मांसाहारी प्रचारक:- हिन्दू मत अन्य धर्मों से प्रभावित
“हालाँकि हिन्दू धर्म ग्रन्थ अपने मानने वालों को मांसाहार की अनुमति देते हैं, फिर भी बहुत से हिन्दुओं ने शाकाहारी व्यवस्था अपना ली, क्यूंकि वे जैन जैसे धर्मों से प्रभावित हो गए थे.”
प्रत्युत्तर : वैदिक मत प्रारम्भ से ही अहिंसक और शाकाहारी रहा है, यह देखिए-
य आमं मांसमदन्ति पौरूषेयं च ये क्रवि: !
गर्भान खादन्ति केशवास्तानितो नाशयामसि !! (अथर्ववेद- 8:6:23)
-जो कच्चा माँस खाते हैं, जो मनुष्यों द्वारा पकाया हुआ माँस खाते हैं, जो गर्भ रूप अंडों का सेवन करते हैं, उन के इस दुष्ट व्यसन का नाश करो !
अघ्न्या यजमानस्य पशून्पाहि (यजुर्वेद-1:1)
-हे मनुष्यों ! पशु अघ्न्य हैं – कभी न मारने योग्य, पशुओं की रक्षा करो |
अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राणभृतां वरः। (आदिपर्व- 11:13)
-किसी भी प्राणी को न मारना ही परमधर्म है ।
सुरां मत्स्यान्मधु मांसमासवकृसरौदनम् ।
धूर्तैः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद् वेदेषु कल्पितम् ॥ (शान्तिपर्व- 265:9)
-सुरा, मछली, मद्य, मांस, आसव, कृसरा आदि भोजन, धूर्त प्रवर्तित है जिन्होनें ऐसे अखाद्य को वेदों में कल्पित कर दिया है।
अनुमंता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
संस्कर्त्ता चोपहर्त्ता च खादकश्चेति घातका: ॥ (मनुस्मृति- 5:51)
इस सच्चाई को जानने के बाद जैन-मार्ग से प्रभावित मानने का प्रश्न ही नहीं उठता। हां, कभी बाद में प्रवर्तित यज्ञों में पशुबलि रूप कुरीति का विरोध अवश्य जैन मत या बौद्ध मत नें किया होगा, लेकिन वह कुरीति का मात्र परिमार्जन था, वह अपने ही सिद्धान्तों का जीर्णोद्धार था। फिर भी अगर प्रभावित भी हुआ हो तो इसमें बुरा क्या है? विकार और संस्कार का चक्र तो गतिमान रहता ही है। सुसंस्कृति किसी भी विचार के संसर्ग से और भी प्रगाढ होती है तो यह उत्कर्ष है। सर्वे भवन्तु सु्खिनः सूक्त के लिए धर्म का मूल ही अहिंसा है। अहिंसा में कमी बेसी आने पर पुनः अहिंसा की ओर लौटना सिद्धांतोद्धार है।
मांसाहारी प्रचारक:- - पेड़ पौधों में भी जीवन
“कुछ धर्मों ने शुद्ध शाकाहार अपना लिया क्यूंकि वे पूर्णरूप से जीव-हत्या से विरुद्ध है. अतीत में लोगों का विचार था कि पौधों में जीवन नहीं होता. आज यह विश्वव्यापी सत्य है कि पौधों में भी जीवन होता है. अतः जीव हत्या के सम्बन्ध में उनका तर्क शुद्ध शाकाहारी होकर भी पूरा नहीं होता.”
प्रत्युत्तर : अतीत में ऐसी किन 'ज़ाहिल' सभ्यताओं का मानना था कि पेड़-पौधो में जीवन नहीं है? आर्यावर्त में तो सभ्यता युगारम्भ में ही पुख्त बन चुकी थी, अहिंसा में आस्था रखने वाली आर्य सभ्यता तो आदिअकाल से ही न केवल वनस्पति में बल्कि पृथ्वी, वायु, जल और अग्नी में भी जीवन को प्रमाणित कर चुकी थी। जबकि विज्ञान को अभी वहां तक पहुंचना शेष है। अहिंसा की अवधारणा, हिंसा को न्यून से न्यूनत्तम, सुक्ष्म से सुक्ष्मतर करने की है और उस अवधारणा के लिए शाकाहार ही श्रेष्ठ माध्यम है।
मांसाहारी प्रचारक:- - पौधों को भी पीड़ा होती है
“वे आगे तर्क देते हैं कि पौधों को पीड़ा महसूस नहीं होती, अतः पौधों को मारना जानवरों को मारने की अपेक्षा कम अपराध है. आज विज्ञान कहता है कि पौधे भी पीड़ा महसूस करते हैं …………अमेरिका के एक किसान ने एक मशीन का अविष्कार किया जो पौधे की चीख को ऊँची आवाज़ में परिवर्तित करती है जिसे मनुष्य सुन सकता है. जब कभी पौधे पानी के लिए चिल्लाते तो उस किसान को तुंरत ज्ञान हो जाता था. वर्तमान के अध्ययन इस तथ्य को उजागर करते है कि पौधे भी पीड़ा, दुःख-सुख का अनुभव करते हैं और वे चिल्लाते भी हैं.”
