20 अगस्त 2010

ईश्वर ने जानवरों को हमारे भोजन के लिये ही पैदा किया है? (हिंसा अनुमति का यथार्थ)

वैसे तो शाकाहार - मांसाहार का सम्बंध किसी धर्म विशेष से नहीं होता है, क्योंकि धर्म का सम्बंध गहराई से सीधे दया, रहम, करूणा से होता है। लेकिन मांसाहार प्रचारक ही अक्सर इस कहावत को चरितार्थ करते है कि ‘मांस खाए तो ही मुसलमान’। क्योंकि शाकाहार के प्रसार से इन्हे ही गम्भीर आपत्ति होती है। इस्लाम के अनुयायी मांसाहारी आदतों के संरक्षण में जी-जान से जुटे देखे जा सकते है। कहने को तो कह देते है कि 'मांसाहार फर्ज नहीं है, मांसाहार न करके भी एक अच्छा मुसलमान बनकर रहा जा सकता है।' लेकिन तत्काल पलट कर मांसाहार की उपयोगिता और आवश्यक्ता पर कुतर्क करते नजर आते है। अपनी किताबों से माँसाहार की ‘अनुमति’ को कुछ इस प्रकार जताते है जैसे यह ‘आदेश’ ही हो, जबकि यथार्थ तो यह है कि वह ‘अनुमति’ भी नहीं  मात्र आदतों का ‘उल्लेख’ है। प्रस्तुत आलेख उक्त मांसाहार उल्लेख को समझने परखने का विनम्र प्रयास है।

 ईश्वर नें जानवरों को हमारे भोजन आदि के लिये ही पैदा किया है?

अक्सर कुरआन की चार आयतों का हवाला देकर, यह ‘अनुमति’ की बात कही जाती हैं, आइए देखते है उन आयतों के क्या मायने है।

"ऐ लोगों, खाओ जो पृथ्वी पर है लेकिन पवित्र और जायज़ (कुरआन 2:168)

"ऐ ईमान वालों, प्रत्येक कर्तव्य का निर्वाह करो| तुम्हारे लिए चौपाये जानवर जायज़ है, केवल उनको छोड़कर जिनका उल्लेख किया गया है" (कुरआन 5:1)

इन आयतों में 'मांस' शब्द का उल्लेख तक नहीं है। कहा मात्र यह गया है कि "खाओ जो पृथ्वी पर है लेकिन पवित्र और जायज़।" बात अगर ‘पवित्र और जायज़’ की है तो,शाकाहार पवित्र भी है और जायज़ भी। फिर उससे विशेष क्या शुद्ध और योग्य हो सकता है?  यदपि कुछ जानवरों को नाज़ायज़ नहीं कहा गया है. तथापि यह अर्थ लेना हो तो पृथ्वी पर उपलब्ध धूल पत्थर को भी नाज़ायज़ नहीं कहा गया, उसे तो अनुमति केनाम पर आहार नहीं बनाया जाता? बिना नाम लिए कहा गया है अतः पवित्र और जायज़ का विवेक इंसानो को करना है. इस आयत का आशय मात्र यही है।

"रहे पशु, उन्हें भी उसी ने पैदा किया जिसमें तुम्हारे लिए गर्मी का सामान (वस्त्र) भी और अन्य कितने लाभ. उनमें से कुछ को तुम खाते भी हो" (कुरआन 16:5)

"और मवेशियों में भी तुम्हारे लिए ज्ञानवर्धक उदहारण हैं. उनके शरीर के अन्दर हम तुम्हारे पीने के लिए दूध पैदा करते हैं और इसके अलावा उनमें तुम्हारे लिए अनेक लाभ हैं, और जिनका माँस तुम प्रयोग करते हो" (कुरआन 23:21)

इन आयतों में ‘खाना’ व ‘माँस’ शब्द अवश्य है। लेकिन इसे गहनता से विवेक पूर्वक समझने की आवश्यकता है। ऐसी सभी आयतो में एक वाक्य बडा आम मिलता है कि "इसमें तुम्हारे लिए बहुत बडा ईशारा है" इस वाक्य का सीधा सा अर्थ है, 'सार्थक निर्थक पर विवेक से सोचो।' ईशारा यह है कि उचित अनुचित का भेद शब्दों में ही है। यहां अल्लाह, जानवरों को गर्मी के सामान आदि व उपयोग के लिये पैदा करनें की तो जिम्मेदारी लेता है, किन्तु उन्हे खाने की क्रिया बंदे पर छोडता है, यह कहकर कि, "कुछ को 'तुम' खाते भी हो"। अर्थ साफ़ है 'खा सकते हो' नहीं कहा,  'तुम खाते हो' कहा, यही ईशारे भरा वाक्य है, इसे ही विवेक से समझने की दरकार है। अतः यह वाक्य खाने की आदतों का उल्लेख मात्र है, किसी भी प्रकार की आज्ञा या आदेश नहीं है। उस स्थल परिवेश और काल अनुसार आदतें होगी, उन आदतों का बयान मात्र है। यह कोई अनुमति नहीं, फिर यदि अविवेक से अनुमति की बात कही भी जाय तब भी कोई जरूरी नहीं कि प्रदत्त अनुमति का जडवत उपभोग किया ही जाय। यदि पोषण आवश्यकताएं शाकाहार से पूर्ण हो जाती हो तो ईश्वर की अनुकम्पा का दुरुपयोग कृतघ्नता है।

