धर्म का असर दिखाई नहीं पडता।
(यहां धर्म से आशय, अच्छे गुणो की शिक्षा देने वाला धर्म, न कि कोई निश्चित रूढ उपासना पद्दति।)
एक व्यक्ति ने साधक से पूछा “ क्या कारण है कि आज धर्म का असर नहीं होता?”
साधक बोले- यहाँ से दिल्ली कितनी दूर है?, उसने कहा- दो सौ माईल।
“तुम जानते हो?” हां मै जानता हूँ।
क्या तुम अभी दिल्ली पहूँच गये?
पहूँचा कैसे?,अभी तो यहाँ चलूंगा तब पहुँचूंगा।
साधक बोले, यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है, दिल्ली तुम जानते हो, पर जब तक तुम उस और प्रस्थान नहीं करोगे तब तक दिल्ली नहीं पहुँच सकोगे। यही बात धर्म के लिये है। लोग धर्म को जानते है, पर जब तक उसके नियमों पर नहीं चलेंगे, उस और गति नहीं करेंगे, धर्म पा नहीं सकेंगे, अंगीकार किये बिना धर्म का असर कैसे होगा?
धर्म का प्रभाव नहीं पडता।
शिष्य गुरु के पास आकर बोला, गुरुजी हमेशा लोग प्रश्न करते है कि धर्म का असर क्यों नहीं होता,मेरे मन में भी यह प्रश्न चक्कर लगा रहा है।
गुरु समयज्ञ थे,बोले- वत्स! जाओ, एक घडा शराब ले आओ।
शिष्य शराब का नाम सुनते ही आवाक् रह गया। गुरू और शराब! वह सोचता ही रह गया। गुरू ने कहा सोचते क्या हो? जाओ एक घडा शराब ले आओ। वह गया और एक छलाछल भरा शराब का घडा ले आया। गुरु के समक्ष रख बोला-“आज्ञा का पालन कर लिया”
गुरु बोले – “यह सारी शराब पी लो” शिष्य अचंभित, गुरु ने कहा शिष्य! एक बात का ध्यान रखना, पीना पर शिघ्र कुल्ला थूक देना, गले के नीचे मत उतारना।
शिष्य ने वही किया, शराब मुंह में भरकर तत्काल थूक देता, देखते देखते घडा खाली हो गया। आकर कहा- “गुरुदेव घडा खाली हो गया”
“तुझे नशा आया या नहिं?” पूछा गुरु ने।
गुरुदेव! नशा तो बिल्कुल नहीं आया।
अरे शराब का पूरा घडा खाली कर गये और नशा नहीं चढा?
“गुरुदेव नशा तो तब आता जब शराब गले से नीचे उतरती, गले के नीचे तो एक बूंद भी नहीं गई फ़िर नशा कैसे चढता”
बस फिर धर्म को भी उपर उपर से जान लेते हो, गले के नीचे तो उतरता ही नहीं, व्यवहार में आता नहिं तो प्रभाव कैसे पडेगा।
पतन सहज ही हो जाता है, उत्थान बडा दुष्कर।, दोषयुक्त कर्म प्रयोग सहजता से हो जाता है,किन्तु सत्कर्म के लिए विशेष प्रयासों की आवश्यकता होती है।पुरुषार्थ की अपेक्षा रहती ही है। जिस प्रकार वस्त्र सहजता से फट तो सकता है पर वह सहजता से सिल नहीं सकता। बस उसी प्रकार हमारे दैनदिनी आवश्यकताओं में दूषित कार्य संयोग स्वतः सम्भव है, व उस कारण अधोपतन सहज ही हो जाता है, लेकिन चरित्र उत्थान व गुण निर्माण के लिये दृढ पुरुषार्थ की आवश्यकता रहती है।
(यहां धर्म से आशय, अच्छे गुणो की शिक्षा देने वाला धर्म, न कि कोई निश्चित रूढ उपासना पद्दति।)
एक व्यक्ति ने साधक से पूछा “ क्या कारण है कि आज धर्म का असर नहीं होता?”
साधक बोले- यहाँ से दिल्ली कितनी दूर है?, उसने कहा- दो सौ माईल।
“तुम जानते हो?” हां मै जानता हूँ।
क्या तुम अभी दिल्ली पहूँच गये?
पहूँचा कैसे?,अभी तो यहाँ चलूंगा तब पहुँचूंगा।
साधक बोले, यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है, दिल्ली तुम जानते हो, पर जब तक तुम उस और प्रस्थान नहीं करोगे तब तक दिल्ली नहीं पहुँच सकोगे। यही बात धर्म के लिये है। लोग धर्म को जानते है, पर जब तक उसके नियमों पर नहीं चलेंगे, उस और गति नहीं करेंगे, धर्म पा नहीं सकेंगे, अंगीकार किये बिना धर्म का असर कैसे होगा?
