16 अगस्त 2011

निष्प्रयोजन परम्परा : रूढ़ि



पिछले लेख में हमने सप्रयोजन परम्परा के औचित्य को स्थापित करने का प्रयास किया। जीवन मूल्यों में विकास के सार्थक उद्देश्य से किसी योग्य कार्य-विधि का निर्वहन ‘सप्रयोजन परम्परा’ कहलाता है। जैसे- 'एकाग्रचित' चिन्तन के प्रयोजन से, 'ध्यान' परम्परा का पालन किया जाता है, इसे हम ‘सप्रयोजन परम्परा' कहेंगे। आज तो जीवन शैली के लिए, मेडिटेशन की उपयोगिता प्रमाणित हो गई है। इसी कारण इसका उदाहरण देना सरल सहज-बोध हो गया है्। अतः परम्परा का औचित्य सिद्ध करना आसान हो गया है। अन्यथा कईं उपयोगी परम्पराएं असिद्ध होने से अनुपयोगी प्रतीत होती है। कई मान्यताओं में प्रतिदिन एक मुहर्त पर्यन्त ध्यान करने की परम्परा है, एकाग्रचित्त अन्तर्मन्थन के लिए इससे अधिक उपयोगी कौनसी विधि हो सकती है। 

पहले कभी, प्रतिदिन प्रातः काल योग – आसन करनें की परम्परा थी। जिसे दुर्बोध तर्कवादियों नें सांसो की उठा-पटक और अंगो की तोड़-मरोड़ कहकर दुत्कार दिया था। वे सतही सोच बुद्धि से उसे रूढ़ि कहते थे। आज अच्छे स्वास्थ्य के लिए योगासनो को स्वीकार कर लिया गया है। मन को सकारात्मक संदेश प्रदान करने के लिए भजनों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। दया की भावना का विकास करने के लिए दान के उपक्रम का महत्व है। श्रद्धा और विश्वास को सफलता का मुख्य कारण माना जाने लगा है। कई लोगों को स्वीकार करते पाया है कि उन्हें धर्म-स्थलों में अपार शान्ति का अनुभव होता है। कई लोग भक्ति-भाव के अभ्यास से, अहंकार भाव में क्षरण अनुभव करते है। हम आस-पास के वातावरण के अनुसार ही व्यक्ति्त्व ढलता देखते है। इन सभी लक्षणों पर दृष्टि करें तो, परम्परा और संस्कार का  सीधा सम्बंध देखा जा सकता है। प्रभावशाली व्यक्तित्व बनाने के लिए, संस्कार युक्त परम्पराओं के योगदान को  भला कैसे नकारा जाएगा?

लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि सभी परम्पराएं आंख मूंद कर अपनाने योग्य ही होती है। कई परम्पराएं निष्प्रयोजन होती है। अकारण होती है। वस्तुतः सुविधाभोगी लोगों नें कुछ कठिन परम्पराओं को पहले प्रतीकात्मक और फिर विकृत बना दिया होता है। ये सुविधाभोगी भी और कोई नहीं, प्रारम्भ में तर्कशील होते है। रेश्नलिस्ट बनकर शुरू में, कष्टदायक कठिन परम्पराओं को लोगों के लिए दुखद बताते है। पुरूषार्थ से कन्नी काटते हुए, प्रतीकात्मक रूप देकर, कठिनता से बचने के मार्ग सुझाते है। और अन्ततः पुनः उसे प्रतीक कहकर और उसके तर्कसंगत न होने का प्रमाण देकर परम्परा का समूल उत्थापन कर देते है।

