शहर के नवविकसित क्षेत्र में एक संभ्रांत आवासीय सोसायटी है, नवीनतम सुविधाओ से भरपूर इस सोसायटी का नाम है, ‘ब्लॉग काम्पलेक्स’। प्रतिदिन सोसायटी के चौक में पोस्टों व टिप्पणियों का मेला सा लगता है। सभी की अपनी अपनी ‘विचारधाएं’ है। पोस्टें अपनी 'मान्यताओं' के अनुरूप रंग विशेष के वस्त्र परिधान करती है। कुछ टिप्पणियों के भी अपने अपने पसंदीदा रंग है। ये पोस्टें रंग के प्रति इतनी पूर्वाग्रही है कि लगता है, रंग ही इनकी पहचान है। वे इन्ही रंगो के नाम से पुकारी जाती है। जैसे सफ़ेदियाँ, केशरनियाँ , हरीयाँ, लालीयाँ, नीलियाँ और हाँ, पचरंगीयाँ भी। एक ही रंग पसंद वाली पोस्टों ने अपने अपने समूह बना रखे है।
इन रंगीली पोस्टो की जो बातें कानों में पडी……
-'वे जो सफ़ेदियां है ना, सफ़ेद साडी देखकर विधवा मत मान लेना, वे बडी सफ़ाई पसंद है। इसीलिये श्वेताम्बरी है।'
-हरीयां जो खुद को कुछ अधिक ही पाक-साफ़ का दिखाने का प्रयास करती है, और लम्बा सा घुंघट खीचे रहती है, जैसे मर्यादा की अम्माएँ हो। हमें पता है, घर में वो कैसी रहती है। उनका हमेशा उन केशरनिओं से झगडा चलता ही रहता है।
-ये केसरनीयां शुरू से सोसायटी में रहती आई है, सो वह इन हरीयों को भाव नहीं देती। हरीयां इसलिये भी चिढती है कि सोसायटी में कोई भी समारोह हो, उत्सव हो, केसरनीयां अपनी ही चलाती रहती है। यह तो अच्छा है कि सोसायटी कमेटी में पचरंगीयों और लालीयों का दब दबा है और पचरंगियाँ और लालियाँ, हरियों का फ़ेवर करती है, अन्यथा केसरनीयां तो हरियों को सोसायटी से निकाल कर ही दम ले।
-इन पचरंगीयों का तो भरोसा ही नहीं, कब किस करवट बैठे, इनका केसरनीयों से पता नहीं किस जनम का बैर है, इन्हे केसरनीयों की साडी में तो हज़ार नुक्स नज़र आते है, पर हरीयों की साडी से निकली चिंदियां नज़र नहीं आती। इन्हे तो हरीयां बेचारी ही लगती है।
उसी तरह लालियों का भी अज़ीब वर्ताव है, रिति-रिवाज़ तो पचरंगीयों की तरह ही है पर, एक नम्बर की ज़िद्दी, ज़िद्द को भी उसूलों की तरह मानती है। खुद कभी मंदिर वगैरह जाती नहीं, पर पता नहीं क्या डर समा गया है कि यदि कोई दूसरा चला गया तो इनका अस्तित्व ही खतरे मे पड जाता है। गरीबों को अपना पिछलगू बनाए रखने में शायद भगवान ही एक मात्र इनका प्रतिद्वंधी है। बात तो पूरी सोसायटी में समानता की करती है, लेकिन मुश्किल यह है कि समानता आती ही नहीं, मानवों के अधिकार के लिये मानवों को ही गिरा देने को तत्पर रहती है।
और नीलीयां, पता नहीं हमेशा बुझी बुझी सी रहती है, सामान्य बात भी करो तो, क्रोध इनकी आंखो में उतर आता है, बैर बदले की बातें करती रहती है, पता नहीं किससे बदला लेंगी। शायद अभावो में पली है, इसिलिये ऐसी मानसिकता बन गई है, हर समय अपने दुखडे रोती रहती है। एक बार दुखडे रोने शुरु करे तो पता भीं नहीं चलता कि बच्चों को स्कूल भेजने का समय हो गया है। पति बडे बडे पद पर है, फ़िर भी बच्चो के लिये खैराती पुस्तकें लाएँगी।
सफ़ेदीयां भी कोई कम नहीं, कुछ तो वाकई सिर्फ़ सफ़ेद साडी ही पहनती है, पर कुछ की सफ़ेद साडी पर केसरी बार्डर, तो किसी के हरा, कुछ तो मदर टेरेसा की तरह नीली बार्डर भी रखती है। कई समाज सेवा के बडे बडे काम करती है, पर सफ़ेद साडी का लाल चटाक पल्लु कमर में खौच कर छुपा लेती है।
कल सफ़ेद वाली बात कर रही थी, कि सामने वाली से चुटकी भर मिर्च मांगी तो मना कर दिया, आज कैसी मीठी मीठी बोलकर कटोरी भर चीनी ले गई, बडी चालाक है।
-लालवालीयां तो बिना मांगे ही मिर्ची घर तक देने आ जाती है, पर चीनी देने को कहो तो उनका जी जलता है।
