25 नवंबर 2010

आहार स्रोत के विचारों का मनोवृति पर प्रभाव

स्वादेन्द्रीय के रास्ते आचार और विचारों में विकार

क्या इसतरह होना चाहिए…?

घर में हमेशा हमें बच्चों के सामने गालियों का प्रयोग करना चाहिये, ऐसे थोडा ही है कि बच्चे गालियां ही सीखेंगे? न भी सीखे और अच्छे शब्द ही अपनाए। या फ़िर उन्ही का अधिकार होना चाहिए वे क्या सीखें क्या बोलें।

 बच्चों के समक्ष ही टीवी पर थोडे बहुत अश्लील हिंसक फ़िल्म-कार्यक्रम देखने चाहिए, कोई देखने सुनने मात्र से थोडे ही ऐसी हरकते करने लगेंगे? और उन्हे क्या देखना क्या सुनना उनका अधिकार है जब बडे होंगे तो स्वतः ही निर्णय कर लेंगे क्या करना है और क्या नहीं, यह उनका अधिकार होना चाहिए।

नहीं ना?

फ़िर भला हिंसक कृत्यों व मंतव्यो से ही उत्पन्न, मांसाहार से मन में हिंसक विचारों का प्रस्फुटन क्यों नहीं हो सकता? यह तर्क निर्थक हो जाता है कि 'जरूरी नहीं मांसाहारी क्रूर प्रकृति के ही हों।' न भी हों, किन्तु  क्रूर प्रकृति के पनपने की संभावनाएं अधिक ही हो जाती है। विवेकशीलता इसी में है कि हमें परिणामो से पूर्व ही सम्भावनाओं से बचने के उपाय कर लेने चाहिए।

किसी जीव की हिंसा किये बिना मांस प्राप्त करना असंभव है। हिंसा से विरत हुए बिना अहिंसा-भाव को ह्रदय में जगाना असम्भव है, अतः अहिंसा-भाव के अभाव में,  दया, करूणा, प्रेम, अनुकम्पा, वात्सल्य दिखावे के शब्द मात्र रह जाते है। जीवों के प्रति करूणा लाए बिना, अहिंसा की मनोवृति प्रबल नहीं हो सकती। यह कुतर्क विषय से भ्रमित करने के लिए है कि 'पहले मानव के प्रति हिंसा समाप्त की जाय उसके बाद ही जानवरों पर दया के बारे में सोचा जाय।' मानव के साथ तो होने वाली हिंसाएं उसी के द्वेष और क्रोध का परिणाम होती है, और मानव के लिये द्वेष और क्रोध पर पूर्ण जीत हासिल करना आज तो सम्भव नहीं है। और निरिह निर्दोष जीव के साथ हमारे सम्बंध इस प्रकार क्रोध - द्वेष के साथ नहीं बिगडते, फ़िर इन निरपराधी ईश्वर की संतानों को क्यों दंड दिया जाय। अतः मै समझता हू मानव के कोमल भावों की अभिवृद्धि के लिये भी अहिंसा, जीवों से ही प्रारंभ की जानी चाहिए। वही विस्तृत होकर, परस्पर मानव सम्बंधो से भी क्रूरता दूर करने की प्रेरक बनती है। वस्तुतः समुचित अहिंसा के विचार ही हमें मानवों के प्रति भी सहिष्णु बनाते है। सर्वभूतों से सम्पूर्ण, सम्यक प्रेम ही, निष्पक्ष अहिंसा की मनोवृति को दृढ़भूत कर सकता है।


दृष्टांत :
जैसा अन्न वैसा मन, जैसा पाणी वैसी वाणी

15 टिप्‍पणियां:

  1. लोग तो सोचना भी पसंद नहीं करते इस बारे में.

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  2. sruj ji.bahut hi vicharwan post.jaisa hamara bhojan hoga waise hi hamare vichar hoge

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  3. बहुत सुंदर विचारों की बानगी है आलेख.... सहमत

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  4. इस विषय पर महावीर की शिक्षा अनुकरणीय है... किंतु बड़ी ही कठिन साधना है.. जिस दिन साध लिया, हिंसा समाप्त. वे प्रेम का पाठ पढाते हैं..कहते हैं इतना प्रेम करो जीव से कि उसको पहुँचने वाला कष्ट तुम स्वयम् अपने शरीर पर महसूस करो. और जिस दिन प्रेम की यह पराकाष्ठा प्राप्त हो गई, हिंसा समाप्त. अहिंसा का तो सिद्धांत ही भूल है, भ्रामक है.
    जो बात ही नकारात्मकता से प्रारम्भ हो वह सकारात्मक प्रवाह कैसे उत्पन्न कर सकती है...

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  5. सम्वेदना बंधु,

    @वे प्रेम का पाठ पढाते हैं..कहते हैं इतना प्रेम करो जीव से कि उसको पहुँचने वाला कष्ट तुम स्वयम् अपने शरीर पर महसूस करो.

    यह तथ्य कदाचित ओशो प्रेरित है, महावीर ने मोह को उपादेय नहिं बताया।

    @अहिंसा का तो सिद्धांत ही भूल है, भ्रामक है.

    अहिंसा के संदेश में कोई भ्रमणा नहिं, हिंसा से विरत हुए बिना करूणा(प्रेम)सम्भव ही नहिं।

    @नकारात्मकता से प्रारम्भ हो वह सकारात्मक प्रवाह कैसे उत्पन्न कर सकती है...