भले आज हम सुविधाभोगियों को दोष दे लें, पर समय के साथ साथ ऐसी निष्प्रयोजन परम्पराओं का अस्तित्व में आ जाना एक सच्चाई है। परम्पराएँ पहले प्रतीकात्मक बनती है, और अंत में मात्र 'प्रतीक' ही बचता है। 'प्रयोजन' सर्वांग काल के गर्त में खो जाता है। ऐसी निष्प्रयोजन परम्पराएँ ही रूढ़ि बन जाती है। हालांकि रूढ़िवादी प्रायः इन प्रतीको के पिछे छुपे 'असल विस्मृत प्रयोजन' से उसे सार्थक सिद्ध करने का असफल प्रयास करते है, पर प्रतीकात्मक रूढ़ि आखिर प्रतीक ही होती है। उसके औचित्य को प्रमाणित करना निर्थक प्रयास सिद्ध होता है। अन्ततः ऐसी रूढ़ि को ‘आस्था का प्रश्न’ कहकर तर्कशीलता से पिंड़ छुड़ाया जाता है। जब उसमें प्रयोजन रूपी जान ही नहीं रहती, तो तर्क से सिद्ध भी कैसे होगी। अन्ततः ‘आस्था’ के इस प्रकार दुरपयोग से, मूल्यवान आस्था स्वयं भी ‘निष्प्रयोजन आस्था’ सिद्ध हो जाती है।

ऐसी रूढ़ियों के लिए दो मार्ग ही बचते है। पहला तो इन रूढ़ियों को पुर्णतः समाप्त कर दिया जाय अथवा फिर उनके असली प्रयोजन सहित विस्मृत हो चुकी, कठिन कार्य-विधी का पुनर्स्थापन किया जाय।

आपका  इस प्रकार की रूढ़ियों के प्रति क्या मानना है?

अगले लेख में हम कुप्रथा या कुरीति पर विचार करेंगे………

21 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद सार्थक एवं सटीक लेखन के लिये बधाई ।

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  2. प्रभावशाली व्यक्तित्व बनाने में संस्कार युक्त परम्पराओं के योगदान को कैसे नकारा जाएगा?-सहमत हूँ आपसे .सार्थक लेखन .आभार

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  3. बेहद सार्थक व् सटीक लेखन

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  4. सही-ग़लत की पहचान के लिये भी ज्ञान की आवश्यकता है। भौतिकी/अभियांत्रिकी न समझने वाले के लिये जहाज़ में खुद न बैठने तक यह मानना बहुत आसान होगा कि धातु की बनी भारी वस्तु उडकर निर्धारित गंतव्य तक पहुँच ही नहीं सकती। इसी प्रकार ज्ञान का विस्तार होने के साथ-साथ स्वीकृति और स्वप्न, दोनों की सीमायें भी बढती जाती हैं। कई बार प्रयोजन अस्थाई होता है पर बाद में वह रूढियों का रूप ले लेता है।

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  5. हमारे 'अन्धविश्वासी' पूर्वजों के पास काफी समय उपलब्ध था गहराई में जाने का और मानव जीवन का 'सत्व' खोजने का...
    और सिद्ध पुरुष ही किसी काल विशेष में ही केवल जान पाए कि सभी, प्रत्येक व्यक्ति, ब्रह्माण्ड के प्रतिरूप हैं - खिलोने जो निराकार ब्रह्म पर (शून्य काल और स्थान से सम्बंधित) सभी निर्भर कर अनादि और अनंत शून्य के भीतर व्याप्त अनंत साकार रूप में दिखते प्रतीत होते हैं,,, और इस कारण प्रत्येक व्यक्ति को परम सत्य को अंतर्मुखी हो जानना, न कि किसी एक जगह रुक जाना और गंतव्य को भूल किसी एक ही गुरु के चमचे हो जाना...