निशानी: ईशारा - 'विवेक के लिए'

और तुम्हारे लिए चौपायों में से एक बड़ी शिक्षा-सामग्री है, जो कुछ उनके पेटों में है उसमें से गोबर और रक्त से मध्य से हम तुम्हे विशुद्ध दूध पिलाते है, जो पीनेवालों के लिए अत्यन्त प्रिय है, (16 : 66) और खजूरों और अंगूरों के फलों से भी, जिससे तुम मादक चीज़ भी तैयार कर लेते हो और अच्छी रोज़ी भी। निश्चय ही इसमें बुद्धि से काम लेनेवाले लोगों के लिए एक बड़ी निशानी है (16 : 67)

और निश्चय ही तुम्हारे लिए चौपायों में भी एक शिक्षा है। उनके पेटों में जो कुछ है उसमें से हम तुम्हें पिलाते है। औऱ तुम्हारे लिए उनमें बहुत-से फ़ायदे है और उन्हें तुम खाते भी हो (23 : 21)

उपरोक्त अलग अलग आयतों में अल्लाह ने अपने अवदान का उल्लेख और उसमें 'शिक्षा और निशानी' की बात रखकर 'अपने कर्म' और 'तुम्हारे कर्म' में भेद कर दिया है। अल्लाह का कर्म "हम तुम्हें पिलाते है।" और तुम्हारा कार्य "उन्हें तुम खाते भी हो"। अल्लाह ईशारा करते है कि जो कर्म तुम कर रहे हो इसमें बड़ी शिक्षा या बड़ी निशानी है, जिसे बुद्धि से काम लेने वालों को स्वविवेक से समझना चाहिए। यहां सोचने वाली बात यह भी है कि यदि आयत 16:67 से ‘तुम’ लगाकर भी शराब का निषेध है तो 23:21 में भी ‘तुम’ लगे होने से अल्लाह द्वारा मांसाहार की अनुमति कैसे हो गई? निशानी का अर्थ यदि विवेक है तो विवेक का प्रयोग दोनो जगह समान रूप से  होना चाहिए।

कुरआन में कईं जगह, रहम के परिपेक्ष्य में आदेश है कि तुम ‘अनावश्यक हत्या’ न करो। चलो भी तो पैर पटकते हुए न चलो, ताकि कोई जीव जन्तु कुचल कर न मर जाय। फिर पर्याप्त शाकाहार रूपी भोजन के उपल्ब्ध रहते भी स्वादेन्द्रीय के वशीभूत, मांसाहार करना ‘अनावश्यक हत्या’ ही है। गैर जरूरी हिंसा ही है। निशानी ईशारा या विवेक यही कहता है यदि हमें विकल्प उपलब्ध हो तो आहार प्रयोजन से जीवहिंसा नहीं करनी चाहिए।

हज इस्लाम में सबसे शीर्ष धार्मिक अनुष्ठान है। जब मुसलिम हज यात्रा पर जाते हैं वे बिना सिले हुए श्वेत वस्त्र के दो टुकड़े परिधान करते हैं, जिसे 'अहराम' कहा जाता है। ये अत्यंत साधारण वस्त्र सादगी और सहिष्णुता का प्रतीक होता है, ये परिधान प्रकट करते है कि यह मनुष्य दुनिया के आडंबर, दंभ और द्वेष से दूर है। इन धार्मिक वस्त्रों में समस्त जी्वों को अभयदान देना होता है। क्योंकि अहराम की दशा में किसी जीव की हत्या करना मना है। न तो मक्खी, न मच्छर और न ही जूं यानी किसी जीव के मारने पर कड़ा प्रतिबंध है। यदि कोई हाजी जमीन पर पड़े हुए किसी कीड़े को देख ले तो अपने अन्य साथी को उससे बचकर चलने की हिदायत करता है। कहीं ऐसा न हो जाए कि उसके पांव के नीचे वह कीड़ा दब जाए।  यदि कोई जीव जंतु उसे अपने कपड़े पर नजर आए तो वह उसे उठाकर जमीन पर तक नही फेंक सकता। जब तक उसके शरीर पर यह अहराम है, जीव को मारना तो दूर वह उसके जीवन में बाधा  भी नहीं पहूंचा सकता। 'अहराम' जीवन की सर्वाधिक पवित्र अवस्था है। तो समग्र जीवन में इस आत्मिक शुद्धता और पवित्रता को आत्मसात करने में क्यों आपत्ति होनी चाहिए। 

दृष्टांत : सद्बुद्धि
: सामर्थ्य का दुरुपयोग

46 टिप्‍पणियां:

  1. जिस आदमी का धर्म,सस्कार्,परिवार उसे मास खाने की इजाजत देते हो वो आखिर किसे आप के एक आलेख से मासाहार छोड सकता है "
    mujhe nhi lagta ki kuran kisi ne padi hogi warna muhaand jaisa mahan insan kaise maas khane ki ijjat de sakta hai

