पुराने जमाने की बात है। एक शिष्य अपने गुरु के आश्रम में कई वर्षों तक रहा। उसने उनसे शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया। एक दिन उसने देखा कि उसके गुरु पानी पर चले आ रहे हैं। यह देखकर उसे बहुत हैरानी हुई। जब गुरु पास में आए तो वह उनके पैरों पर गिरकर बोला, 'आप तो बड़े चमत्कारी हैं। यह रहस्य आपने अब तक क्यों छिपाए रखा? कृपया मुझे भी यह सूत्र बताइए कि पानी पर किस प्रकार चला जाता है, अन्यथा मैं आप के पैर नहीं छोडूंगा?' गुरु ने कहा, 'उसमें कोई रहस्य नहीं है। बस भरोसा करने की बात है। श्रद्धा चाहिए। श्रद्धा हो तो सब कुछ संभव है। इसके लिए उसका नाम स्मरण ही पर्याप्त है जिसके प्रति तुम भक्ति रखते हो।
'वह शिष्य अपने गुरु का नाम रटने लगा। अनेक बार नाम जपने के बाद उसने पानी पर चलने की बात सोची पर जैसे ही पानी में उतरा डुबकी खा गया। मुंह में पानी भर गया। बड़ी मुश्किल से बाहर आया। बाहर आकर वह बड़ा क्रोधित हुआ। गुरु के पास जाकर बोला, 'आपने तो मुझे धोखा दिया। मैंने कितनी ही बार आप का नाम जपा, फिर भी डुबकी खा गया। यों मैं तैरना भी जानता हूं। मगर मैंने सोचा कि बहुत जप लिया नाम। अब तो पूरी हो गई होगी श्रद्धा वाली शर्त और जैसे ही पानी पर उतरा डूबने लगा। सारे कपड़े खराब हो गए। कुछ बात जंची नहीं। ' गुरु ने कहा, 'कितनी बार नाम का जाप किया?' शिष्य ने कहा, ' हजार से भी ऊपर। किनारे पर खड़े- खड़े भी किया। पानी पर उतरते समय भी और डूबते-डूबते भी करता रहा।
' गुरु ने कहा, 'बस तुम्हारे डूबने का यही कारण है। मन में सच्ची श्रद्धा होती तो बस एक बार का जाप ही पर्याप्त था। मात्र एक बार नाम ले लेते तो बात बन जाती। सच्ची श्रद्धा गिनती नहीं अपने ईष्ट के प्रति समर्पण मांगती है।
'वह शिष्य अपने गुरु का नाम रटने लगा। अनेक बार नाम जपने के बाद उसने पानी पर चलने की बात सोची पर जैसे ही पानी में उतरा डुबकी खा गया। मुंह में पानी भर गया। बड़ी मुश्किल से बाहर आया। बाहर आकर वह बड़ा क्रोधित हुआ। गुरु के पास जाकर बोला, 'आपने तो मुझे धोखा दिया। मैंने कितनी ही बार आप का नाम जपा, फिर भी डुबकी खा गया। यों मैं तैरना भी जानता हूं। मगर मैंने सोचा कि बहुत जप लिया नाम। अब तो पूरी हो गई होगी श्रद्धा वाली शर्त और जैसे ही पानी पर उतरा डूबने लगा। सारे कपड़े खराब हो गए। कुछ बात जंची नहीं। ' गुरु ने कहा, 'कितनी बार नाम का जाप किया?' शिष्य ने कहा, ' हजार से भी ऊपर। किनारे पर खड़े- खड़े भी किया। पानी पर उतरते समय भी और डूबते-डूबते भी करता रहा।
' गुरु ने कहा, 'बस तुम्हारे डूबने का यही कारण है। मन में सच्ची श्रद्धा होती तो बस एक बार का जाप ही पर्याप्त था। मात्र एक बार नाम ले लेते तो बात बन जाती। सच्ची श्रद्धा गिनती नहीं अपने ईष्ट के प्रति समर्पण मांगती है।
आभार आदरणीय-
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया -
सच्ची श्रद्धा गिनती नहीं अपने ईष्ट के प्रति समर्पण मांगती है।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सच
आभार इस प्रस्तुति के लिये
सादर
सच्ची श्रद्धा गिनती नहीं अपने ईष्ट के प्रति समर्पण मांगती है,इसके लिए उसका नाम स्मरण ही पर्याप्त है जिसके प्रति तुम भक्ति रखते हो
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सच
श्रधा के बिना भक्ति बेकार है,बहुत ही शिक्षापूर्ण प्रस्तति.
