12 नवंबर 2010

सभ्यता अनुशासन : उपभोग संयम। (आहार संयम)

मानव को उर्ज़ा पाने के लिये भोजन करना आवश्यक है, और इसमें भी दो मत नहीं कि मनुष्य को जीवित रहने के लिये अन्य जीवों पर आश्रित रहना ही पडता है। लेकिन, सृष्टि का सबसे बुद्धिमान प्राणी होने के नाते, दूसरे जीवों के प्रति उत्तरदायित्व पूर्वक सोचना भी, मानव का ही कर्तव्य है। इसलिये मानव की यह जिम्मेदारी है कि वह अपना भोजन प्रबंध कुछ इस प्रकार करे कि, आहार की इच्छा होने से लेकर, ग्रहण करने तक, सृष्टि की जीवराशी कम से कम खर्च हो। हिंसा तो वनस्पतिजन्य आहार में भी सम्भव है, लेकिन इसका निहितार्थ यह नहीं कि जब सभी तरह के आहार में हिंसा है, तो जानबुझ कर सबसे क्रूरत्तम हिंसा ही अपनाई जाय। यह तो मूढ़ता ही है। यहाँ हमारा विवेक कहता है कि जितना हिंसा से बचा जा सकता है, सजगता से बचना चाहिये।

हमें यह नहीं भुलना चाहिए, कि एक समान दिखने वाले कांच और हीरे के मूल्य में अंतर होता है। और वह अंतर उनकी गुणवत्ता के आधार पर होता है। उसी प्रकार एक बकरे के जीव और एक केले के जीव के जीवन-मूल्य में भी अंतर तो है ही।

आहार का चुनाव करते समय हमें अपने विवेक को वैज्ञानिक अभिगम देना होगा। वैज्ञानिक दृष्टिकोण है कि प्रकृति में जीवन विकास, सुक्षम एकेन्द्रिय जीव से प्रारंभ होकर क्रमशः पंचेंद्रिय तक पहुँचा है। ऐसे में यदि हमारा आहार प्रबंध कम से कम विकसित जीवो (वनस्पति आदि एकेन्द्रिय जीव) की हिंसा से चल सकता है तो हमारा कोई अधिकार नहीं बनता कि हम उससे अधिक विकसित जीवों (पशु आदि) की अनावश्यक हिंसा करें। जैव विकास की दृष्टि से विकसित जीव ( पशु आदि) की हिंसा, प्रकृति के साथ जघन्य अपराध है।

प्रकृति का अघोषित विधान है कि संसाधनो का पूरी दक्षता से और विवेक पूर्वक उपभोग किया जाय। मानव के पास ही वह बुद्धिमत्ता है कि वह उपलब्ध संसाधनो का सर्वोत्तम नियमन प्रबंधन करे। अर्थात् अपरिहार्यता की दशा में भी कम से कम संसाधन खर्च कर सावधानी से अतिआवश्यक जरूरत पूरी कर ले।

जीव की इन्द्रियां उसके सुख दुख महसुस करने के माध्यम भी होती है, जो जीव जितनी भी इन्द्रियों की योगयता वाला है, उसे हिंसा के समय इतनी ही अधिक इन्द्रियों के माध्यम से पीडा पहुँचेगी, अर्थात् पांचो ही इन्द्रिय धारक जीव को अधिक पीडा पहुँचेगी जो मानव मन में क्रूर भावों की उत्पत्ती का कारण बनेगी।

