28 मार्च 2013

शिष्टाचार

पाश्चात्य देशों में जो 'शिष्टाचार' बहुप्रशंसित है। वह 'शिष्टाचा'र वस्तुतः भारतीय अहिंसक जीवन मूल्यों की खुरचन मात्र है। भारतीय अहिंसक मूल्यों में नैतिकता पर जोरदार भार दिया गया है। पाश्चात्य शिष्टाचार उन्ही नैतिक आचारों के केवल अंश है। पश्चिम ने सभ्यता और विकास के अपने सफर में यह शिष्टाचार, भारतीय अहिंसा के सिद्धांत से ही तो ग्रहण किए है। उनके लिये जितना भी अहिंसा का पालन  "सुविधाजनक" था, इतना अपना लिया। जो दूभर था छोड दिया। परिणाम स्वरूप, उनका वह सहज अहिंसक आचरण,  शिष्टाचार के स्वरूप में स्थापित हो गया।

जबकि भारत में यह अहिंसा पालन और नैतिक आचरण किताबों में कैद और उपदेशों तक सीमित हो गया। क्योंकि पालन बड़ा कठीन था और मानवीय स्वभाव सदैव से सरलतागामी और सुविधाभोगी रहा है। हमें अहिंसा कठिन तप लगने लगी और नैतिकता दुष्कर और दूरह। नैतिक निष्ठा से दूर होकर हम, उस पतन की ओर ढ़लने लगे जो हमें बिना किसी विशेष परिश्रम के, सुखदायक स्थिति में रखता था। इस प्रकार सुविधाभोगी मानस से नैतिक आचरण तो गया ही गया, उसके अंश स्वरूप का शिष्टाचार भी हमारे जीवन से तिरोहित हो गया।

वस्तुतः सदाचरण हमारे जीवन को मंगलमय रखता है। शान्ति फैलाता है और जीवन संघर्ष के कितने ही तनावों से मुक्त रखता है, इसलिए कल्याणकारी है। इसका पालन कठिन है, लेकिन इस गुण के लाभ देखकर इसके प्रति आकर्षण हमेशा ही बना रहता है। इसी कारण पाश्चात्य शिष्टाचार के प्रति हमें अहोभाव होता है। किन्तु सदाचार का मूल ‘अहिंसा’ जो हमारी भारतीय संस्कृति का सुदृढ़ आधार था, हम विस्मृत कर बैठे। हम इतने सुविधाभोगी हो गए कि अहिंसा का विचार भी हमें अव्यवहारिक और अति समान प्रतीत होता है, जबकि शिष्टाचार के प्रति चाहने मात्र को आकर्षण बना रहता है। इसलिए हमें लगता है कि अगर पश्चिम से शिष्टाचार के गुर सीख लिए तो भयो भयो।

अहिंसा गंगोत्री है, सदाचरण और नैतिक आचरण की। उसके प्रबल प्रवाह से घबराकर हमने उसे मुख पर ही बांध दिया है, फिर भी उससे निकलती सदाचार की स्वच्छ धाराएँ है किन्तु उसे भी हमने गंदला कर दिया है। उन्ही धाराओं से अंश रूप भरा शिष्टाचार रूपी छोटी बोतल का पानी हमें सुहाने लगा है।

श्रेष्ठ संस्कृति पर मात्र गर्व लेने से कुछ नहीं होगा। जो गर्विला खजाना था वह तो कबका गर्त में गढ़ चुका है। पुनः श्रम कर खोद निकालना होगा, व्यर्थ धूल कचरा झाड़ना होगा। और दृढ मनोबल से उसे चलन में लाना होगा। कठिनाईयां तो असंख्य आएगी, पहले पहल तो शायद कीमत भी पूरी न मिले। लेकिन अन्ततः सतत उपयोग से आचार-स्मृद्धि आएगी ही। तब उस श्रेष्ठ आचार समृद्धि पर अवश्य गर्व लिया जा सकता है।

हम, पोलिश कर चमकाए गए एक दो ओंस के हीरे पर मोहित हो रहे है जबकि हमारे पास हीरे की पूरी खदान मौजूद है, बस हम उसके अस्तित्व और उपादेयता से अनभिज्ञ है। हमें परख ही नहीं है।

अब अहिंसा और नैतिकता से मुंह बिचकाना छोडिये, वह निधि है, वह हमारी जड़ें है। यह कभी भी गुजरे जमाने की बात नहीं हो सकती। उलट अहिंसा तो सभ्यता, विकास, शान्ति और चिरस्थायी सुख का मेरूदंड़ है।

25 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही बेहतरीन और सार्थक प्रस्तुति,अहिंसा परमो धर्म.