    तब तो सारा आध्यत्म ही नकारात्म कहा जायेगा,क्योंकि हर उपदेश नकारात्मक ही होता है, हर धर्म-दर्शन में। यही कि 'बुराई मत अपनाओ'

    ##मेरे ध्यान में तो यही आता है।

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  6. बात ओशो की ही कही है, महावीर के संदर्भ से... मुझसे भूल हुई... किंतु नकारात्मकता पर आधारित आध्यात्म (जैसा आपने कहा)कहाँ बदल पाया इंसान को इतने युगों में...
    मैंने शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया, पर जीवन का अध्ययन किया है. मेरे पिताजी ने सिगरेट पीने की मनाही कभी नहीं की हम चारों भाईयों को. सिर्फ इतना कहा कि मुझे अवश्य बता देना ताकि दूसरों से सुनकर बुरा न लगे... अब इतना साहस कहाँ कि जाकर कहूँ कि मैं सिगरेट पीने लगा हूँ,सुन लें आप!
    परिणाम हम कोई भाई सिगरेट नहीं पीते. मेरे घर में सारे मांसाहारी हैं, मुझे छोड़कर. आजन्म शाकाहारी हूँ. किसी ने मांसाहार के लाभ नहीं बताए और न बलप्रयोग ही किया.
    सकारात्मकता का अनुकरण करने के बाद ही लिखने का साहस कर पाया हूँ..

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  7. मैं सकारात्मकता विरोधी नहिं, लेकिन सकारात्मकता ही सदैव एक मात्र सफ़ल प्रयोग नहिं हो सकती। और नाकारात्मकता का योगदान नगण्य भी नहिं हो सकता।
    आध्यात्म साकारात्मक होता तो पूर्ण सफ़ल होता यह भी संशय है। क्योंकि आध्यात्म की सफलता भी आखिर तो मानव से ही है,और मानव मन किस करवट बैठेगा, रहस्य पाना मुस्किल है। नकारात्मकता को बलप्रयोग की तरह क्यों लिया जाय। 'सिगरेट न पीना' नाकारात्मक उपदेश होते हुए भी स्वास्थ्य के लिये साकारात्मक ध्येय की तरह लिया जाता है। बस कुछ वैसा ही।

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  8. सुज्ञ जी, आपको सदर प्रणाम, आपको पहली बार पढ़ा, अत्यंत खुशी हुई, सुन्दर लेखन के लिए आपका धन्यवाद.

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  9. @ हिंसक कृत्यों व मंतव्यो से ही उत्पन्न मांसाहार से हिंसक विचारों का मन में स्थापन भला क्यों न होगा? और फ़िर यह कहने का भला क्या तुक है कि यह जरूरी नहिं मांसाहारी क्रूर प्रकृति के ही हों। न भी हों पर संभावनाएं अधिक ही होती है। हमें तो परिणामो से पूर्व ही सम्भावनाओं से बचना है।

    # इसी बात को समझने से बचना चाहते हैं मांसाहार प्रेमी !!!

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  10. सकारत्मकता और नकारात्मकता दोनों बातें एक दूसरे के सापेक्षिक ही तो हैं? मार्क्स की थीसिस और एंटी थीसिस की तरह, शायद!
    नेति नेति नाम का तो एक उपनिषद ही है।

    चेतना के विकास के लिये यह द्वैत आवश्यक सा लगता है, और फिर एक रोज़ इस द्वैत का अतिक्रमण कर चेतना अद्वैत का अनुभव करती है।

    मूल बात तो रह ही गयी मेरे विचार से प्रेम कोई ऐसी चीज नहीं है जिसका प्रशिक्षण लेकर योजनाबद्ध काम किया जा सकें। बस मन को खोलना भर ही तो है, सम्वेदनाओं को और प्रगाणता से महसूसना और जीना है। किसी जीव की आंखों में यदि हमें किसी दिव्यता के दर्शन होने लगें तो सम्वेदंशील इंसान उसे मारकर खाने की कैसे सोचे सकेंगें,वह असम्भव न हो जायेगा?

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  11. चैतन्यजी व सलिल जी,

    आपने बडी सरलता से यह स्थापित करने में सहायता की, कि सकारत्मकता और नकारात्मकता दोनों ही सापेक्षिक है, आभार!!

    और 'प्रेम' को मोह क्वच से निकाल सम्वेदनाओं से करूणा की ओर परिभाषित कर दिया। यही करूणा हमें अहिंसक बनाती है। आपने कहा भी है," सम्वेदनाओं को और प्रगाढता से महसूसना और जीना है।"

    मनोमंथन में सहयोग के लिये आभार!! इसी तरह स्नेह रखें

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  12. हर चीज़ का अपना अपना महत्त्व है ... अपनी अपनी उपयोगिता ... अपने समाज पर हमेशा आक्रान्ताओं का हमला होता रहा ... उनसे हार हार कर आज बहुत सिमिट गए हैं इसका कारण कहीं म्हारी करुना ही तो नहीं .....

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  13. श्री नासवा जी,

    यह भ्रम भी उन्ही आक्रांताओं की ही देन है,
    भारतिय सदैव निति सहित ही झूंझते थे, पर आक्रांताओं की कोई निति नहिं आतंक ही था, यहीं से उनके अन्यायपूर्ण लडने को मांसाहार से जोडा।
    आध्यात्म में अहिंसा को पूर्ण महत्व देकर भी राजनिति में उसका किसी महापुरूष नें घालमेल नहिं किया। राजनैतिक युद्ध सदैव यहां युद्धनितियों से ही चले है। धर्म ने उस क्षेत्र को अलग ही रखा है।

    आक्रान्ताओं से हार का कारण, हमारे क्षेत्रिय स्वार्थ रहे है। फूट और छोटे छोटे राज्य। न कि करूणा॥

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  14. सुन्दर लेखन के लिए आपका धन्यवाद.

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