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    1. मुझे नहीं लगता कि कुरान आपने पढ़ी होंगी अन्यथा मोहमद कों महान बोलने का दुष्करत्य ना करते | उसने हर उस बात कि अनुमति दी हैं जिसे तामसिक प्रवत्ति अथवा राक्षसी प्रवत्ति कहा जाता हैं | मोहमद के अनुयायी ही कलयुग के राक्षस हैं |

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  2. आलोक जी,
    मेरा काम मांसाहार छुडवाना नहिं,वो तो जिनके बस में होगा कर लेंगे। मेरा मक़सद है, इन आलेखों से अनावश्यक जीव हिंसा कम भी हो गई तो सफ़ल समझुंगा।

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  3. सलीम खान साहब कह्ते हैं,1 - दुनिया में कोई भी मुख्य धर्म ऐसा नहीं हैं जिसमें सामान्य रूप से मांसाहार पर पाबन्दी लगाई हो या हराम (prohibited) करार दिया हो.

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    1. यदि धर्म का ज्ञान होता तो अवश्य पाबन्दी लगाते | सनातन ग्रंथो में अनेकों जगह उल्लेख हैं | किन्तु प्रतीत होता हैं राक्षस सफल हो रहे हैं |

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  4. सलीम खान साहब कह्ते हैं,2 - क्या आप भोजन मुहैया करा सकते थे वहाँ जहाँ एस्किमोज़ रहते हैं (आर्कटिक में) और आजकल अगर आप ऐसा करेंगे भी तो क्या यह खर्चीला नहीं होगा?

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    1. यदि सलीम आर्कटिक पर जाकर रहे तो अवश्य उन्हें माँसाहर की अनुमति हैं |

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  5. सलीम खान साहब कह्ते हैं,3 - अगर सभी जीव/जीवन पवित्र है पाक है तो पौधों को क्यूँ मारा जाता है जबकि उनमें भी जीवन होता है.
    4 - अगर सभी जीव/जीवन पवित्र है पाक है तो पौधों को क्यूँ मारा जाता है जबकि उनको भी दर्द होता है.
    5 - अगर मैं यह मान भी लूं कि उनमें जानवरों के मुक़ाबले कुछ इन्द्रियां कम होती है या दो इन्द्रियां कम होती हैं इसलिए उनको मारना और खाना जानवरों के मुक़ाबले छोटा अपराध है| मेरे हिसाब से यह तर्कहीन है.

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    1. प्रश्न पवित्र अपवित्र का नहीं,मनुष्य की प्रकृति का हैं |पर इसको अनुभव करने के लिए चाहिये कि सलीम छ मास के लिए पूर्णत साकाहार का प्रयोग करें |
      और इस तथ्य पर में बिल्कुल बात नहीं कर रहा हूँ कि माँसाहर पर्यावरण के लिए 28 गुणा अधिक हानिकारक होता हैं जो वर्तमान में सबसे बड़ी समस्या हैं |

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  6. सलीम खान साहब कह्ते हैं,6 -इन्सान के पास उस प्रकार के दंत हैं जो शाक के साथ साथ माँस भी खा/चबा सकता है.
    7 - और ऐसा पाचन तंत्र जो शाक के साथ साथ माँस भी पचा सके. मैं इस को वैज्ञानिक रूप से सिद्ध भी कर सकता हूँ | मैं इसे सिद्ध कर सकता हूँ.

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  7. सलीम खान साहब कह्ते हैं,8 - आदि मानव मांसाहारी थे इसलिए आप यह नहीं कह सकते कि यह प्रतिबंधित है मनुष्य के लिए | मनुष्य में तो आदि मानव भी आते है ना.

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  8. सलीम खान साहब कह्ते हैं,9 - जो आप खाते हैं उससे आपके स्वभाव पर असर पड़ता है - यह कहना 'मांसाहार आपको आक्रामक बनता है' का कोई भी वैज्ञानिक आधार नहीं है.

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    1. आधार हैं, और वो आपको व्यावहारिक जीवन में स्पष्ट दिखाई पड़ता हैं | हिन्दुओं का बच्चा गाय को दूर भागने के लिए डंडा मारने से भी बचता हैं हैं | और मुसलमानो का बच्चा सीधे गर्दन उडाता हैं | आश्चर्य हैं कि काफ़िर कह के कि इंसानों तक को तुम लोग हलाल कर देते हो और कहते हो कि स्वभाव पर कोई असर नहीं पड़ता | कभी इनके स्थानों से प्रवास करता हूँ तो नाक बंद करके निकना पड़ता हैं ऐसी दुर्गन्ध आती हैं और उस माहौल में ये लोग हसीं ख़ुशी रहते हैं |

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  9. कल इन पश्नों के युक्ति युक्त जवाब होगें,
    तब तक इस भूमिका पर आपकी राय जाननी है।
    टिप्पणी अवश्य करें

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  10. गहन परिचर्चा का विषय... वैसे जानवर, जानवर का भोजन तो है, इसीलिए किसी एक जानवर के विलुप्त हो जाने से पूरा संतुलन बिगड़ जाता है!

