरूष ब्राण्ड के बाटों से नहीं तोला जाता. कई पुरूष भी नारी सम्मान के समर्थक होते है, बिना जाने ही जो भी सामने आया,"पुरूष है सिखाने आया है" दंत प्रहार से क्षत-विक्षित कर दो? इस तरह तो हम अपने ही समर्थक कम कर रहे होते है.
    सुज्ञ जी
    बिल्कुल भी ऐसा नहीं है हम सभी को एक ही तराजू में नहीं तौलते है हमें अच्छे से पता है की हमारे समर्थक कौन है | मेरी किसी बात से आप को ऐसा लगा है तो मै खेद प्रकट करती हूं आप से बस माफ़ी वाली बात से मेरी असहमति अंत तक थी और अभी भी है अन्य कोई बात मेरी तरफ से तो नहीं थी और देवेन्द्र जी की टिप्पणी में आप ने बस सहमती जताई किन्तु ये नहीं कहा की यदि पुरुष ऐसे तिकड़म करता है तो उसे नहीं करना चाहिए ये गलत है इसलिए मुझे लगा की ये ना कहना पुरुषो के तिकड़मी होने का सर्थन कर रहा है जो सही नहीं है |

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    उत्तर
    1. यकिन मानिए मैं यथास्थितिवाद का पोषक नहीं हूँ, किन्तु आप लोग नारीवाद को सभी के लिए इतना सामान्य बनाकर प्रस्तुत करते है कि जगत के समग्र पुरूष जाति के प्रति विद्वेष उभर कर आता है। समस्त ब्लॉगजगत को देखें तो कोई भी पुरूष अत्याचारी या शोषक स्वरूप में प्रकट नहीं है। पर आक्रोश कुछ इस तरह व्यक्त किया जाता है कि जैसे सारे के सारे पुरूष नारी को दबाकर रखने वाले प्रताड़ित करने वाले यहां ही है और सारा सबक इन्हें ही सिखा देना है। धुटन से यदि आजादी अर्जित करनी है तो वह जगह यही है! यही है!

      आपने देखा होगा कि हिन्दी ब्लॉग जगत में ब्लॉगर नारी विमर्श से किनारा ही करते रहते है, इसका मतलब यह नहीं कि उनमें कोई कुंठाएं है अथवा सार्थक चिंतन का अभाव है। वस्तुतः नारी विमर्श के लिए सौहार्दपूर्ण वातावरण ही नहीं है। भिन्न दृष्टिकोण आते ही उस पर चिंतन की जगह नारी विरोध और लिंग भेदभाव के आरोप जड दिए जाते है।

      @आप से बस माफ़ी वाली बात से मेरी असहमति अंत तक थी और अभी भी है।

      बेशक आप अपनी असहमति पर कायम रह सकती है। किन्तु मेरी मान्यता में क्षमा कायरता नहीं है, धैर्य और शौर्य है। माफी में जीवन को पुनः पटरी पर लाने की क्षमता भी है और विकल्प भी। जीवन के सारे समाधान भूलने में ही बसे हुए है, सजा या पूर्ण विच्छेद के बाद कौनसा विकल्प रह जाता है? संघर्षण विराम ही हमेशा समाधान होते है।

      @देवेन्द्र जी की टिप्पणी में आप ने बस सहमती जताई किन्तु ये नहीं कहा की यदि पुरुष ऐसे तिकड़म करता है तो उसे नहीं करना चाहिए ये गलत है

      इस 'तिकड़म' का स्पष्टिकरण उस पोस्ट पर विस्तार से दिया था। वस्तुतः देवेन्द्र जी ने परिहासपूर्ण शैली में वह कथन किया था किन्तु बात बडी व्यवहारिक थी कि पहले से क्यों बताया जाय, जब काम पडेगा निवेदन कर देंगे। जैसे जीवन में कई अवसर पर आमने सामने बैठकर बात परिणाम देती है, उस बात को फोन पर नहीं किया जा सकता ऐसा समझकर एक व्यक्ति यूं ही गप-शप के बहाने बुलाकर वह गम्भीर बात करे तो व्यवहार कहलाता है, तिकड़म नहीं। मैने देवेन्द्र जी की उस बात के व्यवहारिक पक्ष का समर्थन किया था, और उसमें कुछ भी गलत नहीं है। और पक्षपात वाली बात तो हर्गिज नहीं।