धर्म का प्रभाव नहीं पडता।
शिष्य गुरु के पास आकर बोला, गुरुजी हमेशा लोग प्रश्न करते है कि धर्म का असर क्यों नहीं होता,मेरे मन में भी यह प्रश्न चक्कर लगा रहा है।
गुरु समयज्ञ थे,बोले- वत्स! जाओ, एक घडा शराब ले आओ।
शिष्य शराब का नाम सुनते ही आवाक् रह गया। गुरू और शराब! वह सोचता ही रह गया। गुरू ने कहा सोचते क्या हो? जाओ एक घडा शराब ले आओ। वह गया और एक छलाछल भरा शराब का घडा ले आया। गुरु के समक्ष रख बोला-“आज्ञा का पालन कर लिया”
गुरु बोले – “यह सारी शराब पी लो” शिष्य अचंभित, गुरु ने कहा शिष्य! एक बात का ध्यान रखना, पीना पर शिघ्र कुल्ला थूक देना, गले के नीचे मत उतारना।
शिष्य ने वही किया, शराब मुंह में भरकर तत्काल थूक देता, देखते देखते घडा खाली हो गया। आकर कहा- “गुरुदेव घडा खाली हो गया”
“तुझे नशा आया या नहिं?” पूछा गुरु ने।
गुरुदेव! नशा तो बिल्कुल नहीं आया।
अरे शराब का पूरा घडा खाली कर गये और नशा नहीं चढा?
“गुरुदेव नशा तो तब आता जब शराब गले से नीचे उतरती, गले के नीचे तो एक बूंद भी नहीं गई फ़िर नशा कैसे चढता”
बस फिर धर्म को भी उपर उपर से जान लेते हो, गले के नीचे तो उतरता ही नहीं, व्यवहार में आता नहिं तो प्रभाव कैसे पडेगा।
पतन सहज ही हो जाता है, उत्थान बडा दुष्कर।, दोषयुक्त कर्म प्रयोग सहजता से हो जाता है,किन्तु सत्कर्म के लिए विशेष प्रयासों की आवश्यकता होती है।पुरुषार्थ की अपेक्षा रहती ही है। जिस प्रकार वस्त्र सहजता से फट तो सकता है पर वह सहजता से सिल नहीं सकता। बस उसी प्रकार हमारे दैनदिनी आवश्यकताओं में दूषित कार्य संयोग स्वतः सम्भव है, व उस कारण अधोपतन सहज ही हो जाता है, लेकिन चरित्र उत्थान व गुण निर्माण के लिये दृढ पुरुषार्थ की आवश्यकता रहती है।
बहुत अच्छी तरह से समझाया है आपने इस बात को।
जवाब देंहटाएंआभार।
बड़ी ही सरल भाषा में गूढ़ रहस्य को समझा दिया.
जवाब देंहटाएंबड़ी ही सरल भाषा में गूढ़ रहस्य को समझा दिया.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन...... जीवन दर्शन प्रस्तुत कर दिया आपने साधारण शब्दों में ..... आभार
जवाब देंहटाएंबात तो समझ में आ गई | पर धर्म को गले से उतरना थोडा मुश्किल है थोड़ी कड़वी होती है और जबान को मीठी चीजो की ज्यादा आदत होती है कड़वी चीज तो किसी को नहीं भाती है |
जवाब देंहटाएंमनोज कुमार जी
जवाब देंहटाएंभारतीय नागरिक जी
मोनिका जी
हमेशा की तर्ह प्रोत्साहन देने का आभार!!
(यहां धर्म से तात्पर्य अच्छे गुणो शिक्षा देने वाला, न कि निश्चित उपासना पद्दति।)
अंशुमाला जी,
जवाब देंहटाएंआपने सही कहा, गुण अंगीकार करने इतने सरल नहिं, यह दृष्टांत भी कदाचित इसीलिये प्रयोग हुए होंगे कि "धर्म का असर क्यों नहिं होता"
पतन सहज ही हो जाता है, उत्थान बडा दुष्कर।
(यहां धर्म से तात्पर्य अच्छे गुणो की शिक्षा देने वाला, न कि निश्चित रूढ उपासना पद्दति।)
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जवाब देंहटाएंपतन सहज ही हो जाता है, उत्थान बडा दुष्कर।....
bahut sundar baat kahi aapne sugya ji.
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वाह ...........गजब कि पोस्ट .......पिछले कुछ समय से मेरे मन में भी काफी प्रश्न उठ रहे थे लेकिन आपकी ये दो प्रेरणादायक कहानियां पढकर कई प्रश्नों का समाधान हुआ और एक दिशा भी प्राप्त हुई ....इसे सांझा करने के लिए आपका बहुत-२ धन्यवाद सुज्ञ जी
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