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  11. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  12. @आदरणीय सुज्ञ जी

    आपका बहुत-२ आभार है इस इंसानियत के नाम पर कलंक को मिटाने के प्रयास को अपना समय ,बल ,सामर्थ्य , गति और सशक्तता , और जागरूकता प्रदान करने के लिए

    धर्म ग्रंथों का reference देकर कुप्रथाओं को जायज़ या नाजायज़ ठहराने सम्बन्धी मेरा व्यक्तिगत मत ये है की जो भी पहले हुआ है या लिखा गया है उसे शत-पर्तिशत सही या गलत मानकर अपना वर्तमान और भविष्य नहीं खराब किया जा सकता , हर धार्मिक ग्रन्थ से जो भी अच्छी या बुरी बात बात मिले उसे पहले तर्क की कसौटी पर परखें फिर उसका ग्रहण या त्याग करें

    प्रकृति ने खुद ही ऐसी व्यवस्था कि हुई है शेर ,बाघ,लकडबघा,गिद्ध, मगरमच्छ आदि जीवों को उत्पन करके जिससे की प्रकर्ति का संतुलन बना रहे लें आज मानवों के इन दुष्कृत्यों के कारण वो संतुलन गड़बड़ा रहा है , हम इंसान हैं , हममें और मुर्दाखोर जानवरों में कुछ तो फर्क रहना चाहिए

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  13. आपने उचित ही कहा है, अनावश्यक रूप से मांस खाने से अवश्य ही बचा जा सकता है. जहाँ तक बात इस्लाम धर्म की है, तो इसमें मांस खाने की आज्ञा है हुक्म नहीं है. करोडो मुसलमान हैं जो शाकाहारी हैं. किसी भी धर्म का मांसाहारी होने से कोई ताल्लुक नहीं है.

    अल्लाह (ईश्वर) के रसूल (सन्देश वाहक) मुहम्मद (स.) ने फ़रमाया (अर्थ की व्याख्या) "अगर कोई किसी जीव को जीवन नहीं दे सकता है तो उसे उसके जीवन को भी नाहक समाप्त करने का हक नहीं है". यह बहुत ही गहरी बात है, इससे यह बात भी पता चलता है कि शौक के लिए शिकार करना नाजायज़ है.

    लेकिन इसमें एक बात और भी है. अगर मांस खाने की आज्ञा है तो किसी को हक नहीं है कि उसको बैन करदे अर्थात हलाल (जायज़) चीज़ को हराम (नाजायज़) करार नहीं दिया जा सकता है. यह तो व्यक्ति के विवेक पर निर्भर करना चाहिए कि उसे क्या पसंद है. जहाँ तक बात कुर्बानी की है तो इसका मकसद अल्लाह (ईश्वर) को प्रसन्न करना बिलकुल भी नहीं है. बल्कि इसका मकसद मांस खाने वाले गरीब लोगों को भोजन का वितरण है. कुर्बानी के मांस में से अधिक से अधिक एक तिहाई ही अपने घर में रखा जाता है और बाकी गरीब लोगो में भोजन के रूप में वितरित किया जाता है. इसमें जो लोग शाकाहारी होते हैं वह सारा का सारा गरीब लोगो में वितरित कर देते हैं.

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    1. मेरे भाई मुहम्मद साहब से जब लोगों ने यह जिरह छेड़ दी थी तो उन्होने यह भी फरमाया था कि मांसाहार करने वालों में रहम नहीं रहेगा और शेर की मानिन्द नस्ले खत्म हो जाएंगी। इस जिक्र को लिखने वाले ने कुरान में लिखा ही नहीं

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  14. श्री शाह नवाज़ से पूर्ण सहमत

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  15. 1 - दुनिया में कोई भी मुख्य धर्म ऐसा नहीं हैं जिसमें सामान्य रूप से मांसाहार पर पाबन्दी लगाई हो या हराम (prohibited) करार दिया हो.

    अच्छा तो इसका मतलब ये है की अब हमें कोई भी काम करने से पहले ये देखना पडेगा की ये धर्म उसके विषय में क्या कहता है और वो धर्म इसके विषय में क्या कहता है , भाई मेरे जब हर बात में ऐसा ही करना है तो उस सर्वशक्तिमान ईश्वर ने तुम्हे ये अक्ल क्या घास चरने के लिए दी है ? , हर चीज़ को तर्क की कसौटी पर परखा जाना अत्यंत आवश्यक ना की किसी धर्मविशेष की पुस्तक पर अपने आँख और अक्ल के दरवाजे बंद करकर विश्वास कर लेना , ऐसा विश्वास फिर विश्वास नहीं अंधविश्वास कहलाता है , इन धार्मिक पुस्तकों या ग्रंथों आदि में लिखने वाले को उस समय जो ठीक लगा उसने लिखा लेकिन इसका ये मतलब नहीं की हम इन्हें ही सही मान कर अपनी अक्ल को ताला लगा लें , हमें उनमें से जो भी बातें सही लगें उन्हें ग्रहण करें और जो भी गलत उसका त्याग , लेकिन धर्मान्ध होकर उन्हें ही universal truth मान लेना स्वयं ईश्वर द्वारा प्रदान की गई इस बुद्धि का अपमान और बेवकूफी के सिवा और कुछ नहीं है

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  16. 2 - क्या आप भोजन मुहैया करा सकते थे वहाँ जहाँ एस्किमोज़ रहते हैं (आर्कटिक में) और आजकल अगर आप ऐसा करेंगे भी तो क्या यह खर्चीला नहीं होगा?