हरी और केसरी में तो लेने देने के सम्बंध ही नहीं है, पर कोई एक भी विशेष वस्तु देने जाय तो चटाक से दूसरी बोल देती है, हमारे घर में तो पहले से ही है।
-कल एक हरी नें, उस स्वच्छ सफ़ेदी को फ़ंसा दिया, बिचारी कभी केसरानीयों के साथ नहीं रही, पर उसकी साडी पर आरेंज ज्यूस गिरा कर, बदनाम करने लगी कि यह भी केसरानीयों की टोली की है।
एक दिन सोसायटी में बाढ आ गयी, बडा गंदला पानी। पानी घरों में घुसनें लगा, सभी नें दौडकर एक उचाँई पर बडे से खुले मैदान में आश्रय लिया। चारो तरफ़ पानी ही पानी था, भीगे कपडों और ठंड के मारे बुरा हाल था। थोडी ही देर में सहायता के लिये हेलिकॉप्टर आ गये, कपडे और खाद्य सामग्री बरसाने लगे, सूखे कपडे पानें के लिये छीना-झपटी चली,जिसके हाथ जो आया पहन लिया। रंगो की पहचान खत्म हो गई। छीना-झपटी में कपडे फ़ट चुके थे।सभी को अक्ल आ चुकी थी, इस तरह तो हम स्वयं का ही नुकसान करेंगे, अन्त सुखद था, भोजन सभी ने मिल बांट कर खाया।
इन रंगीली पोस्टो की जो बातें कानों में पडी……
-'वे जो सफ़ेदियां है ना, सफ़ेद साडी देखकर विधवा मत मान लेना, वे बडी सफ़ाई पसंद है। इसीलिये श्वेताम्बरी है।'
-हरीयां जो खुद को कुछ अधिक ही पाक-साफ़ का दिखाने का प्रयास करती है, और लम्बा सा घुंघट खीचे रहती है, जैसे मर्यादा की अम्माएँ हो। हमें पता है, घर में वो कैसी रहती है। उनका हमेशा उन केशरनिओं से झगडा चलता ही रहता है।
-ये केसरनीयां शुरू से सोसायटी में रहती आई है, सो वह इन हरीयों को भाव नहीं देती। हरीयां इसलिये भी चिढती है कि सोसायटी में कोई भी समारोह हो, उत्सव हो, केसरनीयां अपनी ही चलाती रहती है। यह तो अच्छा है कि सोसायटी कमेटी में पचरंगीयों और लालीयों का दब दबा है और पचरंगियाँ और लालियाँ, हरियों का फ़ेवर करती है, अन्यथा केसरनीयां तो हरियों को सोसायटी से निकाल कर ही दम ले।
-इन पचरंगीयों का तो भरोसा ही नहीं, कब किस करवट बैठे, इनका केसरनीयों से पता नहीं किस जनम का बैर है, इन्हे केसरनीयों की साडी में तो हज़ार नुक्स नज़र आते है, पर हरीयों की साडी से निकली चिंदियां नज़र नहीं आती। इन्हे तो हरीयां बेचारी ही लगती है।
उसी तरह लालियों का भी अज़ीब वर्ताव है, रिति-रिवाज़ तो पचरंगीयों की तरह ही है पर, एक नम्बर की ज़िद्दी, ज़िद्द को भी उसूलों की तरह मानती है। खुद कभी मंदिर वगैरह जाती नहीं, पर पता नहीं क्या डर समा गया है कि यदि कोई दूसरा चला गया तो इनका अस्तित्व ही खतरे मे पड जाता है। गरीबों को अपना पिछलगू बनाए रखने में शायद भगवान ही एक मात्र इनका प्रतिद्वंधी है। बात तो पूरी सोसायटी में समानता की करती है, लेकिन मुश्किल यह है कि समानता आती ही नहीं, मानवों के अधिकार के लिये मानवों को ही गिरा देने को तत्पर रहती है।
और नीलीयां, पता नहीं हमेशा बुझी बुझी सी रहती है, सामान्य बात भी करो तो, क्रोध इनकी आंखो में उतर आता है, बैर बदले की बातें करती रहती है, पता नहीं किससे बदला लेंगी। शायद अभावो में पली है, इसिलिये ऐसी मानसिकता बन गई है, हर समय अपने दुखडे रोती रहती है। एक बार दुखडे रोने शुरु करे तो पता भीं नहीं चलता कि बच्चों को स्कूल भेजने का समय हो गया है। पति बडे बडे पद पर है, फ़िर भी बच्चो के लिये खैराती पुस्तकें लाएँगी।
सफ़ेदीयां भी कोई कम नहीं, कुछ तो वाकई सिर्फ़ सफ़ेद साडी ही पहनती है, पर कुछ की सफ़ेद साडी पर केसरी बार्डर, तो किसी के हरा, कुछ तो मदर टेरेसा की तरह नीली बार्डर भी रखती है। कई समाज सेवा के बडे बडे काम करती है, पर सफ़ेद साडी का लाल चटाक पल्लु कमर में खौच कर छुपा लेती है।
कल सफ़ेद वाली बात कर रही थी, कि सामने वाली से चुटकी भर मिर्च मांगी तो मना कर दिया, आज कैसी मीठी मीठी बोलकर कटोरी भर चीनी ले गई, बडी चालाक है।