प्रत्युत्तर : हाँ, उसके उपरांत भी बडी हिंसा की तुलना सूक्ष्म हिंसा कम अपराध ही है, इसी में अहिंसक मूल्यों की सुरक्षा है। एक उदा्हरण से समझें- यदि प्रशासन को कोई मार्ग चौडा करना हो, उस मार्ग के एक तरफ विराट निर्माण बने हुए हो, जबकि दूसरी तरफ छोटे साधारण छप्परनुमा अवशेष हो तो प्रशासन किस तरफ के निर्माण को ढआएगा? निश्चित ही वे साधारण व कम व्यय के निर्माण को ही हटाएंगे। जीवन के विकासक्रम की दृष्टि से अविकसित या अल्पविकसित जीवन की तुलना में अधिक विकसित जीवों को मारना बड़ा अपराध है। रही बात पीड़ा की तो, अगर जीवन है तो पीडा तो होगी ही, वनस्पति जीवन को तो छूने मात्र से उन्हे मरणान्तक पीडा होती है। लेकिन यहां उनकी पीडा से भी अधिक जरूरी है अपनी सम्वेदनशीलता को बचाए रखना, अनुकम्पा महसुस करना। दूसरों की पीडा पर करूणा भाव को सुरक्षित रखना। यदि तडपते पशु को देख सम्वेदनाओं को पहुँचती चोट पहुचती है। इसे समझने के लिए एक उदाहरण है,जैसे अगर किसी कारण से बालक की गर्भाधान के समय ही मृत्यु हो जाय, पूरे माह पर मृत्यु हो जाय, जन्म लेकर मृत्यु हो, किशोर अवस्था में मृत्यु हो, जवान हो्कर मृत्यु हो या शादी के बाद मृत्यु हो। कहिए किस मृत्यु पर हमें अधिक दुख होगा? निश्चित ही अधिक विकसित होने पर दुख अधिक ही होगा। छोटे से बडे में क्रमशः हमारे दुख व पीडा महसुस करने में अधिकता आएगी। क्योंकि इसका सम्बंध हमारे भाव से है। जितना दुख ज्यादा, उसे मारने के लिए इतने ही अधिक क्रूर भाव की जरूरत रहती है। अविकसित से पूर्ण विकसित जीवन की हिंसा करने पर क्रूर भाव का स्तर बढता जाता है। बडे पशु की हिंसा के समय अधिक असम्वेदनशीलता की आवश्यकता रहती है, अधिक विकृत व क्रूर भाव चाहिए। इसलिए बार बार तडपते, प्राणहीन होते जीव की पीड़ा से हमारी सम्वेदनाएं कहीं अधिक कुंद होती है, मर जाती है। इसलिए सवाल हमारी मरती सम्वेदनाओं का है और उसकी जगह लेती क्रूरता का है।
मांसाहारी प्रचारक:- - दो इन्द्रियों से वंचित प्राणी की हत्या कम अपराध नहीं !!!
“एक बार एक शाकाहारी ने तर्क दिया कि पौधों में दो अथवा तीन इन्द्रियाँ होती है जबकि जानवरों में पॉँच होती हैं| अतः पौधों की हत्या जानवरों की हत्या के मुक़ाबले छोटा अपराध है.”
"कल्पना करें कि अगर आप का भाई पैदाईशी गूंगा और बहरा है, दुसरे मनुष्य के मुक़ाबले उनमें दो इन्द्रियाँ कम हैं. वह जवान होता है और कोई उसकी हत्या कर देता है तो क्या आप न्यायधीश से कहेंगे कि वह हत्या करने वाले (दोषी) को कम दंड दें क्यूंकि आपके भाई की दो इन्द्रियाँ कम हैं. वास्तव में आप ऐसा नहीं कहेंगे. वास्तव में आपको यह कहना चाहिए उस अपराधी ने एक निर्दोष की हत्या की है और न्यायधीश को उसे कड़ी से कड़ी सज़ा देनी चाहिए."