    हम अपने परिवार के लोगों की सहायता या उनकी जीवन रक्षा करते हुए खर्चा देखते हैं या उनकी ज़रूरत , जिस देश में हज़ारों करोड़ों रूपये क्रिकेट मैच और सिनेमा आदि पर खर्च होते हों तो वहाँ पर किसी जीव के जीवन की रक्षा में खर्च होने वाले रूपये को खर्चा नहीं बल्कि उनका सदुपयोग कहा जाएगा

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  17. 3 - अगर सभी जीव/जीवन पवित्र है पाक है तो पौधों को क्यूँ मारा जाता है जबकि उनमें भी जीवन होता है.
    4 - अगर सभी जीव/जीवन पवित्र है पाक है तो पौधों को क्यूँ मारा जाता है जबकि उनको भी दर्द होता है.


    किसी जीव का मांस खाने का मतलब है उसकी हत्या कर देना क्योंकि बिना जीव की हत्या करे, उसे पीड़ा पहुंचाए उसका मांस खाना असंभव है लेकिन शाकाहार में ऐसा नहीं है ,हम जिस पेड़ से शाकाहार ग्रहण करते हैं वो बरसों जीवित रहता है , मेरे खुद के घर के बाग में अमरुद का वृक्ष लगा हुआ है जो हर साल हमें बहुत मीठे अमरुद देता है तो इसका मतलब मैंने उसकी हत्या नहीं कर दी, वो आज भी वैसा ही है जैसा छह साल पहले था बल्कि दिन ब दिन और बड़ा और हरयाली से परिपूर्ण होता गया ,हम उसे रोजाना पानी आदि देते हैं और समय-२ पर माली आदि से उसकी देखभाल भी करवाते हैं ना की उसे किसी प्रकार का कष्ट देते हैं

    इसके और तर्कशील उत्तर के सन्दर्भ में अनुराग शर्मा जी के जवाब को दे रहा हूँ -

    अभी तक वर्णित दृश्यों में मैंने शाकाहार के बारे में अक्सर होने वाली बहस के बारे में कुछ आंखों देखी बात आप तक पहुंचाने की कोशिश की है। आईये देखें इन सब तर्कों-कुतर्कों में कितनी सच्चाई है। लोग पेड़ पौधों में जीवन होने की बात को अक्सर शाकाहार के विरोध में तर्क के रूप में प्रयोग करते हैं। मगर वे यह भूल जाते हैं कि भोजन के लिए प्रयोग होने वाले पशु की हत्या निश्चित है जबकि पौधों के साथ ऐसा होना ज़रूरी नहीं है।

    मैं अपने टमाटर के पौधे से पिछले दिनों में बीस टमाटर ले चुका हूँ और इसके लिए मैंने उस पौधे की ह्त्या नहीं की है। पौधों से फल और सब्जी लेने की तुलना यदि पशु उपयोग से करने की ज़हमत की जाए तो भी इसे गाय का दूध पीने जैसा समझा जा सकता है। हार्ड कोर मांसाहारियों को भी इतना तो मानना ही पडेगा की गाय को एक बारगी मारकर उसका मांस खाने और रोज़ उसकी सेवा करके दूध पीने के इन दो कृत्यों में ज़मीन आसमान का अन्तर है।

    अधिकाँश अनाज के पौधे गेंहूँ आदि अनाज देने से पहले ही मर चुके होते हैं। हाँ साग और कंद-मूल की बात अलग है। और अगर आपको इन कंद मूल की जान लेने का अफ़सोस है तो फ़िर प्याज, लहसुन, शलजम, आलू आदि मत खाइए और हमारे प्राचीन भारतीयों की तरह सात्विक शाकाहार करिए। मगर नहीं - आपके फलाहार को भी मांसाहार जैसा हिंसक बताने वाले प्याज खाना नहीं छोडेंगे क्योंकि उनका तर्क प्राणिमात्र के प्रति करुणा से उत्पन्न नहीं हुआ है। यह तो सिर्फ़ बहस करने के लिए की गयी कागजी खानापूरी है।

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  18. 6 -इन्सान के पास उस प्रकार के दंत हैं जो शाक के साथ साथ माँस भी खा/चबा सकता है.
    7 - और ऐसा पाचन तंत्र जो शाक के साथ साथ माँस भी पचा सके. मैं इस को वैज्ञानिक रूप से सिद्ध भी कर सकता हूँ | मैं इसे सिद्ध कर सकता हूँ.