    और पृथ्वी रुपी ग्रह ('मिथ्या जगत') में भी उनके प्रतिरूप वनस्पति एवं पशु आदि रूप में भी अनादिकाल से प्रतिबिंबित हो रहे हैं...जिन्हें प्रत्येक जीव अपनी अपनी निजी क्षमतानुसार साकार के भिन्न भिन्न रूपों को देख पा रहा है,,, और पशु यदि वर्णन कर भी रहे हैं तो काल के 'कलियुग' {'अंधेर नगरी और चौपट राजा', जिसे मीरा के शब्दों में मूरख को (कृष्ण) तुम राज दियत हो"},,, अथवा 'कलयुग' ('पश्चिमी देशों' द्वारा निर्मित मशीन,,, अथवा उनकी नक़ल कर निर्माण किये स्थानीय यंत्रों,,, के सम्पूर्ण संसार में उपयोग?) होने के कारण 'हम' असमर्थ हैं उनकी भाषा समझने में,,, जबकि हमारे 'अन्धविश्वासी पूर्वज' तोता-मैना तक की भाषा जान गए थे (?, कम से कम आज भी 'हम' उनको मानवी भाषा में बोलते देख सकते हैं),,, और केवल इतना ही नहीं, सूर्य और शनि ग्रह आदि तक से प्रसारित होती ध्वनि को जैसा आज भी पश्चिम निवासी वैज्ञानिकों द्वारा सुना गया है, हमारे अन्धविश्वासी पूर्वजों ने भी सुना और सूर्य को ब्रह्मा मान उनके द्वारा प्रसारित श्वेत किरणों को माता सरस्वती के माध्यम से सफ़ेद साडी में दिखाते चले आये हैं,,, और शनि को सूर्य पुत्र, त्रेयम्बकेश्वर ब्रह्मा-विष्णु-महेश का प्रतिरूप बता गए जैसे वर्तमान वैज्ञानिकों ने भी हाल ही में उससे प्रसारित ध्वनि को घंटी की तुन्तुनाह्त, ढोल पीटने, और पक्षियों की चहचहाट, तीन का (ॐ को प्रतिबिंबित करते!) मिश्रण जाना है,,, इत्यादि, इत्यादि...

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  6. Reading this kind of article is worthy .It was easy to understand and well presented.

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  7. परम्पराएं अक्सर वैज्ञानिक सोच के तहत बनी होनी होती हैं । मेरे विचार से यथासंभव उसका पालन करना चाहिए। आलस्यवश , उसका स्वरुप बदलकर प्रतीकात्मक कर देने का कोई औचित्य नहीं है ।

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  8. उपयोगी आलेख है जी!
    टिप्पणी में देखिए मरे चार दोहे-
    अपना भारतवर्ष है, गाँधी जी का देश।
    सत्य-अहिंसा का यहाँ, बना रहे परिवेश।१।

    शासन में जब बढ़ गया, ज्यादा भ्रष्टाचार।
    तब अन्ना ने ले लिया, गाँधी का अवतार।२।

    गांधी टोपी देखकर, सहम गये सरदार।
    अन्ना के आगे झुकी, अभिमानी सरकार।३।

    साम-दाम औ’ दण्ड की, हुई करारी हार।
    सत्याग्रह के सामने, डाल दिये हथियार।४।

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  9. चिंतनपरक आलेख।
    प्रतीकात्मक रूढ़ि के एक-दो उदाहरण होते तो कथ्य और अधिक स्पष्ट होता।

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  10. आपके लेख से १००% सहमत ... मेरा मानना है हमें अपने लंबे समय से अर्जित ज्ञान को पुनः खंगालने और वैज्ञानिक तथ्यों के साथ पुनः स्थापित करने की आवश्यकता है ... कार्य कठिन है पर करना हमें ही होगा ...

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  11. बेहद रूचिकर एवं ज्ञानवर्धक प्रस्‍तुति ।

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  12. बहुत ही अच्छा आलेख, इसे फिर से पढ़ना होगा

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  13. Ham to aapke aafreen ho gaye kaka shree.
    Aapke lekhan me nasha sha hai
    Aapke yah lekh nashili chize istemal karne valo ko sunaiye..
    Ve nashe ka sevan karna chhod ke aapke lekho ka sevan suru karenge.

    Jai Jinendra
    Aapka Bhatija
    Ravi Bokadia

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  14. Such an interesting & useful collection I love to read this type of article!!
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