मांस में केवल एक जीव का ही प्रश्न नहीं, जब जीव की मांस के लिये हत्या की जाती है, तो जान निकलते ही मक्खियां करोडों अंडे उस मुर्दे पर दे जाती है, पता नहीं जान निकलनें का एक क्षण में मक्खिओं को कैसे आभास हो जाता है, उसी क्षण से वह मांस मक्खिओं के लार्वा का भोजन बनना शुरू हो जाता है, जिंदा जीव के मुर्दे में परिवर्तित होते ही असंख्य सुक्ष्म जीव उस मुर्दा मांस में पैदा हो जाते है। और जहां यह तैयार होता है, वे बुचड्खाने व बाज़ार रोगाणुओं के घर होते है, स्पष्ठ है कि यह रोगाणु भी जीव ही होते है। यानि ताज़ा मांस के टुकडे पर ही लाखों मक्खी के अंडे, लाखों सुक्ष्म जीव और लाखों रोगाणु होते है। इतना ही नहीं पकने के बाद भी मांस में जीवोत्पती निरंतर जारी रहती है। इसलिये, एक जीव का मांस होने के उपरांत भी, संख्या के आधार पर एक मांस का लोथड़ा, उस पर निर्भर अनंत जीवहिंसा का कारण बनता है।

जीवन जीने की हर प्राणी में अदम्य इच्छा होती है, यहां तक कि कीट व जंतु भी कीटनाशक दवाओं के खिलाफ़ प्रतिकार शक्ति उत्पन्न कर लेते है। सुक्ष्म जीवाणु-रोगाणु भी कुछ समय बाद रोगप्रतिरोधक दवाओं के विरुद्ध जीवन बचाने के तरीके खोज लेते है। यह उनके जीनें की अदम्य जीजिविषा का परिणाम होता है, सभी जीना चाह्ते है मरना कोई नहीं चाहता। फिर प्राण बचाने को संघर्षरत पशुओं को मात्र स्वाद के खातिर मार खाना तो क्रूरता की पराकाष्ठा है।

येन केन पेट भरना ही मानव का लक्षय नहीं है। यह तो पशुओं का लक्षण है। प्रकृति प्रदत्त बुद्धि से ही हमने सभ्यता साधी। यही बुद्धि हमें विवेकशीलता प्रदान करती है, कि हमारे विचार और व्यवहार सौम्य व पवित्र बने रहे। हिंसाजन्य आहार लेने से, हिंसा के प्रति सम्वेदनाएं समाप्तप्राय हो जाती है। किसी दूसरे जीव के प्रति दया करूणा के भाव नष्ट हो जाते है। इस तरह अनावश्यक हिंसा-भाव मन में रूढ हो जाता है, जो अनजाने ही हमारे आचरण में क्रूरता समाहित कर देता है। ऐसी मनोवृति में, जरा सी प्रतिकूलता उपस्थित होनें पर, आवेश आना सामान्य है। ऐसी ही मनोदशा में हिंसक कृत्य होना भी सम्भव है। आहार इसी तरह पहले हमारे विचारों को और फिर हमारे आचरण को प्रभावित करता है।

निष्कर्ष यही है कि हमारी सम्वेदनाओं और अनुकंपा भाव की रक्षा के लिये, हमारे विचार और वर्तन को विशुद्ध रखनें के लिये, शाकाहार ही हमारी पसंद होना चाहिए। और जहां तक और जब तक, हमें सात्विक संतुलित पौष्ठिक शाकाहार, प्रचूरता से उपलब्ध हो, वहां तो हमें जीवों को करूणा दान, अभयदान दे ही देना चाहिए। यही मानवता के लिए श्रेयस्कर है।

अन्य सूत्र : पर्यावरण का अहिंसा से सीधा सम्बंध

13 टिप्‍पणियां:

  1. हम तो पहले से ही शाकाहारी हैं... बड़े बड़े लोगों ने डिगाने की कोशिश की, लेकिन डिगे नहीं...

