4 अगस्त 2010

मेरा धर्म प्रचार

क्यों मैं अपने धर्म का प्रचार करूं।
क्यों लोगो को अपने धर्म की और आकृषित करूं?
जबकि लोग तो स्वयं धर्मी है,
गुणग्राही हैं, भलाईयां ही चाहते हैं,
और करते भी है।
फ़िर क्या अच्छा है मेरे धर्म में जो कि,
पहले से ही उनके अंतरमन में नहिं है।
वासनाओं, इच्छाओं और मोह के वशीभुत,
कहीं कोई गुण यदि दबा भी पडा है तो,
मेरे धर्म का लेबल उसे और आवृत कर देगा।
धर्म किसी की बपौति नहिं,
मानवता की नेमत है,
हर बाडे में फ़लफ़ूल जायेगी।
मैं अपनी शक्ति जो लगा दूंगा,
दूसरों को स्वधर्मी बनाने में।
और वे परधर्मी गुणग्राही बन,
सद्गुणों से अपनी नैया पार लगा देंगे।
कल्याण, मुक्ति व निर्वाण पा लेंगे।
परहित सद्गुण गठरी के भार से,
मेरी नैया प्रचार के भंवर में डूब जायेगी।
आज समझ आया मेरे ही धर्म का मर्म
‘सद्भाव चरित्र बिना मुक्ति सम्भव नहिं’
और इसके लिये किसी लेबल की क्या जरूरत।

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही विचारणीय प्रस्तुती,वास्तव में किसी व्यक्ति की पहली गारंटी उस व्यक्ति का खुद का जमीर ही होता है और किसी का जमीर मर जाय या बिक जाय तो उससे सच्चाई और ईमानदारी की आशा नहीं की जा सकती है | आज धर्म हो या कोई अन्य उपाय हमसब को खुद के जमीर को जिन्दा रखकर दूसरों के भी जमीर को जिन्दा करने की यथा संभव प्रयास जरूर करना चाहिए और जिन्दा जमीर वाले इंसान की हर संभव मदद भी करनी चाहिए तथा ऐसे व्यक्ति को समाज में सम्मानित करने का भी प्रयास करना चाहिए |

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  2. मनुष्य का धर्म अपना धर्म नहीं । बल्कि सबका सनातन धर्म एक ही है ।
    मैंने आपकी कुछ और पोस्टो का भी अवलोकन किया । किसी चीज पर
    व्यंग्य करने से पहले उसे समझे । उसके बाद भी सकारात्मक चिंतन करें
    छींटाकसी कुछ देर मजा तो देती है । पर उसके दूरगामी लाभ नहीं होते हैं
    मेरे विचार से अपनी ऊर्जा को सकारात्मक उद्देश्य के लिये इस्तेमाल करना
    अधिक उचित है ।
    बुरा जो देखन मैं चला । बुरा न मिलया कोय ।
    जब दिल खोजा आपना । मुझसे बुरा न कोय ।
    कबीर सब से हम बुरे हम से बुरा न कोय ।
    जो ऐसा कर बूझिया । मित्र हमारा सोय ।
    satguru-satykikhoj.blogspot.com

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  3. राजीव जी,

    जरा स्पष्ठ तो करिए,किस छींटाकसी की तरफ़ आप ईशारा कर रहे है।

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  4. नमस्ते
    वास्तव में यही हिंदुत्व है,यही मानवता है,यही भारतीयता है.
    बहुत अच्छी कबिता है जेहन को छू जाती है.

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