-लालवालीयां तो बिना मांगे ही मिर्ची घर तक देने आ जाती है, पर चीनी देने को कहो तो उनका जी जलता है।
हरी और केसरी में तो लेने देने के सम्बंध ही नहीं है, पर कोई एक भी विशेष वस्तु देने जाय तो चटाक से दूसरी बोल देती है, हमारे घर में तो पहले से ही है।
-कल एक हरी नें, उस स्वच्छ सफ़ेदी को फ़ंसा दिया, बिचारी कभी केसरानीयों के साथ नहीं रही, पर उसकी साडी पर आरेंज ज्यूस गिरा कर, बदनाम करने लगी कि यह भी केसरानीयों की टोली की है।
एक दिन सोसायटी में बाढ आ गयी, बडा गंदला पानी। पानी घरों में घुसनें लगा, सभी नें दौडकर एक उचाँई पर बडे से खुले मैदान में आश्रय लिया। चारो तरफ़ पानी ही पानी था, भीगे कपडों और ठंड के मारे बुरा हाल था। थोडी ही देर में सहायता के लिये हेलिकॉप्टर आ गये, कपडे और खाद्य सामग्री बरसाने लगे, सूखे कपडे पानें के लिये छीना-झपटी चली,जिसके हाथ जो आया पहन लिया। रंगो की पहचान खत्म हो गई। छीना-झपटी में कपडे फ़ट चुके थे।सभी को अक्ल आ चुकी थी, इस तरह तो हम स्वयं का ही नुकसान करेंगे, अन्त सुखद था, भोजन सभी ने मिल बांट कर खाया।
हंस राज जी,
जवाब देंहटाएंभाई साहेब ई टिप्पणी कौम के जनाना लोग को आप छोटा बनाके बहुत ग़लत का किए हैं...अऊर ईत अऊरो गलत बात है कि इनका काम पोस्टवाली मैडम के घर पर काम करना है... असल में एही टिप्पणी नाम का महिला लोग असली ब्लॉग सोसाइटी की ओनर हैं... अगर नहीं आएँ त ई सब पोस्ट लोग के घर में चूल्हा नहीं जलेगा..सोच अच्छा है!!
सलिल साहेबा जी,
जवाब देंहटाएंवही तो हम कह रहे है,
देखन में छोटन लगे,घाव करे गम्भीर !!
वाह जनाब!
जवाब देंहटाएंआपने तो हमरा जेंडरे चेंज कर दिया..साहेब से साहेबा बना दिया..
ई जेंडर चेंज नहिं ना,बडै प्यार से ललकारा हूं साहेबा!!
जवाब देंहटाएंकरारा व्यंगय है यह ब्लोग जगत पर
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंराजभाषा हिन्दी के प्रचार प्रसार मे आपका योगदान सराहनीय है।
बहुत बढ़िया जनाब!
जवाब देंहटाएं--
अगली कड़ी का इन्तजार है!
jab aapne samjhaaya to hamein samajh mein aaya...
जवाब देंहटाएंvyang accha hai...rangon ke prayog se vibhinn prakaar tippaniyon aur tippani kartagan ki sahi vivechna kar gaye aap...
bas itna kahungi ki spasht nahi hone ke karan log ise galat disha mein le jaa rahe the...
aapna aabhaar...
धन्यवाद अदा जी,
जवाब देंहटाएंआपने सही परिपेक्ष में समझा।
वस्तुत: हुआ यह कि माननिय सलिल जी ने प्रारंभ में ही चुहल कर दी।
लोगों ने पोस्ट पढे बिना ही अभिप्राय दे दिया।
जवाब देंहटाएंहंसराज जी, सचमुच आपकी लेखनी के तेवर काबिले दाद हैं।
…………..
अंधेरे का राही...
किस तरह अश्लील है कविता...
धन्यवाद ज़ाकिर साहब,
जवाब देंहटाएंरंगो के माध्यम से पोस्टों की विचारधाराओ को समझने का प्रयास करें तो वाकई आनंद आएगा।
ब्लाग4वार्ता में चर्चा पर डालने के लिये धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंरंगों का रंग समझे बिना कटाक्ष का रंग समझ पाना संभव नहीं. दर असल, आपका पहला पैरा ही लोगों को भड़का दे रहा है तो पूरी पोस्ट पढ़ते समय वही हाबी रहता है.
जवाब देंहटाएंहो जाता है, शुभकामनाएँ.
समीर जी,
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद, आपने त्रृटि की ओर इंगित किया।
मै परेशान था कि आखिर गडबड कहां है।
एक अच्छा लेखक बनने के लिये लगता है बहुत पापड बेलने होंगे।
मैं पुनः इस व्यंग्य पर काम करूंगा।
आभार
अपने मनोभावों को बहुत बहुत जोरदार शब्द दिए हैं।
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