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  2. मैं भी शाकाहार के पक्ष में हूँ। "जैसा खाए अन्न , वैसा बने मन "

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  3. ..जान निकलते ही मक्खियां करोडों अंडे उस मुर्दे पर दे जाती है, पता नहीं जान निकलनें का एक क्षण में मक्खिओं को कैसे आभास हो जाता है, उसी क्षण से वह मांस मक्खिओं के लार्वा का भोजन बनता है, जिंदा जीव के मुर्दे में परिवर्तित होते ही असंख्य सुक्ष्म जीव उस मुर्दा मांस में पैदा हो जाते है। और जहां यह तैयार होता है, वे बुचड्खाने व बाज़ार रोगाणुओं के घर होते है, और यह रोगाणु भी जीव ही होते है। यनि ताज़ा मांस के टुकडे पर ही हज़ारों मक्खी के अंडे, हज़ारो सुक्ष्म जीव और हज़ारों रोगाणु होते है। इतना ही नहिं पकने के बाद भी मांस में जीवोत्पती निरंतर जारी रहती है..
    ...भयावह दृष्य।

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  4. भारतीय नागरिक जी,
    संगीताजी दीदी,
    दिव्या जी,
    सात्विक शाकाहार के आधार पर अहिंसा को प्रोत्साहन देने के लिये आभार।

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  5. देवेन्द्र पाण्डेय जी,

    अहिंसा के भाव को स्पर्श करने का आभार।

    भयावह ही नहिं जगुप्सा प्रेरक है यह, एक जीव के साथ ही अनंत जीवों के प्रति ह्रदय में करूणा उत्पन्न होती है।

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  6. कुछ लोग खाने के लिए ही जीते हैं, जबकि कुछ लोग जीने के लिए खाते हैं। दूसरे तरह के लोग निश्चय ही चुनाव कर आहार ग्रहण करते हैं।

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  7. आज ही मैने किसी ब्लोग पर पढा……

    "इन लोगों का कलिमा यह है -जीव को मारना पाप है और जीव की रक्षा करना पुण्य है।
    killing a sensation is sin and vice versa .
    यह एक मनघड़त कल्पना है। इसकी कोई बुनियाद न तो प्रकृति के नियमों में है और न विज्ञान की दरयाफ़्तों में। यह नज़रिया पूरी तरह एक अप्राकृतिक नज़रिया है।"

    ॰॰॰जीवों को बचाना अप्राकृतिक है? फ़िर प्राकृतिक रूप से तो मानव मानव को ही मार कर खा जाता था, वह अधिक प्राकृतिक था? वाह रे बुद्दि का दिवाला!!! अब समझे हिंसा की विचारधारा कहाँ से प्रकट होती है। और क्या परिणाम लाती है।

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  8. जी आपकी इस पोस्ट का हर शब्द शुरू से लेकर आखिरी तक शांत मन से पढ़ा...... समझा... कमाल का विषय चयन आज की असंवेदनशील ज़िन्दगी में आहार के विषय में यह सार्थक जानकारी ज़रूरी है...... बहुत ख़ुशी है इस बात की कि मैं शुद्ध शाकाहारी हूँ.......

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  9. क्या करे कुछ खाने के लिए जीते है
    फलो और शाकाहार से इनका मन तो भरता नही इसलिए
    अपने स्वाद के लिए निरीह जानवरों की हत्या कर रहे है

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  10. डॉ॰ मोनिका जी शर्मा,
    जीवों के प्रति अनुकम्पा का भाव ही अहिंसा का आधार है, अहिंसा आहार से ही प्रारंभ होती है,और आहार हमारी प्रथम और आवश्यक जरूरत। इसलिये अहिंसक गुण भी आहार से ही प्रारंभ होता है।

    इस लिये जीवदया सहित आहार ग्रहण करना हमारा विवेक है। शाकाहारी रहकर आप जाने- अनजाने ही असंख्य जीवों को अभयदान दे चुके है, दे रहे है और देंगे भी।
    मैं नमन करता हूँ इस सात्विक भाव को।

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  11. सच है तभी तो कहा है ... जैसा आहार .... वैसा व्यवहार ... बहुत स्पष्ट विवेचना करती पोस्ट ...

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  12. जी नासवा जी,

    यहां तक कि जैसा अन्न वैसा मन। यदि अनिति से अर्जित अन्न का प्रयोग करने मात्र से मन प्रभावित हो सकता है तो क्रूरता से उत्पन्न अभक्ष्य से क्रूर विचारधारा सम्भव क्यों नहिं।

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