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  2. सटीक और सार्थक आलेख ..हमारी ही चीज़ को हमसे ही लेकर वह जरा पोलिश करके हमें ही बेच देते हैं. और हम बड़े गर्व से उसे ले लेते हैं.

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  3. सार्थक आलेख....
    आपको होली की हार्दिक शुभकामनायें!

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  4. 'अहिंसा गंगोत्री है, सदाचरण और नैतिक आचरण की।' बिल्कुल सही कहा सुज्ञ जी। शिष्टाचार हमारी सांस्कृतिक धरोहर है, उस पर आपने लेख में प्रकाश डाला है। आपकी साहित्यिकङ नैतिक और वैचारिक रूचि को प्रणाम।

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  5. हमसे अधिक नैतिक हो गये हैं पश्चिमी देशों के लोग. हम तो दिखावा करने वाले रह गये हैं.

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  6. 'अहिंसा गंगोत्री है, सदाचरण और नैतिक आचरण की।'सुन्दर अभिव्यक्ति
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  7. विचारपरक आलेख
    सार्थक सच
    बधाई

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  8. सारगर्भित... हम बस अपनी जड़ों से जुड़ें रहें , बहुत समृद्ध हैं हर तरह से ...

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  9. aapki posts se bahut aasha bandhati hai...

    "manasa vaacha karmana" vaale rakesh ji ke bare me kisee ko koi khabar hai ? ve theek hain ?

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  10. सुन्दर लेख. अपने देश में वर्तमान के बदलते सामजिक परिवेश में आपके इंगित बिन्दुओं पर सचमुच ध्यान देने की ज़रुरत है.

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  11. कृत्रिम शिष्टाचार से अधिक महत्वपूर्ण है, विचारों का शिष्ट होना।

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  12. हमारा ज्ञान आयातित हो पुनः पहुँचता है तब हम उसकी क़द्र करते हैं . नैतिकता सिर्फ किताबों में लिखने पढने के लिए ही न हो !

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  13. सार्थकता लिये सशक्‍त प्रस्‍तुति

    आभार

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  14. सुज्ञ जी! सरल शब्दों में बहुत ही गहरी और सच्ची बात कही आपने.. वैसे भी जब कोई राष्ट्र या समाज जब अपनी सभ्यता, नैतिकता, संस्कृति या गौरव का 'भूतकाल' में उल्लेख करता है, तभी मान लेना चाहिए कि उन सभी मूल्यों का पतन हो चुका है.. हमारे साथ भी यही लागू होता है..
    और अहिंसा को तो हमने शीर्षासन करती हुई हिंसा का पर्याय बना दिया है.. अहिंसक आंदोलन के लिए आमरण अनशन क्या स्वयं को मार डालने जैसी हिंसा की घोषणा नहीं???

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  15. -----अहिंसा का सदाचरण व नैतिकता की गंगोत्री से क्या सम्बन्ध ...वह स्वयं नैतिकता का एक अंग है ...
    -----शिष्टाचार छोटी बोतल क्यों है वह तो नैतिकता व सदाचरण का अन्य रूप है .....शिष्टाचार व अहिंसा में भी परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं है..
    ----- शब्दों व अर्थ-प्रतीति व भावों का कोई तालमेल नहीं है इस उक्ति में .... सब कुछ अस्पष्ट है ...सिर्फ अहिंसा को बिना व्याख्या महिमा-मंडित करने हेतु निरर्थक शब्दों का अतार्किक प्रयोग है..
    ---इतना बड़ा आलेख ..अहिंसा व शिष्टाचार के सम्बन्ध को स्पष्ट करने में सफल नहीं है सिवाय इसके कि अहिंसा भारतीय भाव है और अब भारत में भी भूल चले हैं...
    --- वस्तुतः सुज्ञ जी कहना चाहते हैं कि विदेशी शिष्टाचार ..कृत्रिम शिष्टाचार है जैसा प्रवीण पांडे जी ने कमेन्ट से स्पष्ट किया है ...पर शिष्टाचार न तो देशी होता है न विदेशी न भारतीय न पाश्चात्य वह तो स्वयं में एक मानवीय गुण है....