    इसका बहुत बढ़िया और तर्कपूर्ण सुशान्त सिंहल जी के द्वारा बहुत पहले ही दे दिया गया था की -

    यदि प्रकृति ने हमारे शरीर की संरचना मांसाहार के हिसाब से की है तो फिर हमारे दांत व हमारे पंजे इस योग्य होने चाहियें थे कि हम किसी पशु को पकड़ कर उसे वहीं अपने हाथों से, दांतों से चीर फाड़ सकते। यदि चाकू-छूरी से काट कर, प्रेशर कुकर में तीन सीटी मार कर, आग पर भून कर, पका कर, घी- नमक, मिर्च का तड़का मार कर खाया तो फिर हम मनुष्य के दांतों का, पाचन संस्थान का त्रुटिपूर्ण हवाला क्यों दे रहे हैं?

    पाचन संस्थान की बात चल निकली है तो इतना बता दूं कि सभी शाकाहारी जीवों में छोटी आंत, मांसाहारी जीवों की तुलना में कहीं अधिक लंबी होती है। हम मानव भी इसका अपवाद नहीं हैं। जैसा कि हम सब जानते ही हैं, हमारी छोटी आंत लगभग २७ फीट लंबी है और यही स्थिति बाकी सब शाकाहारी जीवों की भी है। शेर की, कुत्ते की, बिल्ली की छोटी आंत बहुत छोटी है क्योंकि ये मूलतः मांसाहारी जानवर हैं।

    वैसे भी हमारा पाचन संस्थान इस योग्य नहीं है कि हम कच्चा मांस किसी प्रकार से चबा भी लें तो हज़म कर सकें। कुछ विशेष लोग यदि ऐसा कर पा रहे हैं तो उनको हार्दिक बधाई।

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  19. 8 - आदि मानव मांसाहारी थे इसलिए आप यह नहीं कह सकते कि यह प्रतिबंधित है मनुष्य के लिए | मनुष्य में तो आदि मानव भी आते है ना.

    बताइये भाई साहब उन जंगली मनुष्‍यों से प्रेरणा ले रहें हैं जो प्रारम्‍भ से ही पशुओं का सा ही जीवन बिता रहे थे तथा जिन्‍हे ये तक नहीं पता था कि मनुष्‍य जाति क्‍या होती है अपितु जो स्‍वयं को अन्‍य जंगली पशुओं की भांति ही समझते थे । भला जो व्‍यक्ति भक्ष्‍य अभक्ष्‍य तो क्‍या स्‍वयं अपने ही बारे में न जानता हो उसके लिये पाप क्‍या और पुण्‍य क्‍या। लेकिन आज तो विज्ञान बहुत आगे बढ़ चुका है तो फिर आ क्यों हमें हज़ारों वर्ष पीछे धकेलना चाहते हैं

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  20. @शाहनवाज़ भाई

    सवाल तो यही है की आखिर अपने जीभ के स्वाद की खातिर और अपने पेट की भूख मिटाने की खातिर किसी की जान ले लेना कैसे हलाल (जायज़) है और हराम (नाजायज़)कैसे नहीं है ?

    मांसाहार छोड़ना या अपनाना किसी का खुद का फैसला तो है लेकिन इससे मनुष्य के द्वारा एक जीव की जान ली जा रही है , अब वो बेचारे निरीह और बेजुबान जानवर हमारी आपकी तरह बोल नहीं सकते हैं की प्लीज़ हमें मत मारो ,हमें मत खाओ , हमें ही इंसान और इंसानियत के नाते उनकी आवाज़ बनना होगा और उन्हें इस नरक से मुक्ति दिलानी होगी

    और जहाँ तक बात है कुर्बानी या अन्य प्रथाओं के नाम पर माँस को गरीबों में मुफ्त बांटने की तो अगर कल को शराब ,बीडी ,गुटखा आदि भी गरीबों में मुफ्त बांटा जाने लगे तो उसे भलाई का कार्य नहीं कहा जाएगा बल्कि उससे लोगों का नुक्सान अधिक है बजाये के फायेदा

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  21. इश्वर हमें किसी भी जीव की हत्या की अनुमति कैसे दे सकता है?

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  22. शराब ,बीडी ,गुटखा आदि भी गरीबों में मुफ्त बांटा जाने लगे तो उसे भलाई का कार्य नहीं कहा जाएगा बल्कि उससे लोगों का नुक्सान अधिक है
    सत्य वचन!

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  23. बेहतरीन। लाजवाब।

    *** हिन्दी प्रेम एवं अनुराग की भाषा है।

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  24. शाह नवाज़ भाई,
    आपका अभार आप हमेशा सच कहने में विश्वास रखते है।
    थोडा सा आपके शब्दो में सुधार सुझाता हूं,अन्यथा न लें
    "इसमें मांस खाने की आज्ञा है हुक्म नहीं है"
    आज्ञा व हुक्म समानार्थी है, यहां छूट शब्द ही होना चाहिए
    मक़सद है, आपको जायज़ चीजें बता दी, लेना न लेना हमारी मर्ज़ी।

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  25. सुज्ञं जी, पीने वाले को पीने का बहाना चाहिए !

