किसी भी व्यक्ति में शरीर का बल तो आवश्यक है; पर उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण उसमें चरित्रबल अर्थात शील है। यदि यह न हो, तो अन्य सभी शक्तियाँ भी बेकार हो जाती हैं। प्राचीन भारतीय साहित्य में प्रह्लाद की कथा आती है, जो शील के महत्त्व बखुबी स्थापित करती है।
राक्षसराज प्रह्लाद ने अपनी तपस्या एवं अच्छे कार्यों के बल पर देवताओं के राजा इन्द्र को गद्दी से हटा दिया और स्वयं राजा बन बैठा। इन्द्र परेशान होकर देवताओं के गुरु आचार्य वृहस्पति के पास गये और उन्हें अपनी समस्या बतायी। वृहस्पति ने कहा कि प्रह्लाद को ताकत के बल पर तो हराया नहीं जा सकता। इसके लिए कोई और उपाय करना पड़ेगा। वह यह है कि प्रह्लाद प्रतिदिन प्रात:काल दान देते हैं। उस समय वह किसी याचक को खाली हाथ नहीं लौटाते। उनके इस गुण का उपयोग कर ही उन्हें पराजित किया जा सकता है। इन्द्र द्वारा जिज्ञासा करने पर आचार्य वृहस्पति ने आगे बताया कि प्रात:काल दान-पुण्य के समय में तुम एक भिक्षुक का रूप लेकर जाओ। जब तुम्हारा माँगने का क्रम आये, तो तुम उनसे उनका चरित्र माँग लेना। बस तुम्हारा काम हो जाएगा।
इन्द्र ने ऐसा ही किया। जब उन्होंने प्रह्लाद से उनका शील माँगा, तो प्रह्लाद चौंक गये। उन्होंने पूछा - क्या मेरे शील से तुम्हारा काम बन जाएगा ? इन्द्र ने हाँ में सिर हिला दिया। प्रह्लाद ने अपने शील अर्थात् चरित्र को अपने शरीर से जाने को कह दिया। ऐसा कहते ही एक तेजस्वी आकृति प्रह्लाद के शरीर से निकली और भिक्षुक के शरीर में समा गयी। पूछने पर उसने कहा - मैं आपका चरित्र हूँ। आपके कहने पर ही आपको छोड़कर जा रहा हूँ। कुछ समय बाद प्रह्लाद के शरीर से पहले से भी अधिक तेजस्वी एक आकृति और निकली। प्रह्लाद के पूछने पर उसने बताया कि मैं आपका शौर्य हूँ। मैं सदा से शील वाले व्यक्ति के साथ ही रहता हूँ, चूँकि आपने शील को छोड़ दिया है, इसलिए अब मेरा भी यहाँ रहना संभव नहीं है। प्रह्लाद कुछ सोच ही रहे थे कि इतने में एक आकृति और उनके शरीर को छोड़कर जाने लगी। पूछने पर उसने स्वयं को वैभव बताया और कहा कि शील के बिना मेरा रहना संभव नहीं है। इसलिए मैं भी जा रहा हूँ। इसी प्रकार एक-एक कर प्रह्लाद के शरीर से अनेक ज्योतिपुंज निकलकर भिक्षुक के शरीर में समा गये।
प्रह्लाद निढाल होकर धरती पर गिर गये। सबसे अंत में एक बहुत ही प्रकाशमान पुंज निकला। प्रह्लाद ने चौंककर उसकी ओर देखा, तो वह बोला - मैं आपकी राज्यश्री हूँ। चँकि अब आपके पास न शील है न शौर्य; न वैभव है न तप; न प्रतिष्ठा है न सम्पदा। इसलिए अब मेरे यहां रहने का भी कोई लाभ नहीं है। अत: मैं भी आपको छोड़ रही हूँ। इस प्रकार इन्द्र ने केवल शील लेकर ही प्रह्लाद का सब कुछ ले लिया।
नि:संदेह चरित्रबल मनुष्य की सबसे बड़ी पूँजी है। चरित्र हो तो हम सब प्राप्त कर सकते हैं, जबकि चरित्र न होने पर हम प्राप्त वस्तुओं से भी हाथ धो बैठते हैं।
विदेशेसु धनम् विद्या... व्यसानेसु धनम् मतिः ।
परलोके धन: धर्मम् ... ""शीलम"" सर्वत्रवे धनम् ॥
बहुत ही सुन्दर पोस्ट है सुज्ञ जी. चरित्र वाकई मनुष्य की सबसे बड़ी पूँजी है. मजबूत चरित्र के लोग बहुत दूर तक जाते हैं, बहुत देर तक टिकते है.
जवाब देंहटाएंपुराने समय में तो यह सत्य था सुज्ञ जी, सनातन सत्य भी यही हो तो और अच्छा।
जवाब देंहटाएंचरित्र की मज़बूती जीवन में हर गुण को समाहित कर लेती है....
जवाब देंहटाएंचरित्रबल सर्वोपरी है,बेहतरीन आलेख.
जवाब देंहटाएंpranam aapko - sundar kathaa ...
जवाब देंहटाएंचरित्र की पूंजी वास्तविक पूंजी है जिसकी बात करने के लिए आत्मबल की आवश्यकता होती है और असली चेहरे की जरूरत भी . आपने सामयिक आलेख लिखा है बधाई
जवाब देंहटाएंआत्मबल और चरित्र ही मनुष्य की पूजीं है,इसके बिना मनुष्य का जीवन निरर्थक है ,,,
जवाब देंहटाएंहोली की हार्दिक शुभकामनायें!
Recent post: रंगों के दोहे ,
सच का, चरित्र न रहने से सब जीवन से चला जाता है।
जवाब देंहटाएंसच तो है , मगर चरित्र का पैमाना निर्धारित कैसे हो !!
जवाब देंहटाएंचरित्र का पैमाना निर्धारित करना बहुत ही आसान है, वो जो कोई भी, आदर्श अपनाए या न अपनाए किंतु वर्ज्य की दृढ मनोबल से वर्जना करता रहे. कथनी और करनी में समरूपता हो और लोग उसके आचार व विचार पर निश्चिंत हो आस्था धर सके.
हटाएं