प्रत्युत्तर : एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय को समझना आपके बूते से बाहर की बात है, क्योकि आपके उदाहरण से ही लग रहा है कि उसे समझने की न तो आपमें दृष्टि है न वह सामर्थ्य। किसी भी पंचेन्द्रिय प्राणी में, एक दो या तीन इन्द्रिय कम होने से, वह चौरेन्द्रिय,तेइन्द्रिय,या बेइन्द्रिय नहीं हो जाता, रहेगा वह पंचेन्द्रिय ही। वह विकलांग (अपूर्ण इन्द्रिय) तो माना जा सकता है, किन्तु पाँचो इन्द्रिय धारण करने की योग्यता वाला जीव पंचेन्द्रिय ही रहता है। उसके मात्र इन्द्रिय अव्यव सक्रीय नहीं, इन्द्रिय शक्ति व सामर्थ्य विद्यमान रहता है। जीव के एकेन्द्रीय से पंचेन्द्रीय श्रेणी का आधार, उसके इन्द्रिय अव्यव नहीं बल्कि उसकी इन्द्रिय शक्तियाँ है। नाक कान आदि तो उपकरण है, शक्तियाँ तो आत्मिक है।और रही बात सहानुभूति की तो निश्चित ही विकलांग के प्रति सहानुभूति अधिक ही होगी। अधिक कम क्या, दया और करूणा तो प्रत्येक जीव मात्र के प्रति होनी चाहिए, किन्तु व्यवहार का यथार्थ उपर दिए गये पीड़ा व दुख के उदाहरण से स्पष्ट है। भारतीय संसकृति में अभयदान देय है, न्यायाधीश बनकर सजा देना लक्ष्य नहीं है। क्षमा को यहां वीरों का गहना कहा जाता है, भारतिय संसकृति को यूँ ही उदार व सहिष्णुता की उपमाएं नहीं मिल गई। विवेक यहाँ साफ कहता है कि अधिक इन्द्रीय समर्थ जीव की हत्या, अधिक क्रूर होगी।
आपको तो आपके ही उदाह्रण से समझ आ सकता है………
कल्पना करें कि अगर आप का भाई पैदाईशी गूंगा और बहरा है, आप के दूसरे भाई के मुक़ाबले उनमें दो इन्द्रियाँ कम हैं। वह जवान होता है, और वह किसी आरोप में फांसी की सजा पाता है ।तो क्या आप न्यायधीश से कहेंगे कि वह उस भाई को छोड दें, क्यूंकि इसकी दो इन्द्रियाँ कम हैं, और वह सज़ा-ए-फांसी की पीड़ा को महसुस तो करेगा पर चिल्ला कर अभिव्यक्त नहीं कर सकता, इसलिए यह फांसी उसके बदले, इस दूसरे भाई को दे दें जिसकी सभी इन्द्रियाँ परिपूर्ण हैं, यह मर्मान्तक जोर से चिल्लाएगा, तडपेगा, स्वयं की तड़प देख, करूण रुदन करेगा, इसे ही मृत्यु दंड़ दिया जाय। क्या आप ऐसा करेंगे? किन्तु वास्तव में आप ऐसा नहीं कहेंगे। क्योंकि आप तो समझदार(?) जो है। ठीक उसी तरह वनस्पति के होते हुए भी बड़े पशु की घात कर मांसाहार करना बड़ा अपराध है।
यह एक यथार्थ है कि हिंसा तो वनस्पति के आहार में भी है। किन्तु विवेक यह कहता है कि जितना हिंसा से बचा जाये, बचना चाहिये। न्यून से न्यूनतम हिंसा का विवेक रखना ही मानवीय जीवन मूल्य है। वनस्पति आदि सुक्ष्म को आहार बनाने के समय हमें क्रूर व निष्ठुर भाव नहीं बनाने पडते, किन्तु पंचेन्द्रिय प्राणी का वध कर उसे अपना आहार बनाने से लेकर,आहार ग्रहण करने तक, हमें बेहद क्रूर भावों और निष्ठुर मनोवृति में संलिप्त रहना पडता है। अपरिहार्य हिंसा की दशा में भी अपने मानस को, द्वेष व क्रूर भावों से पडने वाले दुष्प्रभाव से सुरक्षित रखना ही हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए । इसी को भाव अहिंसा कहते है। अहिंसक मनोवृति का निर्माण करना है तो हमें बुद्धि, विवेक और सजगता से, हिंसकभाव से सर्वथा दूर रहना पडेगा। साथ ही विवशता भरी अपरिहार्य हिंसा को भी छोटी से छोटी बनाए रखना, सुक्ष्म से सुक्ष्मतर करना, न्यून से न्यूनत्तम करना ही श्रेष्ठ उपाय है। अपने भोग को संयमित करना अहिंसा पालन ही है।