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  26. शाह नवाज़ भाई,

    कुर्बानी की यह प्रथा हज़रात इब्राहीम से सपने में अल्लाह ने कुर्बानी चाही थी, हज़रात इब्राहीम ने बेटे इशहाक़ को क़ुर्बान करने का फ़ैसला किया, फ़िर मृत कुर्बानी को देखा तो वहां एक भैडा मरा पडा था।
    आज भी हम इस घटना का अनुसरण कर रहे हैं, घटना की सीख तो यह थी कि आप कितना सिद्दत से अल्लाह को चाह्ते है,और उस पर श्रद्धा रखते हैं। अल्लाह के लिये कुछ भी असम्भव नहिं समझाने का उदाहरण था।
    वह बात समझने की जगह हम हज़रात इब्राहीम के समकक्ष खुद खडा करने का प्रयास करते है, बेटे तो कुर्बान किये नहिं जा सकते, अतः हम भैडे व बक़रे कुर्बान करते है,जबकि अल्लाह को इसकी जरूरत भी नहिं,क्योंकि अल्लाह ही तो उन्हे संसार में भेजने वाला है।

    क्षमा करना कि हजारों साल की जमीजमाई प्रथा पर लिख रहा हूं,हो सकता है लोग इसे आस्था मान कर, मुझे किसी की धार्मिक भावना पर चोट पहूंचाना कहे, पर मेरा मक़सद कुरिति के खिलाफ़ है और अनावश्यक जीवहिंसा के खिलाफ़।

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  27. Sahnavaj ji ne aur Mahak ji ne sarthak sbhado ka prayog karte huye bahut hi acchi tarah se bat ko samne rakha hai. main dono se sahmat hun

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  28. चैतन्य जी,
    आलोक जी,
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक जी,
    शाह नवाज़ जी,
    भारत विदूषक जी,
    महक जी,
    राजीव भारोल जी,
    अनुराग शर्मा जी,
    पी.सी. गोदियाल जी,
    सदा जी,
    तार्केश्वर जी,
    अहिंसा एवं जीवदया के दृष्टिकोण को समर्थन देने के लिये आप सभी का बहूत बहूत आभार!!

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  29. हंसराज जी, आपने मुदा तो बहुत बढिया उठाया..ओर उस पर महक जी नें बेहद तर्कपूर्ण तरीके से इसे आगे बढिया.....लेकिन ये सारे तर्क सिर्फ उन लोगों के लिए हैं जो समझना चाहें, सही-गलत का विश्लेषण करना चाहें....जिन लोगों का कोई दीन ईमान ही नहीं है, जिनकी आत्मा मर चुकी है, बुद्धि सड चुकी है...ऎसे लोगों के साथ तर्क-वितर्क करके भला क्या मिलने वाला है ?.... ये बुद्धि से बिल्कुल खोखले लोग हैं, जो विचार विनिमय के लिए कभी सामने नहीं आएंगें...इन लोगों को सिर्फ एक ही काम आता है कि कुछ भी अला बला लिखकर किसी मुद्दे को हवा में उछालना और उसके बाद बस दूर खडे रहकर तमाशा देखना.....

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  30. कोई फायदा नहीं!
    आप एक हजार नुकसान गिना दो वे एक हजार एक फायदे गिना देंगे मांसाहार के। ब्लॉग जगत में पहले मैने भी इस विषय पर बहस करने की कोशिश की कोई फायदा नहीं हुआ।
    व्यक्तिगत स्तर पर में लोगों को आज भी समझाता हूँ मांसाहार छोड़ने के लिए अब तक पचासों लोगों को समझा चुका बस एक ने दावा किया कि उसने मांसाहार छोड़ दिया, अब सच या झूठ भगवान जाने।

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  31. पंडित जी,
    नाहर जी,
    यदि स्वस्थ चर्चा नहिं भी होती,और न तत्काल कोई फ़ायदा नज़र आता है। पर मेरा स्पष्ठ मानना है, विचार अवश्य गति करेंगे। जो कभी बादमें अपना असर जरूर दिखायेगें। दूसरा इनके दूप्रचार का जवाब तो होगा। तीसरा, सात्विक आहार वालों की नवपीढी तो मुक्त रह पायेगी।

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  32. मासांहारी खाना खाने वाले हिंदु कहलाने के लायक ही नहीँ ऐसे लोग तो महान अपवित्र और घोर नरको मे पडते हैँ ।


    भगवान श्रीकृष्णजी के अनुसार जो व्यक्ती मांसाहार का सेवन करता हैँ, वो तामसी और पापी व्यक्ती अधोगती अर्थात नरक को प्राप्त होता हैँ।


    भगवान गिता के 17 वे अध्याय के 10 वे श्लोक मेँ कहते हैँ,


    यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्‌। उच्छिष्टमपिचामेध्यं भोजनंतामसप्रियम्‌॥


    अर्थात हे अर्जुन ! जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र अर्थात मांसाहार भी है, वह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है ॥10॥



