व्यक्तिगत तृष्णाओं में लुब्ध व्यक्ति, समाज से विद्रोह करता है। और तात्कालिक अनुकूलताओं के वशीभूत, स्वेच्छा से स्वछंदता अपनाता है, समूह से स्वतंत्रता पसंद करता है। किन्तु समय के साथ जब समाज में सामुहिक मेल-मिलाप के अवसर आते है, जिसमे धर्मोत्सव मुख्य होते है। तब वही स्वछन्द व्यक्ति उस एकता और समुहिकता से कुढ़कर द्वेषी बन जाता है। उसे लगता है, जिस सामुहिक प्रमोद से वह वंचित है, उसका आधार स्रोत यह धर्म ही है, वह धर्म से वितृष्णा करता है। वह उसमें निराधार अंधविश्वास ढूंढता है, निर्दोष प्रथाओं को भी कुरितियों में खपाता है और मतभेदों व विवादों के लिये धर्म को जिम्मेदार ठहराता है। 'नास्तिकता' के मुख्यतः यही कारण होते है।
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नास्तिकता परिभाषित ........
जवाब देंहटाएंbahut pate ki baat...saargarbhit lekh.
जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी, मुझे लगता है कि यह हमारे जींस से द्वारा निर्धारित होती है। जिस व्यक्ति में जैसे जींस डेवलप हो जाऍं, वह व्यक्ति चाहे अनचाहे वैसा ही बन जाता है।
जवाब देंहटाएंज़ाकिर साहब,
जवाब देंहटाएंआपने सही कहा, भौतिक रूप से जींस निर्धारित करता है, लेकिन जींस को कौन निर्देशित करता है, कदाचित जींस को कर्म-सत्ता ही एक्ट करती है। अर्थार्त कर्म, जिंस व डी एन ए के माध्यम से व्यवहार में आते है।
सुज्ञ जी ,
जवाब देंहटाएंये "स्वेछा" की जगह "स्वेच्छा" तो नहीं है ?
गौरव जी,
जवाब देंहटाएं"स्वेच्छा" ही है।:)
खुशी हुई आप बहुत ध्यान देते है, मित्र जो है।
आपकी पोस्ट एक दम परफेक्ट है [हमेशा की तरह ] पर ये टोपिक अपने भी फेवरेट है हम भी कुछ तो बोलेंगे :)
जवाब देंहटाएंगौरव जी,
जवाब देंहटाएंस्वागत है।
@जाकिर भाई
जवाब देंहटाएंये "जींस" तो फिर भी नयी खोज होगी एक पुरानी खोज है "सत्संग" और "इश्वर चर्चा"
"सत्संग" और "इश्वर चर्चा" प्रोटीन्स की कमी से भी "नास्तिकता" की बीमारी हो जाती है :))
और आजकल ये सभी बच्चों को बचपन में पर्याप्त मात्रा में नहीं पिलाया जाता है इससे नास्तिकता में तेजी से वृद्दि हुयी है
एक दूसरा कारण भी है सुज्ञ जी
जवाब देंहटाएंआपने वो विज्ञापन देखा है
जब वही सफेदी वही चमक .. कम दामों में मिले... तो तो कोई ये क्यों ले .... वो ना लें
शब्दार्थ"
"यहाँ सफेदी और चमक" = आधुनिक और प्रगतिशील कहलाने का मौका
"कम दामों" = बिना पढ़े और दोनों पक्षों को बिना समझे
"ये" = इश्वर में विश्वास
"वो" = विज्ञान में विश्वास [पूरा का पूरा ]
@सुज्ञ जी
जवाब देंहटाएंआप विनम्र हैं , धन्यवाद आपका ... आपने बोलने का मौका दिया
[पिछले कमेन्ट में "विज्ञान" की जगह "कथित विज्ञान" पढ़ें]
गौरव जी,
जवाब देंहटाएंएक दम परफेक्ट है यह विज्ञापन दृष्टांत!!
"कम दामों" = गहराई से चिंतन मनन किये बिना।
भी हो सकता है।
नास्तिकता के कारण सही बताए हैं. सहमत
जवाब देंहटाएं@सुज्ञ जी
जवाब देंहटाएंहाँ .... मैं इसी जगह थोडा सुधार चाहता था .... अभी इसी लाइन को देख कर सोच रहा था की कुछ कमी है [मेरे अनुसार]
और आपने भी एक दम सही शब्दों को चुना है ..आभारी हूँ :)
गौरव जी,
जवाब देंहटाएंविनम्रता तो कोई आपसे सीखे।
सच भी है, विनयवान के लिये ज्ञान का झरना कभी नहिं सूखता।
very nice post
जवाब देंहटाएं@ sugya ji aur gaurav ji ko bahut dhanyavaad
कामनैव मूलमिति प्राप्तम् ।
जवाब देंहटाएंokz
जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी अपने जो बेहतरीन शुरुवात की उसे गौरव जी ने अपनी बहुमूल्य टिप्पणियों से और भी रोचक बनाया. आप दोनों को धन्यवाद
जवाब देंहटाएंभाई जब भी मेरी कोई जरूरत पूरी नही होती मै नास्तिक हो जाता हु
जवाब देंहटाएंऔर पूरी होने पर आस्तिक
कर्म को धर्म मानने वाले ही असली आस्तिक है
बहुत अच्छा लिखा है...
जवाब देंहटाएंसुंदर परिभाषा।
जवाब देंहटाएंविलासी और पाखंडी धर्माचार्यों द्वारा जब जिज्ञासुओं की शंकाओं का समाधान नहीं हो पाता तब भी नास्तिकता वुजूद में आती है ।
जवाब देंहटाएंविलासी और पाखंडी धर्माभासी स्वयं नास्तिक ही होते है, उनसे तो कपट धर्म फैल्ता है।
जवाब देंहटाएंजिज्ञासुओं को उपदेशक के चरित्र की पहले ही गवेषणा कर देनी चाहिए।
स्थापित समाज को विखण्डित कर कुंठित नव समाज के प्रेरक (वर्ग-द्वेषी)भी यह नास्तिकता फ़ैलाते है।