अब रही बात जैन मार्ग की तो, जैन गृहस्थ भी प्रायः जैसे जैसे त्याग में समर्थ होते जाते है, वैसे वैसे, योग्यतानुसार शाकाहार में भी, अधिक हिंसाजन्य पदार्थो का त्याग करते जाते है। वे शाकाहार में भी हिंसा का त्याग बढ़ाने के उद्देश्य से कन्दमूल, हरी पत्तेदार सब्जीओं आदि का भी त्याग करते है।और इसी तरह स्वयं को कम से कम हिंसा की ओर बढ़ाते चले जाते है। हिंसा को अल्प करते जाना ही अहिंसा का सोपान है।
जबकि मांसाहार में, मांस केवल क्रूरता और प्राणांत की उपज ही नहीं, बल्कि उस उपजे मांस में सडन गलन की प्रक्रिया भी तेज गति से होती है। परिणाम स्वरूप जीवोत्पत्ति भी तीव्र व बहुसंख्य होती है।सबसे भयंकर तथ्य तो यह है कि पकने की प्रक्रिया के बाद भी उसमे जीवों की उत्पत्ति निरन्तर जारी रहती है। अधिक जीवोत्पत्ति और रोग की सम्भावना के साथ साथ यह महाहिंसा का कारण है। अपार हिंसा और हिंसक मनोवृति के साथ क्रूरता ही मांसाहार निषेध का प्रमुख कारण है।
“हालाँकि हिन्दू धर्म ग्रन्थ अपने मानने वालों को मांसाहार की अनुमति देते हैं, फिर भी बहुत से हिन्दुओं ने शाकाहारी व्यवस्था अपना ली, क्यूंकि वे जैन जैसे धर्मों से प्रभावित हो गए थे.”
प्रत्युत्तर : वैदिक मत प्रारम्भ से ही अहिंसक और शाकाहारी रहा है, यह देखिए-
य आमं मांसमदन्ति पौरूषेयं च ये क्रवि: !
गर्भान खादन्ति केशवास्तानितो नाशयामसि !! (अथर्ववेद- 8:6:23)
-जो कच्चा माँस खाते हैं, जो मनुष्यों द्वारा पकाया हुआ माँस खाते हैं, जो गर्भ रूप अंडों का सेवन करते हैं, उन के इस दुष्ट व्यसन का नाश करो !
अघ्न्या यजमानस्य पशून्पाहि (यजुर्वेद-1:1)
-हे मनुष्यों ! पशु अघ्न्य हैं – कभी न मारने योग्य, पशुओं की रक्षा करो |
अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राणभृतां वरः। (आदिपर्व- 11:13)
-किसी भी प्राणी को न मारना ही परमधर्म है ।
सुरां मत्स्यान्मधु मांसमासवकृसरौदनम् ।
धूर्तैः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद् वेदेषु कल्पितम् ॥ (शान्तिपर्व- 265:9)
-सुरा, मछली, मद्य, मांस, आसव, कृसरा आदि भोजन, धूर्त प्रवर्तित है जिन्होनें ऐसे अखाद्य को वेदों में कल्पित कर दिया है।
अनुमंता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
संस्कर्त्ता चोपहर्त्ता च खादकश्चेति घातका: ॥ (मनुस्मृति- 5:51)
इस सच्चाई को जानने के बाद जैन-मार्ग से प्रभावित मानने का प्रश्न ही नहीं उठता। हां, कभी बाद में प्रवर्तित यज्ञों में पशुबलि रूप कुरीति का विरोध अवश्य जैन मत या बौद्ध मत नें किया होगा, लेकिन वह कुरीति का मात्र परिमार्जन था, वह अपने ही सिद्धान्तों का जीर्णोद्धार था। फिर भी अगर प्रभावित भी हुआ हो तो इसमें बुरा क्या है? विकार और संस्कार का चक्र तो गतिमान रहता ही है। सुसंस्कृति किसी भी विचार के संसर्ग से और भी प्रगाढ होती है तो यह उत्कर्ष है। सर्वे भवन्तु सु्खिनः सूक्त के लिए धर्म का मूल ही अहिंसा है। अहिंसा में कमी बेसी आने पर पुनः अहिंसा की ओर लौटना सिद्धांतोद्धार है।
मांसाहारी प्रचारक:- - पेड़ पौधों में भी जीवन
“कुछ धर्मों ने शुद्ध शाकाहार अपना लिया क्यूंकि वे पूर्णरूप से जीव-हत्या से विरुद्ध है. अतीत में लोगों का विचार था कि पौधों में जीवन नहीं होता. आज यह विश्वव्यापी सत्य है कि पौधों में भी जीवन होता है. अतः जीव हत्या के सम्बन्ध में उनका तर्क शुद्ध शाकाहारी होकर भी पूरा नहीं होता.”