    [ च अमेध्यम् - मांस, अण्डे आदि हिँसामय और शराब ताडी आदी निषिध्द मादक वस्तुएँ - जो स्वभावसे ही अपवित्र हैँ अथवा जिनमेँ किसी प्रकारके सङदोषसे, किसी अपवित्र वस्तु, स्थान, पात्र या व्यक्तिके संगोगसे या अन्याय और अधर्मसे उपार्जित असत् धनके द्वारा प्राप्त होने के कारण अपवित्रता आ गयी हो - उन सभी वस्तुओँको "अमेध्य" कहते हैँ। ऐसे पदार्थ देव - पुजनमेँ भी निषिध्द माने गये हैँ। ]



    और तामस लोक कौनसी गती को प्राप्त होते हैँ, ये समझाते हुये भगवान गिता के 14 वे अध्याय के 18 वे श्लोक मेँ कहते हैँ।


    ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः । जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥


    अर्थात हे अर्जुन !सत्त्वगुण में स्थित पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकों को जाते हैं, रजोगुण में स्थित राजस पुरुष मध्य में अर्थात मनुष्य लोक में ही रहते हैं और तमोगुण के कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्यादि में स्थित तामस पुरुष अधोगति को अर्थात कीट, पशु आदि नीच योनियों को तथा नरकों को प्राप्त होते हैं॥18॥



    भोजन के दो प्रकार पडते हैँ, शाकाहार और मांसाहार, शाकाहार मनुष्यो का आहार हैँ और मांसाहार राक्षस, पशु, हिंसक जानवर का आहार हैँ। पर मन्युष्य अगर मांसाहार का सेवन करेगा तो उसे भी राक्षस, कुत्ता ,कव्वा, गिधड, सिंह, बाघ, लोमडी, सियार, बिल्ली भी कहना पडेगा क्योकी, मांसाहार उनका ही तो आहार हैँ। पुरे भारत मेँ दो हीँ ऐसे राज्य हैँ


    जो भगवान श्रीकृष्णजीके वचनोँ का पालन करते हुये मांसाहार का सेवन नहीँ करते ।
    गुजरात और राजस्थान, पर जो मांसाहार का सेवन करते जाते हैँ वो लोग गिता पढे बिना ही भगवान श्रीकृष्णजीका भक्त होने का ढिँढोरा पिटते रहते हैँ।



    उन लोगो के बारे भगवान गिता के 16 वे अध्याय के 20 वे श्लोक मेँ कहते हैँ।



    आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि। मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्‌॥


    अर्थात हे अर्जुन! वे मूढ़ मुझको न प्राप्त होकर ही जन्म-जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अति नीच गति को ही प्राप्त होते हैं अर्थात्‌ घोर नरकों में पड़ते हैं ॥20॥



    और भगवान मेँ कहना ना मानने वालो के बारे कहते हैँ


    मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि। अथ चेत्वमहाङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥


    अर्थात हे अर्जुन! उपर्युक्त प्रकार से मुझमें चित्तवाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जाएगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को न सुनेगा तो नष्ट हो जाएगा अर्थात परमार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा॥18-58॥



    ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्‌ । सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥


    अर्थात हे अर्जुन! परन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खों को तू सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ॥3-32॥



    तथा श्रीमदभागवत् मेँ भी कहा गया हैँ,



    पशुं विधिनालभ्य प्रेतभूतगणान् यजन ।
    नरकानवशो जंतुर्गत्वा यात्युल्बणं तम: ॥



    [श्रीमदभागवत् स्कन्ध 11, अध्याय 10, श्लोक 28]


    अगर मनुष्य प्राणियोँको सताने लगे और विधी - विरद्ध पशुओँकी बलि देकर भुत और प्रेतोंकी उपासना मेँ लग जाय, तब तो वह पशुओंसे भी गया - बीता होकर अवश्य हीँ नरक मेँ जाता हैँ । उसे अन्त मेँ घोर अन्धकार स्वार्थ और परमार्थ से रहित अज्ञानमेँ ही भटकना पड़ता हैँ॥


    तो मांसाहारीओ जवाब दो ।

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  33. भाई
    हम सब नाहक परेशान हो रहे हैं और धर्म विशेष पर कटाक्ष कर रहे हैं। किसी दूसरे को समझाने से पहले हमारे राजाओं (क्षत्रिय) को समझाओ फिर आगे बात करेगें।

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    1. आप नाहक परेशानी झेल रहे है। जिन तक बात पहूंचानी थी पहूंचा चुके!! आगे बात का दबाव छोड दें

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  34. राम और कृष्ण के वंशजों को समझाओ फिर आगे बात करेगें।

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    उत्तर
    1. उनके वंशज तो परिशुद्ध हो रहे है, चिन्ता न करो, बात का तनाव न लो

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  35. भाई
    हम सब नाहक परेशान हो रहे हैं और धर्म विशेष पर कटाक्ष कर रहे हैं। किसी दूसरे को समझाने से पहले हमारे राजाओं (क्षत्रिय) को समझाओ फिर आगे बात करेगें।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. कहा ना, आप दबाव मत उठाओ, धर्म विशेष की चिन्ता में क्यों दुबले हुए जा रहे हो। आपको बात नहीं करनी है। ओके?

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