एक दार्शनिक जा रहा था। साथ में मित्र था। सामने से एक गाय आ रही थी, रस्सी गाय के बंधी हुई और गाय मालिक रस्सी थामे हुए। दार्शनिक ने देखा, साक्षात्कार किया और मित्र से प्रश्न किया- “बताओ ! गाय आदमी से बंधी है या आदमी गाय से बंधा हुआ है?” मित्र नें तत्काल उत्तर दिया “यह तो सीधी सी बात है, गाय को आदमी पकडे हुए है, अतः गाय ही आदमी से बंधी हुई है।
दार्शनिक बोला- यदि यह गाय रस्सी छुडाकर भाग जाए तो आदमी क्या करेगा? मित्र नें कहा- गाय को पकडने के लिये उसके पीछे दौडेगा। तब दार्शनिक ने पूछा- इस स्थिति में बताओ गाय आदमी से बंधी है या आदमी गाय से बंधा हुआ है? आदमी भाग जाए तो गाय उसके पीछे नहिं दौडेगी। जबकि गाय भागेगी तो आदमी अवश्य उसके पीछे अवश्य दौडेगा। तो बंधा हुआ कौन है? आदमी या गाय। वस्तुतः आदमी ही गाय के मोहपाश में बंधा है।
व्यवहार और चिंतन में यही भेद है।
मानव जब गहराई से चिंतन करता है तो भ्रम व यथार्थ में अन्तर स्पष्ठ होने लगता है।
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वाह...कितनी सच्ची बात कितने सरल अंदाज़ में समझाई है दार्शनिक ने...हम सभी गाय से बंधे हैं अब ये गाय घर हो पैसा हो जिंदगी हो...
जवाब देंहटाएंमानव जब गहराई से चिंतन करता है तो सत्य व भ्रम में अन्तर स्पष्ठ होने लगता है।सच है लेकिन चिंतन करे तब तो.
जवाब देंहटाएंगहराई से चिंतन करने को प्रेरित करती हुई पोस्ट !
जवाब देंहटाएंसच कहा गुरु देव..मान गए. आगे भी उम्मीद करते हैं इसी तरह का ज्ञान प्राप्त होता रहेगा.
जवाब देंहटाएंआभार.
हंसराज जी! जीवन का यथार्थ बताता एक दर्शन..किंतु कितने भटके इंसान इसे समझ नहीं पाते औरभ्रम में जीते हैं..
जवाब देंहटाएं@नीरज जी,
जवाब देंहटाएंसच कहा, हमें गुमान है कि सबको हमने बांध रखा है,पर हम ही मोह माया वश सबसे बंधे हुए है।
@मासूम साहब,
सच है, चिंतन करें तब ही।
@दिव्या जी,
जवाब देंहटाएंअन्तर में चैतन्य बिराजमान है,अवश्य चिंतन होगा।
@अनामिका जी,
गुरु नहिं, ज्ञानाभिलाषी हूं, (कहीं प्रवचनकार बाबा न मान लेना):-))
@सलिल जी,
जवाब देंहटाएंदुर्लभ होता है यथार्थ पा लेना, भ्रममोही के लिये तो दुष्कर!
"मानव जब गहराई से चिंतन करता है तो सत्य व भ्रम में अन्तर स्पष्ठ होने लगता है।"
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही-- धीरे-धीरे,चिंतन करते हुए सोच मं परिवर्तन संभव है...
जब तक आदमी है गाय से बंधा है जब दार्शनिक हो जाता है तो गाय बंध जाती है उससे...
सत्य है , फर्क है हमारे नजरिये में
जवाब देंहटाएंतर्कों की कोई सीमा है क्या ?
जवाब देंहटाएंbhie hum aur aap blog se jude hai ise tarah .
जवाब देंहटाएंबहुत गहन विचार प्रस्तुत किया है आपने। आभार। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
जवाब देंहटाएंविचार-श्री गुरुवे नमः
बहुत ही गहरी बात समझाई है……………उम्दा प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी
जवाब देंहटाएंबिल्कूल सही बात कहा है आप ने की असल में तो बंधन में हम है लेकिन ये बंधन हमी ने बाधे है और समस्या ये है कि हम में से ज्यादातर इससे मुक्त होना ही नहीं चाहते है |
अर्चना जी,
जवाब देंहटाएंअभिषेक जी,
राम त्यागी जी,
पूरविया जी,
मनोज जी,
वन्दना जी,
अंशुमाला जी,
आभार आपका, आपने सही चिंतन किया।
जब गाय से हमारे बंधे होने का अहसास होता है, चिंतन वहीं से शुरु होता है। बंधन में रहते हुए भी बंधन से निर्लेप भाव स्थापित होता है।
आप सभी का आभार।
राजभाषा हिंदी संचालक महोदय,
जवाब देंहटाएंहिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिये आपका प्रोत्साहन भी सराहनीय है!
ये छोटे-छोटे कथानक जीवन-सूत्र समेटे रहते हैं।
जवाब देंहटाएं..
जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी
मैंने जब इस 'बंधन' कथा को पढ़ा तब मन में आया कमेन्ट भाग गया. मैं उसे फिर पकड़कर लाया. लेकिन वो फिर भाग गया.
अब आप बताइये — मैं कमेन्ट से बंधा हूँ या फिर कमेन्ट मुझसे बँधा है?
कमेन्ट एक गाय है और मैं उस कमेन्ट-गाय को पकड़ने वाला दूधिया.
कमेन्ट में जो अर्थ रूपी दूध होता है उसे हम और आप पीते हैं.
दूधिया-धर्म कभी आप निभाते हो तो कभी मैं, तो कभी अन्य कमेन्ट-गाय पकड़ने वाले पाठक.
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आपने बहुत प्रेरणास्पद कथा सुनायी.
..
प्रेरणास्पद प्रस्तुति, आभार!
जवाब देंहटाएंबहुत गहरा चिंतन !
जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी,
जवाब देंहटाएंव्यवहार और चिंतन का भेद ही तो जीवन-पथ को आलोकित करता है !
अच्छी पोस्ट है !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
माया का चरित्र खोल कर रख दिया ... सत्य भी तो एक माया ही है ...
जवाब देंहटाएंगहन चिन्तन को सरल बोधकथा के माध्यम से बहुत सुन्दर ढंग से समझाया है। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंकुमार राधारमण
जवाब देंहटाएंअनुराग जी
वाणी गीत जी
ज्ञानचंद मर्मज्ञ जी
दिगम्बर नासवा जी
और,
निर्मला कपिला जी,
आभार आपका सराहना के लिये, आपकी प्रेरणा ही मेरी सही सोच को संबल देती है।