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    2. @ ब्लॉगजगत को देखें तो कोई भी पुरूष अत्याचारी या शोषक स्वरूप में प्रकट नहीं है।
      ये आप को नहीं दिखेगा क्योकि पीड़ित आप नहीं है, जब हम पीड़ित नहीं होते है तो हमें हर बात छोटी दिखाई देती है , जो खुद के साथ वैसा होता है हम असली पीड़ा तभी समझ पाते है | और हम सारे पुरुषो को ऐसा नहीं मानते है आप ने खुद देखा है ऐसे पुरुषो की कोई कमी नहीं है जो खुल कर समरी बातो का समर्थन करते रहे है कही बार तो वो हमसे एक कदम आगे जा कर बात करते है |
      @ वस्तुतः नारी विमर्श के लिए सौहार्दपूर्ण वातावरण ही नहीं है।
      क्यों नहीं है आप देख रहे है एक जगह कितनी अच्छी नारी विमर्श हो रही है और मजेदार बात है की विमर्श करने वाले ज्यादातर पुरुष ही है | असल में ऐसे लोगो की कमी नहीं है जिन्हें लगता है की नारी विमर्श भी पुरुष ही बेहतर कर सकता है नारी नहीं , वो इस काबिल भी नहीं है |
      @ जीवन के सारे समाधान भूलने में ही बसे हुए है, सजा या पूर्ण विच्छेद के बाद कौनसा विकल्प रह जाता है?
      हा हा हा हा हा कहना आसन है करना बहुत मुश्किल सुज्ञ जी | हाल में ही एक विवाद में मैंने आप को एक बार भी माफ़ करने की बात करते नहीं देख कई पोस्टो में से एक में भी नहीं , आप सजा की मांग कर रहे थे :) उम्मीद है आप ईशारा समझ रहे है | जब कुछ मुद्दे हमारी सोच से जुड़े होते है तो हमारा व्यवहार ऐसा ही होता है |

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    3. सुज्ञ जी
      दुनिया में दो वर्ग है एक जो शोषण करता है दूसरा वो जिस का होता है , जो शोषण करने वाले वर्ग से आता है भले वो शोषण ना करे किन्तु वो पीडितो का दर्द नहीं जान सकता है उनकी भावना नहीं समझ सकता है और पीड़ित शोषित वर्ग से जुड़े हर व्यक्ति पर शक ही करता है जो उसे जरा भी सहने की शिक्षा देता है , विश्वास उसी पर होता है जो साफ उन्हें वहा से निकलने को कहता है | समाप्त |

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    4. @ हाल में ही एक विवाद में मैंने आप को एक बार भी माफ़ करने की बात करते नहीं देख कई पोस्टो में से एक में भी नहीं , आप सजा की मांग कर रहे थे :)

      मुझे तो मेरी ऐसी कोई प्रतिक्रिया ध्यान में नहीं आती जब 'व्यक्ति' को क्षमा न कर पाएं या हिंसक सजा के प्रावधान की अनुसंशा की हो। हां, हिंसक विचारों और विचारधारा के प्रति सहानुभूति नहीं होती, और उसका प्रतिकार करता हूँ।

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    5. @ जो शोषण करने वाले वर्ग से आता है भले वो शोषण ना करे किन्तु वो पीडितो का दर्द नहीं जान सकता है उनकी भावना नहीं समझ सकता है

      1-कौन शो्षक वर्ग से आता है इसकी निशानदेही कैसे होती है?
      2-क्या उसी प्रकार जो शो्षित वर्ग से आता भले वह अब शोषण करे पीडितो का दर्द समझ सकता है?

      जहां वर्ग विभेद का ही पता नहीं चलता, जहां एक दूसरे की पीडा जानी समझी ही नहीं जाती, जहां शक के सिवा कुछ भी आधारभूत नहीं है, वहाँ संतोषप्रद समाधान ही कहां है? सन्तुष्टि और समाधान के लक्ष्य बिना हिंसक वर्ग-विग्रह से हासिल क्या है?
      क्या आपको नहीं लगता कि निर्थक निरूद्देश्य मनुष्यों में हिंसकता प्रासार करने वाली विचारधाराएं जगत में शान्ति की अवरोधक है?