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    1. एक बार फिर से देखिए, सम्बंध है पानी!! इन सभी सद्गुणों को जल के विभिन्न स्वरूपों से उपमित कर उसकी श्रेणी को स्पष्ट किया गया है. गंगोत्री अर्थात मूल स्रोत जो अहिंसा है वह इन सभी गुणों का स्रोत है. नैतिकताएँ व सदाचरण जल-धाराएँ है और शिष्टाचार बोतलबंद पानी. शिष्टाचार मेँ मात्र सभ्य व्यवहार और वर्तन ही अभिप्रेत है नैतिकताएँ व सदाचरण उससे उपर की पायदान पर है क्योंकि नैतिकता में शुभ विचार और पर-कल्याण भाव है और सदाचरण में सत्य विवेक पूर्ण आचरण का भाव. इन दोनो धाराओं का स्रोत है अहिंसा.क्योंकि यह सारे शुभ आचरण अहिंसा को सुदृढ करने के लिए ही होते है. अहिंसा, मनसा,वयसा,कर्मणा तीनो प्रकार से परिपूर्ण है. मानसिक चोट पहूँचाना, वचनो से चोट पहूँचाना,शारिरिक चोट पहूँचाना या प्राण हरना हिंसा है प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, हिंसा प्रेरणा या उत्तेजन सभी इसमें समाहित है. किसी का भी न्यूनाधिक अहित न करना न सोचना अहिंसा है.और इस अहिंसा को निभाने के मात्र मार्ग है नैतिकता और सदाचरण. नैतिकता का सम्बंध मानसिक शुभ विचार से है और सदाचरण का सम्बंध शुभ व्यवहार या आचरण से है.

      यहाँ कृत्रिम शिष्टाचार का आशय नहीं है, यहाँ मानवीय गुण शिष्टाचार की ही बात हो रही है और पश्चिम के शिष्टाचार को श्रेष्टतम कहकर सराहा जाता है और यह भी कहा जाता है कि मानवीय गुणों में शिष्टाचार ही सब कुछ है. यहाँ मात्र उसी को स्पष्ट किया जा रहा है कि इस सभ्य आचार (शिष्टाचार) से भी बडा मानवीय गुण है अहिंसा. और वही मूल स्रोत है.

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    2. ---देवेन्द्र जी ने लिखा...मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्।।...सचमुच समस्त शिष्टाचार का मूल है..अहिंसा का भी ....
      --- पता नहीं यहाँ पानी कहाँ से आगया ...सदगुणों की श्रेणियां नहीं हुआ करतीं सुज्ञ जी...

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    3. ठीक है, डॉक्टर साहब!!

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  16. बिहारी जी ..हिंसा का अर्थ क्या है ....मारदालना नहीं अपितु किसी को भी कैसी भी हानि पहुंचाना है .... अहिंसा परमो धर्म या मा हिंसी ...से यही अर्थ है कि किसी अन्य को हानि न पहुंचाना ....
    --- सभी तप, त्याग, स्वाध्याय , यम-नियम आदि में स्वयं को कष्ट होता है ...तप का अर्थ ही स्वयं कष्ट उठाना होता है ...अतः यदि आमरण अनशन हिंसा है तो ये सब तप आदि भी हिंसा होंगे और गान्धीजी पूरे हिंसक ..

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  17. @ कठिनाईयां तो असंख्य आएगी -
    कठिनाईयाँ ही आयेंगी भैया जी, नोबेल पुलित्ज़र तो आने से रहे :)

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  18. सहमत हूं आपकी बात से ... पर आज भी उन्ही अंशों को पाश्चात्य ने संभाला हुआ है ... जबकि हमने अपनी गंगोत्री को भी व्यर्थ जाने दिया है ...

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  19. सर्वे भवन्तु सुखिनः। सर्वे सन्तु निरामयाः।
    सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्।।

    ..शिष्टाचार का मूल मंत्र तो इस वैदिक सूक्ति में ही छुपा हुआ है।

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