प्रत्युत्तर : अतीत में ऐसी किन 'ज़ाहिल' सभ्यताओं का मानना था कि पेड़-पौधो में जीवन नहीं है? आर्यावर्त में तो सभ्यता युगारम्भ में ही पुख्त बन चुकी थी, अहिंसा में आस्था रखने वाली आर्य सभ्यता तो आदिअकाल से ही न केवल वनस्पति में बल्कि पृथ्वी, वायु, जल और अग्नी में भी जीवन को प्रमाणित कर चुकी थी। जबकि विज्ञान को अभी वहां तक पहुंचना शेष है। अहिंसा की अवधारणा, हिंसा को न्यून से न्यूनत्तम, सुक्ष्म से सुक्ष्मतर करने की है और उस अवधारणा के लिए शाकाहार ही श्रेष्ठ माध्यम है।
मांसाहारी प्रचारक:- - पौधों को भी पीड़ा होती है
“वे आगे तर्क देते हैं कि पौधों को पीड़ा महसूस नहीं होती, अतः पौधों को मारना जानवरों को मारने की अपेक्षा कम अपराध है. आज विज्ञान कहता है कि पौधे भी पीड़ा महसूस करते हैं …………अमेरिका के एक किसान ने एक मशीन का अविष्कार किया जो पौधे की चीख को ऊँची आवाज़ में परिवर्तित करती है जिसे मनुष्य सुन सकता है. जब कभी पौधे पानी के लिए चिल्लाते तो उस किसान को तुंरत ज्ञान हो जाता था. वर्तमान के अध्ययन इस तथ्य को उजागर करते है कि पौधे भी पीड़ा, दुःख-सुख का अनुभव करते हैं और वे चिल्लाते भी हैं.”
प्रत्युत्तर : हाँ, उसके उपरांत भी बडी हिंसा की तुलना सूक्ष्म हिंसा कम अपराध ही है, इसी में अहिंसक मूल्यों की सुरक्षा है। एक उदा्हरण से समझें- यदि प्रशासन को कोई मार्ग चौडा करना हो, उस मार्ग के एक तरफ विराट निर्माण बने हुए हो, जबकि दूसरी तरफ छोटे साधारण छप्परनुमा अवशेष हो तो प्रशासन किस तरफ के निर्माण को ढआएगा? निश्चित ही वे साधारण व कम व्यय के निर्माण को ही हटाएंगे। जीवन के विकासक्रम की दृष्टि से अविकसित या अल्पविकसित जीवन की तुलना में अधिक विकसित जीवों को मारना बड़ा अपराध है। रही बात पीड़ा की तो, अगर जीवन है तो पीडा तो होगी ही, वनस्पति जीवन को तो छूने मात्र से उन्हे मरणान्तक पीडा होती है। लेकिन यहां उनकी पीडा से भी अधिक जरूरी है अपनी सम्वेदनशीलता को बचाए रखना, अनुकम्पा महसुस करना। दूसरों की पीडा पर करूणा भाव को सुरक्षित रखना। यदि तडपते पशु को देख सम्वेदनाओं को पहुँचती चोट पहुचती है। इसे समझने के लिए एक उदाहरण है,जैसे अगर किसी कारण से बालक की गर्भाधान के समय ही मृत्यु हो जाय, पूरे माह पर मृत्यु हो जाय, जन्म लेकर मृत्यु हो, किशोर अवस्था में मृत्यु हो, जवान हो्कर मृत्यु हो या शादी के बाद मृत्यु हो। कहिए किस मृत्यु पर हमें अधिक दुख होगा? निश्चित ही अधिक विकसित होने पर दुख अधिक ही होगा। छोटे से बडे में क्रमशः हमारे दुख व पीडा महसुस करने में अधिकता आएगी। क्योंकि इसका सम्बंध हमारे भाव से है। जितना दुख ज्यादा, उसे मारने के लिए इतने ही अधिक क्रूर भाव की जरूरत रहती है। अविकसित से पूर्ण विकसित जीवन की हिंसा करने पर क्रूर भाव का स्तर बढता जाता है। बडे पशु की हिंसा के समय अधिक असम्वेदनशीलता की आवश्यकता रहती है, अधिक विकृत व क्रूर भाव चाहिए। इसलिए बार बार तडपते, प्राणहीन होते जीव की पीड़ा से हमारी सम्वेदनाएं कहीं अधिक कुंद होती है, मर जाती है। इसलिए सवाल हमारी मरती सम्वेदनाओं का है और उसकी जगह लेती क्रूरता का है।
मांसाहारी प्रचारक:- - दो इन्द्रियों से वंचित प्राणी की हत्या कम अपराध नहीं !!!
