समता, सज्जनता, सदाचार, सुविज्ञता और सम्पन्नता। निश्चित ही यह उत्तम गुण है, बस इनका प्रदर्शन ही पाखंड है। ऐसे पाखण्ड वस्तुत: व्यक्तिगत दोष है, पर बदनाम धर्म को किया जाता है। मात्र इसलिये कि इन गुणों की शिक्षा धर्म देता है।
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bahut achhi prastuti
जवाब देंहटाएं@सुज्ञ जी
जवाब देंहटाएंएक जिज्ञासा है ....
ये गुण बिना दिखे कैसे रह सकते हैं ?? और दिखे तो वो प्रदर्शन कहलायेगा
sahi baat hai .
जवाब देंहटाएंगौरव जी,
जवाब देंहटाएं॰ये गुण बिना दिखे कैसे रह सकते हैं ??
गुण दिखाने की वस्तु है ही नहिं, जिस किसी के पास है, वह तो प्रचार नहिं(पता भी न चलने का प्रयास) करेगा।
और जो, जिस किसी में देखता है, यदि देखने वाला गुणग्राही है,तो चुप-चाप ग्रहण करेगा, दिखावे का अवसर ही न आने देगा। लेकिन कोई उसमें पाखण्ड ढूंढने का प्रयास कर सकता है, पर इस तरह की निंदा से सत्य को कोई खतरा नहिं।
@लेकिन कोई उसमें पाखण्ड ढूंढने का प्रयास कर सकता है, पर इस तरह की निंदा से सत्य को कोई खतरा नहिं।
जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी,
आपकी इस अंतिम पंक्ति ने निरुत्तर कर दिया मुझे, मैं यही सोच रहा था
गौरव जी,
जवाब देंहटाएंधन्यवाद, प्रत्युत्तर देकर मैं सोच रहा था, स्पष्ठ नहिं हो पाया हूं।
लेकिन आपकी परख बुद्धि नें भाव जान लिया। आभार आसानियां बनाने के लिये।
@सुज्ञ जी
जवाब देंहटाएंमित्रों की आपसी समझ [understanding ] है , आपके कही बात पर पूरी श्रद्दा और पूरा विश्वास था ... है .. और रहेगा
"पूर्वाग्रह मानव की दूरदृष्टि का शत्रु है और सच्ची मित्रता पूर्वाग्रह की शत्रु है"
जवाब देंहटाएंअभी अभी बनाया है
गौरव जी,
जवाब देंहटाएंभई मानना पडेगा।
"पूर्वाग्रह मानव की दूरदृष्टि का शत्रु है और सच्ची मित्रता पूर्वाग्रह की शत्रु है"
सुक्ति सार्थक बन पडी है, आपको ज्ञानी कह दिखावे में नहिं डालना चाहता।:)
@ज्ञानी कह दिखावे में नहिं डालना चाहता।:)
जवाब देंहटाएंहाँ ... इसी बात का डर था ... आपने दूर कर दिया , हैं ना मित्रों की आपसी समझ ? :)
एक बात जानना चाहती हूँ----"इन गुणों की शिक्षा धर्म देता है"... या इन गुणों से धर्म बनता/उपजता है ....
जवाब देंहटाएंसुज्ञ भाई, गागर में सागर सा भर लाए आप। बधाई।
जवाब देंहटाएंअर्चना जी,
जवाब देंहटाएंगुणों को आधार बना कर धर्म के प्रस्तोता तो गुणीजन महापुरूष ही है।
लेकिन हम साधारण मनुष्यों तक उसे धर्म (धर्म शास्त्र) ही पहूंचाता है।
अन्यथा हमें गुणो अवगुणों का भेद कैसे पता चलता।
धर्म को हमनें ही बनाया,यह अहंकारी शब्द कहने वाले भूल जाते है,उनके सामर्थ्य की बात नहिं, इतना सार इतना निचोड कोई सर्वज्ञ ही दे सकता हैं।
@सुज्ञ जी,आभार...