जवाब देंहटाएंआपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति मंगलवारीय चर्चा मंच पर ।।
जवाब देंहटाएंआभार रविकर जी!!
हटाएंसच्ची श्रद्धा ईष्ट के प्रति समर्पण मांगती है ,,,
जवाब देंहटाएंRecent post: रंग गुलाल है यारो,
श्रद्धा के सच्चे अर्थ ..... सुंदर बोधकथा
जवाब देंहटाएंसच्ची श्रद्धा !
जवाब देंहटाएंसच्ची श्रद्धा अपने ईष्ट के प्रति समर्पण मांगती है............वाह…………… आपकी बोध कथाओं से बहुत कुछ सीखने को मिलता है.
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'मानव इतिहास में कोई भी अपने ईष्ट के प्रति सच्ची श्रद्धा व समर्पण रखने वाला नहीं हुआ... क्योंकि पानी पर चलते देखा तो कोई नहीं गया... हालांकि किस्से तमाम हैं'... :)
नहीं, ऊपर लिखा सच नहीं है, जिनमें श्रद्धा थी, उन्होंने नौकायें व जहाज बनाये !
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प्रवीण शाह जनाब,
हटाएंसोचो कि आप कहीं जाना चाहते है और किसी से जानकारी पाने के लिए प्रश्न करते है कि "यह सड़क कहाँ जाएगी?" और सामने वाला बंदा कहता है कि "यह सड़क कहीं नहीं जाएगी, यहीं पडी रहेगी" तो आप भड़क उठेंगे, लेकिन क्या कहेंगे- नहीं, यह सच नहीं है।
इसलिए प्रतीकों और प्रतीकात्मक बात का उसी गेय दृष्टि से अनुशीलन करना चाहिए। 'पानी पर चलने' की बात प्रतीक है तिरने का, प्रतीक है पार होने के पुरूषार्थ का। यही ज्ञान-दर्शन पाने के लिए शिष्य को आस्था व आत्मविश्वास चाहिए। इष्ट हो सकता है गुरू, उसका दिया ज्ञान-विज्ञान्। उसके निष्कर्षों पर श्रद्धा व समर्पण। क्योंकि वही आस्था उसका संबल संघर्ष करवाती है और सफलता के लक्ष्य पर दृढ रखती है।
इसी तरह ईश-आस्था भी आत्मविश्वास का प्रेरक बल बनती है, प्रायः देखा गया है कि आस्तिकों-आस्थावानों ने प्रबल पुरूषार्थ भी किए, बहुत कम ऐसे उदाहरण मिलेंगे जिसमें आस्थावान आलसी बन सभी कुछ राम भरोसे छोड़ बैठा रहा। ईश-आस्था निराशा के क्षणों में भी चमत्कार की तरह आत्मबल और आत्मविश्वास की उर्ज़ा भर देती है। ईश्वर भी अमूर्त है तो आस्था भी अमूर्त है और प्रेरणाबल भी अमूर्त। सभी को लक्ष्य तिर कर पाना है, किन्तु ऐसे संघर्ष और पुरूषार्थ, असम्भाव्य समान कठिन होते है, पानी पर चलने के समान्।
अद्भुत. समर्पण का एक किस्सा तो झारखण्ड का ही है जिसमें एक किसान ने अकेले ही पहाड़ काटकर सड़क बना दी.
जवाब देंहटाएंसच है, नहीं तो जीवन के जीवन व्यर्थ हैं...
जवाब देंहटाएंअक्सर अपने ही कामों से
जवाब देंहटाएंहम अपनी पहचान कराते
नस्लें अपने खानदान की
आते जाते खुद कह जाते !
चेहरे पर मुस्कान,ह्रदय से गाली देते,अक्सर मीत !
कौन किसे सम्मानित करता,खूब जानते मेरे गीत
सच्ची बात।
जवाब देंहटाएंacchaa sandesh..jeewan mein utarne ke liye
जवाब देंहटाएंप्रेरक प्रसंग ।
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जवाब देंहटाएंसादर जन सधारण सुचना आपके सहयोग की जरुरत
साहित्य के नाम की लड़ाई (क्या आप हमारे साथ हैं )साहित्य के नाम की लड़ाई (क्या आप हमारे साथ हैं )
सुंदर बोध कथा. समर्पण का सही अर्थ समझा जाती है यह कथा.
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