      हटाएं
  16. http://hsonline.wordpress.com/2012/07/17/kshama/

    jaraa is post par nazar daal li jaaye
    सार-संक्षेप

    क्षमा का उपयोग सर्वकालिक, सर्वव्यापक नहीं है। क्षमा माँगने का अर्थ पीड़ा की समाप्ति नहीं बल्कि इसकी वृद्धि को रोकना है। क्षमा से हिंसा की रोकथाम संभव नहीं है, न ही यह अभीष्ट है। क्षमा का सर्वोत्तम उपयोग तभी माना जाएगा जब यह त्रुटियों की पुनरवृत्ति रोक सके। क्षमायाचना एवँ क्षमादान, दोनों ही छोटे-छोटे महत्वहीन विषयों में उपयोग में न लाये जायें।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. क्षमा पर लेखक की व्यख्या से सहमत हूँ, सार संक्षेप में लेखक ने क्षमा के लाभों को थोडा हल्के से लिया है। जबकि इसका बहुत ही बड़ा लाभ है। क्षमा का सबसे बडा लाभ यह है कि क्षमा प्रतिशोध की अंतहीन शृंखला का समुचित अंत कर देती है। और इस शृंखला का अंत ही विश्व की समग्र समस्याओं का अंत है।

      हटाएं
    2. vidruptaon ke pratirodh me jab samooh-gan hinsak ho jati hai to nakaratmakta ke adhin ho ye man 'hinsa' ko sahi man-ne lagta hai, lekin jaise hi thora sa samay gujar jai....'shant-man' se vichar karte hi

      @ षमा प्रतिशोध की अंतहीन शृंखला का समुचित अंत कर देती है। और इस शृंखला का अंत ही विश्व की समग्र समस्याओं का अंत है। ...... monitor bhai ke ye baten sahi lagti hai


      pranam.

      हटाएं
  17. @एक शोध से जानकारी हुई कि ब्लॉग सोशल साईट आदि लोगो में अधैर्य और हताशा को जन्म दे रहे है।

    वो इसलिए कि इन साइट्स पर कोई पोस्ट लिखने के बाद...या फेसबुक पर स्टेटस लिखने के बाद...लोग अधीर हो जाते हैं..कमेन्ट आए कि नहीं...कितने लोगों ने पढ़ा...उन्हें पसंद आई या नहीं..पर अगर सिर्फ अपने मन का लिखकर टिप्पणी...दूसरों की प्रतिक्रिया की परवाह ना करें तो फिर इस अधैर्य ,हताशा का सामना नहीं करना पड़ेगा.

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  18. बहुत गहरी बात कही आपने। काश, लोग इसे समझ पाते।

    ............
    International Bloggers Conference!

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    उत्तर
    1. अर्शिया जी का इस ब्लॉग पर हार्दिक स्वागत!!

      हटाएं
  19. मैं "समजता" हूँ मशीनी जीवन यात्रा और प्रतिस्पर्द्धात्मक जीवन के तमाम तनाव झेलते पाठकों के मन में द्वेष, धृणा, विवाद, हिंसा, आक्रोश, प्रतिशोध, और अन्ततः विषाद पैदा करे ऐसी सामग्री से भरपूर बचा जाना चाहिए।

    पोस्ट बहुत सार्थक प्रासंगिक सवाल उठाती है विमर्श ज़रूरी था ,है और रहेगा .शुक्रिया .कृपया "समझता "कर लें

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  20. सार्थक विचारनीय पोस्ट। धन्यवाद।

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  21. व्यक्ति चाहे तो अपने अनुभवों को गोपनीय रख सकता है। किंतु वह उसे प्रकट करता है,क्योंकि उसमें हो रही अभिव्यक्ति व्यक्ति विशेष मात्र की न होकर समष्टि की होती है। यह परम्परा न होती तो हमारा इतिहास कुछ और होता। ध्यान रहे,कि लिखना भी सबके वश का नहीं है। जिसके वश का हो,वह तो न चूके।

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  22. सुज्ञ जी,बहुत दिनों से आपकी नई पोस्ट नही आई है.
    इन्तजार है.
    श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ.

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