“एक बार एक शाकाहारी ने तर्क दिया कि पौधों में दो अथवा तीन इन्द्रियाँ होती है जबकि जानवरों में पॉँच होती हैं| अतः पौधों की हत्या जानवरों की हत्या के मुक़ाबले छोटा अपराध है.”
"कल्पना करें कि अगर आप का भाई पैदाईशी गूंगा और बहरा है, दुसरे मनुष्य के मुक़ाबले उनमें दो इन्द्रियाँ कम हैं. वह जवान होता है और कोई उसकी हत्या कर देता है तो क्या आप न्यायधीश से कहेंगे कि वह हत्या करने वाले (दोषी) को कम दंड दें क्यूंकि आपके भाई की दो इन्द्रियाँ कम हैं. वास्तव में आप ऐसा नहीं कहेंगे. वास्तव में आपको यह कहना चाहिए उस अपराधी ने एक निर्दोष की हत्या की है और न्यायधीश को उसे कड़ी से कड़ी सज़ा देनी चाहिए."
प्रत्युत्तर : एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय को समझना आपके बूते से बाहर की बात है, क्योकि आपके उदाहरण से ही लग रहा है कि उसे समझने की न तो आपमें दृष्टि है न वह सामर्थ्य। किसी भी पंचेन्द्रिय प्राणी में, एक दो या तीन इन्द्रिय कम होने से, वह चौरेन्द्रिय,तेइन्द्रिय,या बेइन्द्रिय नहीं हो जाता, रहेगा वह पंचेन्द्रिय ही। वह विकलांग (अपूर्ण इन्द्रिय) तो माना जा सकता है, किन्तु पाँचो इन्द्रिय धारण करने की योग्यता वाला जीव पंचेन्द्रिय ही रहता है। उसके मात्र इन्द्रिय अव्यव सक्रीय नहीं, इन्द्रिय शक्ति व सामर्थ्य विद्यमान रहता है। जीव के एकेन्द्रीय से पंचेन्द्रीय श्रेणी का आधार, उसके इन्द्रिय अव्यव नहीं बल्कि उसकी इन्द्रिय शक्तियाँ है। नाक कान आदि तो उपकरण है, शक्तियाँ तो आत्मिक है।और रही बात सहानुभूति की तो निश्चित ही विकलांग के प्रति सहानुभूति अधिक ही होगी। अधिक कम क्या, दया और करूणा तो प्रत्येक जीव मात्र के प्रति होनी चाहिए, किन्तु व्यवहार का यथार्थ उपर दिए गये पीड़ा व दुख के उदाहरण से स्पष्ट है। भारतीय संसकृति में अभयदान देय है, न्यायाधीश बनकर सजा देना लक्ष्य नहीं है। क्षमा को यहां वीरों का गहना कहा जाता है, भारतिय संसकृति को यूँ ही उदार व सहिष्णुता की उपमाएं नहीं मिल गई। विवेक यहाँ साफ कहता है कि अधिक इन्द्रीय समर्थ जीव की हत्या, अधिक क्रूर होगी।
आपको तो आपके ही उदाह्रण से समझ आ सकता है………
कल्पना करें कि अगर आप का भाई पैदाईशी गूंगा और बहरा है, आप के दूसरे भाई के मुक़ाबले उनमें दो इन्द्रियाँ कम हैं। वह जवान होता है, और वह किसी आरोप में फांसी की सजा पाता है ।तो क्या आप न्यायधीश से कहेंगे कि वह उस भाई को छोड दें, क्यूंकि इसकी दो इन्द्रियाँ कम हैं, और वह सज़ा-ए-फांसी की पीड़ा को महसुस तो करेगा पर चिल्ला कर अभिव्यक्त नहीं कर सकता, इसलिए यह फांसी उसके बदले, इस दूसरे भाई को दे दें जिसकी सभी इन्द्रियाँ परिपूर्ण हैं, यह मर्मान्तक जोर से चिल्लाएगा, तडपेगा, स्वयं की तड़प देख, करूण रुदन करेगा, इसे ही मृत्यु दंड़ दिया जाय। क्या आप ऐसा करेंगे? किन्तु वास्तव में आप ऐसा नहीं कहेंगे। क्योंकि आप तो समझदार(?) जो है। ठीक उसी तरह वनस्पति के होते हुए भी बड़े पशु की घात कर मांसाहार करना बड़ा अपराध है।