जवाब देंहटाएं.मै ये भी जानना चाहती थी कि जहाँ ये गुण है क्या वहाँ धर्म होगा?
निश्चित रूप से गुणों/अवगुणों का भेद हम तक धर्मशास्त्रों द्वारा ही पहुँचता है...
किसी भी व्यक्ति द्वारा किसी भी बात के लिए धर्म को दोष देना उसका व्यक्तिगत दोष है |
जवाब देंहटाएंअर्चना जी,
जवाब देंहटाएं@मै ये भी जानना चाहती थी कि जहाँ ये गुण है क्या वहाँ धर्म होगा?
बिलकुल गुण ही धर्म होता है, गुणों से अलग कोई धर्म नहिं। अर्थार्त वे गुण ही धर्म कहलाते है।
अन्शुमाला जी,
जवाब देंहटाएं@किसी भी व्यक्ति द्वारा किसी भी बात के लिए धर्म को दोष देना उसका व्यक्तिगत दोष है|
बिल्कुल, दोषी ही अपने दोष के लिये अन्यत्र कारण ढूंढते है। और धर्म एक सोफ़्ट टार्गेट है।
आप की तर्क शक्ति कमाल की है.
जवाब देंहटाएंNice Post...
जवाब देंहटाएं@सुज्ञ जी,बिलकुल सहमत हूँ...
जवाब देंहटाएं"गुण ही धर्म होता है, गुणों से अलग कोई धर्म नहिं। अर्थार्त वे गुण ही धर्म कहलाते है।"
...जी....अब यदि गुण ही धर्म है, तो इनका(गुणों का) प्रदर्शन होने पर धर्म क्यों बदनाम है?अगर प्रदर्शन होता है, तब तो उत्तम गुण ही दुर्गुणों मे परिवर्तित हो चुके होते है ...यानि धर्म--अधर्म में---
सुज्ञ जी ... सही धर्म अब नहीं रहा ... जिसे पालन किया जा रहा है अगर हम उसे धर्म मान लेते हैं तो ऐसा धर्म न होना अच्छा है ...
जवाब देंहटाएंअब यदि गुण ही धर्म है, तो इनका(गुणों का) प्रदर्शन होने पर धर्म क्यों बदनाम है?अगर प्रदर्शन होता है, तब तो उत्तम गुण ही दुर्गुणों मे परिवर्तित हो चुके होते है ...यानि धर्म--अधर्म में---
जवाब देंहटाएंअर्चना जी,
॰॰॰ एक बार अब पुनः लेख पर दृष्टी करें, यही तो कहा गया है…
गुणों व अवगुणों का आरोहण व्यक्ति में होता, दुर्गुण अपना कर कोई अधर्म(पाखण्ड) करे, तो जो धर्म गुणों का प्रस्तूतकर्ता है,वह तो गुण ही प्रस्तूत करेगा। वह बदल कर अवगुणों का प्रस्तावक नहिं हो जायेगा।
अब कोई उन्ही धर्म-उपदेशों को विपरित ग्रहण करे, और कहे यह तो उल्टा चलना मैने धर्म से सीखा। इसलिये धर्म ही अधर्म का संकेतक है?
दुर्गुणों का अनुसरण व्यक्ति करे, और बदनाम धर्म को करे? जब विपरितार्थ करता है धर्म बदनाम होता है।
इन्द्रनील जी,
जवाब देंहटाएंक्यों माने हम आज-कल के पाखण्ड को धर्म,पर हमारे शरीर पर यदि गन्दगी लग जाय तो हम हमारे शरीर को ही नहिं फ़ैक देते,हम पुन: शरीर स्वच्छ करने है। वास्त्विक सत्य धर्म की रक्षा कर उसे शुद्ध करने की आवश्यकता है।
क्या बात है सुज्ञ जी ! वाह !
जवाब देंहटाएं@सुज्ञ जी,अभार!