यह एक यथार्थ है कि हिंसा तो वनस्पति के आहार में भी है। किन्तु विवेक यह कहता है कि जितना हिंसा से बचा जाये, बचना चाहिये। न्यून से न्यूनतम हिंसा का विवेक रखना ही मानवीय जीवन मूल्य है। वनस्पति आदि सुक्ष्म को आहार बनाने के समय हमें क्रूर व निष्ठुर भाव नहीं बनाने पडते, किन्तु पंचेन्द्रिय प्राणी का वध कर उसे अपना आहार बनाने से लेकर,आहार ग्रहण करने तक, हमें बेहद क्रूर भावों और निष्ठुर मनोवृति में संलिप्त रहना पडता है। अपरिहार्य हिंसा की दशा में भी अपने मानस को, द्वेष व क्रूर भावों से पडने वाले दुष्प्रभाव से सुरक्षित रखना ही हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए । इसी को भाव अहिंसा कहते है। अहिंसक मनोवृति का निर्माण करना है तो हमें बुद्धि, विवेक और सजगता से, हिंसकभाव से सर्वथा दूर रहना पडेगा। साथ ही विवशता भरी अपरिहार्य हिंसा को भी छोटी से छोटी बनाए रखना, सुक्ष्म से सुक्ष्मतर करना, न्यून से न्यूनत्तम करना ही श्रेष्ठ उपाय है। अपने भोग को संयमित करना अहिंसा पालन ही है।
अब रही बात जैन मार्ग की तो, जैन गृहस्थ भी प्रायः जैसे जैसे त्याग में समर्थ होते जाते है, वैसे वैसे, योग्यतानुसार शाकाहार में भी, अधिक हिंसाजन्य पदार्थो का त्याग करते जाते है। वे शाकाहार में भी हिंसा का त्याग बढ़ाने के उद्देश्य से कन्दमूल, हरी पत्तेदार सब्जीओं आदि का भी त्याग करते है।और इसी तरह स्वयं को कम से कम हिंसा की ओर बढ़ाते चले जाते है। हिंसा को अल्प करते जाना ही अहिंसा का सोपान है।
जबकि मांसाहार में, मांस केवल क्रूरता और प्राणांत की उपज ही नहीं, बल्कि उस उपजे मांस में सडन गलन की प्रक्रिया भी तेज गति से होती है। परिणाम स्वरूप जीवोत्पत्ति भी तीव्र व बहुसंख्य होती है।सबसे भयंकर तथ्य तो यह है कि पकने की प्रक्रिया के बाद भी उसमे जीवों की उत्पत्ति निरन्तर जारी रहती है। अधिक जीवोत्पत्ति और रोग की सम्भावना के साथ साथ यह महाहिंसा का कारण है। अपार हिंसा और हिंसक मनोवृति के साथ क्रूरता ही मांसाहार निषेध का प्रमुख कारण है।
जिव हत्या के दोष से इस संसार में कोई बच नहीं सकता ,क्या आप जानते हें कि एक टमाटरआठ दस परकार के कीड़े मकोड़े मारकर उपलब्ध होता हे ,आम के वास्ते सोला ,गोभी के वास्ते बीस परकार के जीवों को मारना पड़ता हे ,,
जवाब देंहटाएंसही कहा
जवाब देंहटाएंइस खुशखबरी के लिए आपके मुँह में घी-शक्कर!
जवाब देंहटाएंnamaste
जवाब देंहटाएंआपने बहुत सटीक पोस्ट लिखा है बिज्ञान क़े अनुसार मनुष्य साकाहारी जानवर है जो मांसाहारी जानवर है वह मुख से पानी नहीं पीते वे जीभ से पानी पीते है जैसे शेर,बिल्ली,कुत्ता इत्यादि जो साकाहारी है वे मुख से पानी पीते है जैसे गाय,भैस,गेडा.मनुष्य इत्यादि.
सनातन वैदिक हिन्दू धर्म में मांसाहार को प्रोत्साहन नहीं दिया गया है.
ekdam sahi uttar hai....mansahar kabhi sahi nahi ho sakta...!
जवाब देंहटाएं@सुज्ञ जी,
जवाब देंहटाएंहर्फ़-ए-गलत पर मेरी टिप्पणियाँ प्रकाशित नहीं हो रही हैं, अतः मैं यहाँ आपकी बात का उत्तर दे रहा हूँ,
मैंने उदाहरण के लिए कुछ आयतें पेश की थीं, वरना हैं तो बहुत सी अमन का पैगाम देने वाली आयतें. जैसे की :
[4 : 80] जिसने रसूल की इताअत की तो उसने अल्लाह की इताअत की और जिसने रूगरदानी की तो तुम कुछ खयाल न करो (क्योंकि) हमने तुम को पासबान (मुक़र्रर) करके तो भेजा नहीं है
[6 : 107] और अगर अल्लाह चाहता तो ये लोग शिर्क ही न करते और हमने तुमको उन लोगों का निगेहबान तो बनाया नहीं है और न तुम उनके ज़िम्मेदार हो
[10 : 99&100] और (ऐ पैग़म्बर) अगर तेरा परवरदिगार चाहता तो जितने लोग रुए ज़मीन पर हैं सबके सब इमान ले आते तो क्या तुम लोगों पर ज़बरदस्ती करना चाहते हो ताकि सबके सब इमानदार हो जाएँ हालॉकि किसी शख्स को ये इखतियार नहीं कि बगै़र अल्लाह की मर्जी ईमान ले आए और जो लोग अक़ल से काम नहीं लेते उन्हीं लोगों पर अल्लाह गन्दगी डाल देता है
[11 : 28] (नूह ने) कहा ऐ मेरी क़ौम क्या तुमने ये समझा है कि अगर मैं अपने परवरदिगार की तरफ से एक रौशन दलील पर हूँ और उसने अपनी सरकार से रहमत (नुबूवत) अता फरमाई और वह तुम्हें सुझाई नहीं देती तो क्या मैं उसको (ज़बरदस्ती) तुम्हारे गले मंढ़ सकता हूँ
[16 : 82] तुम उसकी फरमाबरदारी करो उस पर भी अगर ये लोग (इमान से) मुँह फेरे तो तुम्हारा फर्ज़ सिर्फ (एहकाम का) साफ पहुँचा देना है
[17 : 53&54] और (ऐ रसूल) मेरे (सच्चे) बन्दों (मोमिनों से कह दो कि वह (काफिरों से) बात करें तो अच्छे तरीक़े से (सख्त कलामी न करें) क्योंकि शैतान तो (ऐसी ही) बातों से फसाद डलवाता है इसमें तो शक ही नहीं कि शैतान आदमी का खुला हुआ दुश्मन है
[21 : 107 & 109] और (ऐ रसूल) हमने तो तुमको सारे दुनिया जहाँन के लोगों के हक़ में अज़सरतापा रहमत बनाकर भेजा-----फिर अगर ये लोग (उस पर भी) मुँह फेरें तो तुम कह दो कि मैंने तुम सबको यकसाँ ख़बर कर दी है और मैं नहीं जानता कि जिस (अज़ाब) का तुमसे वायदा किया गया है क़रीब आ पहुँचा या (अभी) दूर है
IMAM ALI a.s.: tumhare pet ko janvaro ka qabrastan na banavo , (zyada gosht n khavo
जवाब देंहटाएंसही बात है,मासूम साहब,
जवाब देंहटाएंअपने पेट को जीवों का कब्रीस्तान न बनाओ,उनका भावार्थ यही था कि अपने पेट पूर्ति के लिये उनकी जानें न लो।
धन्यवाद!!!
जवाब देंहटाएंअहिंसा के उद्देश्य से शाकाहार को समर्थन देने के लिये आप सभी का शुक्रिया!!