जवाब देंहटाएंकॄपया ये भी बताएं कि क्या इन गुणों का आपस में कोई सम्बन्ध है?
अर्चना जी,
जवाब देंहटाएंसभी गु्ण एक ही लक्षय के विस्तार है, लक्षय है मानव जीवन को सौम्य सरल व सभ्य बनाना, मानव को मानव तक ही नहिं सर्वजग जीव हितेषी बनाना। अर्थार्त अहिंसक जीवन।
@सुज्ञ जी,
जवाब देंहटाएंधन्यवाद...
उपसंहार…।
जवाब देंहटाएंअर्चना जी,गौरव जी के साथ यह अमूल्य चर्चा हुई। मैने अपने सामर्थ्य अनुसार उत्तर देने का मात्र प्रयास किया है, फ़िर भी सर्वज्ञों के मंतव्य के विरुद्ध कोई स्थापना हुई हो तो क्षमा प्रार्थी हूँ।
दीपावली के इस पावन पर्व पर आप सभी को सहृदय ढेर सारी शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएं~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
जवाब देंहटाएंआपको, आपके परिवार और सभी पाठकों को दीपावली की ढेर सारी शुभकामनाएं ....
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बहुत सुंदर विचार दिवाली की शुभकामनाये आपको ....
जवाब देंहटाएंवाह अति सुंदर विचार, सहमत हे जी आप की बात से, लेकिन आज हो ऎसा ही रहा हे, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंआपको और आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामाएं आपको और आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामाएं !!!
दीपावली के इस शुभ बेला में माता महालक्ष्मी आप पर कृपा करें और आपके सुख-समृद्धि-धन-धान्य-मान-सम्मान में वृद्धि प्रदान करें!
जवाब देंहटाएं"गागर में सागर "
जवाब देंहटाएंक्या बात है
http://blondmedia.blogspot.com/2010/11/blog-post.html
सुंदर विचार,दिवाली की शुभकामनाये
जवाब देंहटाएंआपको और आपके परिवार को एक सुन्दर, शांतिमय और सुरक्षित दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंनववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंआपने "धर्म, पाखण्ड और व्यक्ति" पर जितना अच्छा विचार प्रस्तुत किया है, उतनी ही अच्छी प्रतिक्रियाएँ भी आ गयीं... प्रतिक्रियाएँ क्या वे तो पूरी-की-पूरी ‘परिचर्चा’ का-सा रूप धारण किये दिखायी दे रही हैं यहाँ... वाह...! बधाई, सुज्ञ जी आपके ‘सु+ज्ञान’ के लिए!
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएं प्रेषित करने वाले बंधुओं का आभार!
जवाब देंहटाएंएवं नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं
जितेन्द्र ज़ी,
जवाब देंहटाएंमित्रों की सहायता से सार्थक परिचर्चा सम्भव होती है। आप सभी का आभार।
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जवाब देंहटाएंचिंतन से मेरी भी कुछ परिभाषायें बाहर निकल कर आयी हैं, जिसे शीघ्र पोस्ट रूप भी दूँगा :
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क्षुद्रताओं को छिपाकर [दबाकर] रखना "शिष्टता" है, उन्हें उजागर न होने देना "सभ्यता" है और उन्हें भीतर ही भीतर समाप्त करते रहना "संस्कृत" होते जाना है.
क्षुद्रताओं का छिपे रूप से पोषण करना "वंचकता" है, उन्हें वहीं सड़ते रहने देना व किसी अन्य की दृष्टि का भाजन बनना "धूर्तता" है और स्वयं स्पष्टीकरण करते हुए उनमें लिप्त रहना "उच्छृंखलता" कहा जाएगा.
क्षुद्रताओं की स्वयं द्वारा सहज स्वीकृति "सज्जनता" है, किन्तु परिमार्जन का भाव उसकी अनिवार्यता है अन्यथा वह "यशलोलुपतापूर्ण स्पष्टवादिता" कहलायेगी.
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